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गुरुवार, 11 जुलाई 2019

व्यंग्य रचना ,'यह भी ठीक, वह भी ठीक'

यह भी ठीक, वह भी ठीक
बात उन दिनों की है जब मध्यम वर्ग के लिए कार एक सपना हुआ करती थी। कुछ के सपने साकार हो जाते हैं, कुछ के निराकार रहते हैं। निराकार सपने आत्महत्या कराते हैं। कुछ को कार मिल जाती है और कुछ की बेकारी बरकारार रहती है।
उन दिनों स्कूटर की अपनी शान थी। लड़की पटाने से लेकर बढ़िया दहेज जुटाने तक काम में आता था। स्कूटर पर बैठे आदमी की इज्जत का सैंसेक्स बढ़ जाता था जैसे पंाच सितारा होटल में जाने वाले या इंट्रव्यूह में झर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले का बढ़ता है। पूरी फैमली स्कूटर के हर हिस्से पर ठुस जाती और महसूसती जैसे पुष्पक विमान में विराजमान है। घर के हर सदस्य का सहारा इकलौता स्कूटर होता। आजकल... घर के हर सदस्य की अपनी-अपनी कार परिवार को बेसहारा किए है।
तो उन दिनों, हमारे काॅलेज के प्रिंसिपल स्कूटर की शाही सवारी में आते थे। एक दिन देखा अपने स्कूटर के सामने बैठे स्टैंड पर ताला लगा रहे हैं जैसे कुछ संसद में बैठ ईमानदारी को ताला लगाते हैं।
- आपने भी ताला लगवा लिया?’
- हां जी, बहुत जरूरी है। देखो जी बिना ताले के स्कूटर खड़ा हो तो कोई भी चाबी लगाकर स्कूटर स्टार्ट करे और ले जाए।
- पर चोर तो स्टैंड वाले ताले की भी चाबी बनाकर उसे खोल सकता है?
- बिल्कुल जी चोरों के सामने ताले क्या ! उनके पास तो 'मास्टर की' होती है। वो गाना हे न जी, बड़ा ही सी आई डी है नीली छतरी वाला, हर ताले की चाबी रखता हर चाबी का ताला।
- ऊपर  वाला सी आई डी होता है ? मुझे तो लगता है कि जो सत्ता में सबसे ऊपर  पहुंचता है, वो सी आई डी रखता है। उसके पास हर ताले की चाबी होती है। जिसकी चाहे फाईल खोल ले।
- मेरा तो फिल्मी गाना था और आप कर रहे हो ऊँची  राजनीतिक बात । दोनो अपनी -अपनी जगह ठीक हैं।
- पर ताले के चाबी कैसी भी हो, ताला खोलने में टाईम तो लगेगा। पहले चोर नीचे झुकेगा, फिर ताला खोलेगा। उसके बाद स्टार्ट करने की चाबी लगाएगा। टाईम डबल लगेगा।
- यह मारा, डबल टाईम में तो चोर पकड़ा जाएगा। ताला लगाना ठीक ही है।
- पर टाईम से पता न चला तो , ताला लगाना बेकार गया न।
- बिल्कुल ठीक, ताला लगाना बेकार गया।
- फिर आपने क्यों लगा लिया ?
- बच्चो ने कहा तो मैंने टाल दिया पर जब पत्नी ने कहा तो टाल नहीं सका। पत्नी तो हाईकमांड  होती है नं। पर जब भी ताला खोलने या बंद करने बैठता हूं तो डर लगा रहता है कि कोई नस न खिंच जाए। डाक्टर बेड रेस्ट बोले और बिस्तर पर ही सब कुछ न करना पड़ जाए।
- तो मैं ताला न लगवाऊं  ?
- रहने दो जी!
- ताले से मन को तसल्ली रहती है ।
- तो लगवा लो जी।
कर्णधार देश को चौराहे पर छोड़ते हैं उन्होंने मुझे  छोड़ दिया। 
इन दिनों एक साहित्यकार 'मित्र' मिल गए। वे सच्चे साहित्यकार हैं क्योंकि उनके पास एकठो कार है। वे सक्रिय साहित्यकार हैं। वे फेसबुक, व्हाट्स एप्प, ट्यूटर के रात- दिनी साहित्यकार हैं। जब चाहें गर्दन झुकाकार आप इन यार की उपस्थिति देख सकते हैं। इससे पहले उनको साहित्यिक कब्ज रहती थी। कोई उनकी रचना पर बात नहीं करता, अपनी पसंद जाहिर नहीं करता... इस कारण कब्जियाते रहते। डाॅक्टर ने जबसे उन्हें फेसबुक, व्हाट्स एप्प, ट्यूटर का त्रिफला चूर्ण दिया है उनकी अभिव्यक्ति के द्वार खुल गए हैं। बार-बार लगातार वाले इस्टाईल में वे अपनी चमकार बिखेरते रहते हैं। प्रतिदिन दिन में कम से कम चार -पांच बार वे सोशल मीडिया पर ज्ञान -मुद्रा में अवतरित होते हैं। उनकी पुस्तकें लेटकर, बैठकर, खड़े होकर आदि अनेक सार्वजनिक मुद्राओं में पढने वाले पाठकों के चित्र साझा होते हैं।
मैंने पूछा - क्या हो रहा है?
वे बोले- हैं ... हैं ..अब  और क्या होना है, लेखन के मजदूर हैं,साहित्य हो रहा है।
- पर हर समय तो साहित्य नहीं हो सकता। पापी पेट को भरने और खाली करने का भी तो समय चाहिए।
- ये आपने बिल्कुल सही कहा।’’  उनकी आंखें मेंढक- सी फैल गईं।
- पर साहित्य में पूरा समय नहीं देंगे तो मान सम्मान कैसे मिलेगा ? साहित्यकार के लिए तो साहित्य ही प्राथमिकता है।
- बिल्कुल सही। मान-सम्मान और पुरस्कार साहित्य को समय देने से ही तो मिलेंगे।
- पर आजकल तो सब जुगाड़ से मिलता हैं। 
- बिल्कुल ठीक , सब जगह जुगाड़ चलने लगा है।
- पर कुछ तो  जेनविन होते हैं। आपको भी तो पिछले दिनों मिला, जेनविन।
- पर ‘उसे’ जो मिला जुगाड़ से मिला। बहुत ही खराब लिखता है।
- खराब तो लिखता है... अच्छे साहित्य की समझ नहीं है।
-  उसकी कुछ रचनाएं तो बढ़िया हैं, शायद उनपर मिला हो।
-  उन्हीं पर मिला होगा। उसकी दो तीन किताबों की मैंने तो समीक्षा की है।
- आपकी साहित्यिक दृष्टि एकदम साफ है।
- हैं ... हैं ... आपकी भी तो ... 
ऐेसे सज्जन सांप की तरह बल खाते  हैं।इनकी कुटिया सत्ता के गलियारों में छवी रहती है। इनका नख -शिख सत्ता की कड़ाही में होता है।इन सगुणवादियों का मस्तक प्रभु समक्ष सदा नवा रहता है। ये बुरा देखने जाते ही नहीं इसलिए इन्हें ‘बुरा न मिलया कोय।’ इनकी नाक दुर्गंध नहीं सूंघती है इसलिए कूड़े और इत्र की गंध, सुगंध समान होती है। ये भैंस के आगे बीन बजाकर उसे प्रसन्न करने की कला जानते हैं। इनका अधिक सेवन अच्छा तो लगता है पर मधुमेह होने का खतरा रहता है।  
कुछ सदाबहार सहमतिए हैं तो कुछ सदाबहार असहमतिए। ये केवल स्वयं से सहमत होते हैं। हर समय दुर्वासा की मुद्रा में रहते हैं। यह हर संबंध तराजू में तोलते हैं।  किसी को मिल जाए तो रुष्ट,स्वयं को मिले और कम मिले तो रुष्ट। कोई ग्रहण करे न करे ये श्राप बांटते रहते हैं।
मैं आज तक कन्फयूजाया हुआ  हूं, ग़ालिब से पूछता हूँ - तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़े - ए - गुफ़्तगू क्या है।' पर ग़ालिब क्या बोले, उसकी तो जुबान काट दे गयी  है। 
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