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शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

प्रेम जनमेजय का व्यंग्य-अंधेरे के पक्ष में उजाला

प्रिय/सम्माननीय
झिलमिलाते दीयों की जीवंत मंगल वेला में
आप सबको
दीपावली की मंगलकामनाएं

एवं हार्दिक बधाई

प्रेम जनमेजय एवं परिवार


अंधेरे के पक्ष में उजाला
प्रेम जनमेज
मेरे मोहल्ले में अनेक चलते किस्म के लोग रहते हैं। मेरे मोहल्ले में पुलिस, न्यायालय, संसद, साहित्य, नौकरशाही आदि क्षेत्रों से जुड़े लोग रहते हैं। आप तो ज्ञानी ही हैं और जानते ही होंगें मनुष्य भी एक मशीन है और इस मशीन के पुर्जों का सही इस्तेमाल करना चलते किस्म के लोगों का ही कमाल होता है और ऐसे महापुरुषों को चलाता पुर्जा भी कहा जाता है। मेरे मोहल्ले में इन्हीं ‘चलताउ’ किस्म के लोगों का साथ निभाने और नैतिक बल देने के लिए एक चलती सड़क भी है। जैसे नारे हमें निरंतर ये भ्रम देते रहते हैं कि देश चल रहा है वैसे ही इस सड़क से लगातार फेरीवालों की आवाजाही और उनकी भांति-भांति की आवाज़ें निरंतर भ्रम देती रहती हैं कि ये सड़क बहुत चलती है। कोई रद्दी पेपर की पुकार लगाकर आपके कबाड़ से आपको लाभान्वित करने का अह्वान देता है, कोई बासी सब्जी को ताजा का भ्रम पैदा करने वाली रसघोल पुकार को जन्म देता है। कोई चाट-पकोड़ी की चटकोरी जुबान से चटपटाता है तो कोई...। मौसम के अनुसार आवाज़ें भी बदलती रहती हैं। चुनाव के मौसम में अपनी रेहड़ी पर देशसेवा लादे, देशसेवा ले लो, देशसेवा ले लो की गुहार लगाने वाले भी आते हैं। ये सभी आवाज़ें मेरी परिचित आवाज़ें हैं और मुझे परेशान नहीं करती हैं। जैसे रेल की पटरियों के पास रहने वालों को रेलगाड़ी का आना-जाना, मछली बाज़ार में रहने वालों को मछली की गंध, सरकारी दफतरों में काम करने वालों को भ्रष्टाचार, पुलिस वालों को कत्ल, वकील को झूठ आदि परेशान नहीं करते। पर उस दिन एक नई पुकार सुनकर मैं परेशान हो गया, कोई पुकार रहा था --उजाला ले लो, उजाला ले लो, बहुत सस्ता और उजला उजाला ले लो। पचास परसेंट डिस्काउंट पर उजाला ले लो।’ डिस्काउंट सेल तो बड़े-बड़े माॅल पर लगती है या उनकी देखा-देखी किसी छोटी दुकान पर। किसी फेरीवाले को मैंनें डिस्काउंट सेल लगाते हुए नहीं देखा। हां मोल-भाव करते जरूर देखा है। मोल-भाव तो हम भारतीयों की पहचान और आवश्यक्ता है। बिना मोलभाव किए माल खरीद लो तो लगता है कि लुट गए और मोलभाव करके खरीद तो लगता है कि लूट लिया। मैंनें फेरी को बुलाया और कहा- तुम्हें मैंनें पहले कभी इस मोहल्ले में नहीं देखा, तुम कौन हो और कहां से आए हो? उसने कहा- मैं उजाला हूं और स्वर्ग से आया हूं। - तुम तो सोने के भाव बिका करते थे, तुम्हारी तो पूछ ही पूछ थी, ये क्या हाल बना लिया है तुमने? तुम स्वर्ग में थे तो फिर धरती पर क्या लेने आ गए? - मैं आया नहीं, प्रभु के द्वारा धकियाया गया हूं। - क्या स्वर्ग में भी प्रजातंत्र के कारण चुनाव होने लगे हैं जो उजाले को धकियाया जा रहा है। तुम तो प्रभु के बहुत ही करीबी हुआ करते थे। साधक तो अंधेरे से लड़ने के लिए प्रभु की तपस्या करते हैं और प्रभु अंधेरे से लड़ने के लिए तुम्हारा वरदान देते हैं। तुम तो इतने ताकतवर हो कि एक दीए को तूफान से लड़वा दो, जितवा दो ं पर इस समय तो तुम ऐसे लग रहे हो जैसे प्रेमचंद की कहानियों का किसी सूदखोर बनिए के सामने खड़ा निरीह किसान या फिर आज के भारत का आत्महत्या करने वाला सरकारी आंकड़ों में चित्रित ‘खुशहाल’ किसान। - मेरी हालत तो किसान से भी बदतर है, किसान तो आत्महत्या कर सकता है, मैं तो वो भी नहीं कर सकता।’ यह कहकर वह रोने लगा। मैंनें कहा- उजाला इस तरह रोता हुआ अच्छा नहीं लगता। तुम ही कमजोर हो जाओगे तो ईमानदार मनुष्य का क्या होगा। बताओ तो सही,क्या और कैसे हुआ, तुम राजा से रंक कैसे हुए? - तुम तो जानते ही सतयुग में मेरी क्या ताकत थी। हर समय प्रभु के निकट ही रहता था। कितना विश्वास था प्रभु को मुझपर! अच्छे -अच्छे राजा मुझसे भय खाते थे। चारों ओर मेरा ही साम्राज्य था। अंधेरा मुझे देखते ही दुम दबाकर भाग जाता था। उन दिनों अंध्ेारा दीए तले रहने से भी घबराता था। मेरी ताकत के कारण मुझे बस संकेत भर करना होता था और अंधेरा किसी कोने में अपना मुंह छिपा लेता था। मेरा काम बस प्रभु के चरणों में पड़ा रहना होता था। प्रभु मुझे देखकर प्रसन्नचितदानंद होते और अपनी सृष्टि में मेरा विस्तार देखकर संतुष्ट होते। प्रभु मुझे देखकर प्रसन्न होते और मैं प्रभु को देखकर प्रसन्न होता। जैसे प्रेम में फंसा हुआ नया जोड़ा एक दूसरे को एकटक निहारता रहता है, उसे समय और स्थान का ज्ञान नहीं रहता है, वो दुनिया से कट जाता है, वैसे ही प्रभु और मैं हो गए। हम दोनों अपने प्रति परवाहकामी और संसार के प्रति बेपरवाह हो गए। अंधेरा तो इसी की तलाश में था। उसने धीरे-धीरे अपने पैर पसारने आरंभ कर दिए। एक ही स्थान पर बैठे-बैठे मुझपर चर्बी भी बहुत चढ़ गई थी। हर समय नींद-सी आई रहती थी। इधर अचानक मेरा काम बढ़ गया। समझो सरकारी नौकरी से मैं किसी मल्टीनेशनल कंपनी के चंगुल में पफंस गया। आप जानों प्रभु तो प्रभु होते हैं। निरंतर व्यस्त रहना ही प्रभु का प्रभुत्व होता है और उनके इस प्रभुत्व को उनके भक्त भोगते हैं। व्यस्त प्रभु निर्देश देते हैं और भक्त सेवक बन उनका पालन करते हैं। ज़रा-सी चूक सेवक को उसके पद से स्खलित कर देती है। मेरे साथ भी ऐसा हुआ। काम की अधिकता के कारण एक दिन मुझे उंघ आ गई और किसी ने प्रभु की प्रभुता को चुनौती दे डाली। प्रभु का नजला मुझ पर गिरा और उन्होंने मुझे श्राप दे डाला। उस श्राप के कारण मेरे अनेक टुकड़े हुए और मैं धरती पर आ गिरा। मेरे अनेक टुकड़ों मे से कोई पुलिस की गोद में गिरा, कोई वकील की गोद में गिरा, कोई नेता की गोद में गिरा, और कोई... अब मैं अपने विघटन का क्या बयान करूं...’’ ये कहकर वो फूट-फूट कर रोने लगा। उजाले को रोता देख मेरे घर के हर कोने का अंधेरा अट्टहास करने लगा। मैंनें कहा- देखो उजाले, तुम्हें रोना है तो कहीं और जाकर रोओ, वरना मेरे घर में अंध्ेारा अपना साम्राज्य स्थापित कर लेगा। मेरे घर में तुम्हारे होने का ताकतवर भ्रम बना हुआ है, उसे बना रहने दो। मुझे तुमसे सहानुभूति है, पर क्योकि अब तुम दुर्बल हो चुके हो, इसलिए तुम्हें मैं अपने घर में टिका नहीं सकता हूं। तुम्हारे रहने से मेरे घर में थोड़ा बहुत जो उजाले के होने का भ्रम है वो दूर हो जाएगा और मोहल्ले में मेरी इज्जत का भ्रम टूट जाएगा।’ उजाले ने सुबकते हुए कहा- मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है, मैं सभी जगह से इसी तरह से ठुकराया गया हूं। मेरे किसी टुकड़े को किसी ने शरण नहीं दी है। पुलिसवाले, वकील, नेता आदि सबने यही चाहा कि मैं अपने होने का भ्रम तो पैदा करूं पर खड़ा अंधेरे के पक्ष में रहूं। मेरी भूमिका अंधेरे के गवाह के रूप में रह गई है। मैं क्या करूं? - करना क्या है, वही करो जो समय की मांग है। समय की मांग बहुत बड़ी मांग होती है। इस मांग के कारण ही बाप अपनी बेटी से बलात्कार करता है, इस मांग के चलते ही बेटा कंपनी के काम को मां-बाप की आवश्यकता से अधिक प्राथमिकता देता है, इस मांग के कारण ही जनसेवक अपनी सेवा को प्राथमिकता देता है। आज समय की मांग है कि उजाला अंध्ेारे के पक्ष में खड़ा हो। तो प्यारे तुम चाहे खड़े होओ या बैठो पर मेरे यहां से फूट लो वरना तुम्हें इस घर की युवा पीढ़ी ने तुम्हें मेरे साथ देख लिया तो वो मुझे श्राप दे देगी और मैं तुम्हारी तरह फेरी लगाता अपने आपको बेच रहा हूंगा।’ उजाले ने मेरी ओर जिस निगाह से देखा उसका बयान करते हुए मेरी गर्दन शर्म के कारण झुकी जा रही थी, पर जब अस्तित्व का प्रश्न आता है तो शर्म, लज्जा, नैतिकता,आत्मस्वाभिमान आदि को तेल लेने भेजना ही पड़ता है। उजाले ने ना जाने किस दृष्टि से मुझे देखा कि वो मेरी आत्मा को बेंध गई। उजाला अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए फिर पफेरीवाल बन आवाज़े लगाने लगा।

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मंगलवार, 15 सितंबर 2009

‘हिंदी दिवस’ या ‘पंडा दिवस’

हिंदी दिवस पर नई दुनिया के 14 सितंबर अंक में प्रकाशित श्री आलोक मेहता की विशेष टिप्पणी ‘हिंदी दिवस के विरुद्ध’ पर प्रेम जनमेजय की टिप्पणी आलोक मेहता जी, ‘हिंदी दिवस’ पर आज की नई दुनिया में प्रकाशित अपकी विशेष टिप्पणी, ‘हिंदी दिवस के विरुद्ध’ से मैं पूरी तरह आपसे सहमत हूं और हिंदी के सरकारीकृत हिंदी विकास के सही चेहरे को सामने लाने के लिए आपको बधाई देता हूं। आपने सही सवाल उठाया है ‘ ... हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह और महीने के तमाशे पर करोड़ों रुपए बहाने वालों के विरुद्ध मोर्चा क्यों नहीं बनता?’ आप तो जानते ही हैं कि हमारी सामयिक व्यवस्था में वही सबल है जिसके पास अर्थ का बल है। यही कारण है कि पांच रुपए की चोरी करने वाला पुलिस के डंडे खाता है और पंाच सौ करोड़ की चोरी करने वाला किसी नायक-सा प्रचार पाता है और जेल में वी आई पी होने का सुख भोगता है। जिनके पास करोड़ों रुपए बहाने के साधन हैं उनके विरुद्ध स्वर उठाने वालों के पास बस शब्द हैं। मैं हिंदी दिवस को पंडा दिवस कहता हूं। हिंदी दिवस आते ही हिंदी के घाट पर संतों की भीड़ लग जाती है, चंदन घिसे और लगाए जाते हैं और दक्षिणा देने और लेने का स्वर्गिक सुख उठाया जाता है। आप तो जानते ही हैं कि वो चाहे श्राद्ध का पखवाड़ा हो या नवरात्र के नौ दिन, चांदी तो पंडों की ही कटती है। जैसे हमारे प्रजातंत्र की व्याख्या मूंडे जाने और मुंडवाए जाने की है वैसी ही व्याख्या इस हिंदी दिवस की भी है। जजमान मुंडे जाने पर प्रसन्न है और ... जिस चैनल पर आयोजित कार्यक्रम में आपने अपनी सहभागिता की चर्चा की है, वो कार्यक्रम मैंने भी देखा और देखने के बाद, हिंदी के प्रति अधिकांशतः अति अशुद्धतावादी कारोबारी स्वर देख/ सुन कर सर पीटने के अतिरिक्त और कुछ करने लायक न रहा। वहां का माहौल महाभारत के उस प्रसंग की याद दिला रहा था जिसमें ‘अश्वत्थामा हतो’ कहने के बाद ही ढोल पीट दिए गए थे। यहां भी ‘हिंगलिश की जय हो’ का नारा लगाया गया और ढोल पीट दिए गए जिसमें आप जैसों का स्वर नक्कारखाने में तूती-सा रह गया। हिंदुस्तानी भाषा का जोरदार समर्थन करते हुए तथा उर्दू हिंदी के आपसी सहयोग की बात करते हुए एक सुमुखी ने उदाहरण के लिए अमीर खुसरो की यह पंक्तियां अदा के साथ सुनाई-
जे हाल मिसकी मकुन तगाफुल दुराय नैना, बनाय बतियां कि ताबे हिज्रां न दारम, ऐ जां ! न लेहुं काहें लगाय छतियां मुझे नहीं लगता कि अगर वो फारसी की उन पंक्तियों को अदा के साथ न समझातीं तो वहां बैठा युवा वर्ग उसका अर्थ समझ पाता और कोई आवश्यक नहीं कि इस अदा के बाद वो समझ भी गया हो। वो भूल गई कि एक समय ये मुहावरा अपना अर्थ रखता था- हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े लिखे को फारसी क्या। आज फारसी का स्थान अंगे्रजी ने ले लिया है। आज का कोई भी हिंदुस्तानी युवा कितना ही पढ़ा-लिखा हो फारसी नहीं समझता है। मेरा विश्वास है कि हिंदी के अधिकांश अध्यापक तक इप पंक्तियों का अर्थ बिना किसी कुंजी के शायद ही समझा पाएं। हिंदी के प्रति या तो अत्यधिक शुद्धतावदी सोच के लोग हैं या फिर ‘अतिअशुद्धतावदी’ सोच के लोग हैं, संतुलन नहीं है। यही कारण है कि कहीं अत्यधिक शुद्धतावादी दृष्टिकोण के कारण सूखा पड़ने की स्थिति आ जाती है या फिर भाषा के बाजारवादी विकास के अतिरेक के कारण बाढ़ की स्थिति पैदा हो जाती है। इस कारण हिंदी के ऐसे रूप का समर्थन किया जाता है और राजभाषा-उद्योग के द्वारा ऐसी हिंदी का उत्पादन किया जाता है जिससे हिंदी प्रेमी को वितृष्णा हो जाए। हिंदी एक रूप वो है जहां हिंदी को बाज़ार की मांग के अनुसार उसको उसको पेश किया जाता है। हिंगलिश के पक्षधर इन सेवियों के चलते वो दिन दूर नहीं कि जब हिंदी अकादिमयों का स्थान हिंगलिश अकादमियां ले लेंगी और वहां अध्यक्ष या उपाध्यक्ष नहीं प्रेजीडेंट, वाईस प्रेजीडेंट या सी ई ओ हुआ करेंगें। अपने को बिकाउ बनाने के लिए इस तरह का संवरना है और सौंदर्य के नाम पर कमाने के लिए अपनी अस्मिता को दांव पर देनी स्थिति में हिंदी न पहुंचे तो बेहतर। हिंगलिश की आवश्यक्ता का नारा मात्र महानगरो से ही उठाया जाता है,उत्तर प्रदेश,मध्य प्रदेश आदि हिंदी प्रदेशों का युवा ये मांग कभी नहीं उठाता है। आप तो जानते ही हैं कि स्वतंत्रता से पहले, अपना शासन चलाने के लिए और इस देश के आम आदमी से बात करने के लिए अंगे्रज कैसी कब्जीयुक्त हिंगलिश का प्रयोग किया करते थे। वैसी ही कब्जीयुक्त हिंदी का प्रयोग हिंगलिश के नाम पर हिंदी फिल्मों की रोटी खाने वाले और हिंदी के बाजार के प्रति ‘चिंतित’ काले अंग्रेज कर रहे हैं। हिंगलिश के सेवको से मेरा सवाल है कि यदि आम आदमी की भाषा हिंदी नहीं है तो ‘रामायण’ और महाभारत जैसे धरावाहिक बिना हिंगलिश के, कैसे आमजन द्वारा सराहे गए? हिंदी को बचाना है तो उसको अतिवाद से बचाना होगा। भारत में हिंदी अभी तक कागजों में ही राष्ट्र भाषा है, पर हिंदी का अपना राष्ट्र है। हिंदी का अपना विश्व है और उसका सूर्य कभी अस्त नहीं होता है। और यह सब सरकारी अनुदान से नहीं हुआ है अपितु उन असंख्य प्रवासी भारतियों के कारण हुआ है जिन्होंनें हिंदी को अपनी अस्मिता की पहचान बनाया और गंगाजल की तरह अपने जीवन में महत्व दिया। मुझे लगता है हम तब चेतेंगें जब भारत में हिंदी की अस्मिता को कोई चुनौती देगा। आपका प्रेम जनमेजय प्रेम जनमेजय की यह टिप्पणी ‘नई दुनिया’ के 16 सितंबर अंक में संपादन के साथ प्रकाशित हुई है

बुधवार, 9 सितंबर 2009

श्री राजेंद्र यादव के नाम एक खुला पत्र

आदरणीय श्री राजेंद्र यादव जी, परनाम, साहित्य के इस तथाकथित असार संसार में ‘हंस’ को पढ़ने/देखने के, ‘जाकि रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी’ के अंदाज में अनेक अंदाज हैं। कोई साहित्यिक संत इसकी कहानियों के प्रति आकार्षित हो संत भाव से भर जाता है, कोई ‘हमारा छपयो है का’ के अंदाज में इसका अवलोकन करता है, कोई ‘डाॅक्टर’ चीर-फाड़ के इरादे से अपने हथियार भांजता हुआ संलग्न होता है, कोई नवयोद्धा,रंगरूट शब्द साहित्यिक नहीं है, सेना में भरती होने के लिए इस धर्मग्रंथ का वाचन करता है , कोई पहलवान इसे अखाड़ा मान डब्ल्यू डब्ल्यू एफ मार्का कुश्तियों का हिस्सा बनने को लालायित दंड-बैठक लगाता है और कोई विवाद-शिशु के जन्म की जानकारी के लिए तालियां बाजाता हुआ बधाईयां गाता है, आदि आदि अनादि। मैं आदि आदि अनादि कारणों से ‘हंस’ को पढ़ता हूं। ‘हंस’ एक ऐसी पत्रिका बन गई है जिसका एडिक्शन आपको चैन नहीं लेने देता है। इसके पाठकों/ अवलोकनकर्ताओं में भंांति-भांति के जीव हैं जैसे हमारे देश की संसद में होते हैं। इसमें लिखने वालों की तो एक कैटेगरी हो सकती है पर पढ़ने/देखने / सूंघने वालों की कोई कैटेगरी नहीं है। इस दृष्टि से ‘हंस’ आज के समय का ‘धर्मयुग’ है। वैसे तो आपकी, ‘मेरी-तेरी उसकी बात’ अधिकांशतः तेरी तो... करने वाली होती है और इस अर्थ में ‘प्रेरणादायक’ भी होती है कि बालक मैदाने जंग में कूद ही जाए पर सिंतंबर का आपका संपादकीय कुछ अत्यधिक ही ‘प्रेरणादायक’ है। बहुत दिनों से मैं इस जिज्ञासा को शांत करने के लिए उपयुक्त गुरु की तलाश में हूं जो मुझे बता सके कि साहित्य का हाई-कमांड कौन है और साहित्य-सेवा को ‘धर्म’ मानकर चलने वालों के ‘खलीफा’ कौन हैं जो साहित्यिक फतवे जारी करने का एकमात्र अधिकार रखते है। साहित्य की उस अदालत के न्यायमूर्ति को मैं जानना चाहता हूं जो यह तय करने की ताकत रखता है कि गुनहगार बेकसूर है और बेकसूर गुनहगार है। साहित्य की मुख्यधारा में ले जाने और इस गंगा में पवित्र-स्नान करने का ठेका किस पंडे के पास है। मुझे आपकी बात पढ़कर लगा कि आप इस दिशा में मेरा मार्गदर्शन कर सकते हैं। आपने अशोक-चक्रधर प्रसंग में लिखा है- निश्चय ही अशोक के पक्ष में उन साहित्यकारों के बयान आए हैं जो या तो दक्षिणपंथी हैं या ऐसे ढुलमुल कि हर सरकार के लिए सुविधाजनक हैं।’ अशोक के पक्ष में मैंनें भी समर्थन दिया था और मेरे लिए अपने खिलाफ जारी किया गया यह फतवा कोई मायने नहीं रखता क्योंकि मैं आपसे अपने को बेहतर जानता हूं एवं मुझे खलीफाओं के प्रमाणपत्र प्राप्त कर उन्हें फे्रम में मंडवाकर दीवारों पर टांगने का शौक नहीं। पर हुजूर आपने क्या यह बयान अपने पूरे होशो हवास में दिया है? अशोक चक्रध्र का समर्थन करने वालों में नामवर सिंह और निर्मला जैन भी थें। इन्हें आप दक्षिणपंथी मानते हैं या फिर ‘ऐसे ढुलमुल कि हर सरकार के लिए सुविधजनक हैं।’ कृपया मुझ अबोध की एक और शंका का समाधन करें- ये जो ‘हंस’ के सिंतंबर अंक के अंतिम कवर पर मध्य प्रदेश जनसंपर्क द्वारा जारी विज्ञापन प्रकाशित हुआ है, वो किसी पंथ की सरकार का है ? प्रभु आपके इस अतिरिक्त स्नेह के कारण भक्तजन कहीं फुसफसा कर ये न फुसफसाएं कि राजेंद्र जी पर उम्र अपना असर दिखाने लगी है। आप तो चिर युवा हैं और आपकी जिंदादिली के मेरे समेत अनेक प्रशंसक हैं।आपको तो अनन्य ‘नारी विमर्शो’ की चर्चा करनी है। नागार्जुन कहा करते थे कि उम्र के इस दौर में अक्सर उनकी ‘ठेपी’ खुल जाती है, कहीं आपकी भी... हे गुरुवर, इस एकलव्य को ये ज्ञान भी दें कि नामवर लोगों को आप अपने कार्यक्रमों में बुलाकर अपनी किस सदाशयता का परिचय देते हैं। कार्यक्रम में यदि नामवर जी मीठा मीठा बोल गए तो वाह! वाह! अन्यथा ‘कौन है ये नामवर के भेस में’। मुझे लगता है इस ‘दुर्घटना’ के बाद ‘शुक्रवार’ में प्रकाशित डाॅ0 कैलाश नारद के ‘असली नामवर’ को पढ़कर आपकी बांछे खिल गई होंगी जो बकौल श्रीलाल शुक्ल चाहे वे शरीर के किस हिस्से में हैं, मालूम न हों। मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूं कि नामवर जी ने जिस तरह से लौंडे शब्द का प्रयोग किया वो उनकी अपनी गरिमा के अनुकूल नहीं है। अजय नावरिया ने जिस मेहनत और लगन से ‘हंस’ के दोनों अंकों का संपादन किया है और एक मील के पत्थर को स्थापित करने का श्रम किया है वो उसकी विलक्षण प्रतिभा को प्रमाणित करता है। अजय नावरिया की इस मेहनत के सामने नामवर सिंह के शब्द झूठे हो जाते हैं। मुझे नहीं लगता कि इस मुद्दे पर नामवर सिंह को आरंभ से खारिज करने जैसा आक्रोश पैदा किए जाने की आवश्यक्ता थी। कैलाश नारद या आपकी ‘मेरी बात’ जैसी सोच का ही परिणाम है कि हिंदी के साहित्य में रचना की अपेक्षा व्यक्ति अधिक केंद्र में रहा है। इसी का परिणाम है कि एक समय हरिशंकर परसाई को और बाद में श्रीलाल शुक्ल को नाली में गिरे-पड़े किसी शराबी के रूप में चित्रित कर, सशक्त रचनाएं न लिख पाने की अपनी कुंठा का विरेचन किया जाता रहा है। आपका विरोध जायज है, जायज ही नहीं स्वाभाविक है। ये मानवीय प्रकृति है- जहां किसी अपने को बैठना चाहिए वहां कोई दूसरा बैठा हो तो विरोध जागता ही है। आप तो जानते ही हैं कि ये सरकारें, ये राजनेता किसी के सगे नहीं होते हैं। अपने शासन के एक काल में यदि एक को लाभान्वित करते हैं तो दूसरे काल में किसी अन्य को कर देते हैं। ये तो सत्ता के गलियारों की गलियां हैं जिन्हें आप भलि-भांति जानते हैं। ये वो गलियां हैं जिनमें अपनी पहियां घिस जाने की चिंता में कुंभनदास ने जाने से मना कर दिया था। विरोध-प्रदर्शन या दबाव-प्रदर्शन के लिए इस्तीफे दिए जाते हैं और इस्तीफों के चक्कर में सौदे भी तय होते हैं। पर इस घसीटमघसीटी में फतवे जारी करना किस जायज-नाजायज संतान का पालन-पोषण है? अजय नावरिया ने अशोक-चक्रधर प्रसंग को बहुत समझदारी से देखा -परखा है। उन्होंने इस नियुक्ति में न तो व्यक्तिगत आक्षेप लगाए हैं और न ही व्यक्तिगत कारण संूघने का प्रयत्न किया है। मुझे लगता है हमारी युवा पीढ़ी बेबाक होते हुए अधिक संतुलित और ईमानदार है। सादर आपका प्रेम जनमेजय

शनिवार, 5 सितंबर 2009

प्रेम जनमेजय का व्यंग्य

ओम गंदगीआय नमः

आषाढ़ का प्रथम दिवस कवि कालिदास को अच्छा लगा था, मुझे भी अच्छा लगता है और मेरे साथ-साथ पूरी दिल्ली को अच्छा लगता है। पर मेरे अच्छे लगने और कालिदास के अच्छे लगने में उतना ही अंतर है जितना अंतर एक गरीब को अमीर की तुलना में न्याय मिलने का है। अब वो चाहे आषाढ़ के बादल हों या जून की तपती दोपहरी झोपड़े में इतना दम कहां कि वो इनका मुकाबला कर ले। वैसे भी कालिदास के समय में प्रकृति प्रकृति थी, उसका अपना एक चरित्र था। ग्लोबल वार्मिंग ने प्रकृति का चरित्र ही बिगाड़ दिया है, वो अप्राकृतिक हो गई है, उसपर भरोसा नहीं किया जा सकता। जैसे ग्लोबलाईजेशन यानि भूमंडलीकरण और बाजारवाद ने आदमी को अप्राकृतिक कर दिया है। फिर भी हम भरोसा करते हैं क्योंकि हमारे पास कोई और चारा नहीं है। हम भरोसा करते हैं कि तपती जून के बाद मानसून आएगा और हमारे हालात सुध्र जाएंगें। भरोसा करना हमारी नियति है- चाहे वो आम चुनाव हो या आम का चुनाव हो, दूध-फल-सब्जी की खरीद हो- हम भरोसा करते हैं कि हमें सब कुछ मिलावट रहित मिलेगा। कालिदास के समय में आषाढ़ के बादलों में कोई मिलावट नहीं थी, उन पर भरोसा किया जा सकता था। उस समय बादल मौसम विभाग की घोषणाओं की प्रतीक्षा नहीं करते थे, आ जाते थे। आजकल तो बिजली-पानी की तरह बादल भी प्रतीक्षा करवाते हैं। आषाढ़ का पहला दिवस आ जाता है और समाज में नैतिक मूल्यों-सा शून्य आकाश अपनी नंगई पर इतराता समस्त वंचितों को बादलों के आने का भुलावा देता रहता है।
जैसे महानगरों के र्टैफिक के कारण कहीं भी समय से पहुंचना अनिश्चित हो गया है--ट्रैफिक मिला तो आप समय से पहले पहुंचकर दरिया बिछाते हैं और अगर मिल गया तो देर से पहुंचने के कारण पार्टी में बचा -खुचा खाते हैं। वैसे ही मौसम विभाग भारतीय राजनीति-सा अनिश्चित हो गया है।
पता नहीं किसी ने ये सोचा है कि नहीं अथवा मेरा ही मौलिक चिंतन है कि कालिदास ने आषाढ़ के पहले दिवस की ही क्यों चर्चा की ? कालिदास महान् कवि हो कर कितने भी खास व्यक्ति हों परंतु आषाढ़ के पहले दिवस की चर्चा कर आम आदमी हो गए। हर आम आदमी अपने ‘पहले’ की ही चर्चा करता है। अब चाहे पहली रात हो जिसे सुहाग रात भी कहते हैं, पहला प्यार हो, पहला वेतन हो, पहला बच्चा हो, पहला भ्रष्टाचार हो यानि दूसरे को छोड़कर जो भी पहला होता है आम आदमी उसकी चर्चा अवश्य करता है। कालिदास ने भी आम आदमी की तरह आषाढ़ की चर्चा की। आप तो जानते ही हैं कि हर खास आदमी के अंदर आम आदमी और हर आम आदमी के अंदर खास आदमी होता है। हर पहली चीज खास होती है पर दूसरी -तीसरी होते ही आम हो जाती है और झुग्गी-झोपड़ी में रहती है। पहली रात दूसरी-तीसरी आदि के बाद क्या होती है इसे आजकल के शादी-शुदा तो क्या कुंवारे भी जानते ही हैं। आषाढ़ के पहले बादलों के बाद जो बरसता है उसके कारण नदी-नाले भर जाते हैं, नगर-निगम की कार्यकुशलता के कारण बदबू और गंदगी में सूअर खुलकर टवैंटी-टवैंटी खेलते हैं और मलेरिया ढेंगू आदि की भीड़ के सामने आम चुनाव की रैलियां भी शरमा जाती हैं। सड़कें गड्ढों में बदल जाती हैं और गड्ढे तलाबों में बदल जाते हैं। अब ऐसे पवित्र वातावरण में कोई आम आदमी नहीं रहना चाहेगा तो कालिदास जैसा खास आदमी कैसे रहता ? तो भक्तों, कालिदास ने इसलिए आषाढ़ के पहले दिवस का ही अह्वान किया और उनके लिए अपनी काव्य-प्रतिभा का सदुपयोग किया। परंतु हुई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया वाली बरसात में दिल्ली या मुम्बई की नगर निगम की कृपा देखते तो बादलों को कहते- जाओ बादल । हमें तो जो नहीं है वो चाहिए- अति सर्दी में गर्मी चाहिए, अति गर्मी में ठंडी चाहिए, अति सूखे में बरसात चाहिए और अति बरसात में सूखा चाहिए। हमने प्रकृति का संतुलन बिगाड़ा है पर हम प्रकृति से संतुलन की अपेक्षा करते हैं।
मेरे मोहल्ले में भी एक आध्ुनिक कालिदास रहते हैं। कालिदास आषाढ़ के पहले दिन की प्रतीक्षा करते थे , हमारे कालिदास कवि सम्मेलन की रात की प्रतीक्षा करते हैं। हमारे कालिदास में इतना कवि -तेज है कि यदि पा्रचीनकालीन कालिदास उन्हें देख भर लें तो कविता करना छोड़ दें। प्राचीनकालीन कालिदास हमारे कालिदास की तुलना में उन्नीस तो क्या शून्य भी नहीं ठहरते हैं। कहां हमारे कालिदास को एक ही कविता को बीसियों मंच पर सुनाकर एक-एक रात के हजारों मिलते हैं वहां प्राचीनकालीन ने इतना लिख कर ‘कितना’ भी नहीं पाया होगा। हमारे इन कवि का नाम है कवि घूमड़। तो हमारे कवि घूमड़ रात भर एक पार्टी में व्यस्त थे। पार्टी इन्होंनें अपने घर में कवि कर्मा को दी थी, अपनी आने वाली रातों को कवि सम्मेलनों से सुहागन बनाने के लिए। पार्टी वही अच्छी होती है जिसमें दारू भी अच्छी हो और अच्छी दारू पी ही तो नींद भी अच्छी आती है। ऐसी ही अच्छी नींद लेने के बाद कवि घूमड़ ने अपनी बाॅलकनी का दरवाज़ा खोला । अपने वातानुकूलित कमरे से बाहर बाॅलाकोनी में निकलकर जैसे ही सुबह की अंगड़ाई ली तो बिना किसी निमंत्रण के आषाढ़ की ;शायदद्ध पहली बूंद ने उनका चुंबन ले लिया। अब चाहे हास्य-व्यंग्य का कवि हो, या पिफर गीतकार अथवा गज़लकार , मन में सबके मयूर होता ही जो बिना लिफाफे के भी नाचता है। मन -मयूर ने नाचने के लिए आकाश की ओर देखा तो पाया कि नाचने के लिए पर्याप्त बादल हैं। कवि घूमड़ के मन -मयूर ने अभी अपने पंख खोलने की प्रक्रिया आरंभ ही की थी कि उनकी नज़र सामने पड़ गई। सामने का दृश्य मन- मयूर के नृत्य के साथ कूकने का भी था। मोर ने अपनी मेारनी को आवाज़ दी। मेारनी उस समय अभी तक काम वाली बाई के न आने के कारण, रात की पार्टी के बरतनों से भरे सिंक को देख रही थी और कोई भी गिलास सापफ न मिलने के कारण ओक से ही पानी पी रही थी। मोर की पुकार सुनकर मोरनी को लगा कि मोर को अवश्य ही कोई कविता सूझी होगी। मोरनी जानबूझकर देरी कर ही रही थी मोर ने पुनः पुकारा- अरे देखो तो सही बाहर कितना अच्छा मौसम है... और रात ही रात में जो चमत्कार हुआ है उसे तो देखो।’ मोरनी तो विवाह होने के बाद से अकेली रात के उसी चमत्कार को जानती है जब मोर के लिए केवल कवि सम्मेलन की रात ही महत्वपूर्ण होती है और दूसरी रातें...।
इससे पहले कि मोर जी झुंझला के तीसरी पुकार लगाएं मोरनी ने अपना गाउन संभाला और बाॅलकोनी की ओर प्रस्थान किया। ठंडी हवा के झोंके ने विश्वास दिला दिया कि आज कवि जी दूर की नहीं हांक रहे हैं, मौसम वास्तव में अच्छा है। बाॅलकनी में पहुंचकर मोरनी ने कहा - वाह, कितने घने बादल हैं आसमान में। पकोड़े बनाउं?’
- सामने तो देखो तुम पकोड़ों के साथ मालपुए भी बनाओगी।’
- सामने...!
-- जी हां सामने की सारी झुग्गियां रात ही रात में साफ कर दी गई हैं। हमारे सामने से गंदगी साफ हो गई है। अब हमारे फलैट की कीमत दोगुनी हो जाएगी। इन झुग्गी- झोपड़ी वालों के कारण कितनी गंदगी थी, कभी बाॅलकनी में बैठकर चाय तक नहीं पी सकते थे । ’
मेारनी ने देखा कि मोर दूसरी बार भी हांक नहीं रहा था यथार्थ का वर्णन कर रहा था। सामने की झुग्गियों पर बुलडोजर पिफर चुका था। झोपड़ियों में पड़ा सामान बरसात की रिमझिम पफुहारों का आनंद ले रहा था। कुछ अध्नंगे बच्चे इध्र -उध्र दौड़ रहे थे और कुछ मंा की गोद में बैठे मां का लटका मुंह निहार रहे थे। पुरुष अपना बचा खुचा समेट रहे थे। रात को हुई बरसात ने उनका भी दिल तोड़ दिया था और टूटे दिल की समस्या भी बड़ी हो ही जाती है।
- जानती हो कपूर साहब बता रहे थे कि पहले झुग्गियां टूटती थीं तो एक दो दिन बाद फिर से बन जाती थीं। पर अब तो जो भी टूट रही हैं, दोबारा नहीं बनेंगी। इनका नंबर भी बहुत दिनों बाद आया है।’ मोर ने अपने पंख फैलाकर मोरनी को उनमे समेटते हुए कहा।
मोरनी भी चहकी- ये तो बहुत ही अच्छा हुआ। सच बहुत ही गंद हो गया था समाने। अब ये लोग कहां जाएंगें?
- भाड़ में जाएं, हमारी बला से। यहां से तो गंदगी हटी।
- पर चंदा, हमारी काम वाली भी तो सामने रहती है। लगता है आज तो वो नहीं आएगी।
- अरे हां, इन हालातों में तो ये ही लग रहा है कि वो नहीं आएगी।
- लो सुबह- सुबह आ गई एक और मुसीबत, ढेर सारे बर्तन पड़े है पार्टी के, घर गंदा अलग पड़ा है, अब कौन करेगा सफाई?
-- किसी और को बुला लो, सौ पचास देकर करा लेना।
- किस और को बुलाउफं? सामने देख तो रहे हो, सभी की झुग्गियां टूटी हैं... मुझे तो पल भर के लिए आराम नहीं है। खुद तो रात को पार्टी के मजे लेते हैं, खूब शराबें पीते हैं और सुबह के लिए मुसीबत मेरे लिए छोड़ देते हैं।
-- घर का काम मुसीबत है क्या? सभी औरतें घर का काम करती हैं। तुम्हें तो थोड़ा-सा भी काम करना पड़े तो नानी याद आने लगती है।
-- नानी याद आती है तुम्हें। एक गिलास पानी का भी लेना हो तो कभी उठकर नहीं लेते हो। औरों के पति अपनी पत्नियों का घर के काम में हाथ बटांते हैं और तुम...। चलो आज मेरे साथ बर्तन साफ करने में मदद करो।
- हो सकता है चंदा आ ही जाए। उसे भी तो रोजी-रोटी चाहिए।’ एक कुटिल मुस्कान के साथ मेार जी ने कहा,‘ अभी तो उसने पगार भी नहीं ली है।’
पर मोरनी बहकावे में नही आई और उसने दबंग होकर कहा-- पर आज तो वो आने से रही। बर्तन थोड़ी देर और पड़े रहे तो बदबू मारने लगेंगे। बहाने मत मारो और बर्तन साफ करने में मदद करो।
-- तुम... तुम एक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कवि से जूठे बर्तन साफ करने को कह रही हो... होश में तो हो।
-- मैं होश में ही हूं और कवि जी ये जूठे बर्तन आपकी ही शराब पीकर बेहोशी का नतीजा हैं। मैं आज अकेले तो इन्हें हाथ लगाने से रही।
- तो पड़े रहने दो उन्हें ऐसे ही। ’
मेार मोरनी अब गली के कुत्तों की तरह एक दूसरे पर भौंक रहे थे। गंदगी घर में चारों ओर बिखरी हुई थी। और कवि घूमड़, मूड ठीक करने के लिए नब्बे नम्बर का पान खाने चल दिए।

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सोमवार, 8 जून 2009

तपन

जब जून का महीना आता है
अपने प्राकतिक रूप में
अपने पूर्ण अस्तित्व के साथ
सपरिपवार,
दिल्ली में लोग तपते
या जहां कहीं भी दिल्ली है
लोग तपते हैं
भीष्ण गर्मी की तपन से ।
लोग तपते हैं
मैं भी तपता हूं
पर, एक और अगन से।
ये अगन है अभाव की
ये अगन है खालीपन की
ये अगन है अपना बहुत कुछ बहुमूल्य खोने की।
मैंनें अपनी माॅ को
इसी मौसम में खोया है।
शायद इसलिए
आठ जून को जब आठ बजते हैं
मौसम कैसा भी हो
सुहावना या तपता हुआ
एक आग से मुझे भिगो जाता है
मेरे अंदर तपता अभाव जगा जाता है।

पर ना जाने क्यों
ये सब मुझे बेचैन तो करता हैं
पर असंतुलित नहीं।

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

कल शाम सूरज मेरे घर में था

आप सब लोग उगते सूरज को भलि भांति जानते होंगें जो रोज सुबह आपके दरवाजे पर दस्तक देता है आपको अहसास दिलाता है कि सुबह हो गई और आप कर्मशील हो जाएं। मैं उस सूरज को भी जानता हूं जो अपनी कर्मशीलता के चलते आपकोे संवेदनशील अहसास दिलाता है और किसी भी शाम को उदय हो कर आपकी शाम को सक्रिय कर सकता है। यदि आप साहित्य की दुनिया के विद्यार्थीं हैं तो कथाकार सूरज को भी जानते होंगें जो अपनी रचनाशीलता के माध्यम से आपकी दुनिया में दस्तक दे कर इस बात का अहसास दिलाता रहता है कि इस सूरज के कितने टुकड़े आपके जीवन को कर्मशील दुनिया से परिचित करवाते हैं। मुझे अच्छा लगा जब वो सूरज सात अप्रैल की शाम मेरे घर आया और जिसके वशीकरण में फंसे मेरे अनेक मित्र मेरे घर एक रचनात्मक शाम सक्रिय कर गए। यदि आप सूरज प्रकाश और उसकी पत्नी मधु से नहीं मिले हैं तो मिल लें और इस अपरिचित दुनियां में कुछ पल आत्मीयता के महसूस कर लें।
सूरज प्रकाश जिसने अपनी कहानियों और व्यंग्य के माध्यम से ने केवल बेहतरीन कृतियां हिंदी जगत को दी हैं अपितु श्रेष्ठ अनुवादों के माध्यम से अंग्रेजी, गुजराती आदि भाषाओं की बेहतरीन कृतियों से हिंदी जगत का परिचय करवाया है। ये वही सूरज है जिसने श्रेष्ठ व्यंग्यकार चार्ली चैप्लन की आत्मकथा से हिंदी पाठकों को परिचित करवाया है। सूरज प्रकाश नामक इस साहित्यकार का अपना ब्लाॅग है।
साहित्य के ऐसे समय में जब प्रायोजित गोष्ठियां महत्वपूर्ण हो रही हैं, सूरज के कारण मेरे घर में एक अनौपचारिक गोष्ठी महत्वपूर्ण हो गई।मेरे एक बुलावे पर प्रताप सहगल और उसकी पत्नी शशि सहगल, हरीश नवल, अविनाश वाचस्पति आए और एक अनौपचारिक गोष्ठी को सार्थक कर गए।हरीश ने स्नेह सुधा नवल के नव प्रकाशित काव्य संग्रह ‘वसंत तुम कहांे हो’ से खूबसूरत कविताएं पढ़ीं, शशि सहगल ने अपनी कविताएं सुनाईं तथा सूरज ने, ऐसे समय में जब राजनीति में जूता महत्वपूर्ण हो गया है, अपना व्यंग्य ‘बात जूतों की’ पढ़ा।साहित्य में व्यापक होती ‘एकरसता’ पर अपनी चिंताएं व्यक्त कीं तथा एक अनौपचारिक वातावरण में अपनी औपचारिक चिंताएं बांटी। बहुत आवश्यक्ता है जीवन में इस अनौपचारिकता की। और यह अनौपचारिकता बिना किसी धृतराष्ट्री मुद्रा के ग्रहण की जा सकती है।
जैसे-जैसे परिवहन साधनों का विकेास हुआ है, हम में से अधिकांश निराकार से सकार हो गए हैं, वैसे-वैसे हमारे एक-दूसरे से मिलने के अवसर कम हो गए है। किसी चाय की दूकान पर, किसी काॅफी हाउस में अथवा किसी ढाबे पर बैठ कर दूसरे से संवाद करना हमें अच्छा नहीं लगता है। साहित्यिक जगत में तो हम एक दूसरे से मिलने की अपेक्षा एक-एक से मिलने में यकीन करते है। हम ‘एकमात्र’ सज्जनों से मिलते हैं क्योंकि हमारा यकीन है कि दूसरी बात कहने वाला ‘दूसरा’, दुर्जन है। हम एकालाप में विश्वास करने लगे हैं न कि संवाद में। मुझे लगता है कि संवादहीन तथा एकपक्षीय होते साहित्यिक वातावरण में ऐसी बैठकें एक महत्वपूर्ण संदेश देती हैं और गुटीय पक्षधरता के कारण बहरे होते साहित्यिक जगत में अपनी बात कहती हैं।
इस शाम मैं परेशान हुआ, अपने लेखन के प्रति उदासीन होते सूरज का पा कर। उसे लगता है कि जैसे वो चुक गया है और उसके लेखन का कोई अर्थ नहींे रह गया है। प्रायोजित एवं एकपक्षीय जमावड़ों के अंधेरों से को लगातार बढ़ता देख सूरज जैसे उब गया है और इस अंधेर से लड़ने की अपेक्षा अपनी सक्रियता से पलायन कर रहा है। उसे समझ नहीं आ रहा है कि वो क्यों लिखे। उसे समझ नहीं आ रहा है कि यदि उसके पास स्वयं को प्रायोजित करवाने के ललचाते हथियार नहीं हैं तो उसके लेखन के प्रति उपेक्ष दष्टि क्यों है? वो जयशंकर ‘प्रसाद’ की पंक्तियां गुनगुना रहा है- ले चल मुझे भुलावा दे कर मेरे नाविक धीरे-धीरे। इससे पहले की यह गुनगुनाहट समूहगान में बदल जाए, आवश्यक्ता है उस दिशा की जहां से उदित होने के बाद सूरज को किसी अंधेरे की गोद में उतरने के लिए विवश न होना पड़े। मुझे विश्वास है कि अनौपचारिक पलों में सूरज उर्जा ग्रहण कर सकता है और निष्क्रियता के ग्रहण से मुक्त हो सकता है।

मंगलवार, 10 मार्च 2009

व्यंग्य - होली का महिलाकरण

होली का महिलाकरण

मेरी एक पत्नी है। एक मेरी पत्नी है। मेरी पत्नी भी एक ही है। मित्रों मैं अपनी पत्नी की कैसे भी व्याख्या करूं, उसमें ‘एक’ शब्द आएगा ही। दूसरा या दूसरी शब्द लाने का मुझमें साहस नहीं है। मेरे एक लेक्चरर मित्र इन दिनों अपने बड़े हुए वेतन से बहुत प्रसन्न हैं। उनका कहना है कि वेतन आयोग ने हम मास्टरों के वेतन इतने बड़ा दिए हैं कि इस मंदी में भी अब हम दूसरी रखने की सोच सकते हैं। मेरा भी वेतन बड़ा है पर साहस नहीं बड़ा है। मेरा साहस सदा मंदी की गिरफत में रहा है। इस मामले में आप मुझे कायर, डरपोक आदि कुछ भी कह सकते हैं। मेरे घर में प्रजातंत्र है और इस प्रजातंत्र में मेरी पत्नी सदैव सत्ता -पक्ष ही रही है। मैं विरोधी दल का तो हूं पर जैसे पार्टी हाई कमांड के सामने, वि’ोषकर कांग्रेस हाई कमान के सामने, आप कोई विरोध दर्ज नहीं कर सकते हैं और करें तो नतीजे भुगतने पड़ते हंै, वैसा ही मेरा विरोध का स्वर है। हमारे बीच तूं -तूं मैं-मैं का रिश्ता नहीं है, हां और न का रिश्ता है। मेरी हर हां पर उसकी नंा होती है और नां पर हां होती है। मेरी हर बात का जवाब उसकी ‘नहीं..ई’से शुरु होता है।वो एकला चलो के नहीं उल्टा चलो के सिद्धांत पर वि’वास करती है। मेरी सदा को’िा’ा रहती है कि मैं कुछ ऐसा करूं कि जिसका उलटा वो न सोच सके पर बलिहारी प्रभु अपने, उसे ऐसी बुद्धि दी है कि तत्काल उलट वार करती है। उसकी इस उलटवार प्रतिभा से प्रभावित हो कर अनेक विरोधी दल के नेता मेरी पत्नी से प्र’िाक्षण लेने के लिए पिछले दरवाजे से आते हैं।
इस बार होली पर मैंनें उसकी उलटचाल प्रवृत्ति को चुनौती देने के लिए पासा फेंका- इस बार हमारे बेटे- बहू कि पहली होली है, इस बार होली का दिन बड़ा मस्त मनाएंगें।’
मुझे उम्मीद थी कि मेरे इस प्रस्ताव के विरुद्ध मेरी पत्नी के पास कोई उलट -वार न होगा पर मेरी पत्नी ने शतरंजी घोड़े की ढाई चाल चलते हुए कहा- नहीं...इ...इ इस बार हम मस्ती से अंतर्राष्टीय महिला दिवस मनाएंगें। तुम बाप-बेटे ने घर में मुझे अकेली के होने का लाभ उठाकर बहुत मनमानी कर ली है अब बहू के आने से हम दो-देा की बराबरी पर आ गए हैं, अब हम महिलाओं की चलेगी।’
आप तो जानते ही हैं कि क्योंकि वो महिला है इसलिए मेरी पत्नी है या फिर कह सकते हैं कि क्योंकि मेरी पत्नी है इसलिए महिला है। आपकी मुस्कान सही फरमा रही हैं कि आजकल आव’यक नहीं कि जो आपकी पत्नी हो वो महिला ही हो। पर मैंनें कहा न कि मैं साहसी नहीं हूं इस लिए जैसे लोग गैर सरकारी संस्थाओं का साहसपूर्ण सदुपयोग कर लेते हैं मैं गैरमहिला का पत्नी के रूप में साहसपूर्ण सदुपयोग नहीं कर पाता हूं।
मैंनें साहस कर के पूछा- अंतर्राष्टीय महिला दिवस ! वो कब है? और उसमें मनाने को क्या है?
- मैं जानती थी कि आप जैसे महिला-विरोधी पुरुषों को ध्यान भी न होगा कि अंतर्राष्ट्रीय महिला नाम का कोई दिवस भी होता है। श्रीमान पुरुषदेव, इस बार ये आपकी होली से दो दिन पहले है और आपकी होली तो केवल उत्तर भारत में ही मनाई जाती है, ये पूरे संसार में मनाया जाता है।’
- होली के दिन तो हम रंग खेलते हैं इस दिन आप लोग क्या खेलते हैं?
- इस दिन पूरे संसार में महिला स’ाक्तिकरण के नारे लगाए जाते हैं, सेमिनार होते हैं...
-- यानि इस दिन सेमिनार- सेमिनार खेला जाता है। संस्थाओं को अपना पुराना बजट खत्म करने और नया बनाने का सुअवसर दिया जाता है, महिलाओं को कुछ लाॅलीपाॅप थमाए जाते हैं जिसे वे चूसती रहें तथा अपनी प्रगति का भ्रम पाले रहें और...
- और पुरुषों के पेट में दर्द होता है... आप लोग तो औरत की तरक्की बर्दा’त नहीं कर सकते हो... आप तो चाहते ही नहीं हो कि पूरे साल में कम से कम एक दिन ऐसा जिस दिन औरतों पर कोई बात हो सके...’’ मैंनें देखा धीरे-धीरे वो दुर्गा की मुद्रा में आ रही है। होली से पहले ही रंग में भंग न पड़ जाए इसलिए मैंनें अपने समस्त हथियार डालते हुए कहा- ठीक है देवी इस बार हम अतर्राष्टी्रय महिला दिवस मनाएंगें, होली की मस्ती नहीं मनाएंगें।’
मेरी बात से सहमत हो जाए वो मेरी पत्नी नहीं, उसका तो स्वर्णिम वाक्य है- विरोधमय जयते, इसलिए उसने तत्काल असहमती जताते हुए कहा-होली की मस्ती क्यों नहीं होगी? हमारे बच्चों की पहली होली है, हम क्यों नहीं मनाएंगें?’’
मैंनें हाई कमान के सामने समस्त हथियार डालते हुए कहा- पर कैसे, देवी?
उसने जालिम मुस्कान बिखेरी और बोली- हम हेाली का महिलाकरण करेंगें... समझे?’
इससे पहले कि मैं अपनी नासमझी की व्याख्या करता वो चल दी।
अब ये होली का महिलाकरण क्या होता है, आप भी सोचिए। आप तो जानते ही हैं कि महिलाओं से जुड़े सवाल कितने पेचीदगी से भरे होते हैं, इतने पेचीदगी से भरे कि उन्हें देवता भी नहीं समझ पाए मनुष्य की क्या औकात है। अगर पेचीदगी से भरे न होते तो इतने अंतर्राष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय महिला दिवस आए और चले गए पर महिलाओं को संसद में आरक्षण देने का बिल अभी तक बिल में ही पड़ा हुआ है। मैं तो इस बार भुगत कर अगले वर्ष ही उत्तर दे सकूंगा कि होली का महिलाकरण कैसे हुआ पर यदि आप भुक्तभोगी हैं तो आप मुझे इस बार ही समझा दें जिससे मैं होली पर सुरक्षा- कवच धारण का सकूं।
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सोमवार, 9 मार्च 2009

व्यंग्य--मेरे स्लमडाॅग जीजाजी

मेरे स्लमडाॅग जीजाजी
0प्रेम जनमेजय
पहले मैं अपने जीजाजी को जोरू का गुलाम कहती थी क्योंकि उन दिनों जोरू का गुलाम फिल्म हिट हुई थी और मेरे जीजाजी में उस हिट फिल्म के सभी गुण थे। अब स्लमडाॅग हिट हुई है और मुझे लगता है कि इस नाम के जितने हकदार मेरे जीजाजी हैं उतना इस स्लम में रहने वाले, कुत्तामाफक जिंदगी जीने वाले ‘इंसान’ नहीं हैं। स्लम मे रहने वालों की तो मजबूरी है कि वे बदबूदार जिंदगी जीएं क्योंकि वे पैदा ही बदबू में हुए हैं । जैसे हमारे प्रजातंत्र की व्याख्या है- जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा वैसे ही मेरे देश के अमीरजन, प्रजातंत्र के इन गंदी नाली के कुत्तों की व्याख्या इस तरह करते है- गंदी नाली के, गंदी नाली के लिए और गंदी नाली के द्वारा।
मेरे जीजाजी में स्लमडाॅग के सभी गुण विद्यमान् हैं। कुछ स्लमडाॅग होकर करोड़पति होते हैं और कुछ करोड़पति पत्नी के सहर्ष स्लमडाॅग होने के लिए विवाह का गेम खेलते हैं और ‘जय हो, जय हो’ के गीत गाते हैं। पत्नी क्या, ऐसे सम्माननीय जीव किसी भी पैसे वाले के लिए सहर्ष स्लमडाॅग बन जाने को जीभ लपलपाते पाए जाते हैं।
वैसे अगर सिर्फ स्लमडाॅग शब्द होता तो मैं अपने जीजाजी को कभी स्लमडाॅग नहीं कहती, पर इस शब्द के साथ जो मिलेनियर यानी करोड़पति शब्द लगा हुआ है उससे स्लम शब्द भी अत्यधिक मूल्यवान हो गया है। कुछ भी कहिए जनाब अंग्रेजी भाषा में जो इज्जत है वो हिंदी में कहां? अंग्रेजी में कोई गाली भी दे तो ऐसी लगती है जैसे होली पर ‘गोरी’ की गाली। लगता है जैसे गोरे -गोरे हाथों से किसी ने बदबूदार गालों पर गुलाल मल दिया हो। गाली तो ‘गोरी’ ही की आनंद देती है, काली गाली ने कभी किसी को आनंद दिया है? आपने कभी सुना कि श्याम ने गोरी राधा को गाली दी हो? गाली तो श्याम को गोरी ही देती है। हम श्यामवर्णी भी तो बरसों बरस गोरी की गालियां खाते रहे है। अब आप किसी को केवल गंदी नाली का कुत्ता, कीड़ा आदि आदि कहकर देखिए, कैसे काटने को दौड़ेगा पर उसी कुत्ते को हड्डी दे दीजिए वो आप को कुछ नही कहेगा, मजे से हड्डी के बहाने अपना खून चूसेगा और आपको आदरणीय दृष्टि से देखेगा। आप उसका कितना अपमान कर लें, उसका मजाक उड़ा लें पर वो इसे भी अपना सम्मान समझेगा और आपके मजाक का आनंद लेते हुए हंस देगा। अब इस देश के वासियों को भी तो आॅस्कर की हड्डी मिल गई है और वो खुश हैं। ऐसे ही मेरे जीजाजी को भी मेरी दीदी के नाम का दो करोड़ का मकान मिल गया तो उन्हें किसी भी नाम से पुकार लो वो बस हंस देते हैं। वे संतोषी जीव हो गए हैं और उनका सारा जीवन दर्शन एक हड्डी में सिमट गया है। हड्डी केवल कुत्तों की नहीं इंसानों की भी सहनशीलता बड़ाती है।
मेरे जीजाजी सच्चे स्लमडाॅग हैं, कोई फिल्मी डाॅग नहीं हैं। स्लमडाॅग करोड़पति फिल्म का डाॅग तो कटखना है पर मेरे जीजाजी गाय के माफिक गउ- डाॅग हैं। स्लमडाॅगीय हीरो आत्मस्वाभीमान के लिए तो खून भी करता है पर मेरे जीजाजी खून देखकर बेहोश हो जाते हैं। उनके मुंह से केवल कउं कउं की आवाज ही सुनी है, कभी भौं भौं की नहीं सुनी है। उस दिन अपने नेताजी भी यही कह रहे थे कि राजनीति में आजकल तो ऐसी वफादार ब्रीड देखने तक को नहीं मिलती है। वो भी क्या दिन थे कि एक आध हड्डी डाल दो तो पूंछ हिलाते वफादार कोने में पड़े रहते थे पर अब तो ऐसे कटखने हो गए हैं कि भेडि़यों की तरह फाड़ डालने की फिराक में रहते हैं। ऐसे प्यारे-प्यारे जीजाजी के साथ किस साली को होली खेलने में आनंद नहीं आएगा। मेरे जीजाजी तो होली खेलते समय भी इस बात का पूरा ध््यान रखते हैं कि निगाह चोली पर नहीं चप्पल पर रहे। बड़ी इज्जत वाली होली खेलते हैं मेरे जीजाजी। वो और सालियां होंगी जिनके जीजा होली के बहाने उनसे मजे ले लेते हैं, मैं तो वो सालीजी हूं जो अपनी शर्तोंं पर होली के मजे लेती है। आजकल मेरे जैसे मजे विश्व के धनी देश स्लमडाॅग देखकर ले रहे हैं और ये सोचकर प्रसन्न हो रहे हैं कि उनके देश में कितनी ही मंदी क्यों न हो और भारत ने चाहे कितनी ही तरक्की की हो पर स्लमडाॅग तो भारत की ही शोभा बढ़ा रहे हैं। उनके देश में स्लम तो है पर उसमें कुत्ते नहीं पलते हैं, क्योंकि वो पलने ही नहीं देते । अपना स्लम ये अमीर देश गरीब देशों को दान - दक्षिणा के रूप में देते रहते हैं । वैसे आपने देखा ही होगा कि पिछले कुछ वर्षों में हमने कितनी तरक्की कर ली है, हमारी जी डी पी कितनी बड़ गई है- हमारी तो गरीबी भी करोड़ों के भाव बिकती है और हमें अंतराष्ट्रीय ईनाम दिलाती है।
इस बार हमारे परिवार की महिलाओं ने सोचा कि इस होली पर पुरुषों की स्लमडाॅगीय ‘होली’ प्रतियोगिता हो जाए। आप को बताने की आवश्यक्ता नहीं है कि हमारे परिवार में सोचने का काम पत्नी करती है, और अधिकांश पति फल की चिंता में कर्म करते हैं। वैसे, इस बार होली से पहले अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है अतः होली पर वो ही होना चाहिए जो महिलाएं चाहें।
पुरुषों की स्लमडाॅगीय प्रतियोगिता एकदम लीक से हटकर और मनोरंजक होने वाली है। इसके लिए बाकायदा जानकार लोगों की सलाह ली जा रही है। भांति-भांति के बदबूदार कीचड़ एकत्र किए जा रहे हैं । कीचड़ क्यों ? मित्रों, प्रतियोगिता के लिए। और प्रतियोगिता यह होगी कि जो भी पुरुष भांति- भांति के बदबूदार कीचड़ों को सफलतापूर्वक पार कर के जितना लथपथ और बदबूदार आएगा वो ही विजयी होगा। हमारी तैयारियों के दौरान एक समस्या आई कि इन कीचड़ों में बदबू पैदा करने के लिए बदबूदार इत्र कहां से लाया जाए? हमने पूरी मार्केट छान ली पर बाजारवाद के इस युग में हमें ऐसा इत्र नहीं मिला जो मल-मूत्र आदि की गंध दे। हमने सूअरों की काॅलोनी में चुनाव की तैयारी में मस्त कुछ संतों से भी पता किया पर पता यह चला कि वो गंदगी के प्राकृतिक रूप में विश्वास करते हैं। अब हमने बदबूदार इत्र के निर्माण की व्यवस्था कर ली है और हमें विश्वास है कि स्लमडाॅग फिल्म की सफलता के कारण इनका भी बाजार बनेगा। इस समय हमारा शोध चल रहा है कि बाजार को किस तरह की बदबूदार सुगंधित इत्र की आवश्यक्ता होगी। आप भी कभी अपने घर की खुशबू से उक्ता जाएं और आपको स्लम जैसी ‘सुगंध’ की तड़प पैदा हो या पिफर ईलीट क्लास की देखा देखी आपमें भी गंदी नाली के कीड़ों के प्रति प्रेम भाव पैदा हो तो आप हमसे सीधे ‘सूअर ब्रांड’ इत्र मंगा सकते हैं। ये इत्र आपको मल-मूत्र की प्राकृतिक सुगंध देगा। इस इत्र को लगाने से आप स्लम में रहने के आदी हो जाएंगें और सूअर की तरह संतई स्वभाव को प्राप्त करेंगें।
इस प्रतियोगिता में कौन विजयी हुआ इसकी रिपोर्ट तो मैं आपको अगली होली पर ही दे सकती हूं। अगली होली तक तो ये भी पता चल जाएगा कि भारतीय राजनीति के चुनावी -स्लम से निकलकर कौन-कौन ... आपकी सेवा में प्रस्तुत होते हैं। आम चुनाव में कोई भी जीते पर मुझे पूरा विश्वास है कि इस होली की आगामी प्रतियोगिता में मेरे जीजाजी ही जीतेंगें। आप भी मेरे साथ गाएं - जय हो, जय हो।

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‘नई दुनिया’ के 8 मार्च,2009 अंक में प्रकाशित

बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

प्रेम जनमेजय को व्यंग्यश्री-2009 सम्मान





‘आध्ुनिक जीवन विसंगतियों से भरा हुआ है और बाजारवाद ने तो हमारे जीवन की स्वाभाविकता को नष्ट कर दिया है। व्यंग्यकार अपने समय का समीक्षक होता है इस कारण समाज में उसकी भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। व्यंग्यकार का कर्म मनोरंजन करना कतई नहीं है, उसका कर्म तो ऐसी रचना का सृजन करना है जो सोचने का बाध्य करे। प्रेम जनमेजय अपनी रचनाओं के माध्यम से व्यंग्य की इसी भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। उनकी रचनाओं में विनोद नहीं है अपितु विसंगतियों को लक्षित कर एक संवेदनशील रचनाकार की उभरी पीड़ा है।’ यह उद्गार प्रख्यात आलोचिका डाॅ0 निर्मला जैन ने, प्रतिष्ठित व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय को तेरहवें व्यंग्यश्री सम्मान से सम्मनित किए जाने पर, अपने अध्यक्षीय भाषण में अभिव्यक्त किए गए। व्यंग्य-विनोद के शीर्षस्थ रचनाकार पं0 गोपालप्रसाद व्यास के संबंध् में डाॅ0 जैन ने कहा कि व्यास जी ने उर्दू के गढ़ दिल्ली में हिंदी का अलख जमाया । गोपालप्रसाद व्यास के जन्मदिन पर प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले इस व्यंग्य विनोद दिवस का इस बार का विशेष आकर्षण उनकी प्रिय पुत्राी डाॅ0 रत्ना कौशिक के निर्देशन में निर्मित वेबसाईट के शुभारंभ का था। इस वेबसाईट के निर्माण की सभी वक्ताओं ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की।
प्रेम जनमेजय को व्यंग्यश्री सम्मान के तहत इक्कतीस हजार रुपए की राशि, प्रशस्ति -पत्रा, प्रतीक चिह्न, रजत श्रीपफल, पुष्पहार एवं शाल प्रदान किया गया। प्रेम जनमेजय ने सम्मान को ससम्मान ग्रहण करते हुए कहा- सम्मान चाहे तेरह हजार को हो, इक्कतीस का हो या एक लक्ष का, यदि लेखक का लक्ष्य पुरस्कार है तो यह एक ऐसा लाक्षागृह है जिसमे से उसे कोई कृष्ण भी नहीं निकाल सकता है। पिछले एक दशक में बड़ते हुए उपभोक्तावाद एवं बाजारवाद ने हमारे जीवन को बुरी तरह प्रभावित किया है। बढ़ते हुए अंध्ेरे को समाप्त करने के स्थान पर उसके स्थानांतरण का नाटक करके हमें बहलाया जा रहा है। बहुत आवश्यक्ता है व्यवस्था के षड़यंत्राों को समझने की और उन पर व्यंग्यात्मक प्रहार करने की। आवश्यक्ता है व्यंग्य के पिटे पिटाए विषयों से अलग हटकर कुछ नया दिशायुक्त सोचने की।’
18 मार्च 1949 को जन्में डाॅ0 प्रेम जनमेजय की अब तक नौ व्यंग्य कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रेम जनमेजय को अनेक सम्मानों से सम्मानित किया जा चुका है। वे प्रसिद्ध पत्रिाका ‘व्यंग्य यात्राा’ के संपादक हैं। इस अवसर पर श्रीलाल शुक्ल पर केंद्रित ‘व्यंग्य यात्राा’ के अंक का लोकार्पण भी किया गया।

कार्यक्रम का कुशल संचालन करते हुए प्रसिद्ध व्यंग्यकार डाॅ0 ज्ञान चतुर्वेदी ने अपनी व्यंग्यात्मक उक्तियों एवं हिंदी व्यंग्य की स्थिति को स्पष्ट तो किया ही साथ में पं0 गोपालप्रसाद व्यास की रचनाशीलता और प्रेम जनमेजय की विशिष्ट रचनात्मकता की चर्चा की। डा0 ज्ञान चतुर्वेदी ने सामयिक लेखन पर व्यंग्य करते हुए कहा कि आज का रचनाकार टखने तक के पानी में तैरने की प्रतियोगिता का खेल खेल रहा है। उन्होंने कहा कि प्रेम जनमेजय ने सतत व्यंग्य-लेखन तो किया ही है पर उससे बड़ा काम ‘व्यंग्य यात्राा’ का कुशल संपादन एवं प्रकाशन कर के किया है।
समारोह के आरंभ में हिंदी भवन के मंत्राी प्रख्यात कवि डाॅ0 गोविंद व्यास ने अपने स्वागत भाषण में व्यंग्यश्री सम्मान की पारदर्शी प्रक्रिया की चर्चा करते हुए कहा कि हमारा प्रयत्न रहा है कि इस सम्मान की प्रतिष्ठा पर आंच न आए। उन्होंनें गोपालप्रसाद व्यास के हास्य व्यंग्य साहित्य का अभूतपूर्व योगदान की चर्चा करते हुए कहा कि उनसे मिले संस्कारों का ही परिणाम है कि हिंदी भवन की प्रतिष्ठा दिनों दिन बढ़ रही है।
हिंदी भवन के अध््यक्ष त्रिालोकीनाथ चतुर्वेदी ने आर्शीवचन देते हुए व्यास जी के योगदान का स्मरण किया और प्रेम जनमेजय को उनके उत्कृष्ट व्यंग्य लेखन के लिए बधई दी। उन्होंनें पं0 गोपालप्रसाद व्यास के विशिष्ट रचनात्मक योगदान को रेखांकित करते हुए कहा कि उनपर निर्मित वेबसाईट इस महान रचनाकार के अनेक आयाम उद्घाटित करेगी। इस अवसर पर खचाखच भरे हाॅल में राजधानी के अनेक प्रतिष्ठित साहित्यकार उपस्थित थे।
--प्रस्तुतिः देवराजेंद्र

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

व्यंग्य---ज्यों-ज्यों बूड़े श्याम रंग

ज्यों-ज्यों बूड़े श्याम रंग

गर्मियों की इतवार की अलसाई सुबह का समय था और चढ़ती ध्ूप, मक्खियों की भिन्न-भिन्न तथा चिडि़यों की चांय चांय मेरे जैसे अलसाए लोंगों को वैसे ही बेचैन कर रही थी जैसे बढ़ती हुई मुद्रास्पफीति की दर से आजकल भारत सरकार बेचैन है । सामने चुनाव की गर्मी-सा लंबा दिन था और उस दिन में कहीं अंधेरा भी दिखाई दे रहा था । ऐसे अंधेरे में किसी गलतफहमी-सा धर्मिक प्रवचन, बहुत सकून देता है ।
ऐसी ही अलसाई सुबह मेरी पत्नी धर्मिक चैनल देख रही थी और जैसे हाई कमान की बात को न चाहते हुए भी देखना-सुनना पड़ता है वैसे ही मुझे देखना - सुनना पड़ रहा था। प्रवचनकत्र्ता बाबाजी उंचे से आसन पर बैठे अपने सामने, नीचे, जमीन पर बैठे भक्तों को समझा रहे थे कि इस संसार में सभी जीव बराबर हैं । जैसे मेरी सरकार लोगों की धार्मिक भावनाओं का ख्याल रखती है, उसमें हस्तक्षेप नहीं करती है वैसे ही मैं भी अपनी पत्नी की धार्मिक भावनाओं का ख्याल रखता हूं । पर इधर मैं देख रहा हूं कि पत्नी मेरी भावनाओं का कम और बाबाजी की भावनाओं की अधिक कद्र कर रही है । इसी कद्र के चक्कर में बाबाजी का आसन उंचा होता जा रहा है और हमारे जैसे भक्तों का नीचे । हमारी बूंद-बूंद श्रद्धा से उनका सागर भर रहा है । अपने हर प्रवचन में वो दान की महिमा समझाते हैं एवं भगत भक्तिभाव से समझते हैं और भगतो की इसी समझ का परिणाम है कि आश्रम फल-फूल रहा है और अनेक फूल-सी बालाएं उसकी शोभा बढ़ा रही हैं। ये दीगर बात है कि बाबाजी अपने आश्रम द्वारा तैयार किए गए आयुर्र्वैदिक उत्पादों को दान में नहीं देते हैं, उन बहुमूल्य वस्तुओं का मूल्य लेते हैं । जैसे-जैसे भगतों की संख्या बढ़ रही है, दान-कोष बढ़ रहा है और बहुमूल्य वस्तुओं के दाम बहुमूल्य हो रहे हैं । बाबाजी को प्रवचनों से फुरसत नहीं मिल रही है । भगतजनों ने थैलियों के मुंह खोल दिए हैं । एक-एक सतसंग की लाखों रुपयो में बोली लग रही है । ं
बाबाजी बता रहे हैं-- इस श्याम के रंग को कोई नहीं समझ सकता है । आप जैसे - जैसे इसके रंग में डूबते हैं वैसे वैसे उजले होते जाते हैं ।’ वे सोदाहरण समझा रहे थे कि उनके दरबार में अनेक श्यामवर्णी आए और उजले हो गए । आजकल बाबाजी की पहुंच बढ़ गई है और वे श्याम रंग में डूबे लोगों को उजला करने का परमार्थी -व्यवसाय कर हरे हैं । वो श्याम रंग में डूबे लोगों को उकसा रहे थे कि वे उनकी शरण में आएं और समाज में उजले होने का सम्मान प्राप्त करें । बाबाजी श्याम रंग में डूबे हुए भगतों को निर्भय कर रहे थे कि बाबाजी के होते वे निडर रहें और दान-दक्षिणा में अपनी श्रद्धा बनाए रखें । जितना वो दान-दक्षिणा में श्रद्धा रखेंगें उतने ही निर्भय हो सकेंगें। बिना हनुमान चालीसा का पाठ किए, भूत पिशाच उनके निकट नहीं आवेंगें ।वैसे जब आप ही उजले भूत- पिशाच हो जाएं तो कौन आपके सामने आने का साहस करेगा।
ऐसी अलसाई सुबह और बाबाजी के प्रवचनों के बीच उन्होनंे मेरी घंटी बजा दी । मैंनें दरवाजा खोला तो सामने उनको पाकर भयभीत मन मौन-भजन करने लगा -- भूत पिशाच निकट नहीं आवें , महावीर जब नाम सुनावें ।’ न न उस दिन न तो मंगलवार था, न ही मेरे सामने कोई रामभक्त या हनुमान भक्त खड़ा था और ना ही मैं पत्नी को दिखाने के लिए धार्मिक बना हुआ था। हमारे जनसेवक तो चुनाव के समय जनता के सामने धार्मिक हो जाते हैं मैं तो मात्र पत्नी के सामने होता हूं । मेरे सामने पुलिस-विभाग के ‘कुशल’ कर्मचारी और मेरे परम् ‘मित्र’ खड़े थे । मन ने मुझे चेताते हुए कहा, हे प्यारे सत्यवान, सावित्री को समाचार दे दे कि वह अपने सभी पतिव्रत गुणों को लाॅकर से निकाल ले क्योंकि उसके सत्यवान पर संकट की आशंका है । संतो ने कहा भी है कि पुलिसवालों की न तो दु’मनी अच्छी और न ही दोस्ती अच्छी, इनसे दूरी ही अच्छी ।
उनके हाथ में पकड़ा मिठाई का डिब्बा लगातार चेतावनी दे रहा था कि प्यारे मुझे खा मत जाना वरना एक के चार चुकाने पड़ेंगें । उनके चेहरे पर खिली हुई प्रसन्नता ऐसी थी जैसी किसी वकील या पुलिसवाले को एक अमीर द्वारा किए गए कत्ल का केस मिलने पर होती है । वे वर्दी के बिना ऐसे लग रहे थे जैसे चुनाव के समय वोट-याचना करता नेता, सीता का अपहरण करता हुआ रावण अथवा मुंह में राम और बगल में छुरी रखने वाला धार्मिक ।
उन्हें सामने देख पत्नी ने अपना धार्मिक कर्म स्विच आॅफ किया और भाई साहब के लिए चाय बनाने अंदर चली गई ।
मुझे देखते ही वो गले मिले और उनकी इस आत्मीयता से घबराकर मैंनें अपने पर्स को कसकर पकड़ लिया । मैं दूध का जला था और जानता था कि उनकी आत्मीयता की कीमत होती है जिसे वो किसी न किसी रूप में वसूल ही लेते हैं । वो सीधी,टेढ़ी, आड़ी-तिरछी सब प्रकार की अंगुलियों से घी निकालने में माहिर हैं । गले मिलने के बाद और उस मिलने से कुछ भी न मिलने के कारण मेरे इस मित्र ने बहुत जल्दी गले मिलो कार्यक्रम सम्पन्न कर लिया और शीघ्र ही मुद्दे पर आते हुए बोले-- प्रेम भाई आज बहुत अच्छा दिन है, आज मेरा तबादला हो गया है, लो मिठाई खाओ । मैंनें लोगों को तबादले से परेशान होते ही देखा है, पर मेरा मित्र तो प्रसन्न हो रहा था, जरूर दाल काली है ।-- बधाई हो, कहां हो गया तबादला ?’’-- वहीं जहां जवानी में मैं जाकर मजे करता था और तूं शर्म के मारे मुंह छिपाता था। वहीं जहां तेरे मन में तो लड्डू फूटते थे पर नैतिकता का मारा उनको चखता नहीं था। तूं डरता था कि जवानी में तेरे कदम फिसल गए तो इन चक्करों में पढ़-लिख नहीं पाएगा और अच्छी नौकरी नहीं मिलेगी । ’ इसके बाद उसने आंख मारते हुए कहा,‘ औरतों की मंडी में । अब तो दोनों हाथों में लड्डू होंगें ।
’’-- पर अभी तो आप बड़े ही पाॅश इलाके में थे, दक्षिण दिल्ली के इज्जतदार इलाके में ।’
-- इज्जतदार घंटु...’ कहकर वो थोड़ी देर रुका और बोला,‘ पता नहीं क्यों तेरी सोहबत में आते ही दिमाग के घोड़े दौड़ने लगते हैं... सच कह रहा तूं इलाका साला इज्जतदार ही है, बड़ी इज्जत से जुर्म होता है, बड़ी इज्जत से रिश्वत मिलती है,इज्जतदार घर की इज्जतदार औरतें जिस इज्जत के साथ इज्जत काजनाजा निकालती हैं... पर अप्पन को इतनी इज्जत की आदत नहीं है। साला डर ही लगा रहता है कि जिस साले से माल ले रहे हैं कहीं उस इज्जतदार की पहुंच उपर तक न हो और अपना स्टिंग आॅपरेशन ही न हो जाए । इज्जतदार इलाके में रिस्क ज्यादा है ।
’’-- पर औरतों की मंडी तो बहुत बदनाम जगह है... वहां क्या मिलेगा, नीचे गिरे लोग, बदनामी ही न...-- प्यारे जहां जितने नीचे - गिरे लोग होंगें वहां उतना ही उपर का माल बनेगा न । समुद्र में भी जितने नीचे जाओ उतने ही रत्न मिलते है नं... काले कोयले की खानों में ही तो हीरा मिलता है... अबे शरीफों के मोहल्ले में क्या मिलेगा, मैडल, साले जिसे बाजार में भी नहीं बेच सकते हैं, बेचने जाओ तो लोग टोकते हैं, क्यों, अपना सम्मान बेच रहे हो ? प्यारे बड़ी मुश्किल से ले- देकर ये ट्रांसफर करवाया है । जानता है इस थाने में ट्रांसफर का क्या रेट चल रहा है...
’’-- रहने दो मित्र क्यों अपना ट्रेड सीक्रट बताते हो । -- पर तुम तो ट्रेड शुरु कर दो । तुम्हारे इलाके का एस। एच। ओ। अपना दोस्त है । मजे से पेपर लीक करो , तुम पर आंच नहीं आएगी । खाओं और खाने दो के सिद्धांत पर चलो जैसे तुम्हारा मित्र चोपड़ा चल रहा है । जानते हो कितनी इज्जत है उसकी । आई. ए. एस., बड़े-बड़े बिजनेसमैन,सांसद, एम एल ए -- कौन-कौन नहीं उसके दरवाजे पर आता है। सबको अपने बच्चों के बढि़या नम्बर चाहिए होते हैं और बच्चे तो देश का भविष्य होते हैं तथा ऐसे में भविष्य कम नम्बर वाले बच्चों का हो गया तो देश का क्या होगा । कितनी बड़ी देशसेवा कर रहा है चोपड़ा और इसके बदले में उसे पैसे का पैसा मिल रहा है और इज्जत की इज्जत । तुम्हें क्या मिल रहा है ?’’
-- मुझे ... ’’
-- लटके रहो नैतिकता की इन सूईयों को पकड़ कर । पालते रहो अपने उजले होने का भ्रम । प्यारे आजकल उजला वही है जो श्याम के रंग में डूबा है । आजकल उजला होना महत्वपूर्ण नहीं है उजला दिखना महत्वपूर्ण है । ’ यह कहकर मुझे चिकना घड़ा मान वो देशसेवा के उच्च विचार धरण किए आगे बढ़ गया ।
शायद सच ही कहा उसने-- आजकल उजला वही हो जो श्याम के रंग में डूबा है और जितना डूब रहा उतना ही उजला हो रहा है । उजला होने से अधिक उजला दिखना महत्वपूर्ण है ।
तथास्तु ।
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मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

‘व्यंग्य यात्रा’ का शीघ्र प्रकाश्य,आगामी अंक-श्रीलाल शुक्ल पर केंद्रित




श्रीलाल शुक्ल पर केंद्रित


'व्यंग्य यात्रा' का


शीघ्र प्रकाश्यआगामी अंक

संपादकः प्रेम जनमेजय


पाथेय में


श्रीलाल शुक्ल, रवींद्रनाथ त्यागी


'राग दरबारी' का पुनर्पाठ


नित्यानंद तिवारी ,निर्मला जैन ,ज्ञान चतुर्वेदी
साक्षात श्रीलाल शुक्ल
व्यंग्य की टैरेटरी बढ़ी है


श्रीलाल शुक्ल से गोपाल चतुर्वेदी, शेरजंग गर्ग,


ज्ञान चतुर्वेदी एवं प्रेम जनमेजय की बातचीत


आओ बैठ लें कुछ क्षण - प्रेम जनमेजय


टूटती हुई सीमाएं


कृष्णदत्त पालीवाल ,मुरली मनोहर प्रसाद सिंह,


भारत भारद्वाज ,सुवास कुमार आदि
'राग दरबारी' का राग-विराग

खगेन्द्र ठाकुर ,राजेश जोशी ,हरि मोहन,


सूर्यबाला,अरमेन्द्र कुमार श्रीवास्तव,,सत्यकेतु सांकृत,


सुरेश कांतसंतोष खरे ,अनुराग वाजपेयी ,आशा जोशी


कुछ महत्वपूर्ण पड़ाव


हरजेन्द्र चैधरी,जवाहर चैधरी ,निर्मला एस. मौर्य,


देवशंकर नवीन ,विनोद शाही,अरविंद विद्रोही आदि
कुछ रंग, कुछ राग
कन्हैयालाल नंदन,रामशरन जोशी ,गंगाप्रसाद विमल


गोपाल चतुर्वेदी,कमलेश अवस्थी,शेरजंग गर्ग अशोक चव्रफधर ,


दामोदर दत्त दीक्षित,अलका पाठक तेजेन्द्र शर्मा,


अनूूप श्रीवास्तव ,साधना शुक्ल ललित लालित्य


अधोक आनंद रामविलास शास्त्राी आदि
जीवन ही जीवन, तथा श्रीलाल शुक्ल का पुस्तक संसार
संपर्कः 73 साक्षर अपार्टमेंटस, ए-3


पश्चिम विहार नई दिल्ली - 110063


फोन ः 981115440