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गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008

व्यन्ग्य --था इश्क नहीं आसां

था इश्क नहीं आसां
0प्रेम जनमेजय

मेरे नाम में प्रेम शब्द अवश्य है पर मैंनें प्रेम-विवाह नहीं किया है । मैं नाम का ही प्रेम हूं । जैसे जनसेवकों से जनता, न्यायालय से न्याय, सुरक्षा कर्मियों से सुरक्षा, थाने से शिष्टाचार और पढ़ाने वालों से पढ़ाना दूर रहता है वैसी ही भूमिका मेरे जीवन में प्रेम की रही है ।
दोष मेरा नहीं है, मेरे समय का है। मेरा समय ही ऐसा था कि उसमें इश्क करना आसान नहीं था। चचा गालिब ने तो इश्क को आग का दरिया कह डाला था । ये इसी आग के दरिया का कमाल है कि उस समय हीर- रांझा, लैला-मजनूं, शीरी-फरहाद पैदा हुए और मेरी तरह नाम के ही प्रेम रहे ।
मेरे एक मित्र जीवन भर एक छोटा-सा भ्रष्टाचार नहीें कर पाये क्योंकि उन्हें भ्रष्टाचार करने का अवसर ही नहीं मिला । अब साहब जनगणना विभाग में कोई क्या भ्रष्टाचार करेगा। ज्यादा से ज्यादा छोटी -मोटी चोरी कर सकता है, बिना छुट्टी लिये घर बैठ सकता है और जनगणना के बहाने कुछ सुंदरियों को ताक सकता हैॅ । मेरी मांग है कि जब विदेशी निवेशकों को हमें लूटने के अवसर प्रदान किये जा रहे हैं तो देशी सेवकों को भी भ्रष्टाचार के समान अवसर मिलने ही चाहियें। देश में अमेरिकी प्रभाव से सच्चा पूंजीवाद तभी आएगा हर विभाग में भ्रष्टाचार के समान अवसर उपलब्ध होंगेे । जिस विभाग में भ्रष्टाचार के अवसर न हों उस विभाग के लोगों को आरक्षण की वैसी ही सुविध प्रदान की जाये जैसी अति महत्वपूर्ण लोगों को जेड स्क्योरिटी प्रदान की जाती है ।
मेरे एक और मित्रा हैं, राधेलाल जो भ्रष्टाचार-निरोधक कार्यालय में देश की सेवा कर रहे है । उनके विभाग में भ्रष्टाचार का वसंत बारह महीने अपनी छटा बिखेरता रहता है पर वे बबूल के पेड़ की छाया में उंघते रहते हैं । वे कीचड़ में कमल होने का गर्व पाल रहे हैं । उनका परिवार जीवन भर भ्रष्टाचार की एक बूंद को तरसते रहा। पत्नी जीवन भर कोसती रही कि किस घोंचू से पाला पड़ गया जिसे दुनियादारी की समझ नहीं और बच्चे कहते पाए गए कि कैसा नालायक बाप है, हमारे स्टेटस के लिए कुछ करता ही नहीं है ।
ऐसे ही दोस्तों का मैं भी एक दोस्त हूं यारों ! मैं इश्क में भ्रष्ट नहीं हो पाया, वरना अपने फिल्मी हीरो हिरोईनों की तरह दो-तीन सेफ-प्रेम,सैफ नहीं, विवाह करीने , करीना नहीं, से तो कर ही डालता । हिम्मत ही नहीं जुटा पाया दोस्तों । हिम्मत जुटाता भी कैसे ? हिम्मत जुटाने के सामान ही कहाॅं थे अपने जमाने में । अपनी तशरीफ के नीचे एक अदद खचड़ा साईकिल भी तो नहीं था। आजकल तो बाप को दहेज में साईकिल भी न मिली हो बेटे को काॅलेज जाने के लिए मोटर साईकिल चाहिए ही चाहिए । आजकल फंड की भी कमी नहीं है । उधार देने वाले उधर खाए बैठे हैं । हर चीज, यहाॅं तक पढ़ाई भी किश्तों में चल सकती है जनाब ! वैसे आज के जमाने का सच तो ये है कि जो आनन्द मोटर साईकिल पर इश्क करने का आता है उसके लिए तो देवता भी तरसते हैं । बैठते ही जिंदगी जैसे दौड़ने लगती है, छाती फूल कर डबल हो जाती है । पीछे जब वो बैठी हो तो लगता है जनाब कि हवा से बातें करते हुए इश्क कर रहे हैं । सारा डर निकल जाता है। इश्क की परसनैल्टी तो मोटर साईकिल पर ही बनती है ।
अपने जमाने में तो हम डर-डर के इश्क किया करते थे । ‘प्यार किया तो डरना क्या’ वाला गाना है नं, उसे डर-डर के अकेले में ‘चुप चाप’ गाते थे । मोहल्ला, मास्साब,माॅं-बाप, चाचा-ताउ, सभी से तो डरते थे । किसी कोने में दुबक कर इश्क करना पड़ता था -- झाडि़यों के पीछे, लाईब्रेरी की अलमारियों के कोने में और वो...नन्नू नाई के झोपड़े में । और पिटना कितना पड़ता था ! आजकल मास्साब दुबके फिरते हैं । यही डर लगा रहता है कि काॅलेज के किसी कोने में किसी कामसूत्रीय जोड़े के दर्शन न हो जाएं । कबूतर की तरह आॅंखने मूंदनी पड़ती हैं जनाब ! आत्मा पर फालतू का बोझ पड़ता है ।
जो मास्साब नहीं दुबकते हैं, उन का मेरे जैसा हाल होता है ।
उन दिनों मैं ताजा-ताजा काॅलेज में लेक्चरार लगा था । छात्रों को जबरदस्ती सुधारने का भूत हर समय अंगड़ाई लेता रहता था। अपनी जवानी में स्वयं बाकायदा इश्क नहीं कर पाया तों बाकायदा इश्क कर रहे जोड़े को मैंने पकड़ लिया और लड़के से पूछा -- ये क्या हो रहा है ?
लड़का चैड़ी छाती करते हुए लड़की की गोद से, अदब से उठा और बड़े अदब से बोला -- अबे साले दिखाई नहीं दे रहा है, फालतू में डिस्टर्ब कर रहा है । चश्मा पहन कर भी नहीं दिखाई देता है क्या साले मास्टर जी ! मित्रों इसे विद्वान् अमेरिकी अदब कहते है।
डाॅयलाग मारकर लड़के ने लड़की की ओर वीर-भाव से देखा । लड़की के चेहरे पर तालियां थीं ।
मैंनें हथेलियों को मलते तथा खिसियाते हुए कहा -- ये...ये सब यहां नहीं चलेगा । ’’ं
लड़का मेरे पास आया,आॅंख मटका कर बोला -- जहाॅं चलेगा, वो जगह बता दे नं । तेरे पास जगह है क्या सर जी ! ’’
ये कहने के बाद लड़के ने मेरी इज्जत रख ली । लड़का लड़की को लेकर किसी जगह के तलाश मे चल दिया । लड़के की गर्दन और छाती उठी हुई थीं । और मेरी, स्वाभाविक है झुकी हुई थी ।
मैंनें प्रिंसिपल से शिकायत की तो उसने मुझे ही डाॅंट दिया-- आप अहमक हैं क्या ? ये यंग जैनरेशन है, इनसे कभी पंगा मत लेना । इसे टैकल करना होता है,प्यार से । इधर-उधर ध््यान मत दो... जो क्लाॅस में पढने आए उसे पढा दो, बाकी को को भाड़ में जोने दों । आपको तो पूरी तन्खाह मिल रही है नं । लेट देम एन्जवाॅय काॅलेज एंड यू एन्जवाॅय टीचिंग ।’ ये कहकर वह अश्लील हंसी हंसा ।
मुझे ज्ञान मिल गया कि आजकल पढ़ना-पढ़ाना मजे मारने का धंधा है ।
आजकल इश्क इाई टेक हो गया है । ई-मेल, एस एम एस, आदि आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं । अब तस्वीरे यार देखने के लिए गर्दन नहीं झुकानी पड़ती है, शान से गर्दन उठाएं और कम्प्यूटर के मोनीटर पर तसवीरे यार देख लें । भाषा का भी लफड़ा नहीं हैं । इस इश्क में दोनों को भाषा नहीं आती है । मिलने के लिए बड़े- बड़े माॅल हैं और दिल्ली में तो मेट्रो है ।
आजकल इश्क के मामले में मां-बाप, मास्साब, मोहल्ला आदि की भूमिका शून्य हो गई है । दुष्यंत के शब्दों में कहूं तो-- इश्क किसी की व्यक्तिगत आलोचना हो गया है ।
इश्क आसां हो गया है पर अब वो इश्क नहीं रहा।
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सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

दीपावली पर विशेष -अंधेरे का स्थानांतरण नहीं चाहिए

अंधेरे का स्थानांतरण नहीं चाहिए
0प्रेम जनमेजय

दीपावली समीप आती है तो मन दीपकों की संघर्षशील चेतना को लक्षित कर प्रसन्न एवं प्रेरित होता है परंतु यह सोचकर कि आधी रात को इन दीपकों के बुझते-बुझते हम तो सो जाएंगें और हमारे सोते ही अंध्ेारा सुबह के उजाले के आने तक पैर पसारे अपने होेने का अहसास दिलाता रहेगा, मन अवसाद में घिर जाता है ।
इस बार भी दीपावली की प्रतीक्षा समान्य भारतीय, केवल हिंदू नहीं, की तरह कर रहा हूं और आशा कर रहा हूं कि कुछ देर के लिए ही सही अपनेे सामाजिक जीवन में अकेलेपन के अंधेरे के न होने के अहसास का आनंद उठा पाउंगा ।
मुझे त्रिनिदाद की दीपावली याद आ रही है जहां इस दिन उपवास रखा जाता है। अमेरिकी संस्कृति के समुद्र से घिरे उस देश में एक सौ साठ वर्षों से भारतीय संस्कृति को अपने सीने से चिपकाए ये लोग किस उजाले की आशा में उपवास रखते हैं जबकि भारत में हम इस दिन खाओ ‘पिओ’ मस्त रहो की मुद्रा में रहते हैं । वहां लक्ष्मी पूजन के साथ गणेश पूजन की परंपरा नहीं है। परंपरा कैसी भी हो लक्ष्य तो जीवन के अंधेरे से लड़ना है-- अब वो चाहे अस्मिता का अंधेरा हो या फिर उजला- अंधेरा जो हमारे संबंधों को लील रहा है ।
मैं अपने चारों ओर स्वयं को एक अजब तरह के अंधेरे से घिरा पा रहा हूं। एक ऐसा अंधेरा जो उजाले की शक्ल लेकर आया है और वो उजाला हमें छल रहा है । ऐसे में कवि कन्हैयालाल नंदन की पंक्तियां याद आ रही है जिसमें वे कहते है -- उजालों ने कुछ इस तरह छला कि अंधेरों से प्यार हो गया ।’ यह प्यार घोर निराशा से उत्पन विवशता का अहसास है जो रिश्तों की खटास तथा बेरुखी से पैदा होता है । हम जैसे-जैसे भौतिक प्रगति के उजाले से घिरते जा रहे हैं वैसे अजनबी पन के सुरमई अंधेरे के मोह पाश में बंधते जा रहे हैं । किसी भी समाज के जीवन में वे क्षण बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण होते हैं जब उसके उजले हिस्से अंधेरे को अपना सत्य मान उसका आकार ग्रहण करने को लालायित दिखने लगते हैं ।
उजाले की तरह आज हमने अंधेरे भी बांट लिए हैं और यही कारण है कि हम अपने-अपने अंधेरों से अकेले ही लड़ रहे हैं । ये हमारे ‘सद्प्रयत्नों’ का फल है कि हम अपने अंध्ेारे को मिटता देख उतना प्रसन्न नहीं होते हैं जितना दूसरे के अंधेरे को और गहराता देखकर प्रसन्न होते हैं । पिछले लगभग एक दशक से महानगरीय जीवन में ; कस्बों और गांवों में भी इसका वायरस पहुंच गया है, पहले मोहल्ला गायब हुआ फिर संयुक्त परिवार और अब इसकी छाया पति-पत्नी के रिश्तों पर पड़ने लगी है । हम अपने में मस्त होकर अकेलेपन के आदी होते जा रहे हैं । अकेलेपन के इस अंधेरे में बच्चों का बचपन गायब हुआ है, युवाओं का युवामन और बुजुर्गों की सुरक्षा गायब हुई है । युवाओं के पास बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए ‘पूरा’ समय है पर अपनी संतान के लिए नहीं ,,माता-पिता तो किसी खेत की मूली हैं अतः.... क्योंकि संतान नहीं जानती कि समय धन है और उसको धन ही खरीद सकता है । हम स्वयं अकेलेपन की यांत्रिक जिंदगी जी रहे हैं और साथ ही भविष्य की पीढ़ी के लिए भी वही माहौल तैयार कर रहे हैं । अकेलेपन का अंधेरा धीरे-धीरे गहराता जा रहा है और हम उसे उजाला मान उसका अपने जीवन में स्वागत कर रहे हैं । अंधेरा बहुत चालाक हो गया है और वह उजाले का बुरका पहन कर सामने आता है । वह लोहे को लोहा काटता है के सिद्धांत पर अपने हथियारों का सदुपयोग करता है और विश्व को विवश कर देता है कि वह अंधेरे को ही उजाला माने ।हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े लिखे को इराक और अफगानिस्तान क्या?
अंधेरा मिटता नहीं बस उसका स्थानांतरण हो जाता है । चाहे पुलिस थाना हो, चाहे नौकरशाही, चाहे संसद हो और चाहे न्याय का मैदान, आप अंधेरा होने की शिकायत करके देखिए कि कैसे अंधेरे का स्थानंातरण होता है । अंधेरा बहुत चतुर होता है, जब वो देखता है कि उजाले से लड़ना संभव नहीं, मिटने का डर है तो वह ‘सादर’ सिंहासन खाली कर देता है और उजाले के कमजोर होने की प्रतीक्षा करने लगता है । वरना क्या कारण है कि बार-बार धर्म की हानि होती है और बार-बार प्रभु को अवतार लेना पड़ता है ? प्रभु का एक बार अवतार लेने से काम नहीं चलता है ।
मैं महान नहीं हूं अतः महान वायावी दावे नहीं कर पाता हूं । मेरी सोच बहुत ही संकुचित है जो बस अपने आस- पास के वातावरण तक सीमित रहती है । मैं तो गिलहरी की तरह एक बूंद अंध्ेारा हटाकर विशाल प्रकाश-पुंज का लघुत्तम कण बनना चाहता हूं । मैं अपनी टी आर पी बढ़ाने के लिए अंध्ेरा मिटाने की नौटंकी नहीं कर सकता, मैं तो अपनी क्षमता अनुसार ,कुछ अधिक भी, प्रयत्न कर सकता हूं कि मानवीय मूल्यों और सम्बन्धों की टी आर पी न गिरे । हम अपने छोटे-छोटे दीपक ही चाहे जलायें पर उसके प्रकाश को छनकर बाहर जाने से न रोकें और एक प्रकाशपुंज का हिस्सा बनकर अंधेरे का स्थानांतरण करने के स्थान पर उसे समाप्त करने का सार्थक प्रयत्न करें ।
क्या कभी सेाचा है कि घनघोर अंधेरे से लड़ना आसान हो जाता है पर घनघोर उजाले का भ्रम देने वाले उजाले से लड़ना कठिनतर ?
उजाला अंधेरे से लड़ता है या अंधेरा उजाले से लड़ता है ? किस सत्ता की प्राप्ति के लिए लाखों वर्षों से यह लड़ाई जारी है? इस लड़ाई का कोई अंत है अथवा ये समाप्त होने का भ्रम पैदा कर ये पुनः आरंभ हो जाती है, बस मुखौटे बदल जाते हैं । राम-रावण युद्ध निंरतर है बस मुखैटा बदल जाता है ।
इतने सारे सवालों के बीच, उजाला एक विश्वास है जो अंधेरे के किसी भी रूप के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल बजाने को तत्पर रहता है । ये हममें साहस और निडरता भरता है ।

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73 साक्षर अपार्टमेंट्स, ए-3 पश्चिम विहार नई दिल्ली - 110063 पफेानः 09811154440,01125264227

शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2008



राम वनवास का सीधा प्रसारण


प्रेम जनमेजय




आम चुनाव आने को हैं, सबसे बड़ा मुद्दा है-चुनावी मुद्दे की खोज। इधर राम पर भी खोज जारी है। जैसे चुनाव आते ही जनसेवकों का आम आदमी की ओर ध्यान आकर्षित होता है, वैसे ही राम की ओर भी होता है। इस बार राम मुद्दा दे रहे हैं कि राम सेतु था कि नहीं। था और नहीं की बहस जारी है। मैं भी एक मुद्दा दे रहा हूं- राम के समय दूरदर्शन था कि नहीं । मैं कहता हूं, था। आप ये तो मानेंगें ही कि जब-तब कोई न कोई आकाशवाणी का प्रयोग करता रहता था। अब जहां आकाशवाणी होगी वहां दूरदर्शन न होगा? इस था और नही पर आप चाहें तो मुझे एस एम एस करके बता सकते हैं। कल्पना करने में क्या जाता है, जब आप बरसों से देश से गरीबी हटने की कल्पना को सच माने बैठे हैं तो मुझ शेखचिल्ली के साथ यह कल्पना भी कर डालिए और कुछ दृश्य
भी देख डालिए


दृश्य- 1कल राम का राजतिलक है। सभी चैनल सरकारी चैनल का प्रसारण रिले कर रहे है । सुबह से शहनाई बजा रहे है, राम के बचपन से आज तक की बार बार फुटेज दिखाई जा चुकी हैं। कार्यक्रमों में कोई सनसनी नहीं है,व्यूरशिप कम है इसलिए विज्ञापन भी नहीं है। अचानक रात बारह बजे सभी चैनल सोते से जाग जाते हैं। हर चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज है- राम को चैदह बरस का बनवास। समस्त अयोध्या भी सोते से जग गई है। पान और चाय की दुकाने खुल गई है। ढाबे सज गए है। कुछ चैनल सनसनी खेज खुलासा कर के सनसनी फैला रहे हैं-देखिए सनसनीखेज खुलासा कैसे एक सौतेली मां ने किया अत्याचार। जो बेटा उसे अपनी मां से बढ़कर मानता था उसी मां ने दिया उसे चैदह बरस का बनवास। अयोध्या के इतिहास में ऐसा न कभी घटा और न कभी घटेगा। अपने पुत्र भरत के लिए ऐशोआराम और वो राम जो कल राजा बनने जा रहे थे उनके लिए चैदह बरस का बनवास। हम आपको दिखाने जा रहे हैं सनसनी खेज खुलासा कि कैसे हुआ राम को यह बनवास। जाईएगा नहीं, ब्रेक के बाद हम आपको दिखाएंगे कैकेयी की वो चाल जिसने पलट कर रख दी दशरथ की बाजी।’ इसके बाद ब्रेक इतना लंबा होता है कि सनसनी का बल्ड प्रेशर लो होने लगता है।
दृश्य-2कुछ चैनल्स ने विशेषज्ञों को अपने चैनल में बुला लिया है। विशेषज्ञों का मुकाबला चल रहा है जो किसी डब्ल्यू डब्लयू एफ से कम नही है। आप भी इस मुकाबले का आनंद लें।-- हमारा दल मानता है कि ऐसा अयोध्या के इतिहास में पहले कभी घटा नहीं है।-- हमारा दल मानता है कि ऐसा अयोध्या में घटा है पर उसके प्रमाण नहीं मिलते हैं।-- कब घटा है? आपके पास क्या प्रमाण हैं? -- जब भी घटा ह,ै घटा है। प्रमाण समय आने पर देंगें।-मै कहता हूं नहीं घटा है++...मैं कहता हूं घटा है। और इसके बाद खूब मैं मैं चलती है तो संचालक तीसरे की ओर रुख कर के कहता है-- आपका दल इस बारे में क्या कहता है?-- हमारा दल इंतजार करेगा कि कौन सत्ता में आता है,
राम या भरत।
दृश्य 3इस बीच एक और ब्रेकिंग न्यूज आती है- अभी अभी हमें समाचार मिला है कि सीता के लिए भी वनवास के वस्त्र रात को एक दुकान खुलवा कर लिए गए हैं। चलिए हम उस दूकानदार से बात करते हैं जिसके यहां से यह वस्त्र लिए गए हैं।-आपका नाम?-मेरा नाम हरीशचंदर है जी।-आप क्या करते हैं- जी मैं रिषी मुनियों को कपड़े बेचता हूं। - आपकी दूकान पर केवल रिषी मुनि ही कपड़े लेने आते हैं?- हां जी-और कोई नहीं आता?-न जी।-और कोई क्यों नहीं आता ?- पता नहीं जी।-- आप झूठ बोल रहे हैं, आपको सब पता है।-- पता नहीं जी।- आपको पता है, आपके यहां से ही कपड़े गए है किसी महिला के लिए । हमारे पास इसकी वीडियो है हमें सब पता है, - जब आपको सब पता है तो मुझसे क्यों पूछ रहे हो। तो आपने देखा महलों का आतंक हम अभी कुछ देर में आपको वह वीडियो दिखाने जा रहे हैं जो ख्ुालासा कर देगी कि वो कपड़े सीता के लिए ही गए हैं। हमारी टीम उस डिजाईनर की खोज कर रही हैं और उस प्रसाधन केंद्र का भी पता कर रही है जहां सीता जी वनवास के लिए सजने गई थीं।आप हमें एस एम एस करें कि क्या राम अकेले बनवास जाएंगे ? यदि आपका जवाब हंा है तो हां लिखें, न है तो नं लिखें ओर कुछ भी जवाब न हो तो भी आप लिखें ‘कुछ नहीं’ । हमारे चैनल ने पहली बार ऐसे लोगेंा को भी सुअवसर दिया है जिनका जवाब ‘कुछ नहीं’ हो सकता है।
दृश्य 4कुछ धर्मिक चैनलों ने गुरु वसिष्ठ के चेलों और बाबाओं को पकड़ हुआ है जो ग्रहों की स्थिति जांचकर बता रहे हैं कि गुरु वसिष्ठ की मुहूर्त के बारे में गणना क्यों असफल हो गई।
दृश्य 5कुछ कैमरा मैन कैकेयी के कोपभवन के बाहर तक पहुंच गए हैं। बाहर सुरक्षाकर्मी खड़े हैं। दशरथ तक पहुंचना नामुमकिन है।चलिए हम सरकारी प्रवक्ता सुमंत जी से पूछते हैं - सुमंत जी आप तो राजा दशरथ के करीबी हैं, आप बताएं इस समय राजा दशरथ को क्या लग रहा है?सुमंत सोच की मुद्रा बनाते हुए ओर आवाज को गंभीर करते हुए- मेरे विचार से इस समय महाराज को यह लग रहा है कि वे दशरथ क्यों हैं।--और उनके पास बैठी रानी कैकेयी को क्या लग रहा है?-- रानी कैकेयी को लग रहा है, कि वे कैकेयी क्यों हैं?-- और आपको सुमंत जी?- मुझे, ,बहुत सेाचकर, मैं राजा दशरथ और रानी कैकेयी का नजदीकी हूं इसलिए मुझे भी लगना चाहिए कि मैं सुमंत क्यों हूं?देखा आपने यह सनसनी खेज खुलासा, सुमंत तक को पता नहीं है कि वे सुमंत क्यों हैं। मित्राों ऐसे ही दृश्य 5, 6 7 8 आदि आदि अनादि हैं। हरि अनंत हरि कथा अनंता की तरह। मैं उनका वर्णन अभी नहीं कर रहा हूं क्योंकि मुझे पूरा विश्वास है कि उन्हें देखने के बाद आप भी पगला कर कहेंगें कि मुझे लग रहा है कि मैं क्यों हूं।


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नई दुनिया के 19 अक्टूबर,2008 अंक में प्रकाशित

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

लघु कथा- साहित्य में डब्ल्यू डब्ल्यू एफ

साहित्य में डब्ल्यू डब्ल्यू एफ
0प्रेम जनमेजय


एक समय था जब मनोरंजन के साधन कम थे और लोग मुर्गे, तीतर, बटेर आदि लड़वाया करते थे तथा सामान्य जन उन्हें बड़े चाव से देखता। मुर्गे, तीतर, बटेर आदि विशिष्ट जनों के पास ही हुआ करते थे और उन्हें पालने का दम भी उन में था। वे पैसा फेंकते और तमाशबीनों को तमाशा देख प्रसन्न होते। गली- गली उनके मुर्गे, तीतर, बटेर आदि की चर्चा होती। यह चर्चा सामान्य जन करता। और सामान्य जन की चर्चा ? वो किस खेत की मूली होता है हुजूर, आपको पता चले तो बताइएगा, थोड़ी हम भी खरीद लेंगें।
धीरे-धीरे- सामान्य जन के मनोरंजन के साधन बढ़ने लगे। डब्ल्यू डब्ल्यू एफ जैसे अत्याधुनिक खेल बाजार में आ गए। बाजारवाद ने सामान्य जन की जेबों में कुछ पैसा डाला और अपने मनोरंजन के साधनों का नशेड़ी बना लिया। मुर्गे, तीतर, बटेर आदि बेरोजगार हो गए। उधर नवाबों की नवाबी भी चली गई। बिना लड़े मुर्गे, तीतर, बटेर आदि को अपना जीवन व्यर्थ बहा-बहा लगने लगा और ‘वे दो सरस पद भी न हुए, अहा!’ कह कर आंसू बहाने लगे। वे बुढ़ा भी गए थे और बूढ़ों को इस समाज में जिस दृष्टि से देखा जाता है उसे उपेक्षा की दृष्टि कहते है। अपने उपर विशिष्ट दृष्टि डलवाने के लिए लहू लुहान तक हो जाने वाले मुर्गे, तीतर, बटेर आदि कैसे इस उपेक्षा-दृष्टि को सह सकते हैं।
सुना है अब ये सारे बुढ़ा चुके मुर्गे, तीतर, बटेर आदि साहित्य में आ गए हैं और डब्ल्यू डब्ल्यू एफ की तर्ज पर बिना लहू-लुहान हुए लड़ने की नौटंकी कर रहे है। इस नौटंकी से वे विवादाग्रस्त होते हैं और समाचार में रहने का सुख पाते हंै।

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