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गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008

व्यन्ग्य --था इश्क नहीं आसां

था इश्क नहीं आसां
0प्रेम जनमेजय

मेरे नाम में प्रेम शब्द अवश्य है पर मैंनें प्रेम-विवाह नहीं किया है । मैं नाम का ही प्रेम हूं । जैसे जनसेवकों से जनता, न्यायालय से न्याय, सुरक्षा कर्मियों से सुरक्षा, थाने से शिष्टाचार और पढ़ाने वालों से पढ़ाना दूर रहता है वैसी ही भूमिका मेरे जीवन में प्रेम की रही है ।
दोष मेरा नहीं है, मेरे समय का है। मेरा समय ही ऐसा था कि उसमें इश्क करना आसान नहीं था। चचा गालिब ने तो इश्क को आग का दरिया कह डाला था । ये इसी आग के दरिया का कमाल है कि उस समय हीर- रांझा, लैला-मजनूं, शीरी-फरहाद पैदा हुए और मेरी तरह नाम के ही प्रेम रहे ।
मेरे एक मित्र जीवन भर एक छोटा-सा भ्रष्टाचार नहीें कर पाये क्योंकि उन्हें भ्रष्टाचार करने का अवसर ही नहीं मिला । अब साहब जनगणना विभाग में कोई क्या भ्रष्टाचार करेगा। ज्यादा से ज्यादा छोटी -मोटी चोरी कर सकता है, बिना छुट्टी लिये घर बैठ सकता है और जनगणना के बहाने कुछ सुंदरियों को ताक सकता हैॅ । मेरी मांग है कि जब विदेशी निवेशकों को हमें लूटने के अवसर प्रदान किये जा रहे हैं तो देशी सेवकों को भी भ्रष्टाचार के समान अवसर मिलने ही चाहियें। देश में अमेरिकी प्रभाव से सच्चा पूंजीवाद तभी आएगा हर विभाग में भ्रष्टाचार के समान अवसर उपलब्ध होंगेे । जिस विभाग में भ्रष्टाचार के अवसर न हों उस विभाग के लोगों को आरक्षण की वैसी ही सुविध प्रदान की जाये जैसी अति महत्वपूर्ण लोगों को जेड स्क्योरिटी प्रदान की जाती है ।
मेरे एक और मित्रा हैं, राधेलाल जो भ्रष्टाचार-निरोधक कार्यालय में देश की सेवा कर रहे है । उनके विभाग में भ्रष्टाचार का वसंत बारह महीने अपनी छटा बिखेरता रहता है पर वे बबूल के पेड़ की छाया में उंघते रहते हैं । वे कीचड़ में कमल होने का गर्व पाल रहे हैं । उनका परिवार जीवन भर भ्रष्टाचार की एक बूंद को तरसते रहा। पत्नी जीवन भर कोसती रही कि किस घोंचू से पाला पड़ गया जिसे दुनियादारी की समझ नहीं और बच्चे कहते पाए गए कि कैसा नालायक बाप है, हमारे स्टेटस के लिए कुछ करता ही नहीं है ।
ऐसे ही दोस्तों का मैं भी एक दोस्त हूं यारों ! मैं इश्क में भ्रष्ट नहीं हो पाया, वरना अपने फिल्मी हीरो हिरोईनों की तरह दो-तीन सेफ-प्रेम,सैफ नहीं, विवाह करीने , करीना नहीं, से तो कर ही डालता । हिम्मत ही नहीं जुटा पाया दोस्तों । हिम्मत जुटाता भी कैसे ? हिम्मत जुटाने के सामान ही कहाॅं थे अपने जमाने में । अपनी तशरीफ के नीचे एक अदद खचड़ा साईकिल भी तो नहीं था। आजकल तो बाप को दहेज में साईकिल भी न मिली हो बेटे को काॅलेज जाने के लिए मोटर साईकिल चाहिए ही चाहिए । आजकल फंड की भी कमी नहीं है । उधार देने वाले उधर खाए बैठे हैं । हर चीज, यहाॅं तक पढ़ाई भी किश्तों में चल सकती है जनाब ! वैसे आज के जमाने का सच तो ये है कि जो आनन्द मोटर साईकिल पर इश्क करने का आता है उसके लिए तो देवता भी तरसते हैं । बैठते ही जिंदगी जैसे दौड़ने लगती है, छाती फूल कर डबल हो जाती है । पीछे जब वो बैठी हो तो लगता है जनाब कि हवा से बातें करते हुए इश्क कर रहे हैं । सारा डर निकल जाता है। इश्क की परसनैल्टी तो मोटर साईकिल पर ही बनती है ।
अपने जमाने में तो हम डर-डर के इश्क किया करते थे । ‘प्यार किया तो डरना क्या’ वाला गाना है नं, उसे डर-डर के अकेले में ‘चुप चाप’ गाते थे । मोहल्ला, मास्साब,माॅं-बाप, चाचा-ताउ, सभी से तो डरते थे । किसी कोने में दुबक कर इश्क करना पड़ता था -- झाडि़यों के पीछे, लाईब्रेरी की अलमारियों के कोने में और वो...नन्नू नाई के झोपड़े में । और पिटना कितना पड़ता था ! आजकल मास्साब दुबके फिरते हैं । यही डर लगा रहता है कि काॅलेज के किसी कोने में किसी कामसूत्रीय जोड़े के दर्शन न हो जाएं । कबूतर की तरह आॅंखने मूंदनी पड़ती हैं जनाब ! आत्मा पर फालतू का बोझ पड़ता है ।
जो मास्साब नहीं दुबकते हैं, उन का मेरे जैसा हाल होता है ।
उन दिनों मैं ताजा-ताजा काॅलेज में लेक्चरार लगा था । छात्रों को जबरदस्ती सुधारने का भूत हर समय अंगड़ाई लेता रहता था। अपनी जवानी में स्वयं बाकायदा इश्क नहीं कर पाया तों बाकायदा इश्क कर रहे जोड़े को मैंने पकड़ लिया और लड़के से पूछा -- ये क्या हो रहा है ?
लड़का चैड़ी छाती करते हुए लड़की की गोद से, अदब से उठा और बड़े अदब से बोला -- अबे साले दिखाई नहीं दे रहा है, फालतू में डिस्टर्ब कर रहा है । चश्मा पहन कर भी नहीं दिखाई देता है क्या साले मास्टर जी ! मित्रों इसे विद्वान् अमेरिकी अदब कहते है।
डाॅयलाग मारकर लड़के ने लड़की की ओर वीर-भाव से देखा । लड़की के चेहरे पर तालियां थीं ।
मैंनें हथेलियों को मलते तथा खिसियाते हुए कहा -- ये...ये सब यहां नहीं चलेगा । ’’ं
लड़का मेरे पास आया,आॅंख मटका कर बोला -- जहाॅं चलेगा, वो जगह बता दे नं । तेरे पास जगह है क्या सर जी ! ’’
ये कहने के बाद लड़के ने मेरी इज्जत रख ली । लड़का लड़की को लेकर किसी जगह के तलाश मे चल दिया । लड़के की गर्दन और छाती उठी हुई थीं । और मेरी, स्वाभाविक है झुकी हुई थी ।
मैंनें प्रिंसिपल से शिकायत की तो उसने मुझे ही डाॅंट दिया-- आप अहमक हैं क्या ? ये यंग जैनरेशन है, इनसे कभी पंगा मत लेना । इसे टैकल करना होता है,प्यार से । इधर-उधर ध््यान मत दो... जो क्लाॅस में पढने आए उसे पढा दो, बाकी को को भाड़ में जोने दों । आपको तो पूरी तन्खाह मिल रही है नं । लेट देम एन्जवाॅय काॅलेज एंड यू एन्जवाॅय टीचिंग ।’ ये कहकर वह अश्लील हंसी हंसा ।
मुझे ज्ञान मिल गया कि आजकल पढ़ना-पढ़ाना मजे मारने का धंधा है ।
आजकल इश्क इाई टेक हो गया है । ई-मेल, एस एम एस, आदि आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं । अब तस्वीरे यार देखने के लिए गर्दन नहीं झुकानी पड़ती है, शान से गर्दन उठाएं और कम्प्यूटर के मोनीटर पर तसवीरे यार देख लें । भाषा का भी लफड़ा नहीं हैं । इस इश्क में दोनों को भाषा नहीं आती है । मिलने के लिए बड़े- बड़े माॅल हैं और दिल्ली में तो मेट्रो है ।
आजकल इश्क के मामले में मां-बाप, मास्साब, मोहल्ला आदि की भूमिका शून्य हो गई है । दुष्यंत के शब्दों में कहूं तो-- इश्क किसी की व्यक्तिगत आलोचना हो गया है ।
इश्क आसां हो गया है पर अब वो इश्क नहीं रहा।
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1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत बढ़िया..आनन्द आ गया पढ़ कर.