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शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

साहित्यपुर का संत-- श्रीलाल शुक्ल




अभी- अभी दुखद समाचार मिला कि हमारे समय के श्रेष्ठ रचनाकार एवं मानवीय गुणों से संपन्न श्रीलाल शुक्ल नहीं रहे। बहुत दिनों से अस्वस्थ थे परंतु निरंतर यह भी विश्वास था कि वे जल्दी स्वस्थ होंगे। परंतु हर विश्वास रक्षा के योग्य कहां होता है। यह मेरे लिए एक व्यक्तिगत क्षति है। उनके जाने से एक ऐसा अभाव पैदा हुआ है जिसे भरा नहीं जा सकता है। परसाई की तरह उन्होंने भी हिंदी व्यंग्य साहित्य को ,अपनी रचनात्मकता के द्वारा, जो सार्थक दिशा दी है वह बहुमूल्य है।पिछले दिनों उनसे आखिरी बात तब हुई थी जिस दिन उन्हें ज्ञानपीठ द्वारा सम्मान दिए जाने की घोषणा हुई थी।
21 सितम्बर को सुबह, एक मनचाहा, सुखद एवं रोमांचित समाचार, पहले सुबह छह बजे आकाशवाणी ने समाचारों द्वारा और फिर सुबह की अखबार ने दिया- श्रीलाल शुक्ल और अमरकांत को ज्ञानपीठ पुरस्कार। ‘नई दुनिया’ ने शीर्षक दिया, ‘उम्र के इस पड़ाव में खास रोमांचित नहीं करता पुरस्कार- श्रीलाल।’ पढ़ते ही मन ने पहली प्रतिक्रिया दी कि श्रीलाल जी पुरस्कार आपको तो खास रोमांचित नहीं करता पर मेरे जैसे, आपके अनेक पाठकों को, बहुत रोमांचित करता हैं, विशेषकर व्यंग्य के उस विशाल पाठक वर्ग को, जिसे लगता है कि यह पुरस्कार बड़े स्तर पर व्यंग्य की स्वीकृति की भी घोषणा है। इस समाचार को पढ़कर मेरा मन तत्काल श्रीलाल जी को फोन करने का हुआ, पर यह सोचकर कि इन दिनों उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है, कुछ देर बाद करूं तो अच्छा रहेगा, रुक गया। पर अधिक नहीं रुक पाया। मेरा मन अनत सुख नहीं पा रहा था और बार-बार इस जहाज पर आ बैठता था कि श्रीलाल जी से बात की जाए। मन चाहे वद्ध हो अथवा युवा, उसकी बात माननी ही पड़ती है। सुबह के सवा आठ बजे के लगभग श्रीलाल जी की बहू, साधना शुक्ल को फोन लगाया। साधना जी का स्वर बता रहा था कि इस समाचार से वे बहुत प्रसन्न हैं। मैंने उन्हें बधाई दी और कहा- ‘आज सुबह बहुत ही अच्छा समाचार मिला, आपको बहुत-बहुत बधई।’ साध्ना जी ने कहा- आपको भी।’ मैंने कहा- श्रीलाल जी ने ‘नई दुनिया’ के संवाददाता से कहा है कि उम्र के इस पड़ाव में यह पुरस्कार कोई खास एनर्जी या रोमांच नहीं देता। साध्ना जी, उन्हें न करता होगा पर यह पुरस्कार उनके विशाल पाठक वर्ग को एनर्जी देता है, रोमांचित करता है।’ साध्ना शुक्ल- बिलकुल, प्रेम जी। बहुत ही अच्छा लग रहा है।’ मैं- श्रीलाल जी को मेरी ओर से बधाई दीजिएगा।’ साधना शुक्ल ने पूछा- पापा से बात करेंगे।’ मैं- उनका स्वास्थ्य. . .कर पाएंगे क्या वो बात. . .।’ साधना शुक्ल- मैं उन्हें देती हूं।’ कुछ देर बाद श्रीलाल जी का स्वर सुनाई दिया। मैंने कहा- सर, प्रणाम, आपको इस सम्मान पर बहुत-बहुत बधई।’ श्रीलाल जी- धन्यवाद, प्रेम जी।’ मैंने दोहराया- सर, आपने कहा है कि आपको उम्र के इस पड़ाव में यह पुरस्कार कोई खास एनर्जी या रोमांच नहीं देता, पर यह पुरस्कार मुझ समेत आपके विशाल पाठक वर्ग तथा हिंदी व्यंग्य, को एनर्जी देता है, रोमांचित करता है।’ श्रीलाल जी- ऐसा नहीं है प्रेम जी, ऐसे पुरस्कारों से संतोष अवश्य होता है। इस उम्र में अक्सर साहित्यकारों को उपेक्षित कर दिया जाता है। यह पुरस्कार संतोष देता है कि मैं उपेक्षित नहीं हूं।’
जानता था कि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा है, इसलिए कहा- अच्छा सर अब आप आराम करें।’ श्रीलाल जी- प्रेम जी, आपने मुझ पर अच्छी पुस्तक संपादित की है। इस पुस्तक ने मुझे रीबिल्ड ;त्मइनपसकद्ध किया है। इसकी एक प्रति और भिजवा सकेंगे?’;;श्रीलाल जी ‘व्यंग्य यात्रा’ के, उन पर केंद्रित अंक के संदर्भ में अपनी बात कह रहे थे। जिसे नेशनल पब्लिशिंग हाउस ने- ‘श्रीलाल शुक्ल: विचार विश्लेषण एवं जीवन’ के रूप में पुस्तकाकार प्रकाशित किया है।द्ध मैं- क्यों नहीं सर, मैं प्रकाशक से कहकर भिजवाता हूं। प्रणाम।’ मैंने बात समाप्त करते हुए कहा। मन चाह रहा था कि उनसे अधिक से अधिक बात हो पर साथ ही उनके स्वास्थ्य संबंधी चेतावनी भी, मन निरंतर दे रहा था।
श्रीलाल जी कि साहित्य के प्रति गहरी समझ और उनके अध्ययनशील व्यक्तित्व से मैंने बहुत कुछ सीखा है। वे बहुत सजग हैं और ‘हम्बग’ से चिढ़ के कारण वे लाग लपेट में विश्वास नहीं करते हैं। वे बातचीत में बहुत जल्दी अपनी आत्मीयता को सक्रिय कर देते हैं। अपने लेखकीय व्यक्तित्व की एकरूपता को वे तोड़ते रहे हैं। ऐसे में जब अधिकांश साहित्यकार स्वयं को एक फ्रेम में बंधे होता देख प्रसन्न होते हैं वे अपनी अगली कृति में अपने पिछले फ्रेम को तोड़ते दिखाई देते हैं। एक ही रचना से अति प्रसिद्धि प्राप्त करने के पश्चात वैसी ही कृति को दोहराकर उसे भुनाने तक का प्रयास श्रीलाल जी ने नहीं किया है। उनके साहित्यकार व्यक्तित्व के अनेक रंग हैं। वे अपनी रचनाओं के माध्यम से वर्तमान व्यवस्था की विसंगतियों पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रश्नचिह्न लगाते हैं। उनका लेखन एक चुनौती प्रस्तुत करता है। उन्होंने विषय एवं शिल्प के ध्रातल पर ऐसी अनेक चुनौतियां उपस्थित की हैं जो सकारात्मक सृजनशील प्रतियोगिता का मार्ग प्रशस्त करती हैं । ‘राग दरबारी’ एक क्लासिक है तथा कोई भी क्लासिक दोहराया नहीं जा सकता। हां ‘राग दरबारी’ के बाद व्यंग्य उपन्यास लिखे गए पर वे चुनौती प्रस्तुत नहीं कर पाए। आप श्रीलाल जी पर कुछ भी सतही कहकर किनारा नहीं कह सकते हैं। वे विनम्र हैं पर ऐसी संतई विनम्रता नहीं कि आप इसे उनकी कमजोरी मान लें।
श्रीलाल जी से अनेक बार मिला हूं। उनके साथ नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए हिदी हास्य-व्यंग्य संकलन तैयार करते हुए, ‘व्यंग्य यात्रा’ के उनपर कें्िरदत अंक को तैयार करते हुए। उनपर कें्िरदत अंक तैयार करते हुए मेरा बहुत मन था कि उनसे एक बेतकल्लुफ बातचीत की जाए। इस बीच श्रीलाल जी की बीमारी की सूचनाओं एवं सुविधाजनक समय की तलाश के कारण समय खिसकने लगा। दिसंबर, 2008 के प्रथम सप्ताह की एक तिथि तय कर ली गई और लखनउफ में गोपाल चतुर्वेदी से अनुरोध् किया गया कि वे इसका सुभीता जमाएं। पर उनसे 11 दिसंबर की एक सुबह तय हुई। मैं दोपहर का भोजन कर सभी तरह से लैस हो, श्रीलाल जी से मिलने की तैयारी कर रहा था कि गोपाल चतुर्वेदी का फोन आया- प्रेम भाई, अभी श्रीलाल जी की बहु का पफोन आया है कि आज सुबह कुछ साहित्यिक आ गए थे और मेरे बार-बार मना करने के बावजूद उन्होंने बहुत समय ले लिया। श्रीलाल जी बुरी तरह थक गए हैं और आज शाम मिलना नहीं हो पाएगा।’ ऐसी घोर निराशा के क्षण मैंने बहुत जिए हैं जब आपको लगता है कि सपफलता हाथ इस अप्रत्याशित से मैं सन्न रह गया। मैं तो दिल्ली से समय लेकर आया था और जो समय लेकर नहीं आए थे वे सफल हुए। शायद जीवन में सफलता की यही कुंजी है। मैं नहीं चाहता था कि अस्वस्थ श्रीलाल जी को परेशान करूं पर मेरे अंदर का संपादक बार-बार गोपाल चतुर्वेदी से प्रार्थना कर रहा था कि वे कुछ जुगाड़ बिठाएं जिससे मेरी मनोकामना पूर्ण हो। वे भी मुझसे कम परेशान नहीं थे। अगले दिन 11 बजे से माध्यम की गोष्ठी थी जिसकी अध्यक्षता गोपाल चतुर्वेदी को करनी थी और मुझे विषय प्रवर्तन करना था। अगले दिन का ही समय मिला साढे दस बजे का। सोचा आधे घंटे में बातचीत करके 11 बजे लौटेंगे- कवि लोगों ने रतजगा किया है, साढ़े ग्यारह से पहले गोष्ठी क्या आरंभ होगी। आध घंटा मुझे उंट के मुंह में जीरे से भी कम लग रहा था पर बकरे की मां को तो खैर ही मनाना पड़ता है। न होने से कुछ होना अच्छा- थोड़ी बहुत बात कर लेंगे और कुछ चित्र ले लूंगा। मैंने अपने बार-बार के आग्रह से गोपाल जी को विवश करदिया कि हम वहां आध घंटा पहले पहुंचें और श्रीलाल जी के तैयार होने का उनके घर ही इंतजार करें। मैं इसके लिए भी तैयार था कि समय से पहले पहुंचने की वरिष्ठ लेखक की डांट मैं खा लूंगा। पर श्रीलाल जी सही मायनों में वरिष्ठ हैं। हम जब पहुंचे, उन्होंने नाश्ता भी नहीं किया था। पर उन्होंने जिस गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया उसे देख सरदी की गुनगुनी धूप भी शरमा गई होगी। हमारे समय से पूर्व पहुंचने का कहीं रोष नहीं। वो तो हमारे लिए नाश्ते का भी त्याग करने को तैयार थे, पर हमारे आग्रह और अपनी बहू साधना के अधिकार के सामने उनकी एक न चली। मैं जिस तनाव में जी रहा था उससे मैं एकदम मुक्त हो गया। फोटो सेशन के समय, उनकी चारपाई पर, सम्मान के कारण उनसे कुछ दूर बैठकर जब मैं पफोटो खिंचवाने लगा तो उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुझे अपने नजदीक करते हुए कहा- ‘नजदीक आइए फोटो अच्छा आएगा।’ उस दिन हम दस मिनट का समय लेकर गए थे पर दो घंटे का समय लेकर आए। वे अद्भुत अविस्मरणीय क्षण थे।
ऐसे अनेक क्षण मेरी अमूल्य धरोहर है।

शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

व्यंग्य यात्रा का नया अंक जुलाई-सितंबर 2011


व्यंग्य यात्रा का नया अंक जुलाई-सितंबर 2011

इस अंक में आप पढ़ सकते हैं

पाथेय में -
सूरज प्रकाश द्वारा अनूदित जाॅर्ज आॅर्वेल
का संपूर्ण उपन्यास ‘एनिमल फार्म’
तंबी दुरई के मराठी व्यंग्य

तट की खोज में-
स्तंभ लेखनः दशा और दिशा पर
ज्ञान चतुर्वेदी, अशोक चक्रधर, आलोक
पुराणिक,शरद उपाध्याय, अविनाश वाचस्पति
अतुल चतुर्वेदी आदि के विचार

त्रिकोणीय में ः
विष्णु नागर पर केंद्रित
विष्णु नागर का आत्मकथ्य, रचनाएं
राधेश्याम तिवारी से बातचीत
विष्णु नागर पर रमेश उपाध्याय,
तरसेम गुजराल एवं अजय अनुरागी के आलेख
तथा असगर वजाहत, लीलाधर मंडलोई एवं
मदन कश्यप की टिप्पणियां

व्यंग्य रचनाएं में
जवाहर चैधरी, गिरीश पंकज के उपन्यास अंश
सुबोध कुमार श्रीवास्तव, हरिपाल त्यागी, शशि सहगल
गौतम सचदेव, राजेंद्र राजन, लालित्य ललित, प्रेम विज
संदीप सक्सेना,वीरेंद्र जैन, सुदर्शन कुमार सोनी आदि
सूर्यीानु गुप्त, राम मेश्राम, रमेश तैलंग की गजलें

आलोचना/समीक्षा में
सूर्यबाला पर करुणाशंकर उपाध्याय का आलेख
दिविक रमेश, प्रताप सहगल, नरेंद्र मोहन,
कैलाश मंडलेकर, शशांक अत्रे आदि की पुस्तकों की समीक्षा

गुरुवार, 2 जून 2011

व्यंग्य यात्रा का अंक २६-२७ (जनवरी- जून २०११ )


इस अंक में आप पढ़ सकते हैं
पाथेय में
मराठी भाषा की
यज्ञ शर्मा द्वारा अनुदित

श्रीपाद कृष्ण कोहल्टकर ,रामगणेश गडकरी,चिं.वि. जोशी,पु.ल. देशपांडे
की चुनी हुई रचनाएं
चिंतन में
भारतीय भाषाओं में व्यंग्य : मराठी भाषा पर
प्रो. विजय कलमधार,उषा दामोदर कुलकर्णी.,मीरा दाढे,आचार्य प्रल्हाद केशव अत्रे

प्रेम जनमेजय का आलेख -अज्ञेय की व्यंग्य चेतना
श्यामसुंदर घोष का आलेख -व्यंग्य : कथ्य और नेपथ्य


त्रिकोणीय में
हरीश नवल पर केन्द्रित
हरीश नवल का आत्मकथ्य तथा उनकी
तीन व्यंग्य रचनाएं।
हरीश नवल पर नरेंद्र मोहन, मधुसूदन पाटिल,प्रेम जनमेजय, सुभाष चंदर, सविता राणा के आलेख
हरीश नवल से उ”मा की बातचीत

व्यंग्य रचनाए में
प्रदीप पंत,सुशील सिद्धार्थ,समीर लाल ‘समीर,जगदीश पाठक,प्रह~लाद श्रीमाली,सुधीर ओखदे उमा बंसल अर्पिता,असीम कुमार आंसू, लालित्य ललित,,उपेंद्र कुमार,नरेंश शांडिल्य ,राजेंद्र निशेष मनोकामना सिंह ‘अजय,’विश्वनाथ,नवल जायसवाल, अश्विनी कुमार दुबे

बलराम, राधेश्याम तिवारी,तरसेम गुजराल, सुधा ओम ढींगरा, सुधा आचार्य, विजय अग्रवाल , लालित्य ललित के पुस्तकों की समीक्षा

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

व्यंग्य -अपनी शरण दिलाओ, भ्रष्टाचार जी !


अपनी शरण दिलाओ, भ्रष्टाचार जी !
पत्नी ने मुझसे कहा- सुनो अब और नहीं सहा जाता। या तो आप मुझे तलाक दे दो या फिर अपने को सुधार लो।’
सफेद-बाल प्राप्त अवस्था पति से कोई पत्नी ऐसा कहती है तो लगता है कि पति ने चाहे सफेद बालों को काला नहीं किया पर उसके श्याम मुख पर कालिख लगने वाली है। उसकी प्रतिष्ठा का सिंहासन डोलने लगता है। नारी-विमर्श, यौन-उत्पीड़न आदि के चारों ओर नारे लग रहे हों और कानून आंखों पर पट्टी बांध न्याय कर रहा हो तो पति के सामने स्वयं को सुधारने का ही विकल्प बचता है।
मैंनें भी इसी विकल्प को स्वीकार करते हुए कहा- हे देवी मैं स्वयं को ही सुधारूंगा , पर ये तो कहें कि आपने काली का उग्र रूप धारण कर मेरे मुख पर तलाक रूपी कालिमा लगाने का क्यों सोचा है ? मैंनें तो कुछ भी ऐसा करना छोड़ दिया है जो आप से सहा नहीं जाता। मैं तो निरीह, नपुंसक जीव-सा अपना समय काट रहा हूं...
- यही तो सहा नहीं जाता है। मोहल्ले के अन्य पुरुष जब निरंतर अपने पराक्रम से अपनी पत्नियों को प्रसन्न रख रहे हों, उनपर नित्य प्रति काले धन की वर्षा कर उसका मोहल्ले में सम्मान बढ़ा रहें हों, उसकी क्रय-शक्ति की जी डी पी में वृद्धि कर रहे हों तो आप ही कहें आप जैसे निरीह भ्रष्टाचारविहीन मास्टर के संग रहते -रहते कभी तो विद्रोह का स्वर उभरेगा। यह जीवन तो अकारथ गया , अगला जीवन तो सुधर जाए । इसके लिए मैं किसी सुयोग्य का दामन थाम कुछ भ्रष्टाचार का सुकर्म कर अपने अगले जन्म के लिए कुछ संचित करना चाहती हूं। ऐसे में या तो आप कुछ कर लें पतिदेव अन्यथा...
- मुझे तीन माह का समय दें देवी, मैं योग्य पति बनकर दिखता हूं।’

मुझ निष्काम को मेरी पत्नी कामी बनने को प्रेरित का भ्रष्टाचार की राह पर स्वयं धकेल रह थी। मुझे धिक्कार है कि मैं जीवनभर, चार क्या एक भी फल देने वाला भ्रष्टाचार न कर सका । मैंनें कॉलेज में मास्टर की नौकरी करते हुए फ्रेंच लीव मारने जैसा जो तनिक-सा भ्रष्टाचार किया है उसने पत्नी की श्रीवृद्धि में कोई वृद्धि नहीं की है। हिंदी जैसे विषय में कोई ट्यूशन नहीं रखता और न ही कोई कोचिंग सेंटर वाला घास डालता है अतः मैंने अपने काम से ही काम रखा है। मास्टर की नौकरी किसी गरीब के झोपड़े-सा ऐसा स्थल है जहां भ्रष्टाचार का वसंत कभी भी झांकता तक नहीं है।
पर मित्रों चुनौती एक बड़ी चीज होती है। और पुरुष के पौरुष को जब चुनैती मिलती है तो पत्थर में कमल खिल जाते हैं । ये दीगर बात है कि कमल दूसरे को मिलते हैं और पत्थर दीवाने के हिस्से में आते हैं। पर यहां तो चुनौती कम धमकी अधिक थी और जस की तस धरी हुई चदरिया में तलाक का दाग लगने का खतरा था।
मैंने भ्रष्टाचार की राह पर चलने की ठान ली। अगले दिन मैंने अपने एक विद्यार्थी को ब्लैकमेल करने इराद से कहा- देखो तुम्हारी एटेंडेंस कम हैं, इस बार परीक्षा में नहीं बैठ पाओगे, मुझसे अकेले में मिलना।’
- अरे सर जी मैं ं आपको तकलीफ न दूंगा, यूनियन का प्रेजीडेंट सब करवा देगा उसी से मिल लूंगा।
मैंने दूसरे को पकड़ा और कुछ बेशर्मी से कहा - तुम कुछ पढ़ लिख नहीं रहे हो। इस बार फेल हो जाओगे। पास होना चाहते हो तो मुझसे अकेले में मिल लो।’
स्टुडेंट जी अधिक बेशर्मी से बोले- सर जी आप तो केवल हिंदी में पास करवाओंगे, इक्जामिनेशन वाले शर्मा जी तो सबमे पास करवा देंगे। मैं उनसे ही मिल लूंगा।’
मित्रों जैसे-जैसे तीन माह की अवधि समाप्त हो रही है देश में बढ़ते भ्रष्टाचार के सं-संग मेरी आंखों का अंधेरा भी बढ़ रहा है।
अब मेरे सामने एक ही विकल्प बचा है कि भ्रष्टाचार का विरोध करने वालों के दल में शामिल हो जाउं, नारे लगाउं और हो सकता हे वहां मुझे भ्रष्ट करने वाले कोई सकटमोचक भ्रष्टाचार शिरोमणी मिल जाए जो अपनी शरण में ल ेले और बुढ़ापे में मुझे तलाक से बचा लें।

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

कविता की प्रासंगिकता: संदर्भ अज्ञेय, नागार्जुन, शमेशर बहादुर सिंह, एवं केदारनाथ अग्रवाल----दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी की रपट




पिछले दिनों कॉलेज ऑफ़ स्टडीज में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सहयोग से दो दिवयीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया, प्रस्तुत है उसकी विस्तृत रिपोर्ट

दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी

कविता की प्रासंगिकता: संदर्भ अज्ञेय, नागार्जुन, शमेशर बहादुर सिंह, एवं केदारनाथ अग्रवाल

गहरी प्रश्नवाचकता के कवि हैं अज्ञेय,शमशेर, नागार्जुन और केदार--अशोक वाजपेयी
कवियों को बंधी बंधाई दृष्टि से न देखा जाए - निर्मला जैन
स्वाधीनता काल के कवि हैं अज्ञेय,शमशेर, नागार्जुन और केदार-विश्वनाथ त्रिपाठी

कॉलेज ऑफ वोकेशनल स्टडीज में
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सहयोग से आयोजित

‘जो बीत जाता है उसके पुर्नावलोकन की बाते उठती है और जब हम इनपर चर्चा करते हैं तो नई बातें सामने आती हैं। आवश्यक्ता है इस निरंतर पुर्नावलोकन की। कविता की प्रासंगिकता को समय पाठक और अभिरुचि की दृष्टि से परखा जाना चाहिए। और जब हम अज्ञेय, नागार्जुन, शमेशर बहादुर सिंह, एवं केदारनाथ अग्रवाल की जन्मशताब्दी के अवसर पर उनके रचनाकर्म को देख रहें तो बहुत आवश्यक हो जाता है कि पहले से ही कठघरे में बांधकर देखने की छवि को तोड़कर पढ़ा जाए।’ यह उद्गार कॉलेज ऑफ वोकेशनल स्टडीज ,दिल्ली विश्वविद्यालय, द्वारा ‘कविता की प्रासंगिकता: संदर्भ अज्ञेय, नागार्जुन, शमेशर बहादुर सिंह, एवं केदारनाथ अग्रवाल’ विषय पर कॉलेज ऑफ वोकेशनल स्टडीज द्वारा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सहयोग से आयोजित, दो दिवयीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन करते समय प्रसिद्ध आलोचिका निर्मला जैन ने कहे । उन्होंने कहा कि अज्ञेय ने उपन्यास तथा कथा को नयी दिशा दी, छायावाद को उखाड़ा तथा नागार्जुन और केदार ने राजनीति को काव्य का विषय बनाया। शमशेर संवेदना,आत्मसंवाद और आवेग के कवि हैं तथा उनकी राजनीतिक कविताएं स्थूल और सपाट हैं। इन चारों कवियों में से अज्ञेय एकमात्र ऐसे कवि हैं जिन्होने शरणार्थी समस्या पर कविताएं लिखीं। नागार्जुन की राजनीतिक कविताएं गहरी तकलीफ की कविताएं हैं। आलोचकों ने केदार जी को मात्र राजनीतिक कवि कहकर सीमित किया है और उनका अवमूल्यन किया है।’ प्रो0 निर्मला जेन ने केदारनाथ अग्रवाल की अनेक प्रेम कविताओं को उद्धृत भी किया।
अपने अध्यक्षीय भाषण में अशोक वाजपेयी ने कहा-इन चारों कवियों ने यथार्थ और वैकल्पिक यथार्थ की कल्पना की। ये चारों कवि गहरी प्रश्नवाचकता के कवि हैं। इन्होने स्वयं की कविता पर संदेह किया है। जन्म-शताब्दी पर इन चारों को याद करना एक जैविक घटना है। इन चारों कवियों में सौंदर्यबोध, संघर्षबोध है । शब्द की विपुलता से ही जीवन की विपुलता का बोध होता है जो अज्ञेय में सर्वाधिक है। अज्ञेय हिंदी के अंतिम प्रकृतिपरक बौद्धिक कवि हैं। शब्द की विपुलता से ही जीवन की विपुलता का बोध होता है और यह अज्ञेय में सर्वाधिक है। नागार्जुन का शिल्प अभिधात्मक है। वे सामान्य जीवन के कवि हैं। नागार्जुन को पश्चिमी सभ्यता के क्रिटीक के रूप में पढ़ा जा सकता है। चारों कवि बंधे-बंधाए उत्तरों को अस्वीकार करते हैं। इन चारों कवियों में शिल्प की अपार विविधता है जबकि आज की अधिकांश कविता अखबारी है।
विशिष्ट अतिथि विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा - इन कवियों की राजनतिक समझ को स्वातंत्र्य प्रेम की नज़र से भी देखा जाए क्योंकि ये चारो कवि स्वाधीनता काल के कवि हैं। उन्होंने पाब्लो नेरूदा का उदाहरण देते हुए कहा कि जिन कवियों ने राजनीतिपरक रचनाएं की हैं उन्होंने प्रेम पर भी खूब लिखा है। केदार और नागार्जुन को इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। आज ग्लोबल बाजारवाद के चक्कर में ग्लोबल संवेदना को केंद्र में रखकर लिखा जा रहा है। अज्ञेय की निजता एक ऐतिहासिक जरूरत थी।’
प्राचार्य डॉ0 इंद्रजीत ने अतिथियों का स्वागत एवं धन्यवाद किया और संगोष्ठी को ऐतिहासिक बताते हुए कहा - आज जिस संगोष्ठी का उद्घाटन होने जा रहा है, वह आप सबकी उपस्थिति से एक ऐतिहासिक अवसर बन गया है। अज्ञेय, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और शमशेर बहादुर सिंह का यह शताब्दी वर्ष है। इस वर्ष पूरे भारत में अनेक महत्वपूर्ण कार्यक्रम आयोजित किए गए हैं । आज का कार्यक्रम उसी श्रृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी कहा जा सकता है। उद्घाटन सत्र के आरंभ में संगोष्ठी के संयोजक डॉ0 प्रेम जनमेजय ने प्रस्तावित विषय के संबंध में विस्तार से बताया एवं आज के समय में जब कविता अन्य विधाओं के संदर्भ में छूटती जा रही है, ऐसे में अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन और केदार की कविता हमारे आज के समय को क्या संबल देती है।
उद्घाटन सत्र में प्रेम जनमेजय द्वारा संपादित पुस्तक ‘श्रीलाल शुक्लः विचार विश्लेषण एवं जीवन’ का लोकार्पण भी किया गया।

संगोष्ठी का पहला सत्र केदारनाथ अग्रवाल पर केंद्रित था जिसकी अध्यक्षता डॉ0 नित्यानंद तिवारी ने की तथा मुख्य अतिथि थे डॉ0 खगेंद्र ठाकुर। इस सत्र में डॉ0 बली सिंह, डॉ0 द्वारिकाप्रसाद चारुमित्र एवं डॉ0 विनय विश्वास ने अपने आलेख पढ़ें। डॉ0 नित्यानंद तिवारी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा- हम इस पूंजीवादी सभ्यता में अनुकूलित हो जाना चाहते हैं या अपनी मानवीय भूमिका निभाना चाहते हैं, यह निर्णय हमें ही करना है। रामविलास शर्मा ने केदार को कामचेतना के आंचलिक कवि कहा है जिसमें उन्होंने स्थानीय तस्वीर पैदा कर दी है। चारों कवियों के पास मनुष्य के रूप हैं चाहे अलग-अलग रूप में हों। आज के युग में मनुष्य सूचनाओं का मात्रा यंत्र हो गया है।’ तिवारी जी ने केदार की दो कविताओं ‘न घटा जो यहां कभी पहले’ और ‘अब’ कविताओं के संदर्भ में कहा कि केदार जी के यहां सही मनुष्य की उपस्थिति है। मुख्य अतिथि खगेंद्र ठाकुर ने कहा - आज के युग में पूंजीवाद को मनुष्य की मनुष्य के रूप में जरूरत नहीं है, उसकी जरूरत है तो खरीददार के रूप में। राजनीति सिर्फ पार्टीबाजी में नहीं अन्य चीजों में भी देखी जा सकती है। केदार की फुटकल कविताओं में मनुष्य के संघर्षों का जो रूप है वह महामानव का रूप दिखाता है। केदार के यहों प्रकृति की अनेक ऐसी कविताएं हैं जो छायावाद से भी अच्छी हैं। आज का समाज यदि हमंे अच्छा नहीं लगता है तो केदार प्रासंगिक कवि हैं। डॉ0 बलीसिंह ने कहा- केदार व्यक्ति को महत्व देते हैं, उसकी आईडेंटीटी को महत्व देते हैं। केदार ने न केवल नदी में सौंदर्य देखा अपितु नाले में भी सौंदर्य देखा और उसे काव्य का विषय बनाया।’ डॉ0 द्वारिकाप्रसाद चारुमित्रा ने कहा - अज्ञेय को छोड़कर सभी कवि जनपद के कवि के परिचायक लेते हैं। नागार्जुन और केदार में विद्यापति की प्रेरणा बोलती है और उनकी कविताओं में सास्कृतिक आवाज बोलती है। केदार की कविता की कविता मानव की कविता है। उनकी कविता अमानवीय संसार में इंसानियत की खोज की कविता है।’ डॉ0 विनय विश्वास ने कहा - अशोक वाजपेयी ने जो कहा कि अज्ञेय प्रकृति के अंतिम कवि है, इससे मैं सहमत नहीं। केदार की कविताएं प्रकृति के हर रंग को उकेरती हैं। केदार की कविताओं में ‘ध्ूप’ पर लिखा बहुत कुछ मिलता है।’ विनय विश्वास ने केदार की अनेक प्रकृतिपरक कविताओं को प्रस्तुत किया। सत्र का संचालन डॉ0 रत्नावली कौशिक ने किया।
संगोष्ठी का दूसरा सत्र नागार्जुन पर केंद्रित था जिसकी अध्यक्षता प्रो0 गोपश्वर सिंह ने की तथा मुख्य अतिथि थे डॉ0 विजय बहादुर सिंह। अपने अध्यक्षीय भाषण में प्रो0 गोपेश्वर सिंह ने कहा- नागार्जुन मुक्तिकामी कवि हैं। वे बड़े रेंज के कवि हैं। इनकी काव्य विशाल भूमि है तथा इनमें छंदों और काव्य रूपों की बहुलता है। प्रश्नाकुलता यदि आध्ुनिकता का लक्षण है तो नागार्जुन आधुनिकता के कवि हैं। मनुष्य की मानवीयता में विश्वास ही आधुनिकता की सर्वोत्तम कसौटी है। नागार्जुन भावुकता के नहीं आवेग के कवि हैं। नागार्जुन काव्य की बारिकियों के लिए हलकान रहने वाले कवि नहीं हैं। अज्ञेय नागर रुचि के कवि है तो नगार्जुन बोली के कवि हैं। दिनकर और बच्चन के बाद नागार्जुन ऐसे कवि हैं जिनको आनंद से पढ़ा जा सकता है। ‘नई कविता’ के महल में सेंध लगाने वाली कविता नागार्जुन की है।’ मुख्य अतिथि डॉ0 विजय बहादुर सिंह ने कहा - कविता की प्रासंगिकता समाज में मनुष्य के बचे रहने की प्रासंगिकता है। मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने के लिए कविता लिखना और चर्चित होने के लिए कविता लिखना दो अलग- अलग बातें हैं। बहुत लोग लिखना जानते हैं पर नहीं जानते कि लिखना क्या है। साहित्य को कला समझने वाले नागार्जुन की कविता को समझ नहीं सकते हैं। प्रेमचंद, नागार्जुन खेतिहर समाज के रचनाकार हैं। नागार्जुन जनता के पक्ष में उसी की भाषा में लिखने वाले कवि हैं। नागार्जुन और निराला समान संवेदना के कवि है। डॉ0 अनामिका ने ‘नागार्जुन के काव्य में स्त्री-पक्ष’ पर बोलते हुए कहा -नागार्जुन ने अपने साक्षात्कारों में कम-से- कम पांच वर्ष के लिए अपने स्त्री बन जाने की इच्छा का जिक्र किया है। बाबा स्त्रियों के दोस्त बन गए थे और उनकी रसोईघर में उनका आना जाना था। नागार्जुन ने प्रतिबद्ध कविताएं लिखीं।राधेश्याम तिवारी ने कहा- नागार्जुन ने ज्ञानात्मक संवेदना वाली कविता का महत्व बताया, न कि ज्ञान से लिखी कविताओं का। नागार्जुन की कविताओं में बौद्धिकता का आतंक नहीं है। जो बौद्धिक कविताएं लिखते हैं वे अपने समय से तो कटते ही हैं, बाद के समय से भी कट जाते हैं। बचे रहेंगे शब्द और बची रहेगी संवेदनाए।’ डॉ0 बागेश्री चक्रधर ने नागार्जुन को बौद्ध धर्म से मिली प्रेरणा की चर्चा करते हुए कहा - नागार्जुन पर सिद्धों-नाथों जैसी जीवन-प्रणाली का प्रभाव था। उन्होंने विचारधाराओं से अनुभव तक की यात्रा की।’ बागेश्री चक्रध्र ने बाबा नागार्जुन से जुड़े अनेक रोचक संस्मरणों का उल्लेख करते हुए कहा कि बाबा मानते थे कि पेट से बड़ा कोई आंदोलनकारी नही होता और बाबा दूसरी विचारधारा के लोगों से भी संवाद करते थे। डॉ0 हरीश नवल ने नागार्जुन से जुड़े अनेक रोचक संस्मरण सुनाते हुए कहा- वे सही अर्थों में जनकवि थे। उनके साथ गुजरे हुए मेरे और मेरे दादा जी के क्षण मेरे लिए अविस्मरणीय हैं। इस सत्रा का संचालन डॉ0 वीनू भल्ला ने किया ।
संगोष्ठी का तीसरा सत्र अज्ञेय पर केंद्रित था जिसकी अध्यक्षता श्री ओम थानवी ने की तथा मुख्य अतिथि थे डॉ0 कृष्णदत्त पालीवाल । अपने अध्यक्षीय भाषण में ओम थानवी नेकहा- अज्ञेय एक बड़े कवि थे जिनका मूल्यांकन करते समय अक्सर उनके व्यक्तित्व से जुड़े हुए संदर्भों को आधर बना लिया जाता है। प्रेम जनमेजय ने सही सवाल उठाया है कि रचनाकार के व्यक्तित्व को क्या साहित्यकार के रचनाकर्म की कसौटी माना जाए। अब अज्ञेय पर सी आई ए का एजेंट होने से लेकर उनके दंभी व्यक्तित्व को लेकर अनेक आरोप लगाए जाते है। इस आधर पर क्या अज्ञेय के साहित्य को खारिज कर दिया जाए। आप जितनी देर शेक्सपीयर की रचना को पढ़ते हैं उतनी देर शेक्सपीयर के रचना संसार में खो जाते हैं, न कि उनके व्यक्तिगत जीवन में खोते हैं। साहित्य की आलोचना करने का अपना यी ‘व्यक्तिवादी ’ दृष्टिकोण हम न जाने कब बदलेंगं?’ मुख्य अतिथि डॉ0 कृष्णदत्त पालीवाल ने कहा - अज्ञेय की अब तक सही आलोचना नहीं हुई है। नददुलारे वाजपेयी ने जो आक्षेप लगाए वे तर्क की विकृति कहे जाएंगे। डॉ0 नगेंद्र ने रस सिद्धांत के आधर पर आलोचन की जो कि विडंबनापूर्ण था। रामविलास शर्मा ने अज्ञेय की कविता को जड़ाउफ, कड़ाउफ आदि बताया जो कि निराधर था। नामवर सिंह ने अज्ञेय को व्यक्तिवादी और कलावादी कहा, ‘कविता के प्रतिमान’ के द्वारा अज्ञेय की नाक पर घूसंा जड़ा। अज्ञेय को टी एस इ।लियट, डी एच लॉरेंस आदि से तुलना करने वाले झूठे हैं। अज्ञेय की तुलना यदि किसी से हो सकती है तो वे हैं प्रसाद। हिंदी आलोचना ने अज्ञेय के साथ न्याय नहीं किया है। अज्ञेय पर नए ढंग से सोचा जाना चाहिए।’ डॉ0 प्रेम जनमेजय ने अज्ञेय की व्यंग्य चेतना पर बोलते हुए कहा- नागार्जुन, केदार और अज्ञेय पर हुई बातचीत में हम देख रहे हैं कि व्यक्तित्व को कवियों के रचनाकर्म की कसौटी माना जा रहा है। क्या रचनाकार के व्यक्तित्व को उसकी कसौटी माना जा सकता है? अज्ञेय विसंगतियों पर प्रखर प्रहार करने वाले रचनाकार हैं। आधुनिक व्यंग्य का चेहरा अज्ञेय के व्यक्तित्व जैसा-- सौम्य,धीर -गंभीर और स्मित हास्य वाला होना चाहिए जिसमें हंसी आए तो अनावश्यक न लगे।’ रमेश मेहता ने अज्ञेय पर बनी डाक्यूमेंटरी का प्रदर्शन करते हुए कहा -अज्ञेय मौन के कवि थे। वे बहुत ही व्यवस्थित व्यक्तित्व के स्वामी थे। पर जिस दंभ की उनके संबंध् में चर्चा होती है, वह मुझे उनमें कभी नहीं मिला।1983 में जम्मू में युवा कवियों से बातचीत करते हुए उन्होंने कहा था कि जिसे छंद का ज्ञान होगा वही तो मुक्त छंद की कविता लिख पाएगा। डॉ0 अवनिजेश अवस्थी ने कहा- अज्ञेय के संबंध् में अध्ूरी आलोचनाएं की जा रही हैं। अज्ञेय को आजतक एक ही चश्मे से देखा गया है। अज्ञेय ने हिंदी साहित्य को ऐतिहासिक योगदान दिया है। डॉ0 अर्चना वर्मा ने ‘अज्ञेय के भाषिक रहस्यवाद’ पर अपना आलेख पढ़ा। डॉ0 वीनू भल्ला ने अज्ञेय से जुड़े संस्मरण के साथ-साथ अज्ञेय के साहित्यिक अवदान की भी चर्चा की। कार्यक्रम का संचालन विनय विश्वास ने किया।
संगोष्ठी का चौथ सत्र शमशेर बहादुर सिंह पर केंद्रित था जिसकी अध्यक्षता डॉ0 हरिमोहन शर्मा ने की । सत्र के अध्यक्ष डॉ0 हरिमोहन शर्मा ने कहा - शमशेर में एक जैनुअन आदमी बनने की चाहत थी। आलोचक किसी रचनाकार को एक कठघरे में बांधकर सरल मार्ग अपना लेते हैं। इससे कवि की विचारधरा जानकर उसी फ्रेम में कवि के काव्य-कर्म की व्याख्या कर ली जाती है। शमशेर ने न केवल कविता की भाषा सीखी अपितु अपने मामा से रंगों की भाषा भी सीखी। वे खूब पढ़ने वाले रचनाकार थे जो साहित्य के माध््यम से जीवन की लय को स्वयं में जब्त कर लिया करते थे।’ डॉ0 हरिमोहन ने शमशेर की ‘बैल’ कविता के माध्यम से उनके का्रपफट और विचार को व्याख्यायित किया। डॉ0 दिविक रमेश ने कहा- शमशेर प्रेम के पीछे पड़ने वाले नही, उसपर रीझने वाले कवि हैं। शमशेर जनता के हित में काम करने वाले कवि हैं। शमशेर का क्रापफट सबसे अलग है। डॉ0 अजय नावरिया ने कहा - शमशेर काल से होड़ की शक्ति रखते हैं, जबकि सुविधसंपन्न लोग कतरा कर निकल जाते है। शमशेर ने कहा था कि मुझे अमेरिका का स्टेच्यू ऑपफ लिबर्टी भी उतना ही प्यारा है जितना रूस का लालतारा। यानि शमशेर आजादी को स्पेस देते हैं। कला का संघर्ष समाज के संघर्ष से अलग की चीज नहीं हो सकता है। शमशेर और नागार्जुन, दोनो ने, बात को हथियाद माना है।’ भारत भारद्वाज ने कहा- शमशेर का साहित्यिक व्यक्तित्व एक कवि का है पर उन्होने ‘चांद का मुह टेढ़ा’ है की भूमिका के रूप में जो गद्य लिख है वह अद्भुत है। शमशेर की काव्य-पंक्तियां अपने समय में ही मुहावरा बन गई थंी। अज्ञेय ही नहीं शमशेर की कविता में भी सन्नाटा और मौन है। डॉ0 हेमंत कुकरेती ने कहा - आज प्रेम कामकाजी कुटीर उद्योग बन गया है जिसमें निजीपन नहीं रह गया है किंतु शमशेर में यह निजीपन मिलता है। उनके यहां प्रेम निरा शरीरिक नहीं है।’
अंत में प्रेम जनमेजय ने चारों सत्रों में चर्चित मुद्दों की संक्षिप्त रिपोर्ट प्रस्तुत की तथा प्रचार्य डॉ0 इंदजीत ने सभी का आभार व्यक्त किया।