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शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

श्रद्धेय कन्हैयालाल नंदन 25 सितंबर को स्वर्गवास

कन्हैयालाल नंदन-एक जीवंत नौकुचिया ताल

मैं पिछले 36 वर्षों से नंदन जी को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं और हमारे रिश्ते की शुरुआत 36 के आंकड़े से ही हुई पर यह 36 का आंकड़ा जल्दी ही 63 के आंकड़े में बदल गया । मैं पहली बार सन् 1974 में मिला था और वह मिलना एक घटना हो गया । इस घटना पर आधारित एक लेख मैंनें लिखा था -- सही आदमी गलत आदमी। पर जैसे समय बीता, उसने बताया कि रिश्तो को सहेजकर रखने वाला तथा उसे बुरी नजरों से बचाने वाला कन्हैयालाल नंदन नामक यह जीव संबंधों में गलत नहीं हो सकता है। जो व्यक्ति अपनी बीमारी को भी लोगों की निगाह से बचाकर रखता हो,उसका जिक्र आते ही उसके साथ जुड़े अपने संबंधों को व्याख्यायित न करता हो, वो मानवीय रिश्तों में कैसे 36 का रिश्ता बर्दाश्त कर सकता है।
नंदन जी बीमार हैं। बीमारी ने उन्हें शारिरिक रूप से दुर्बल कर दिया है परंतु बीमारी सबंधों की आंच को धीमा नहीं कर पाई है। आज भी अपने किसी का निमंत्रण हो तो कैसे भी वहां पहुंचना उनकी पहली प्राथमिकता होती है। अस्वस्थता बहाना भी तो नहीं बन पाती है।
पिछले दिनों परंपरा के कार्यक्रम में वे अपने दोस्तों की फौज के साथ उसी तरह से मिलने का यत्न कर रहे थे जैसे पहले मिला करते थे। अपनी बीमारी का जिक्र आते ही एक मुस्कान चेहरे पर खेलकर जैसे कहती कि, ये अपना काम कर रही है मैं अपना। उस दिन उन्होने बताया कि मैं अपनी आत्मकथा के अगले खं डमें व्यस्त हूं। मैं और उत्सुकता जाहिर की तो बोले कि आ जाओ। बुध का समय तकय हुआ और इससे पहले कि मैं उनके घर के लिए निकलता,उनका फोन आ गया-राजे, अभी रहने दो, तबीयत जरा ठीक नहीं है।’ मैं समझ गया कि जिस तबीयत को वह जरा बता रहे हैं वो कुछ अधिक ही है वरना मिलने से जो मना करे वो नंदन नहीं हो सकता ।
मेरा मन था कि इस स्तंभ के लिए उनसे एक बातचीत की जाए। इस आयोजन के लिए मैंने कृष्णदत्त पालीवाल से आग्रह किया तो वे ेबोले- प्रेम, उनका स्वास्थ इस योग्य नहीं है।वेे कुछ मना तो नहीं करेंगें पर उन्हें परेशान करना उचित न होगा।’ ऐसे में सोचा कि मैं ही उनके संदर्भ में,औरों का जोड़कर लिख दूं।
कन्हैयालाल नंदन के संबंध में लिखने को कुछ सोचता हूं कि एक विशाल चुनौती युक्त दुर्गम किंतु इंद्रधनुषी प्राकृतिक सौंदर्य से युक्त ,निमंत्राण देता पर्वत मेरे सामने खडा है। ऐसी चुनौतियों को स्वीकार करना मुझे अच्छा लगता है । और इतने बरस से नंदन जी को जानता हूं, इतनी यादे हैं कि उनपर लिखना बांए हाथ का खेल है । पर लिखने बैठा तो उंट पहाड के नीचे आ गया । पता चला कि दोनों हाथों , दिलो - दिमाग और अपनी सारी संवेंदनाओं को भी केंद्रित कर लूं तो इस लुभावने पर्वत के सभी पक्षों को शब्द बद्ध नहीं कर पाउंगा । नैनीताल के पास एक ताल है -- नौकुचिया ताल । कहते हैं इसके नौ कोणों को एक साथ देख पाना असंभव है । इस व्यक्तित्व में इतने डाईमेंशंस हैं कि ... । तुलसीदास ने कहा है कि जाकि रही भावना जैसी प्रभु मूरति देखी तिन तैसी । अब कन्हैयालाल नामक यह प्राणी प्रभु है कि नहीं अथवा नाम का ही कन्हैया ,यह खोज करना आधुनिक आलोचकों का काम है पर इस मूरति को लोग अनेक रूपों में देखते हैं , यह तय है। इस नौकुचिया ताल के कोणों में- कला,कविता,मंच, पत्रकारिता,मीडिया, संपादन,अध्यापन, मैत्री, परिवार आदि ऐसे कोण हैं जिन्हे किसी एक साथ देख पाना संभव नहीं है।
मेरी इस घोषणा पर कई महानुभाव त्योरी चढ़ाकर , आलोचकीय गंभीर मुद्रा ग्रहणकर , कह सकते हैं कि क्या इतना उलझाउ, गडमड, अबूझ और रहस्यात्मक व्यक्ति है कन्हैयालाल नंदन नामक जीव । और अगर ऐसा है तो हमारा दूर से लाल सलाम , काला सलाम या भगवा सलाम। हम तो सीधे साधे इंसान हैं और ऐसे ही इंसान को जानना चाहते हें । तो मिलिए न इस सीधेे साधे इंसान से । दर्शन कीजिए पर्वत पर उतरती आलोकित किरणों का , देवदार से समृद्ध इस पर्वत के सौंदर्य को निहारिए नं । नीचे से ही इसकी उंचाई को देखकर प्रसन्नचित्त होईए नं ।अब आप एक पर्यटक बनकर इस व्यक्तित्व को जानना चाहते हैं या एक पर्वतारोही बनकर , ये आपकी इच्छा है। विभिन्न कोणों से युक्त इस पूरे ताल की तरल,स्नेहिल एवं विपुल राशि का आत्मीयता अनुभव करना उसी के लिए सहज है जिसके लिए नंदन जी सहजता से उपलब्ध करवाना चाहते हैं।

सारिका,पराग,दिनमान,नवभारत टाईम्स, संडे मेल, इंडसइंड जैसी अनेक कुरसियां बदली और कभी ये कुरसियां नहीं भी रहीं पर यह इंसान नहीं बदला । इसका कष्ट बहुतों को रहा और नंदन जी ने बहुतों को यह कष्ट मुक्त भाव से बहुत बांटा भी । दोस्तों से मिलने पर हंसी के जो फव्वारे मैंनें सारिका में छूटते देखेे थे वही सफदरजंग एंक्लेव के इंडसईड के कार्यालय में, जनपथ की कॉफी शाप में और अनेक साहित्यिक गोष्ठीयों में छूटते देखे हैं । यह फुव्वारे अपनों के लिए एक्सक्लुसिव हैं । अपरिचितों के बीच यही धीर गंभीर मुद्रा में बदल जाते हैं । अपने निजत्व में हर किसी को झांकने की इज्जात नहीं देता है यह व्यक्ति । कन्हैयालाल नंदल के विभिन्न समयों पर आवश्यकतानुसार बदलते इस सटीक बदलाव को देखकर लगता है जैसे आप किसी महाकाव्यात्मक उपन्यास के पात्रों को जी रहे हैं । जहां देश काल और चरित्रा के बदलते ही भाषा और शैली बदल जाती है । जो नंदन सिंह बंधु, बीर राजा, महीप सिंह गोपाल चतुर्वेदी के सामने टांग खिंचाई का मुक्त दृश्य प्रस्तुत करते हैं और उस माहौल में बातें कम ठाहके ज्यादा होते हैं वही अपने किसी आदरणीय से बात करते समय शब्दों के प्रति अतिरिक्त सचेत होते हैं । जो पसंद है उसपर समस्त स्नेह उडेलने और जो नहीं है उसपर टरकोलॉजी के बाणों का प्रयोग करने में सिद्धहस्त यह व्यक्ति आभास तक नहीं होने देता है और आप घायल हो जाते हैें । अगर आप पसंद आ गए तो आप दोतरफा घायल होंगें । ( हां अपनों से भी घायल होते , सही शब्द होना चाहिए आहत होते भी मैंनें इस दिल को देखा है । हिंदी साहित्य में आपके अनेक ऐसे ज्ञानी ध्यानी आलोचक मिल जाएंगें जो जब आपसे अकेले में मिलेंगें तो आपकी रचनाशीलता के पुल बांध देंगें , जो रचनाएं आपने लिखी नहीं हैं उनकी भी प्रशंसा कर डालेंगें और खुदा न खास्ता आप अपनी कुरसी के कारण महत्वपूर्ण हैं तो ऐसे प्रशंसात्मक पुलों का कहना ही क्या । पर यही ज्ञानीजन जब आपके बारे में लिखने बैठते हैं तो इनकी अंगुलिया थरथराने लगती है और कलम बचकर चलती हुई चलनें लगती है ।)
नंदन जी के मित्रों,शुभंिचतको,आलोचकों,प्रशंसको, राजनैयिकों, राजनैतिज्ञों, नौकरशाहों, अनुजों, अग्रजों आदि की एक लंबी फौज है। इस फौज का प्रत्येक अंश उनके साथ न जाने किस गोंद से जुड़ा है। इस फौज ने सुअवसर तलाश कर नंदन जी के व्यक्तित्व कृतित्व के संबंध में अपने विचार व्यक्त करने में कोई कृजूसी नहीं की है।उन सबके उद्धरण ही दूं तो ‘गगनांचल’ के तीन-चार अंक तो निकालने ही पड़ेंगें। चावल के दानों से कुछ हाजिर हैं।
इंदरकुमार गुजराल ,पूर्व प्रधानमंत्री
एक ऐसे दोस्त का तआरुफ करना,जिसकी जहानत और दानिशमंदी के आप कायल हों, उतना ही मुश्किल काम है जितना खुद अपना तआरुफ खुद करना।दोनो में यकसा मुश्किलें हैं।और फिर कन्हैयालाल नंदन के बारे में कुछ लिखना हो तो और भी मुश्किल है क्योंकि मैं यह तय नहीं कर पा रहा हूं कि उनकी शख़्सियत के किस पहलूं को लूं और किसे छोड़ूं।उनका हास्य, उनका व्यंग्य, उनकी दार्शनिक सोच, उनकी राजनीतिक टिप्पणियां, उनकी शानदा कविता या फिर अपने नन्हे-किशोर दोस्तों से बातचीत करने का उनका पुरलुत्फ़ अंदाज!’’
डॉ0लक्ष्मीमल सिंघवी,
कसाले बहुत सहे हैं उन्होंने, किंतु कड़वाहट नहीं है उनके विचारों में। पद,प्रतिष्ठा अधिकार और संपन्नता उनको अपना जरखरीद बंदी नहीं बना पाए। वे एक समर्थ, स्वाभिमानी साहित्यकार है जो कभी टूटा नहीं, कभी झुका नहीं।झुका तो केवल स्नेह के आगे।
महीप सिंह, सुप्रसिद्ध साहित्यकार
नंदन ने सबकुछ सहा सबकुछ झेला किंतु अपनी मधुर मुस्कराहट में रत्ती भर भी कमी नहीं आने दी और अत्यंत पीड़ाजनक स्थितियों में भी कनपुरिया मस्ती नहीं छोड़ी। मुझे नंदन के संपूर्ण काव्य -सृजन में यह मस्ती, अक्खड़ता, भावुकता और सबसे उपर मानवीयता दिखाई देती है ।
कृष्णदत्त पालीवाल
नंदन जी की कविताओं की अंर्तयात्रा करते हुए मुझे टी0एस0 एलियट की यह बात कौंधती है कि कविता अपनी परंपरा से निरंतर संवाद है। स्वयं नंदन जी कभी अज्ञेय जी को ‘मैं वह धनु हूं’ कभी ठाकुर प्रसाद सिंह को ‘ हमें न सूर्य मिलेगा न सूर्य बिंब’ कभी दिनकर जी को ‘चाहिए देवत्व पर इस आग को धर दूं कहां पर’ कभी अशोक वाजपेयी को ‘हमारे साथ सूर्य हो ’ कभी कैलाश वाजपेयी को ‘जंग की तरह लगा भविष्य’ कभी दुष्यंत कुमार को ‘हर परंपरा को मरने का विष मुझे मिला’ कभी गियोमिलोव को ‘आओ छाती में बम लेकर आसमान पर हमला करें’ - याद करते हैं।

सुरिंदर सिंह
नंदन के हर प्रेम-गीत की धड़कन उसकी पत्नी है- मूर्ख है मेरा यार!उसकी ‘रातों का हर सलोना झोंका’ हर ‘भीनी सी खुशबू’ एक वजूद से है। आजतक वह इंतजार कर रहा है उस रात का ज बवह अपने ‘इंद्रधनुष’ से पूछने का साहस जुटा पाए कि वह उसके सपनों में क्यों आता है...

गोपीचंद नारंग, उर्दू अदब की शख़्सियत
कन्हैयालाल नंदन की शायरी शउरे जात व काइनात की शायरी है। उन्होंने आम हिंदी के शायरों की तरह अपनी शायरी में खातीबाना बहना गुफ्तारी का मुज़ाहरा नहीं किया है बल्कि तमकिनत और कोमलता के साथ अपनी तख़लीकी इस्तेआशत को इज़्हारी कालब में ढाला है।

यह चेहरा इतना संवेदनशील है , और चश्में के पीछे छिपी आंखें इतनी बातूनी हैं कि लाख छुपाने पर भी दिल की जुबान बोलने लगती हैं । पहनने का ही सलीका नहीं बातों का भी सलका सीखना हो तो हाजिर है । अपनों के लिए धड़कता यह दिल प्यार के नाम पर कुछ भी लुटाने को तत्पर रहता है , और कोई इस लूट को नहीं लूटता है तो उस बौड़म पर गुस्सा आता है । मुझे याद है, एक बार खीझकर नंदनजी ने कहा था-- राजे इस बदमाशी का क्या मतलब है कि पत्रिका में यह छाप दो वो छाप दो कि रट लगाए लोग मेरे पीछे डोलते हैें और तुम कुछ भी छपवाने के लिए नहीं कहते । ’’ मैंनें पाया कि आंखें साफ कह रही हैं कि यह दर्द जेनुइन है । मैंनें कुछ नहीं कहा बस उन आंखों को अपनी आत्मीय मुस्कान दे दी । दिल ने बात समझ ली । शायद यही कारण है कि सितम्बर 1995 में गगनांचल का संपादकीय भार संभालते हुए संपादन सहयोग के लिए पूछा नहीं गया था, सूचित भर किया गया था कि यह काम करना है । सच कहूं पत्रिका निकालने की शाश्वत खुजली के कारण मैं ऐसे प्रस्ताव की प्रतीक्षा में था । मत चूके चौहान की शैली में हां कह दी । इस हां के अनेक सुख थे । सबसे बडा तो यही कि संपादन के विशाल अनुभव सम्पन्न व्यक्ति का साथ , सरकारी पत्रिका होने के कारण साधन जुटाने की चिंता से मुक्ति तथा कुछ करो इस चांदनी में सब क्षमा है जैसा संपादकीय अभयदान । इस अवसर ने अजय गुप्ता जैसा मित्र भी दे दिया । मैनें इस व्यक्तित्व से बहुत कुछ सीखा है । इस सीखने की प्रक्रिया में डांट अधिक खाई है शाब्बासी कम पाई है और कहूं कि पाई ही नहीं तो बेहतर होगा । इस श्रीमुख से शाब्बासी नहीं मिली है पर वाया भंटिडा आई इस श्रीमुखीन शाब्बासियों ने मेरा उत्साह बढाया है । यह अच्छा ही रहा , एक सारहीन अहं नहीं पलने दिया गया ।‘गगनांचल’ को 2003 में छोड़ने के बाद मैंने नंदन जी से कहा कि मैंने आपसे बहुत कुछ सीखा है। वे बोले-क्या सीखा है, राजे!’ मैं- वो फिर कभी बताउंगा।’ इसके बाद नंदन जी ने जब ‘व्यंग्य यात्रा’ के संपादन और प्रस्तुति की प्रशंसा की तो मैंनें कहा- यही सीखा है जिसने आप जैसे अनुभवी एवं वरिष्ठ संपादक से मेरे संपादकीय कर्म की निष्पक्ष प्रशंसा करवा दी।
नंदन जी का एक काव्य संकलन है, ‘ समय की दहलीज पर ’ ।‘ समय की दहलीज ’ समय - समय पर लिखी कविताओं को एक किताब में संकलित कर प्रस्तुत मात्रा करने का प्रयत्न नहीं है अपितु कविता को एक वैचारिक सलीके से अपनी सम्पूर्ण गम्भीरता के साथ पाठकों से संवाद करने का आत्मीय आग्रह है । संकलन के हर पन्ने पर कवि नंदन उपस्थित हैं । यही कारण है कि संकलन की भूमिका नारे बाजी से अलग, एक कवि की विभिन्न समय- अन्तरालों में संचित सोच और काव्य अनुभवों का गद्य - गीत है । कवि नें जिन्हें अपने नोट्स कहा है वे वस्तुतः सारगर्भित सूत्रा हैं जो कन्हैयालाल नंदनीय दृष्टि से अपने परिवेश को समझने के प्रयत्न का परिणाम हैं और अपने अनुभवों को बिना कंजूसी के बांटते हुए दृष्टिगत होते हैं । इन नोट्स के आधार पर ही कविता पर एक सार्थक बहस की जा सकती है । इस सागर में से कुछ बूंदें आपके सामनें प्रस्तुत हैं ---‘ किसी कविता में जितना सम्पूर्णता का अंश डाला जा सकेगा , वह उतना ही समयातीत हो सकेगी ..... तात्कालिकता से हटना अच्छी कविता की अनिवार्यता है । .... आत्मालोचन करने का गुण अगर कवि में पनप जाये तो उसे किसी अन्य आलोचक की जरूरत नहीं होती । ....... कविता मन भी है , मस्तिष्क भी है , दिल भी है दिमाग भी है ।...... सकारात्मक कविता नकारात्मक कविता से हमेशा बडी होती है । ....... प्रेम की ज्योति अपने स्थान और समय से आगे तक की रौशनी देती है ।......... कविता का अच्छा पाठक अपने अंदर एक कवि होता है । ...... कवि के अंदर कुतूहल का जिंदा होना उसकी रचनाशीलता को आयाम प्रदान करता है । ....... आभ्यांतरिक संघर्ष रचनाशीलता में सबसे अधिक सहायक होता है । ........ सिकंदर पर सुकारात की अहमियत का युग लौट सके ।.......... ’’
समय की इस दहलीज को कवि नंदन नें पांच कोणों से देखा है और हर कोण को एक नाम दिया है । ‘ राग की अभ्यर्थना ’ के अंर्तगत संकलित कविताओं में कवि को ‘आत्मबोध’ होता है , वह अपने ‘विस्तार’ में आकाश को छोटा पाता है , और ‘संस्पर्श का कलरव ’ उसे अनुभव देता है --- राग की अभ्यर्थना में / धरती को जल नें / जल को हवा ने / हवा को आकाश ने छुआ / वृक्ष के अंग अंग / डाल - डाल / फुनगी - फुनगी / फूट पडा अंखुआ । / पृथ्वी / जल / हवा / आकाश / सबके संस्पर्श से वृक्ष की देह में / नया कलरव हुआ ।’’ इन कविताओं में एक उत्कट जीजीविषा है । ‘ समय ठहरा हुआ ’ कितना भी क्यों न हो पर कवि के सपनों में एक ‘इंद्रधनुष’ रोज आता है और सांसों के सरगम पर तान छेड जाता है । प्रकृति के विभिन्न रंगों में डूबता उतरता कवि अपनी संवेदनाओं का आत्मीय संस्पर्श छोडता चलता है । ब्रहाण्ड की विराटता को अपनी बाहों में बांध लेने को लालयित कवि इस विशाल शून्य को अपने अंदर भर लेना चाहता है --- कहना कठिन है / कि शून्य को खाली कर रहा हूं / या शून्य को भर रहा हूं /सच यह है कि / फूल/ रंग / कोमलता की तलाश कर रहा हूं । ’’
कविता को गुनगुनाने और कंठस्थ करने वाले पाठको को आज लगता है कि कविता कहीं उनसे बहुत दूर हो गई । मंच पर जो कविता विराजमान है उससे मानवीय मूल्यो के लिए चिंतित सजग पाठक वितृष्णा करता है । ऐसे में नंदन की कविता एक सहज मार्ग दिखाती है । यह कविता शुद्ध भारतीय मन और परिवेश की है । इस संकलन की कविताएं पाश्चात्य वादों या विवादों में उलझी भारतीय मानसिकता का अनुवाद नहीं हैं । यह कविताएं निराशा के दलदल में नहीं डूबोती हैं अपितु तमाम विरोधों के बावजूद एक सशक्त सम्बल हाथ में थमाती हैं । अपनी मिट्टी की गंध का स्नेहिल स्पर्श देती इन कविताओं को पढना एक साहित्यिक उपलब्धि है ।

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नंदन जी का संक्षिप्त परिचय

परिचय
जन्म-
१ जुलाई १९३३ को गाँव परस्तेपुर (जिला फतेहपुर) में

शिक्षा -
बी.ए. (डी.ए.वी कॉलेज, कानपुर), एम.ए. (प्रयाग विश्वविद्यालय), पीएच.डी. (भावनगर विश्वविद्यालय)

कार्यक्षेत्र-
४ वर्ष तक मुंबई विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कॉलेजों में अध्यापन। १९६१ से १९७२ तक टाइम्स ऑफ इंडिया प्रकाशन समूह के धर्मयुग में सहायक संपादक। १९७२ से दिल्ली में क्रमशरू पराग, सारिका और दिनमान के संपादक। तीन वर्ष तक दैनिक नवभारत टाइम्स में फीचर संपादक, ६ वर्ष तक हिन्दी संडे मेल में प्रधान संपादक तथा १९९५ से इंडसइंड मीडिया में निदेशक के पद पर।

प्रमुख कृतियाँ-
लुकुआ का शाहनामा, घाट-घाट का पानी, अंतरंग नाट्य परिवेश, आग के रंग, अमृता शेरगिल, समय की दहलीज, बंजर धरती पर इंद्रधनुष, गुजरा कहाँ कहाँ से।

सम्मान पुरस्कार-
भारतेंदु पुरस्कार, अज्ञेय पुरस्कार, मीडिया इंडिया, कालचक्र और रामकृष्ण जयदयाल सद्भावना पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
तस्वीर और दर्पन

रविवार, 15 अगस्त 2010

आजादी के मायने

आजादी के मायने

बहुत गहरे मायने हैं हमारे देश की आजादी के। इतने गहरे की आप जितना डूबेंगें उतना ही लगेगा कि आप स्वयं को अज्ञानी समझेंगें। इन मायनों को समझने के लिए किसी शब्दकोश की आवश्यक्त नहीं है। वैसे जैसे प्रेम, प्यार, घृणा, अत्याचार, भ्रष्टाचार आदि के मायने नहीं बदलते हैं वैसे ही आजादी के मायने भी कभी नहीं बदलते हैं। हां आजादी का प्रयोग करने वाले बदलते रहते हैं।
आजादी से पहले अंग्रेज शासकों इस देश का धन विदेश ले जाने की आजादी थी अब स्वदेशी शासकों को वो आजादी है। पहले गोरे अफसर अपने ‘सदाचारण’ से दफतरों में जनता की सेवा करते थे और उनसे सेवा शुल्क लेने की उन्हें आजादी थे, अब काले अफसरों को यह आजादी है। थाने वही हैं और उनमें वही आजादी बरकरार है, बस थानेदार बदले हैं। पहले राजा प्रजा के विकास के नाम पर कर लगाकर अपना विकास करने को स्वतंत्र था आजकल मंत्रीपदों की शोभा बढ़ा रहे जनसेवक अपना विकास करने के लिए स्वतंत्र हैं। पहले कोई जर्नल डायर कितना भी अत्याचार कर ले, बस उसपर आयोग बैठता था और वो अपनी मौत मर जाता था, आजकल भी हमारा कानून वैसा ही है। पहले भी गरीब पिटता था आज भी उसे पिटने की पूरी आजादी है।
ऐसा नहीं है कि हमने आजादी के वही मायने समझे है जो हमारे पूर्वजों ने समझे थे। हमने अपनी समझ में पर्याप्त विकास किया है। हमने भ्रष्टाचार के कूंए के स्थान पर विशाल सागर का निर्माण किया है। हमने मंहगाई के क्षेत्र में अद्भुत विकास किया है। पहले बाजार को महंगाई बड़ाने का अधिकार था अब सरकार को भी है। हमने अमीरों को और अमीर तथा गरीबों केा और गरीब बनाया है। किसानों को आत्महत्या करने की हमने पूरी आजादी दे दी है। आज आजादी का मायना उसी के लिए है जिसकी जेब में पैसा है, जो ठनठन गोपाल है वह मंदिरों में भजन करता है और उपवास रखता है।

रविवार, 1 अगस्त 2010

हंगामा है क्यूं बरपा...सन्दर्भ विभूति नारायण

हंगामा है क्यूं बरपा...

साहित्य मे हंगामे न हो तो साहित्य किसी विधवा की मांग या फिर किसी राजनेता का सक्रिय राजनीति से दूर जैसा लगता है। अब किसी ने नशे में कुछ की दिया है तो इतना हंगामा मचाने की क्या आवश्यक्ता है। पी कर हंगामा करना कोई बुरी बात है। अब पीकर हंगामा न हो तो पीने पर लानत है, हुजूर!
एक अकेले विभूति ने थोड़ी पी है, इसे पीने वाले तो अनेक बुजुर्ग मठाधीश रचनाकार साहित्य जगत में हैं। न न न उस शराब को बदनाम न करें जो गालिब पीते थे। ये शराब तो स्वयं को निरंतर विवादित कर समाचार में रहने की है। ये शराब तो डब्ल्यू डब्लयू एफ की कुश्तियों से पैदा की जाती है। अब हमारे लिखे को कोई रेखांकित नहीं कर रहा है तो दूसरे के लिखे को ही चुनौती दे डालो। ‘साला’ साहित्य जगत आपके मन मुनाफिक आपके लिखे को चर्चा के केंद्र में नहीं रख रहा है तो, चुप्पी साधे बैठा है तो, उसकी मां -बहन कर दो, चुप्पी अपने आप टूटेगी और आप हर साहित्यिक पान की दूकानों या चंडूखाने में चर्चा का विषय बन जाएंगे।
अब एक पुलसिया साहित्यकार ने इस नशे की झोंक में कुछ कह दिया है तो इतना हंगामा मचाने की क्या आवश्यक्ता है ।अब यदि एक विश्वविद्यालय के गंभीर चिंतक एवं जिम्मेदार व्यक्ति ये कहते हैं कि -लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने के लिए कि उनसे बडऋी छिनाल कोई नहीं ।’ तो हुजूर इस विषय पर शोध करवाए जाएं , सेमिनार हों। इस योगदान पर बड़ी-बड़ी विभूतियों से चर्चा करवाई जाए। हिंदी साहित्य कुछ पिछड़े माहौल से बाहर निकले।
अब यदि संपादक जिसने इस साक्षात्कार को प्रकाशित किया है, बावजूद इसके कि उसकी पत्नी स्वयं एक लेखिका है तो आपको क्या एतराज ? सुना है कि संपादक और साक्षात्कार में अपने अनमोल स्वर्णिम विचारों को व्यक्त करने वाले अच्छे मित्र हैं और अनन्य मित्र तो बहुत कुछ जानते हैं। क्या दोस्ती है हुजूर, कोई आपकी पत्नी को सरे आम छिनाल कह रहा है और आप उसे सरे आम प्रकाशित कर रहे हैं।
ऐसे हंगामे रजनीति और फिल्मनीति में होते ही रहते हैं। और राजनीति में तो ऐसे हंगामों की प्रतिदिन चर्चा रहती है।
प्रिय भाई को उम्मीद नहीं थी कि बात इतनी दूर तलक पहुंचेगी की नौकरी पर बन आएगी। वैसे चिंता की कोई बात नहीं, नौकरी बचानी हो तो वैसा ही करें जैसे हमारे राजनेता करते हैं। मैंनें ऐसा नहीं कथा था... मेरे बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है... मैं तो नारी की पूजा करता हूं ... जहां नारी की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं... आदि आदि। और बहुत हुआ तो क्षमा मांग ली। नौकरी या मंत्री पद पर आंच नहीं आनी चाहिए। आखिर ये भी तो साहित्य के नेता हैं, ये सब टोटके तो जानते ही होंगे।
मूर्ख थे दुष्यंत जो कहते थे कि हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नही... यहां तो मकसद यही है जिससे अपनी तसवीर बदलती रहे चाहे दूसरे की धुंधला जाए।

प्रेम जनमेजय

गुरुवार, 13 मई 2010

हिंदी ब्लोगिंग की दिशा-दशा- मुकेश चन्द्र से बातचीत

अपनी चिंतनशील वैचारिक अभिव्यक्ति की तीव्रता के लिए ब्लॉगिंग को माध्यम बनाएं :प्रेम जनमेजय

सोमवार, १० मई २०१०

श्री प्रेम जनमेजय आधुनिक हिंदी व्यंग्य की तीसरी पीढ़ी के सशक्त हस्ताक्षर हैं। पिछले तीन दशक से साहित्य रचना में सृजनरत इस साहित्यकार ने हिंदी व्यंग्य को सही दिशा देने में सार्थक भूमिका निभायी है।
प्रेम जनमेजय व्यंग्य- लेखन के परंपरागत विषयों में स्वयं को सीमित करने में विश्वास नहीं करते है .............परंपरागत विषयों से हटकर इन्होने समाज में व्याप्त आर्थिक विसंगतियों तथा सांस्कृतिक प्रदूषण को चित्रित किया है। व्यंग्य के प्रति गंभीर एवं सृजनात्मक चिंतन के चलते इन्होने 'व्यंग्य यात्रा' का प्रकाशन आरंभ किया । बहुत कम समय में ही इस पत्रिका ने अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया । विद्वानों ने इसे हिंदी व्यंग्य साहित्य में 'राग दरवारी' के बाद दूसरी महत्वपूर्ण घटना माना है। १८ मार्च १९४९ को उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक नगरी इलाहाबाद में जन्मे प्रेम जन्मेजय की महत्वपूर्ण कृतियाँ है- राजधानी में गंवार, वेर्शममेव जयते, पुलिस!पुलिस, डूबते सूरज का इश्क,कौन कुटिल खल कामी मैं नहीं माखन खायो,आत्मा महा ठगिनी, मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएँ, शर्म मुझको मगर क्यों आती, आदि सम्मान-पुरस्कारः 'व्यंग्यश्री सम्मान' -2009 कमला गोइन्का व्यंग्यभूषण सम्मान2009 संपादक रत्न सम्मान- 2006 ;हिंदी हिंदी अकादमी साहित्यकार सम्मान -1997 अंतराष्ट्रीय बाल साहित्य दिवस पर 'इंडो रशियन लिट्रेरी क्लब 'सम्मान -1998 ....आदि.!


.....प्रस्तुत है हिंदी ब्लोगिंग की दिशा-दशा पर लोक संघर्ष पत्रिका के दिल्ली स्थित ब्यूरो चीफ मुकेश चन्द्र से हुई इनकी बातचीत के प्रमुख अंश-

(१) आपकी नजरों में साहित्य-संस्कृति और समाज का वर्त्तमान स्वरुप क्या है?
मैं उस पीढ़ी का हूं जिसने के स्वतंत्रता-शिशु की गोद में अपनी आंखें खोली और जो इस देश के साथ बड़ा होता हुआ आज बुजुर्ग हो गया है। ये दीगर बात है कि देश जवानी के दौर में है। मेरी पीढ़ी वो पीढ़ी हे जो लालटेन से कंप्यूटर तक की यात्रा की है। मेरी पीढ़ी ने युद्ध और शांति के अध््याय पढ़े हैं। मेरी पीढ़ी ने राशन की पंक्तियों में खड़ी गरीबी देखी है तो चमचमाते मॉलों में, विदेशी ब्रांड के लिए नौजवानों की पागल भीड़ देख रही है। मेरी पीढ़ी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण देखा है, हरित क्रांति की हरियाली देखी है तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चमचमाते सूदखोर बनिए जैसे गैरराष्ट्रीयकृत बैंक देखे हैं तथा समृद्ध, विदेशी निवेश से चढ़ते शेयर बाजार के सैंसक्स के बीच भारत में आत्महत्या करते हुए किसान भी देखे हैं। मैंनें विश्व में छायी मंदी के बावजूद देश की अर्थ-व्यवस्था की जी डी पी को बड़ते देखा है पर साथ ही ईमानदारी, नैतिकता, करुणा आदि जीवन मूल्यों की मंदी के कारण गरीब की जी डी पी को निरंतर गिरते ही देखा है।


जैसा कि मैंनें सामयिक परिस्थितयों पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि, आज नंगई की मार्केटिंग का धंधा जोरों पर चल रहा है और साहित्य में भी ऐसे धंधेबाजों का समुचित विकास हो रहा है । कुटिल -खल -कामी बनने का बाज़ार गर्म है । एक महत्वपूर्ण प्रतियोगिता चल रही है -- तेरी कमीज मेरी कमीज से इतनी काली कैसे ? इस क्षेत्र में जो जितना काला है उसका जीवन उतना ही उजला है । कुटिल - खल-कामी होना जीवन में सफलता की महत्वपूर्ण कुंजी है । इस कुंजी को प्राप्त करते ही समृद्धि के समस्त ताले खुल जाते हैे । बहुत आवश्यक है सामाजिक एवं आर्थिक विसंगतियों को पहचानने तथा उनपर दिशायुक्त प्रहार करने की । पिछले दस वर्षों में पूंजी के बढ़ते प्रभाव, बाजारवाद,उपभोक्तावाद एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ‘संस्कृति’ के भारतीय परिवेश में चमकदार प्रवेश ने हमारी मौलिकता का हनन किया है। मुझे लगता है कि जिस तरह से पिछले डेढ़ दशक में पूंजी के प्रभाव से भारतीय समाज में विसंगतियां बढ़ी हैं तथा वर्तमान व्यवस्था आपको हताश-निराश एवं अवसाद में अकेला महसूसने को विवश कर रही है, ऐसे में इन सबसे लड़ने का एक मात्र हथियार व्यंग्य ही है।

समाज वही होता है पर उसे देखने के हमारे अपने- अपने यथार्थ होते हैं । आज का सामाजिक यथार्थ यह है कि हमसे हमारा यथार्थ बहुत पीछे छूटता जा रहा है । सबसे पहला सवाल तो यही है कि आज का हमारा सामाजिक यथार्थ क्या है? जब समाज को देखने के भिन्न -भिन्न नजरिए होंगें तो सामाजिक यथार्थ भी भिन्न ही होगा । आजकल तो समाजिक परिवेश को को विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के चश्में से देखने की अपनी- अपनी दृष्टियॉं हैं । समाज देखने का मेरा नजरिया तेरे नजरिए से बेहतर सिद्ध करने में हमारे कर्णधार वैसे ही व्यस्त हैं जैसे दशहरे के समय में अपने - अपने रावणों का बेहतर कद देखकर राम के ‘धार्मिक’ भक्त प्रसन्न होते हैं

(२) हिंदी ब्लोगिंग की दिशा दशा पर आपकी क्या राय है ?

हमारा आज इतना अस्त व्यस्त और त्रस्त हो गया है कि सवंादहीनता की स्थिति पैदा हो गई है। सामाजिक संबंधों को निभाने की नहीं निपटाने की संस्कृति पेदा हो गई है। हमारे आवागमन के साधन तो उत्तम हुए हैं पर मिलना जुलना कम हो गया है। ब्लॉगिंग का सदुपयोग हमें इस संवादहीनता से बचाता है। और दूसरे, व्यस्तता के इस माहौल में न मालूम कौन मेरी बात सुने या न सुने और मैं आत्माभिव्यक्ति न कर पाने की उदासीनता में डिप्रेशन का शिकार हो जाउं। ब्लॉग सामाजिक समस्याओं पर हमें वैचारिकता को शेयर करने का सार्थक एवं तुरत मंच प्रदान करता है। आप ने अपनी बात कह दी, जिसे अच्छी लगी, चाहे वो पड़ोस में रहता हो या फिर हजारों मील विदेश में आपकी बात पहुंच जाती है।

(३) आपकी नजरों में हिंदी ब्लोगिंग का भविष्य कैसा है ?

जिस तरह से हम व्यक्तिवादी होते जा रहे हैं और समाज में संवादहीनता की स्थिति बढ़ रही है उसमें भविष्य तो उज्ज्वल है। ये दीगर बात है कि तकनीक के निरंतर बढ़ते हुए कदमो के कारण हो सकता है ब्लॉगिंग का बेहतर विकल्प आए और...

(४) हिंदी के विकास में इंटरनेट कितना कारगर सिद्ध हो सकता है ?

हिंदी के विकास में इंटरनेट कारगर हो रहा है और निरंतर कारगर होता रहेगा। आज इंटरनेट ने हिंदी का राष्ट्र विकसित करने में विशेष सहयाता की है। हमारे देश की राष्ट्रभाषा हिंदी चाहे न हो, विश्व में हिंदी का राष्ट्र स्थापित हो चुका है।

(५) आपने ब्लॉग लिखना कब शुरू किया और उस समय की परिस्थितियाँ कैसी थी ?

ब्लॉग की दुनिया में मैं शिशु हूं ओर मुझे अभी घुटनों-घुटनों भी चलना नहीं आता है। वो तो भला हो अविनाश वाचस्पति जैसे मित्रों का जिन्होंनें मुझ अनाड़ी को इस क्षेत्र का नौसिखिया खिलाड़ी बना दिया। मैंनें जब लिखना आरंभ किया तो , ये मेरी अल्पज्ञता हो सकती है, ब्लॉग की दुनिया विकास की ओर उन्मुख थी। आज तो चारों ओर ब्लॉग ही ब्लॉग नजर आते हैं।

(६) आप तो स्वयं साहित्यकार हैं, एक साहित्यकार जो गंभीर लेखन करता है उसे ब्लॉग लेखन करना चाहिए या नहीं ?


जैसे पत्र पत्रिकाएं, रेडियो, दूरदर्शन आदि माध्यम हैं वेसे ही ब्लॉग भी वैचारिक अभिव्यक्ति का माध्यम है। माध्यम गंभीर या छिछला नहीं होता है आपके विचार हो सकते हैं। मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो गंभीरता को ओढ़े स्वयं को महत्वपूर्ण दिखाने की नौटंकी करते हैं। एक व्यंग्यकार के रूप में तो मेरे अनेक सहयात्रियों ने इन तथाकथित साहित्य के ब्रहाम्णों की दृष्टि में स्वयं को शूद्र पाया है। हां ब्लॉग का व्यस्न की तरह प्रयोग नहीं करना चाहिए।

(७) विचारधारा और रूप की भिन्नता के वाबजूद साहित्य की अंतर्वस्तु को संगठित करने में आज के ब्लोगर सफल हैं या नहीं ?

जो ब्लॉगर बिना किसी चिंतन के अपनी बात को तुरत फुरत कहने के मोह में होते हैं, वो सतह पर ही रह जाते हैं। साहित्य एक गहरे चिंतन की मांग करता है और आप इसमें जितना डूबते हैं उतना ही इसकी गइराई तक जाते हैं, उसे समझते है। मैं यह नहीं मान सकता कि कागजों में लिखने वाले रचनाकार या ब्लॅाग में लिखने वाले ब्लॉगर की विचारधारा भिन्न होती है। यह नहीं हो सकता कि मैं कागज में लिखूं तो भिन्न विचारधारा रखूंगा, ब्लॉग में लिखूंगा तो भिन्न। मैं पुनः कहूंगा कि ये सब अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यम हैं।

(८) आज के रचनात्मक परिदृश्य में अपनी जड़ों के प्रति काव्यात्मक विकलता क्यों नहीं दिखाई देती ?

मेरा मानना है कि समस्त विधाएं आपकी अभिव्यक्ति का माध्यम हैं। लेखक के अंदर संवेदनशील उबाल की अभिव्यक्ति की छटपटाहट,संप्रेषण की तीव्रता, तथा मानव समाज की बेहतरी के लिए वैचारिक संवाद की आवश्यक्ता पहला कदम है और इसके बात आपका लेखकीय व्यक्तित्व तय करता है कि आप उसे किस विधा में कहते हैं। अभिव्यक्ति के इस माध्यम में साहितियक और सामाजिक माहौल भी भूमिक निभाते हैं। जैसे आज विसंगतियुक्त वातावरण में व्ंयग्य का दायरा बढ़ा हुआ दिखाई देता है। यदि काव्यात्मक व्याकुलता कहने से आपका संकेत मनुष्य, शहरीकरण और बाजारवाद के कारण व्यक्तिवादी हो रहे मनुष्य के दिनोंदिन भोथरे हो जा रहे संवेदन से है तो मैं आपसे शत प्रतिशत सहमत हूं कि हमारी संवेदनाएं धीरेे-धीरे तथाकथित आधुनिकता की भेंट चढ़ती जा रही हैं। हम निपटाने की संस्कृति का शिकार होते जा रहे हैं।

(९) आपकी नजरों में साहित्यिक संवेदना का मुख्य आधार क्या होना चाहिए ?

साहित्यिक संवेदना का आधार आपका व्यक्तित्व और आपका माहौल होता है। मानव मूल्यों का आधार साहित्यिक संवेदना का आधार होना चाहिए। चाहे कोई भी विचारधारा हो वो वंचित मुनष्य के प्रति आपकी संवेदना की मांग करती है।

(१०) आज की कविता की आधुनिकता अपनी देसी जमीन के स्पर्श से वंचित क्यों है ?

मेरा आपसे सवाल है कि क्या केवल कविता की आधुनिकता अपनी देसी जमीन के स्पर्श से वंचित क्यों , अन्य विधाएं नहीं । सोचकर देखिए कि क्या केवल इस परिप्रेक्ष्य में आपको केवल शून्य ही दिखाई देता है। क्या आपको कोई भी लेखक देसी जमीन के स्पर्श का नहीं दिखाई देता है।हमारे संप्रेषण का माध्यम कागजी हो सकता है पर बहुत सारे ऐसे लेखक है जो अपनी जमीन से जुड़े हुए हैं। और कया आप नहीं हैं? अपने आसपास नजरें घुमाइए तो सही।

(११) क्या हिंदी ब्लोगिंग में नया सृजनात्मक आघात देने की ताकत छिपी हुई है ?

मेरे विचार से ब्लॉगिंग अभिव्यक्ति की एक नई तकनीक है, इसकी शक्ति एवं सीमाएं दोनों हैं। आवश्यक्ता है इनको जानने की। इसे हम तभी जानेंगें जब इसकी गहराई में जाएंगे। किनारे रहकर हम समुद्र की छोड़िए नाले तक की गइराई नहीं जान पाते हैं।

(१२) कुछ अपनी व्यक्तिगत सृजनशीलता से जुड़े कोई सुखद संस्मरण / कुछ व्यक्तिगत जीवन से जुड़े सुखद पहलू हों तो बताएं ?

मुझे लगता है अपने व्यक्तिगत संस्मरण शेया करने का यह अवसर नहीं है। उसे फिर कभी के लिए छोड़ दें।

(१४) परिकल्पना ब्लॉग उत्सव की सफलता के सन्दर्भ में कुछ सुझाव/नए ब्लोगर के लिए कुछ आपकी व्यक्तिगत राय देना चाहेंगे आप ?

मैं अपने को इस क्षेत्र में अभी शिशु मानता हूं। ब्लॉगिंग के इस विश्व में मैं स्वयं को बौना पाता हूं। परिकल्पना ब्लॉग उत्सव जैसे आयेाजन आत्मचिंतन, आत्मविश्लेषण तथा एक दूसरे से स्वस्थ संवाद स्थापित करने में सहायक हो, इससे बड़ी और कोई भूमिका मेरी दृष्टि में नहंी हो सकती है। आपके अंतिम सवाल को भी इससे जोड़ते हुए कहना चाहूंगा कि ब्लॉगिंग को दैनिक अखबारों में प्रकाशित हो रहे स्तंभ या फिर हमारे न्यूज चैनल की तरह का न बनाएं।समय है और उस समय या स्थान में कुछ भी कहना आपकी मजबूरी है अतः आप कुछ भी, बिना चिंतन के सतही कहे जा रहे हैं। ब्लॉगिंग की दुनिया एक मायानगरी है जो आपका महत्वपूर्ण समय नष्ट करने की ताकत रखती है। अतः ब्लॉगिंग को अपनी विवशता न बनाएं अपितु अपनी चिंतनशील वैचारिक अभिव्यक्ति की तीव्रता के लिए ब्लॉगिंग को माध्यम बनाएं। इस मायानगरी में खो न जाएं अपितु यदि इसका कोई तिलिस्म है तो उसे तोड़ें।

मैं आपका आभारी हूं कि आपने इतने सार्थक प्रश्न किए जिससे मेरी चेतना को सक्रिय किया और अपनी बात को अभिव्यक्त करने का मंच दिया।
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शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

अज्ञेय स्मारक व्याख्यान-2010प्रेम जनमेजय द्वारा दिए गए व्याख्यान का आलेख

शाश्वती
235, रिहाड़ी मोहल्ला, जम्मू . 180005/ मो. 9419210100/ 14.03.2010

अज्ञेय स्मारक व्याख्यान-2010

अज्ञेय व्याख्यानमालाः बदलते सामाजिक परिवेश में व्यंग्य की भूमिका’ पर प्रेम जनमेजय का व्यख्यान



मित्रों, मैं उस पीढ़ी का हूं जिसने के स्वतंत्रता-शिशु की गोद में अपनी आंखें खोली और जो इस देश के साथ बड़ा होता हुआ आज बुजुर्ग हो गया है। ये दीगर बात है कि देश जवानी के दौर में है। मेरी पीढ़ी वो पीढ़ी हे जो लालटेन से कंप्यूटर तक की यात्रा की है। मेरी पीढ़ी ने युद्ध और शांति के अध््याय पढ़े हैं। मेरी पीढ़ी ने राशन की पंक्तियों में खड़ी गरीबी देखी है तो चमचमाते मॉलों में, विदेशी ब्रांड के लिए नौजवानों की पागल भीड़ देख रही है। मेरी पीढ़ी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण देखा है, हरित क्रांति की हरियाली देखी है तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चमचमाते सूदखोर बनिए जैसे गैरराष्ट्रीयकृत बैंक देखे हैं तथा समृद्ध, विदेशी निवेश से चढ़ते शेयर बाजार के सैंसक्स के बीच भारत में आत्महत्या करते हुए किसान भी देखे हैं। मैंनें विश्व में छायी मंदी के बावजूद देश की अर्थ-व्यवस्था की जी डी पी को बड़ते देखा है पर साथ ही ईमानदारी, नैतिकता, करुणा आदि जीवन मूल्यों की मंदी के कारण गरीब की जी डी पी को निरंतर गिरते ही देखा है।
देश स्वतंत्र हुआ तो उसके अनेक मायने लगाए गए । प्रभु की मूरत की तरह , प्रत्येक ने स्वतंत्रता-प्रभु को जाकि रही भावना जैसी अंदाज में देखा। कुछ के लिए आजादी, दो रोटी से आठ रोटी के जुगाड का यंत्र बन गयी तो कुछ के लिए , रही सही दो रोटियां बचाने का प्रयत्न बन गयी । बहुतों का आजादी से मोह भंग हुआ तो कुछ के लिए आजादी मोह का कारण बन गयी । अनेक ऐसे संत पैदा हुए जिन्होंनें दूसरों को तो इस मोह से दूर रहने के प्रवचन सुनाए और स्वयं इस ‘मोह’ की चरण- वंदना में डूब गए । ऐसे लोग जितना डूबे उतना ही तरे । ये दूसरों को डुबाने के लिए तरे ।
स्वतंत्रता के बाद राजनैतिक क्षेत्र में विसंगतियां अधिक बढीं । स्वतंत्रता से पहले लडाई का शत्रु स्पष्ट था । सभी जानते थे कि वो किसके खिलाफ लड रहे हैं, और इस लडाई में हथियार भी उठते थे । शत्रु की शत्रुता स्पष्ट थी । स्वतंत्रता से पहले विषय की दृष्टि से उसकी सीमाएं भी थीं वह आजादी के बाद दूर हो गयीं । विदेशी शासन के खिलाफ सीधे -सीधे लिखने के बहुत खतरे थे , यही कारण है कि भारतेंदु ने शासन की विसंगतियों को प्रकट करने के लिए ‘अंधेर नगरी’ का सृजन किया । भारतेंदु द्वारा तत्कालीन शासन की विसंगतियों की आलोचना का यह रूप अप्रत्यक्ष था । भारत में प्रजातंत्र की स्थापना ने विचार की जो स्वतंत्राता दी उससे शासन की विसंगतियों की प्रत्यक्ष आलोचना का अधिकार मिल गया । आजादी आई और उस आजादी से लोगों को आशाएं भी बहुत थी । अक्सर भविष्य स्वर्णिम लगता है परन्तु जब वह वर्तमान में बदल जाता है तो मोह भंग की स्थिति पैदा करता है, क्योंकि अपने स्वर्णिम भविष्य से हम अपनी बहुत आशाएं जगा चुके होते हैं । इसके साथ यह भी सत्य है कि अपनी आजादी के लिए लड़ने वाले जब आजादी पा लेते हैं , सता सम्भाल लेते हैं , तो लड़ने वालों का चरित्र बदल जाता है । अनेक विसंगतियां जन्म लेने लगती हैं ।धीरे - धीरे देश की राजनीति मूल्यों से खिसक कर, इतनी मूल्यवान होने लगी कि अनेक व्यावसायीयों के आकर्षण का केंद्र बन गयी । राजनीति के अपराधीकरण ने ‘महान’ देशभक्तों को सुअवसर प्रदान किया कि वे जेलों की चार दिवारी से बाहर निकलें और राष्ट् के निर्माण में अपना अभूतपूर्व योगदान दें । एक समय अपने राजनैतिक आकाओं की सता बहाली के लिए किसी को भी उनके रास्ते से हटाने वाले सेवको को अपना महत्व तथा सता के खून का स्वाद मिल ही गया । एक समय था राजनीति में कुत्तों का बहुत बडा महत्व था , धीरे -धीरे उनका स्थान भेड़ियों ने ले लिया । ऐसी अनेक राजनैतिक विसंगतियां थीं जिनके कारण सजग साहित्यकार के विचार तंतुओं पर दबाव पडा । एक पीड़ा ने उसके अंदर जन्म लिया । देश के प्रति उसकी निष्ठा ने उसको विवश किया कि वह इन विसंगतियों के विरुद्व अपने आक्रोश को अभिव्यक्त करे । जैसे - जैसे विसंगतियां बढीं वैसे - वैसे र्व्यंग्य लेखन में वृद्वि हुई ।
समाज में कोई व्यक्ति या समूह सामाजिक मर्यादाओं , मूल्यों अथवा आदर्शों के विरुद्ध जाता है तो उसे सही मार्ग पर लाने के अनेक तरीके हैं । एक तरीका तो यह है कि सजा का डर दिखाकर उसे सुधारा जाए पर अक्सर सजा व्यक्ति को अपराधी बनाए रखती है । दूसरा तरीका यह है कि उसे नैतिकता की कड़वी खुराक - सा भाषण पिलाया जाए पर जिसे प्यास ही न हो उसे कुछ भी पीना अच्छा नहीं लगता । तीसरा तरीका यह है कि उसका सरे आम मज़ाक उड़ाया जाए । सरे आम उड़ाया गया मज़ाक बहुत आहत करता है और आहत व्यक्ति महाभारत का युद्ध तक लड़ लेता है । सभी जब एकसाथ किसी एक व्यक्ति या प्रवृत्ति का मज़ाक उड़ाते हैं तो मुंह छुपाना कठिन हो जाता है । व्यंग्यकार की महत्वपूर्ण भूमिका यही है कि वह लक्ष्य की विसंगतियों की पहचान कर उसका मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और सामाजिक दबाव के आगे झुकना उसकी मजबूरी है । किसी सामाजिक विसंगति का मज़ाक बनाकर वह अपने साथ अपने पाठकों की एक फौज तैयार करता है । यह फौज ही उसका हथियार होती है । वह विसंगति को प्रचारित कर लक्ष्य को शर्मिंदा करता है । एक चोर या डकैत को चोर या डकैत कहलाने में कोई शर्म नहीं आती है । उसकी चोरी या डकैती चर्चे प्रकाशित होते हैं तो वह हीरो बन जाता है । पर खादी पहन सेवा के नाम पर देश की डकैती करने वाले का चेहरा जब प्रचारित होता है तो वह अपने तथाकथित साफ चेहरे की सफाई देने लगता है । यहॉं व्यंग्यकार के बारे में एक बात मैं साफ - साफ कहना चहता हॅंूं । व्यंग्यकार चाहे कितना आक्रोश प्रगट करे, कितनी ही आक्रामक मुद्रा ग्रहण करे और स्वयं को नायक समझने की भूल करे, उसका यथार्थ यह है कि वह अपने लक्ष्य के दुष्ट स्वभाव को बदल पाने में व्यक्तिगत धरातल पर नपुंसक विरोध के अतिरिक्त कोई ताकत नहीं रखता है । उसके विरोध को तो हंसकर उड़ाया जा सकता है । उसकी असली ताकत पाठकों की उसकी फौज है, जिस फौज सामने नंगा होने से विसंगतिपूर्ण चरित्र डरता है। आदमी यथार्थ के प्रकटीकरण सें उतना नहीं डरता है जितना विसंगति के नंगा होने से ।
समाज वही होता है पर उसे देखने के हमारे अपने- अपने यथार्थ होते हैं । आज का सामाजिक यथार्थ यह है कि हमसे हमारा यथार्थ बहुत पीछे छूटता जा रहा है । सबसे पहला सवाल तो यही है कि आज का हमारा सामाजिक यथार्थ क्या है? जब समाज को देखने के भिन्न -भिन्न नजरिए होंगें तो सामाजिक यथार्थ भी भिन्न ही होगा । आजकल तो समाजिक परिवेश को को विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के चश्में से देखने की अपनी- अपनी दृष्टियॉं हैं । समाज देखने का मेरा नजरिया तेरे नजरिए से बेहतर सिद्ध करने में हमारे कर्णधार वैसे ही व्यस्त हैं जैसे दशहरे के समय में अपने - अपने रावणों का बेहतर कद देखकर राम के ‘धार्मिक’ भक्त प्रसन्न होते हैं ।
जब हम अपने आस-पास के लोगों से मिलते हैं तो अक्सर बहुत ही औपचारिक सवालों के साथ मिलते हैं । ‘‘ और क्या चल रहा है ? जीवन कैसा चल रहा है ? ’’ जैसे सवालों का उत्तर देते समय कुछ आस्तिक - सा उत्तर देते हैं-- उपर वाले की कृपा है । कुछ उदासी को स्वर में घोलकर कहते हैं- ठीक है । कुछ जीवन को कट रहा बताते हैं, कुछ बस चल रही है कहकर सवाल से छुटकारा पाने की मुद्रा में होते हैं तो कुछ बस जी रहे हैं जैसी निर्लिप्त मुद्रा में और कुछ के लिए जीवन व्यर्थ बहा, बहा दो सरस पद भी न हुए अहा ! होती है । कुछ इतनी तेजी में होते हैं कि आप पूछते जीवन के बारे में हैं और वो आपके सवाल को अनसुना कर अपनी हांकते हैं तथा किसी को भी एक दो गालियॉं सुनाकर ये जा वो जा होते हैं । तुलसी बाबा के स्वर में स्वर मिलाकर कह सकते हैं कि जाकि रही भावना जैसी जीवन मूरति देखी तिन तैसी । ऐसे ही ज्ञानीजन समाज को अनेक रूपों में देख डालते हैं । कुछ के लिए धर्म की हानि हो रही है और समाज रसातल मे जा रहा है तथा अब प्रलय हुआ ही चाहती है । कुछ गांधी बाबा के बंदरों की तरह आंख कान मुंह, सब कुछ, मूंद लेना चाहते हैं । कुछ त्यागी समाज को गंदगी से बचाने के लिए स्वयं गंदगी के ढेर पर जा बैठते हैें । कुछ समाज में रहते हुए कमल से निर्लिप्त स्वयं में ही लिप्त रहते हैं । उनको न्याय - अन्याय, अच्छा- बुरा, ईमानदारी- बेईमानी में से कुछ भी नहीं व्याप्ता है । कुछ खाते हैं और सोते हैं और कुछ कबीर की तरह जागते और रोते हैें । कुछ के लिए उनका पुराना जमाना ही अच्छा था चाहे उस जमाने में चीर- हरण होते रहे हों , अपहरण होते रहे हों , शम्बूकों की हत्याएं होती रही हों । कुछ समाज में रहते हैं पर समाज के बारे में सोचने के लिए उनके पास समय नहीं है, बहुत बिजी़ लोग हैं । आप समाज का निरर्थक अर्थ निकालने की चिंता में अपने बाल नोच -नोच कर दुबले हुए जाते हैं और यह सार्थक अर्थालाभ कर अपने घर को भरने की जुगाड़ में मुटियाए जाते हैं । कुल मिलाकर कह सकते हैं कि विश्व परिवर्तनशील और उसी लय में समाज भी परिवर्तनशील है। समाज अपने को अनेक स्तरोें पर जीता है और उन स्तरों पर छोटे बड़े, अनेक परिवर्तन एक समूह को जन्म देते हैं। अज्ञेय ने ‘लेखक और परिवेश’ में परिवेशगत परिवर्तनों के बारे में कहा है- आज की बड़ी दुनिया में मेरा परिवेश स्थितिशील नहीं है, वह सतत चलनशील है! सभी संबंध गतिशील हैं। उनका जो रूप मेरी चेतना को छूता है वह छूने-छूने में बदलता जाता है। बल्कि वह छुअन ही मानों नाड़ी की छुअन है या कि एक घूमते हुए पहिए के नेमे की- जिसका स्पर्श भी नहीं कहता कि ‘‘मैं हूं’’ यही कहता है कि मैं हो रहा हूं... या कि इससे भी आगे ‘मैं होते- होते यह - यह नहीं वह होता जा रहा हूं’... जिस परिवर्तन के बीच में रहता हूं- यानि मेरा जो परिवेश है वह एक असुंतलन से दूसरे असंतुलन तक का है।’
अज्ञेय ने अपने समय की, बड़ी दुनिया की बात की है और अज्ञेय के बाद यह दुनिया कितनी और बड़ी हो गई है, हम सब देख ही रहे हैं। आज से लगभग तीन दशक पहले लिखे इस लेख में अज्ञेय ने उस विवशता की चर्चा की है जहां ‘मैं होते- होते यह - यह नहीं वह होता जा रहा हूं’... और इस परिवर्तन के बीच जो परिवेश है वह एक असुंतलन से दूसरे असंतुलन तक का है।’ पिछले एक दशक में यह असंतुलन अधिक विस्तृत हुआ है। वर्तमान व्यवस्था असंतुलन के संतुलन व्यवस्थित कर अपने स्वार्थों को सिद्ध करने में व्यस्त है। नव उदारवाद आर्थिक वैषम्य की खाई को निरंतर बढ़ाता जा रहा है और इसके लिए उसने मध्यम वर्ग को अपना टूल बनाया है। उसकीे संस्कारशील, मानवीय मूल्यों के प्रति चिंतित, अस्मिता एव संस्कृति के प्रति सजग तथा गलत के विरुद्ध, चेतना को, पूंजी की चकाचौंध से सुप्त करने का निरंतर षड़यंत्र चालू आहे। बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा, मध्यम वर्ग की नयी पीढ़ी को तीन चार गुना वेतन देकर उसकी सामाजिकता और परिवार छीन लिया है।
एक भयंकर षड़यंत्र चल रहा है और पूंजीवाद हमारा स्वामी बनने के लिए अनेक प्रकार ‘आयोजन’ कर रहा है। कभी अचानक हमारे देश की दो एक सुंदरियों को विश्व सुंदरी बनाकर यहां अपना बाजार फैला लिया जाता है और कभी आपकी भाषा को सर्वप्रिय बनाने के छद्म में आपकी भाषा छीनी जाती है। वैश्वीकरण और विश्वव्यापार की स्थितियां सभी को प्रभावित कर रही हैं। एक समय था बीस कोस पर भाषा अदल जाती थी और तीस कोस पर पानी बदल जाता था। आजकल सब जगह एक-सा ही पानी मिलता है- बोतल में बंद तथाकथित मिनरल वॉटर। दिल्ली को उसकी गलियां छोड़कर चली गई हैं और उनका स्थान मॉल-संस्कृति ने ले लिया है। पहले हर शहर की एक पहचान होती थी जो उसकी भाषा, संस्कृति, खान-पान तथा गलियों कूचों से जुड़ी होती थी, पर अब वो धीरे-धीरे गायब होती जा रही है। सभी शहर एक से लगने लगे हैं। निर्मला जैन की एक नयी संस्मरणात्मक कृति आई है, ‘दिल्ली शहर दर शहर’ जिसमें उन्होंनें दिल्ली के बदलते चेहरे का बहुत ही बारीकी से प्रस्तुतिकरण किया है। आज जब वो अपनी दिल्ली को पीछे मुड़कर देखती है तो लगता है कि ये दिल्ली तो वो रही नहीं, जिसकी गलियों में वे खेल खेलकर बड़ी हुईं। इस बदलाव के कारणों एवं षड़यंत्रा पर अपनी नजरिया प्रस्तुत करते हुए वे लिखती हैं- हर शहर का अपना एक चेहरा होता है, जो उसकी जीवन-शैली, बोली -बानी मेले-ठेलों, रीति - रिवाज़ों यानी कुल जमा सांस्कृतिक विन्यास से पहचाना जाता है। वर्तमान परिदृश्य में सभी शहरों की जीवन शैलियॉं एक महा-मंथन की गिरफ़्त में हैं। बहु राष्ट्रीय कंपनियां सबका ‘महानगरीय’ ब्रांडधर्मी संस्कृति में कायाकल्प करने में लगी हैं। मुनाफा इसी में है, जिसके लिए वे ग्रामीण क्षेत्रों में भी घुसपैठ करने की पि़फराक में हैं। सवाल जातीय विशिष्टताओं और अस्मिताओं को अंतरराष्ट्रीय ब्रांडो के आक्रमण से बचने का है। कौन कितना बचेगा, जैसे यह तय नहीं, वैसे ही यह भी निश्चिय करना संभव नहीं कि अंतिम परिणति किसके हित में होगी।’
मित्रों, केवल शहरों का चेहरा ही नहीं बदल रहा है, व्यक्ति के अंदर का चेहरा भी बदल रहा है। नव उदारवाद अधिक आर्थिक अर्जन की जठराग्नि में निरंतर घी डालकर उसे धधका रहा है। वर्तमान व्यवस्था में पैसे की ताकत ने सामाजिक को विवश कर दिया है कि उसका एकमात्र लक्ष्य, जैसे-तैसे अधिक धन का उपार्जन रह जाए। ये पैसे की ताकत ही है कि पचास रुपए की चोरी करने वाला पुलिस के डंडे खाता है, जेल जाता है और पचासों करोड़ की चोरी करने वाला टीवी चेनलों में हीरो बनता है। इतने आर्थिक घोटाले हुए हैं पर कितने को हमारी न्यायव्यवस्था ने सजा के योग्य समझा ये किसी से छुपा नहीं है। हमारी जनता की स्मृति बहुत क्षीण है। आज नंगई की मार्केटिंग का धंधा जोरों पर चल रहा है और साहित्य में भी ऐसे ध्ंाधेबाजों का समुचित विकास हो रहा है । कुटिल -खल -कामी बनने का बाज़ार गर्म है । एक महत्वपूर्ण प्रतियोगिता चल रही है -- तेरी कमीज मेरी कमीज से इतनी काली कैसे ? इस क्षेत्र में जो जितना काला है उसका जीवन उतना ही उजला है । कुटिल - खल-कामी होना जीवन में सफलता की महत्वपूर्ण कुंजी है । इस कुंजी को प्राप्त करते ही समृद्धि के समस्त ताले खुल जाते हैे । बहुत आवश्यक है सामाजिक एवं आर्थिक विसंगतियों को पहचानने तथा उनपर दिशायुक्त प्रहार करने की । पिछले दस वर्षों में पूंजी के बढ़ते प्रभाव, बाजारवाद,उपभोक्तावाद एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ‘संस्कृति’ के भारतीय परिवेश में चमकदार प्रवेश ने हमारी मौलिकता का हनन किया है। अचानक दूसरों का कबाड़ हमारी सुंदरता और हमारी सुंदरता दूसरों का कबाड़ बन रही है । सौंदर्यीकरण के नाम पर, चाहे वो भगवान का हो या शहर का, मूल समस्याओं को दरकिनार किया जा रहा है । धन के बल पर आप किसी भी राष्ट्र को श्मशान में बदलने और अपने श्मशान को मॉल की तरहा चमका कर बेचने की ताकत रखते
हैं ।
आजकल आत्मा की आवाज की जैसे सेल लगी हुई है । जिसे देखो वो ही आत्मा की आवाज सुनाने को उधर खाए बैठा है । आप न भी सुनना चाहें तो जैसे -क्रेडिट कार्ड, बैंकों के उधारकर्त्ता, मोबाईल कंपनियों के विक्रेता अपनी कोयल-से मधुर स्वर में आपको अपनी आवाज सुनाने को उधार खाए बैठे होते हैं, वैसे ही आत्मा की आवाज सुनने-सुनाने का धंधा चल रहा है । कोई भी धाार्मिक चैनल खोल लीजिए, स्वयं अपनी आत्मा को सुला चुके ज्ञानीजन आपकी आत्मा को जगाने में लगे रहते हैं । आपकी आत्मा को जगाने में उनका क्या लाभ? प्यारे जिसकी आत्मा मर गई हो वो धरम- करम कहां करता है, धरम-करम तो जगी आत्मा वाला करता है और धरम-करम होगा तभी तो धार्मिक-व्यवसाय फलेगा और फूलेगा। धर्म एक उद्योग हो गया है। इसलिए जैसे इस देश में भ्रष्टाचार के सरकारी दफतरों में विद्यमान् होने से वातावरण जीवंत और कर्मशील रहता है वैसे ही आत्मा के शरीर में जगे रहने से ‘धर्म’ जीवंत और कर्मशील रहता है । कबीर के समय में माया ठगिनी थी , आजकल आत्मा ठगिनी है । माया के मायाजाल को तो आप जान सकते हैं , आत्मा के आत्मजाल को देवता नहीं जान सके आप क्या चीज हैं । सुना गया है कि आजकल आत्मा की ठग विद्या को देखकर बनारस के ठगों ने अपनी दूकानों के शटर बंद कर लिए हैं । आत्मा की आवाज कितनी सुविधजनक हो गई है, जब चाहा जगा दिया जब चाहा सुला दिया जैसे घर की बूढ़ी अम्मा , जब चाहा मातृ- सेवा के नाम पर ,दोस्तों को दिखाने के लिए ड्ाईंग रूम में बिठा लिया और जब चाहा कोने में पटक दिया ।

आज किसी भी राष्ट्र को भौगोलिक दृष्टि से गुलाम बनाना अत्यधिक कठिन कर्म है परंतु आर्थिक दृष्टि से परतंत्र बनाना और उसकी संस्कृति तथा भाषा छीनकर उसकी अस्मिता की पहचान को मिटाना बहुत सरल उपाय है। यदि आप ध््यान से देखें तो हमारे चारों ओर नवआधुनिकवाद, सूचना क्रांति आदि के माध््यम से यही किया जा रहा है। यह सिद्ध किया जा रहा है कि हिंदी भाषा लंगड़ी है और वो बिना अंगेजी की बैसाखी के आगे नहीं बढ़ सकती है। इस अभियान में हिंदी के कुछ समाचार पत्र और तथाकथित मीडियाऋ विशेषज्ञ, सहायक की भूमिका निभा रहे हैं।आम आदमी के द्वारा पढ़े जाने वाले अखबार का दावा करने वाले, ऐसी भाषा का प्रयोग कर रहे हैं जो संकर संस्कृति के युवाओं द्वारा बोली जाती है। भाषा हमारा सामाजिक स्तर नापने का यंत्र बन गया है।
हिन्दी का भी भूमंडलीकरण हो गया है । हिन्दी मात्र अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में एक भाषा ही नहीं है अपितु वह बाजार को विवश कर रही है कि वह उसकी ताकत को स्वीकारे । परंतु हिंदी की इस ताकत का प्रयोग उसको भस्मासुर बनाकर नष्ट करने के लिए हो रहा है। हिंदी बाजार की भाषा बन गई है और इस रूप में ताकतवर लगती दिखाई देती है परंतु वस्तुस्थिति कुछ और है। हिंदी के इस ताकत के छद्म में उसके सर्वांगीण विकास के बहाने से उसे भ्रष्ट किया जा रहा है। प्रत्येक चैनल की हिन्दी अपना ही इस्टाईल मार रही है । विज्ञापनों की भाषा , समाचारों की भाषा , धारावहिकों की भाषा और हिन्दी फिल्मों से अपनी रोजी - रोटी ! चलाने वाले बेचारे हीरो हिरोईन की कब्जीयुक्त हिन्दी - भाषा ने आपके कानों में अनेक प्रकार के रस घोले ही होंगें । वैसे तो आपके पब्लिक स्कूली होनहार की अध्यापिका या अध्यापक आपसे हिन्दी में बात करके अपना स्तर नहीं गिरायेगी / गिरायेगा और अगर उसने गिरा भी लिया तो जो हिन्दी उनके श्रीमुख से निकलेगी उसे सुन आप ईश्वर से प्रार्थना करेंगे कि हिन्दी का जो होना है हो , भाषा के कारण इनका स्तर न गिरे । सरल / आसान / आम आदमी की भाषा आदि के नाम पर हिन्दी से जो बलात्कार हो रहा है उसे एक अच्छे नागरिक की तरह आप नज़र अंदाज कर ही रहे होंगें । ‘ चैलनी हिन्दी समाचारों ’ में भाषा की सरलता के नाम पर जो अंग्रेजी का कुमिश्रण होता है उसे देखकर तो यही लगता है बेचारी हिन्दी बहुत गरीब है जिसके पास शब्द नहीं हैं और समर्थ अंग्रेजी कितनी उदार है कि वह हिन्दी को शब्द दे रही है । मैंनें अनेक हिन्दी समाचारों में ‘ आसान हिन्दी ’ के नामपर अंग्रेजी शब्दों का जो मिश्रण देखा है उससे तो अनेक बार भ्रम होने लगता है कि यह समाचार हिन्दी के हैं या अंग्रेजी के । फिर मेरा देसी मन मुझे डांटता है कि रे जड़ तूने कभी अंग्रेजी के समाचारों में हिन्दी के वाक्यों को सुना है जो ऐसी शंका करता है । अंग्रेजों ने हमपर शासन किया था कि हमने उनपर ! आज जो वे अपने माल को बेचने के लिए तेरी तुच्छ हिन्दी का प्रयोग कर रहे हैं , तेरी हिन्दी को अपनी अंग्रेजी से समृद्ध कर रहे हैं तो तूं उनका अहसान मान और नत्मस्तक हो जा । अंग्रेजी बोलने में जो गौरव है वो हिन्दी बोलने में कहा । दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ते समय मैंनें अक्सर अनुभव किया कि विद्यार्थी हिन्दी और उसके पढ़ाने वाले को बहुत फालतू - सी वस्तु समझते हैं ।
भाषा की बात चली है तो मुझे अज्ञेय का एक व्यंग्य स्मरण हो आया। उसका शीर्षक है- साहब हैं। उसमें भाषा के प्रति गुलाम मानसिकता एवं तुच्छ भाव पर प्रहार करते हुए अज्ञेय लिखते हैं- दिल्ली में हिंदी का स्थान वही है जो कि ‘राजधानी’ में एक ‘वेर्नाक्युलर’ का होता है ,वेर्ना, घर में जन्मा हुआ दास, दास-पुत्र’ तो यही वह जल-वायु है जिसे पी कर और जिस से ंिसच कर दिल्ली की हिंदी पलेगी, बढ़ेगी और फल देगी- जैसा भी फल... और वह फल दिल्ली में ही खया जायेगा, ऐसा नहीं है। दिल्ली तो राजधानी है, जहां समूचे देश के मानक बनते हैं, जहां से कसोटियां बाहर भेजी जाती हैं। दिल्ली का यह फल ;दिल्ली का यह विषाक्त लड्डू!द्ध सारे देश में बंटता है, इसी का बीज आस-पास बोया जाता है कि वहां भी पौध तैयार हो और फले...

आज का समय विसंगतियों से भरा हुआ है और चकाचौंध में सामाजिक सरोकार तथा मानवीय मूल्य धुंधलाते जा रहे हैं । अस्मिता पर लुके छिपे हमले हो रहे हैं । ये सब ईमानदार मस्तिष्क पर निरंतर अपने प्रभाव छोड़ते रहते हैं । मुझे लगता है कि जिस तरह से पिछले डेढ़ दशक में पूंजी के प्रभाव से भारतीय समाज में विसंगतियां बढ़ी हैं तथा वर्तमान व्यवस्था आपको हताश-निराश एवं अवसाद में अकेला महसूसने को विवश कर रही है, ऐसे में इन सबसे लड़ने का एक मात्र हथियार व्यंग्य ही है। कुछ ऐसी ही परिस्थिति कमलेश्वर के सामने उपस्थिति हुई थी। इलाहबाद से दिल्ली जैसे महानगर में आने पर उनहें लगा कि जिस फार्म और ट्रीटमेंट को वे अपना रहे हैं वो कही मिसफिट है। यही कारण है कि उन्होंनें 1970 में प्रकाशित ‘जिंदा मुर्दे’ संकलन की भूमिका में लिखा था ---जब मैं इलाहबाद छोड़कर दिल्ली आया था और दिल्ली आते ही एक रचनात्मक शून्य में फंस गया था, कयोंकि तब तक लिखी कहानियो की भाषा, गति और फार्म आदि मेरे काम नहीं आ रहे थे। सच्चाइयां इतनी उलझी हुई लग रही थीं कि उनका छोर समझ नहीं आ रहा था, ऐसे में विडम्बनाओं पर ही दृष्टि टिकती है। अब मुझे लगता है कि अपने समय और परिवेश को समझने में प्राथमिक दृष्टि व्यंग्य की ही हो सकती है। इस संग्रह की कहानियां मेरे लिए अत्यंत महत्वपूंर्ण हैं,क्योंकि इनके सहारे ही मैंनें पहली बार महानगर की उलझी हुई जिंदगी के छोर सुलझाए थे। -जिंदा मुर्दे 1970
और संभवतः इसी कारण, बदलते हुए सामाजिक परिवेश में जब वरिष्ठ आलोचक नित्यांनद तिवारी ‘रागदराबरी’ की पुनः आलोचना करते हैं तो स्वीकार करते हैं - लगभग तीस वर्ष पहले मैंने ‘राग दरबारी’ का एक विश्लेषण किया था। मेरे विश्लेषण का तौर-तरीका यथार्थवादी ढांचे के भीतर था। उसमें भाषा और वास्तविकता के बीच संबंध होता है। व्यंग्य वास्तविकता के विद्रूप को उभारने वाली एक शैलीगत विशेषता है। तब मैंने पाया था कि ‘व्यंग्य’ का अतिरंजित उपयोग इस उपन्यास को वास्तविकता से अलग एक स्वाद-रुचि देता है। लेकिन अब मैं ‘राग दरबारी’ के साक्ष्य पर ही कह सकता हूं कि ये जो व्यंग्य है वह विद्रूप से अधिक ‘रियलिटी’ और ‘वर्चुअल रियलिटी’ का फर्क सामने ले आता है।’’
इसी कसौटी के आधार पर वे ‘राग दरबारी ’ की समीक्षा करते हुए उसे आज के समय की दृष्टि से देखते हैं। ‘राग दरबारी’ चाहे आज से तीस बरस पहले लिखा गया हो परंतु प्रो0 तिवारी की अधुनात्तम समीक्षा दृष्टि के कारण सामयिक सामाजिक परिस्थितियों का विदृूप उभारने वाला हो गया है। वे लिखते हैं- स्थानीयताओं का इस्तेमाल कॉरपोरेट दुनिया कर रही है और इसका दोहन करना चाहती है। विकास की राष्ट्रीय धारणा या सामाजिक विकास की धारणा से वह जुड़ी हुई नहीं है बल्कि जो स्थानीयता है उसका कॉरपोरेट दुनिया में किस तरह उपयोग हो सकता है, इसके लिए इस्तेमाल की जाती है। इसलिए जैसे सिंगूर है या और तमाम जगह हैं, पिछड़े इलाके में उनका उपयोग उसी तरह हो रहा है जैसी हैवी इंडस्ट्री नेहरू ने लगाई थी? या इनके कॉरपोरेट निहितार्थ राष्ट्रीयता से अधिक और अलग हैं। सामाजिक विकास होता है या नहीं होता है इसमें उनकी विशेष रुचि नहीं है, वो बाई प्रोडेक्ट हो सकता है लेकिन टारगेट ऐरिया नहीं है। ऐसी हालत में जो कॉरपोरेट हित है, उनमें स्थानीयता का उपयोग कैसे किया जा सकता है ये अधिक महत्वपूर्ण हो गया है।
ये किसका कथन है मुझे याद नहीं आ रहा है- पर्सनल इश पोलिटिकल। क्या राजनीति कभी समाज की चिंता के बगैर बनी है? नहीं बनी। पर अब बिना सामाजिक हुए आदमी पोलिटिकल हो सकता है। जो निजी है, ग्लोबल है वो पोलिटिकल हो जाएगा। निजी को मैं स्पष्ट कर दूं, निजी से मेरा अर्थ निहितार्थ है। निहितार्थ की रक्षा करना पोलिटिकल है और समाज की जिम्मेदारी लेना पोलिटिकल नहीं रह गया है। इस तरह के जो कांस्ट्रक्ट्स हमें दिखाई पड़ते हैं
मैं व्यंग्य या अतिरंजना को यथार्थ उभारने का एक ‘टूल’ नहीं मानता हूं बल्कि ये एक ऐसा मॉडल है जो पूरे के पूरे इस दौर को और आज तक के इस दौर को परिभाषित कर सकता है।’’

व्यंग्य, बदलते सामाजिक परिवेश में उत्पन्न विसंगतियों के विरुद्ध लड़ाई का एक सार्थक हथियार बन गया है। सामयिक परिवेश में अवसाद, मूल्यहीनता, एकाकीपन आदि की उत्पन्न स्थिति का सामना करने के लिए व्यंग्य एक उपयुक्त माध््यम है। यहां मेरे वक्तव्य से यह आशय नहीं लिया जाये कि लालटेन से आरंभ हुई अपनी जिंदगी के कारण मैं कंप्यूटर आदि जैसी नयी तकनीकों का विरोध करने वाला कोई पोंगा पंडित हूं और सामाजिक मानवीय मूल्यों को बचाने के लिए पिछड़ेपन से भरपूर समाज की वकालत कर रहा हूं। हम सब जानते हैं कि हमारा अतीत चाहे सोने की चिड़िया-सा कितना स्वर्णिम रहा हो, अनेक विसंगतियों से भरा था। हम जातिवाद, क्षेत्रतियतावाद, अस्पृश्यता जैसे कितने ही अंधेरों से घिरेे रहे हैं। कल महिला दिवस है और हम जानते हैं कि हमारे समाज में आज भी नारी की स्थिति कितनी विसंगतिपूर्ण है। आज भी भ्रूण हत्या जैसे कलंक से हम बच नहीं पाए हैं। हम दिखावे में आधुनिक हो गए हैं पर हमारी सोच आधुनिक नहीं हो पा रही है। और यही हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है। कुछ ऐसी ही विसंगतियां निरंतर आधुनिक, अतिआधुनिक होते हमारे सामाजिक परिवेश की है। विज्ञान ने हमारी दुनिया को हथेली में सरसों- सा जमा दिया है। संचार माध्यमों, सूचना प्राद्योगिकी आदि के कारण हम निरंतर प्रगतिपथ पर अग्रसर हैं। इस क्षेत्र में हो रहे निरंतर अनुसंधान प्रतिदिन कुछ न कुछ नये का हमारे जीवन का अंग बना रहे हैं। इस प्रक्रिया में नया बहुत जल्दी पुराना हो रहा है। प्रतियोगिता के इस परिवेश में , नया परोसकर जैसे - तैसे आगे बढ़ने की लालसा ने लक्ष्य को महत्वपूर्ण कर दिया है और माध्यम को गौण। यहीं साहित्यकार की भूमिका सामने आती है। अज्ञेय ने कहा था- विज्ञान का कहना है कि दुनिया दिन-ब-दिन छेाटी होती जाती है, वह एक अर्थ में सही है, लेकिन साहित्य में यह बात सच नहीं है , हर बड़ा लेखक दुनिया को थोड़ा और बड़ा करके अपने परवर्तियों को दे जाता है।’ अज्ञेय ने दुनिया को बड़ा करने की बात कही है, मैं इसमें जोड़ना चाहूंगा कि साहित्यकार मानव समाज के लिए बेहतर दुनिया के फलक को अपने योगदान से और बड़ा कर अपने परवर्तियों को दे जाता है।
मेरे विचार से न तो कोई विधा महत्वपूर्ण होती है और न ही कोई माध्यम, महत्वपूर्ण होती है विषयवस्तु। पहले आता है कि आप कहना क्या चाहते हैं और बाद में आता है कि आप उसे कहते कैसे हैं। चाहे वो कवि हो,कहानीकार हो, नाटककार या व्यंग्यकार-सभी हैं तो मूलतः साहित्यकार। व्यंग्य-लेखन साहित्य लेखन से अलग की वस्तु नहीं है। क्या व्यंग्यकार के सामाजिक सरोकार वही नहीं हैं जो एक कथाकार, कवि या नाटककार के हैं? हां , व्यंग्य लेखन अन्य विधाओं से भिन्न प्रक्रिया की मांग करता है । व्यंग्य आपको बेचैन अध्कि करता है । अधिकांशतः सामयिक घटनाएं प्रेरक बिंदु होने के कारण व्यंग्य रचना अन्य विधाओं की अपेक्षा अपने जन्म के लिए अधिक जल्दी में होती है । मैंनें अन्य विधाओं में भी लिखा है और मेरा यह अनुभव है । व्यंग्य लेखन की प्रक्रिया में मैंनें अन्य विधाओं की अपेक्षा अधिक बेचैनी का अनुभव किया है । वैसे तो रचना अपनी विधा स्वयं तलाश लेती है। मुझे व्यंग्य के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करना अधिक सहज लगता है। जब समाज अनैतिक होता है और नैतिकता के ठेकेदार नैतिकता के छद्म में अपने अनैतिक कर्म सफल बनाते हैं तभी तो व्यंग्यकार की रचनात्मक भूमिका जन्म लेती है । जब आंकडा़ छत्तीस का हो और उसे तरेसठ का सिद्ध करने में सिद्धहस्त व्यस्त हों, तभी तो व्यंग्यकार उस विसंगति को उद्घाटित करने के लिये अपना रचनात्मक विरोध रजिस्टर करता है । आज राजनीति, समाज, धर्म , साहित्य आदि में जो मूल्यहीनता की स्थिति है तथा जिस प्रकार हमारी वर्तमान व्यवस्था आक्रोश के स्थान पर पलायन के भाव को भरना चाहती हैं, आर्थिक प्रगति के नाम पर विरोध के प्रजातांत्रिक अधिकार को कुंद करना चाहती है उसके चलते व्यंग्य की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाती है ।
व्यंग्य मूलतः एक सुशिक्षित मस्तिष्कि के प्रयोजन की विधा है ।; महाज्ञानी मुझ अज्ञानी के इस वक्तव्य से यह अर्थ न लें कि व्यंग्य लिखने या समझने के लिए हिन्दी में एम0 ए0 , पीएच 0 डी0 करना आवश्यक है इस कारण विश्वविद्यालय के लिए कदम - कदम बढ़ा कर व्यंग्य के गीत गाने लगें । कबीर ने न तो मसि कागज छुआ और न कलम ही हाथ में गहि और ऐसे भी महानुभाव हैं जिन्होंनें मसि कागज छुआ और कलम गहि पर व्यंग्य की समझ उनसे कोसों दूर ही रही । ऐसे ज्ञानियों से गांव की गंवारन बेहतर जो बातों बातों में कब गहरा कटाक्ष कर जाती है पता ही नहीं चलता । व्यंग्य के प्रयोग में बहुत ही सावधानी की आवश्यकता है । इसका लक्ष्य मात्र विसंगतियों का उद्घाटन करना ही नहीं है , अपितु उसपर प्रहार करना है । यहां सवाल उठता है कि इस प्रहार की प्रकृति क्या हो । व्यंग्य अगर हथियार है तो इसके प्रयोग में सावधानी की आवश्यकता भी है । तलवार को लक्ष्यहीन हाथ में पकडकर घुमाने से किसी भी गला कटकर अराजक स्थिति पैदा कर सकता है तथा स्वयं की हत्या का कारण भी बन सकता है ।
आज हिंदी व्यंग्य में इस तरह का अराजक माहौल पनप रहा है । इससे व्यंग्य अपने लक्ष्य से भटक रहा है । जिस व्यंग्य को नैतिक तथा सामाजिक यथार्थ की गहराई से जुडकर, पाठक को सही सामाजिक परिवर्तन की ओर अग्रसर करना चाहिए , वही सस्ती लोकप्रियता के चक्कर में सतह पर ही घूम रहा है । अच्छा साहित्य लिखने की चुनौती और प्रतियोगिता तो साहित्य की हर विधा में है। कुछ आलोचक पूरे व्यंग्य साहित्य को देायम दर्जे का साहित्य मानते हैं।यदि लापफट्र शो या चुटकलेबाजीमय तथाकथित मंचीय कविता का रिश्ता व्यंग्य से जोड़ा जा सकता है तो क्या घटिया धारावाहिकों का रिश्ता कथा-साहित्य से नहीं जोड़ा जा सकता? यदि व्यंग्यकार से पूछा जा सकता है कि तुम अहसान कुरेशी टाइप क्यों नहीं लिखते, तो क्या किसी ‘श्रेष्ठ’ कथाकार से सवाल नहीं किया जा सकता कि वह प्यारेलाल आवरा या गुलशन नंदा टाइप क्यों नहीं लिखता? क्या सभी व्यंग्यकार गहरे में नहीं उतरते हैं और दोयम दर्जे का साहित्य लिखते हैं,ैं और समस्त कथाकार,नाटककार और कवि गहरे में ही उतरे पाए जाते हैं और उत्कृष्ट साहित्य रचते हैं?
व्यंग्य लेखन के अनेक उपमान मैले हो चुके हैं । सामाजिक सरोकारों से जुड़े नए विषयों की खोज का संस्कार मैंनें परसाई जी से ग्रहण किया है। परसाई जी जिन दिनों अपनी टूटी टांग का इलाज दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में करवा रहे थे, उन्ही दिनों मैंनें और हरिमोहन शर्मा ने उनका एक साक्षात्कार लिया था। मेरे एक प्रश्न के उत्तर में परसाई जी ने कहा- प्रेम हमारी पीढ़ी ने अपने पिता को नंगा नहीं देखा, तुम देख सकते है। इस प्रतीक को अगर आप समझे ंतो आप आज के समाज में व्यंग्यकार की भूमिका को अच्छी प्रकार से समझ सकते हैं। आजादी के बाद का व्यंग्य साहित्य अधिकांशतः राजनीतिक विसंगतियों पर आधारित है। राजनीतिक विसंगतियों के अधिकांश लक्ष्य मूर्ख थे और उनके अंदर विसंगतियां धीरे-धीरे पनप रही थीं। आज की व्यवस्था हमें मूर्ख बना रही है।
व्यंग्य विधा जैसा प्रश्न बहुत घिस चुका है और अपनी चमक ही नहीं पहचान भी खोने लगा है। अब यह सवाल ऐसा लगता है जेसे आपके पास व्यंग्य आलोचना में बहस के लिए और कोई मुद्दे नहीं हैं, सो आप इसे ही घिसे जा रहे हैं। इसे बंद कर दिया जाना चाहिए। व्यंग्य के औजारों की पहचान की आवश्यक्ता है। व्यंग्य लेखन अलग पहचान लिए कैसे है इसपर चर्चा की आवश्यक्ता है।
निरंकुश लेखन, विशेषकर व्यंग्य, बहुत ही खतरनाक है। किसपर व्यंग्य करना है के साथ-साथ यह जानना भी आवश्यक है कि किसपर व्यंग्य नहीं करना है। वंचितो पर व्यंग्य कतई नहीं करना चाहिए। मेरा प्रयत्न तो ये ही रहा है कि निडरता से अपनी बात कहूं, पर कहां मैं कायर रह गया और किन विषयों से बचकर निकल गया, ये तो मेरे आलोचक बताएं या बताएंगे तो मैं अपने को सही कर सकूंगा। लेखक के दिलो दिमाग खुले हैं और उसमें विषयों को पकड़ने की क्षमता है तो उसे कहीं से भी विषय मिल जाते हैं। मेरे विचार से कोई विषय प्रखर या कुंद नहीं होता है अपितु उसकी अभिव्यक्ति उसे प्रखर बनाती है। एक विषय को परसाई उठाते थे और उसी विषय को उनके कुछ समकालीन भी उठाते थे परंतु विषय का ट्रीटमेंट परसाई को परसाई बनाता है। परसाई की पारसाई विषय को प्रखर बना देती थी। मैं परंपरागत विषयों को दोहराने में अधिक विश्वास नहीं करता हूं।
मैं बेहतर रचना को ही बेहतर मानने का पक्षधर हूं। कोई विधा किसी रचना को श्रेष्ठ नहीं बनाती हैं अपितु श्रेष्ठ रचनाएं किसी विधा को श्रेष्ठ बनाती हैं। हमारी युवा पीढ़ी में जो ये भ्रम है कि वो व्यंग्य के नाम पर जो भी लिखेंगें वो श्रेष्ठ होगा, उचित नहीं है। माना हंसी बिक रही है, पर मैं साहित्य का उद्ेश्य बिकाउ होना नहीं मानता हूं। मेरा हास्य से कोई विरोध नहीं है और मेरा मानना है कि व्यंग्य की अपेक्षा श्रेष्ठ हास्य लिखना अधिक कठिन है। पर जिस तरह हमारे जीवन में निरंतर विसंगतियों का ‘विकास’ हो रहा है ऐसे में साहित्य के माध्यम से हास्य परोसना अपने साहित्यिक दायित्व से उदासीन होना होगा। व्यंग्य मेरे लिए वर्तमान विसंगतियों पर प्रहार करने का जनवादी हथियार है।
मेरा यह भी मानना तो यह है कि व्यंग्य के लिए हास्य की बैसाखी का प्रयोग करना अनावश्यक है। हास्य के नाम पर जिस तरह हास्यास्पद रचनाओं का उत्पादन हो रहा है, उस माहौल में व्यंग्य को हास्य से जितना दूर रखा जाए अच्छा है। हास्य और व्यंग्य दोनों का आधार विसंगति है, ऐसे में संभव है कि किसी रचना में विसंगति का चित्रण करते समय दोनों के दर्शन हो जाएं। संप्रेषणीयता के नामपर,व्यंग्य से साथ हास्य के अनावश्यक प्रयोग का मैं विरोधी हूं।
व्यंग्य एक अराजक स्थिति में है । व्यंग्य की बढती लोकप्रियता ने इसे बहुत हानि पहुंचाई , विशेषकर अखबारों में प्रकाशित होने वाले स्तम्भों नें नई पीढी को बहुत दिगभ्रमित किया है । आज सात आठ सौ शब्दों की सीमा में लिखी जानी वाली अखबारी टिप्पणियों को ही व्यंग्य रचना मानने का आग्रह किया जाता है । क्षेत्रीय अखबारों में स्तम्भ लिखने वाले नए रचनाकार अपनी कमीज का कालर उठाए, व्यंग्यकार का तमगा लगाए घूमते हैं तथा आग्रह करतें हैं कि उनकी अखबारी टिप्पणियों के कारण उन्हें व्यंग्यकारों की जमात में शामिल कर ही लिया जाए । स्वयं को व्यंग्यकारों की जमात में जल्द से जल्द शामिल करवाने की लालसा तथा एक आध अखबारी कॉलम हथियाने की जुगाड़ दिशाहीन व्यंग्य को जन्म दे रही है ।
आजकल व्यंग्य लेखन फैशन में है और जो वस्तु पफैशन में होती है उसको चलने दिया जाता है और संत लोग सार- सार गहि के थोथा उड़ाते रहते हैं । आजकल लोग बहुत चतुर और सयाने हो चुके हैं, वे उपभोक्तावादी समाज में पल- बढ़ रहे हैं, अतः लुभावने विज्ञापनों का आनंद तो उठाते हैं पर उनके बहकावे में कम आते हैं, ये दीगर बात है कि बच्चे आ जातें हैं, पर बच्चे तो बच्चे ही कहलातें हैं । जब किसी वस्तु की मात्रा में वृद्धि होती है तो उसकी गुणवत्ता में गिरावट आना स्वाभाविक है और उपभोक्तवादी समाज में वही टिकता है जो गुणवत्ता का ध्यान रखता है । इस दृष्टि किसी भी ‘ब्रै्रंड’ के प्रोमोशन में चाहे कितने ही विज्ञापननुमा दावे कर लिए जाएं, चाहे कितने ही शुभकामना संदेश प्रसारित कर दिए जाएं, अध्कि देर टिकेगा वही जिसमें गुणवत्ता होगी ।
साहित्य के मार्ग में शार्ट कट नहीं होते हैं और जो शार्ट कट तलाशते हैं वे मात्र आड़ी तिरछी पगडंडियों पर भटकते हुए राजमार्ग पर चलने का भ्रम पालते हैं । साहित्य का मार्ग पत्थरीला, कंटीला एवं लम्बे संघर्ष से युक्त है । इस मार्ग पर अनेक पड़ाव आते हैं और उन पड़ावों को पार करने के पश्चात् भी रचनाकार निश्चिंत तौर पर नहीं कह सकता कि उसने लक्ष्य को पा लिया है ।
व्यंग्य का अतीत बहुत ही सशक्त रहा है और वर्तमान प्रगतिशील है । हर युग का कूडा़ छनता है । परसाई,जोशी,त्यागी और शुक्ल के समय और भी व्यंग्यकार लिख रहे थे पर उनकी चर्चा अधिक नहीं होती है । कुछ लोगों को समय छांटता है और कुछ को साम्प्रदायिक आलोचक भी छांटते हैं । अब आप जानते ही हैं कि एक साहित्यिक सम्प्रदाय के लोग मुक्त कंठ से परसाई की प्रशंसा करते हैं,चलते-चलते श्रीलाल जी का नाम लेते हैं पर रवीन्द्रनाथ त्यागी या शरद जोशी चर्चा करते हुए उन्हें कब्ज हो जाती है । परसाई के अतिरिक्त और किसी का नाम लेने में उन्हें ‘संकोच’ ; एक पतिव्रता नारी जैसा संकोच,होता है। व्यंग्य का वर्तमान बताता है कि व्यंग्य का भविष्य अच्छा है ।मेरा लक्ष्य केवल वर्तमान को अपनी अल्पबुद्धि को प्रयोग कर सुंदर भविष्य की ओर भेजना है ।
अंतः में मैं निष्कर्ष के लिए अज्ञेय की कविता का आश्रय लेना चाहूंगा।
अज्ञेय कहते हैं-
आंगन के पार
द्वार खुले
द्वार के पार आंगन
भवन के ओर-छोर
सभी मिले--
उन्हीं में कहीं खो गया भवन।
मेरा कहना है कि आज पूंजीवाद ने सभी देशी विदेशी द्वार खोले हुए हैं। हमने भी अपने भवन के सभी द्वार खोल दिए है। पर इस प्रक्रिया में हमारा अपना भवन जो भाषा, संस्कृति और हमारी अस्मिता का है, कहीं खो न जाए। इन खुले द्वारों का कौन द्वारी है, कौन अगारी है कौन नहीं जानते कोई बात नहीं, पर आज जो हमारा देवता बना हुआ है, जो पा-लागन करता हुआ दिखाई देता है, उससे सावधान रहें। हम उस सांप से सवाल करें-
सांप!
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूंछूं,उत्तर दोगे,
तब कैसे सीखा डंसना
विष कहां से पाया?

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शनिवार, 27 मार्च 2010

प्रेम जनमेजय: वसंत, तुम कहां हो?

प्रेम जनमेजय: वसंत, तुम कहां हो?

वसंत, तुम कहां हो?


वसंत, तुम कहां हो?

मैं बहुत दिनों से वसंत को ढूंढ रहा था। पता चला कि इस बार वो 20जनवरी को दिखा था, पर उसके बाद पता नहीं कहां चला गया। वसंत ने तो मुझसे उधार भी नहीं लिया है कि वो मुझ से मुंह चुराए। मैं किसी क्रेडिट कार्ड बनवाने वाली, उधार देने वाली, बीमा करने वाली या फिर मकान बेचने वाली, कंपनी के काल सेंटर में भी काम भी नहीं करता हूं कि वो मुझसे बचकर चले। वसंत किसी मल्टी नेशनल कंपनी में तो काम करने नहीं लग गया है। मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाले युवक, कब घर आते हैं और कब जाते दफतर जाते हैं, मोहल्ले की क्या औकात, मां-बाप को पता ही नहीं चलता है। हो सकता है किसी कंपनी ने वसंत का अपने नाम पेटेंट करवा लिया हो और वो बेचारा हाथ बांधे अपने मालिक की सेवा में खड़ा हो।
पिछले वर्ष, एक दिन वसंत रास्ते में मिल गया, पर मैं पहचान नहीं सका। उसके चेहरे पर पतझड़ का वैसा ही सूखापन था जैसा सूखापन आजकल राजनीति में नैतिकता का है। उसका चेहरा किसी भूखे के पेट की तरह सख्त था और आंखों से किसी गरीब के जीवन का सूनापन झांक रहा था। होली के आसपास कौन ऐसे वसंत को पहचान सकता है? पर हो सकता है इसबार उसका चेहरा बदल गया हो। पिछले साल तो मंदी थी, इस बार तो तेजी आने वाली है।
मैंनें तय कर लिया कि इस बार तो वसंत को ढूंढ ही निकालूंगा। महात्मा बुद्ध ज्ञान की खोज में महलों का सुख त्यागकर रात को निकले थे, मैं दिन में ही, कॉलेज में पढ़ाने का सुख त्यागकर, निकल पड़ा। कालेज में पढ़ाने का सुख, महलों के सुख से कम नहीं है। आप पढ़ाते नहीं पर फिर भी माना जाता है कि आप पढ़ाते हैं।
वसंत की खोज में निकला ही था कि देखा नुक्कड़ के मकान के बाहर पत्नी अपनेे पति को तिलक करते हुए कह रही है- जाओ प्रिय, चार माह के लिए तुम देश सेवा के लिए जाओ। चाहे मेरे घर का जितना भी बजट बिगड़ जाए, तुम तो देश का बजट बनाकर आओ। राष्ट्रहित में मैं चार महीने के विरह का पतझड़ सह लूंगी।’
जहां दीये तले अंधेरा होता है, वहां दीये उपर उजाला होता है, जहां विरह का पतझड़ होता है, वहां मिलन का वसंत भी होता है। यह सोचकर मैंनें पूछा- हे देवी, आप विरह का पतझड़ क्यों सह रही हैं?’’
‘मेरे पति बजट- बाबू हैं। इन्हें देश का बजट बनाने वित्त मंत्रालय की कैद में जाना है। जब तक बजट नहीं बनेगा मेरे जीवन में विरह का पतझड़ छाया रहेगा।’
मैंनें बजट बाबू से कहा- आपकी पत्नी के जीवन में तो विरह का पतझड़ छाया होगा और आपके जीवन में बजट का वसंत छाएगा। इसका मतलब वसंत आपके साथ कमरे में बंद रहता है।’
- वसंत, हमारे साथ कमरे में! वो तो हमसे डरता है, हमारे पास पफटकता नहीं कि कहीं हम उसपर सर्विस टैक्स न लगा दें। वित्त मंत्री के तीरों से अच्छे-अच्छे घबराते हैं, वसंत किस खेत की मूली है। जाओ उसे किसी मॉल में ढंूढो।’
मैं वसंत को ढूंढने निकल पड़ा। मुझे लगा कि कहीं वो दाल और चीनी की तरह बाजार से तो गायब नहीं हो गया। पर दाल और चीनी की तो गरीब को आवश्यक्ता होती है, वसंत की नहीं, वसंत की तो अमीरों को आवश्यक्ता होती है। उनके जीवन में तो बारहमासी वसंत छाया रहता है, नहीं छाता है तो बाजार से खरीदकर छवा लेते हैं। वो सारी चीजें, जिनकी आवश्यक्ता अमीरों को होती है, वो कभी बजार से गायब नहीं होती हैं। फ्रिज, टीवी,ए सी, बड़ी-बड़ी कारें, साधन सम्पन्न कोठियां, बेईमानी, भ्रष्टाचार, अनैतिकता आदि आपने कभी गायब होते देखे हैं। ये तो बाई वन गेट वन फ्री यानी एक के साथ दूसरा मुफ्त पाओ की शैली में मिलते हैं।
आजकल बाजार से जो चीज गायब हो रही है, जिसके भाव बढ़ रहे हैं , उसका पता कृषि-मंत्री को होता है। आप तो जानते ही हैं कि हमारे मंत्री किसी जादूगर से कम नहीं होते हैं। जब मंत्री बनते हैं तो किसी सुदामा से कम नहीं होते हैं पर ऐसा जादू करते हैं कि झोपड़ी के स्थान पर महल बन जाते हैं। जादूगर चीजों को आपकी आंखों के सामने ऐसे गायब करता है कि आप देखते रह जाते हैं। और जो चीज गायब करता है, वो ही तो बता सकता है कि वो चीज गायब होकर कहां गई है। इसलिए मैं भी गायब वसंत के बारे में पता करने के लिए कृषि-मंत्री के पास चला गया।
मैंने कृषि-मंत्री से पूछा,‘‘ आपने वसंत को देखा है? कहीं मिल नहीं रहा है।’’
- कौन वसंत ?
- वसंत, अपना वसंत।’’
- अपना मराठी मानुस! उसके बारे में अप्पन खुलके बात नहीं करेगा। उसका खुल्लमखुल्ला ठेका तो बाबा साहेब के पास है, हमारा अंडरस्टैंडिंग तो बस छुपमछिपाई का...
- नहीं मराठी मानुस वाला वसंत गायब नहीं हुआ है, वो तो जैसे दाल और चीनी गायब हुए हैं...
- ओ अच्छा, वसंत नाम का कोई किसान गायब हो गया है। वो गायब नहीं हुआ होगा, उसने आत्महत्या कर ली होगी, उसे ढूंढना बंद ही कर दो।’ इस शोक में उन्होंनें बिना चीनी के चाय पी और बोले,‘देख लेना, कहीं वसंत का निर्यात तो नहीं हो गया।’’ यह कहकर उन्होंनें हाथ में क्रिकेट की बॉल पकड़ ली और उससे कैच -कैच खेलने लगे। मुझे लग गया कि यहां वसंत का पता नहीं मिलेगा, यहां तो कैच होने वाली वो बालें दिखेंगी जो स्विस बैंक में जमा करने लायक होती हैं।
मैंनें रिक्शेवाले से पूछा- ये वसंत कहां है, पता है?
- न, हम तो कल ही गांव से शहर आए हैं, कोई सवारी नहीं मिली है, आप ही बता दो कहां चलना है और जो चाहे दे दो।’
- वसंत किसी मोहल्ले का नाम नहीं है, वसंत तो मौसम का नाम है। तुमने देखा होगा, वसंत आता है तो कोयल कूकने लगती है और बागों में फूल खिल जाते हैं।’
- बाबू हम तो जब से आए हैं, कार-स्कूटरों की चिल्ल पों ही सुनी है। कोयल की कूक तो गांव में सुनी थी। बाबू जब पेट में भूख लगी हो तो फूल कहां दिखाई देते हैं। और पिफर हमें तो चारों ओर बिल्डिंग ही बिल्डिंग नजर आती हैं, इन पत्थरों में फूल कहां खिलेंगें? बाबू , आप कार-स्कूटर में बहुत बार वसंत को ढूंढते होंगे आज मेरे रिक्शे पर ही ढूंढ लें। आपका ढूंढना हो जाएगा और मेरे पेट को दो रोटी मिल जाएंगी।’
मुझे समझ आ गया कि मैंनें गलत दरवाजा खटखटा दिया है। भूखे पेट तो गोपाल का भजन नहीं हो सकता वसंत की कौन कहे। गंवई गंवार कहीं का... बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद... अनाड़ी भूखा क्या जाने शेयर बाजार का सैंसेक्स या देश की जी डी पी !
सुना है कि वसंत वी आई पी हो गया। वो आतंकवदियों की हिट लिस्ट में है। उसके चारों ओर सुरक्षा का घेरा है इसलिए वो आम जनता से नहीं मिलता है, किसी की पहुंच में नहीं है। कभी-कभी वो झोपड़ी में भी घुस जाता है तथा झोपड़ी पूरा जीवन इस आशा में बिता देती है कि वसंत फिर आएगा। जैसे दीये तले अंधेरा होता है वैसे ही वसंत के तले पतझड़ होता है और वो पतझड़ झोपड़े में छूट जाता है।
अब वसंत भी थोड़ी बहुत राजनीति जान गया है, उसने भी रूप बदल लिया है । वसंत बहरूपिया हो गया है । वसंत ऐय्यार हो गया है । वह रिमिक्स बनकर आने लगा है। वसंत जब वसंत में नहीं आ सकता तो वह दूसरे रूपों में आने लगा है । कभी वो राष्ट्रमंडल खेलों का बजट बनकर आता है, कभी हाथी की मूर्तियों के रूप में आता है, कभी हिंदी पखवाड़ा बनकर आता है और कभी...
किसी के जीवन में समस्त जीवन वसंत ही वसंत रहता है और किसी के जीवन में वसंत कभी नहीं आता है, ऐसे में वो चिल्लाता है- वसंत तुम कहां हो?


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