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मंगलवार, 23 जुलाई 2019

प्रेम जन्मेजय की व्यंग्य रचना - धोखेबाज़ मौसम की जय हो


धोखेबाज मौसम की जय हो!


   ये नारा मेरा नहीं है, राधेलाल का है। कुछ प्रजातंत्र के मारे होते हैं और कुछ प्रजातंत्र को मारने वाले होते हैं। बेचारा राधेलाल प्रजा है अतः प्रजातंत्र का मारा है।  हर समय सड़क से संसद की ओर टकटकी लगाए देखता रहता है। उसे विश्वास है कि एक दिन पश्चिम से सूर्य अवश्य निकलेगा।
  प्रजातंत्र में जैसे सबकी भूमिका निर्धारित है । राधेलाल की भी निर्धारित है। कुछ सेवा करते हैं और मेवा पाते हैं। कुछ बिना सेवा किए मेवा पाते है। पर राधेलाल जैसे प्रजाजन सेवा करते हैं और सेवा ही पाते हैं।  सेवा का यह तंत्र केवल संसद के गलियारों में नहीं है, धर्म के गलियारों में भी है। अपने सेवकों को माया मोह से दूर रखने की शिक्षा का मंत्र देने वाले महंत बिन सेवा के मेवा पाते हैं। न केवल मेवा पाते हैं, मेवे का व्यापार भी करते हैं। धर्म का सिक्का राजनीति, समाज, देश-विदेश आदि, सब जगह चलता है। जो भी इसके अवमूल्यन की कोशिश करता है उसका ही अवमूल्यन हो जाता है।
      तो इन दिनों प्रजातंत्र का मारा राधेलाल बेरोजगार है। राधेलाल कबीर नही है फिर भी भया उदास है। देश में आम चुनाव हो चुके हैं। इधर आम चुनाव खत्म हुए और उधर अनेक हो गए।  देश में नारों की नदी सूख गयी है। नारों में जिंदाबाद किसान अब मुर्दा पड़ा है। दलित की झोपड़ी किसी बूढ़ी वेश्या के खुले द्वार -सी उपेक्षित है। गले में हार डालने का सम्मान पाई पिछड़ी जातियां पुनः जूते की नोक पर हैं। जैसे युद्ध में विजयी राजा के राजमहल में उत्सव होता है और ‘शहीद’ हुए ‘योद्धाओं’ के घर मातम पसरता है, वैसा ही कुछ प्रजातंत्र में भी पसर गया हैं। अब अगले चुनाव तक तो पसरेगा ही। इसी कारण राधेलाल फिलहाल बेरोजगार हैं। 
   राधेलाल की भूमिका नारेबाज की है। जैसे बिन भ्रष्टाचार नौकरशाह,पुलिस, नेता आदि बेचैन रहते हैं वैसा ही बेचैन नारा विहीन राधेलाल है। वह नारों का नशेड़ी हो गया है। बिन नारा सब सून। उसका मन करता है कि किसी फेरीवाले की तरह वह गली गली आवाज लगाए- नारे लगवा लो, नारे। सस्ते नारे लगवा लो! दो नारो के साथ चार फ्री नारे लगवा लो। उसे समझ नहीं आ रहा है कि वह करे तो क्या करे! पहला जमाना बढ़िया था, केवल चुनाव में ही नारों की आवश्यक्ता नहीं पड़ती थी। नारों का सैंसक्स हाई था। दिल्ली के जंतर -मंतर में हर समय आंदोलन का वंसत छाया रहता था। पैट्रोल या डीजल के दो रुपए बढ़ते थे तो हर गली में नारे शोभायमान होते थे हजारों रुपए की कारें फूक दी जाती थी। ग्राहक सुबह उठकर ब्रेड अंडा या मक्खन लेने जाता है तो पता चलता है कि बीस रुपए की ब्रेड पच्चीस की हो गई है, पांच रुपए का अंडा सात का हो गया है यानि लगभग बीस परसेंट महंगे हो गए हैं। गा्रहक बस आश्चर्य व्यक्त करता है,‘ इतना महंगा’ और उतना महंगा लेकर चल देता है। लगता है कि बेरोजगारी सुरसा,राफेली भ्रष्टाचार, किसानी आत्महत्या आदि परवाने चुनाव में पैदा होते है और चुनाव की शमा में जलकर मुक्त हो जाते हैं। 
     बेचारे राधेलाल ने  बहुत देर तक प्रतीक्षा की और गिडगिड़या भी - कोई नारा तो उछालो यारों! पर प्रतीक्षा न्यायालय की तारीख पर तारीख जैसी हो गई । ऐसे में राधेलाल ने मुझे देखा और  नारा उछाल दिया - धोखेबाज मौसम की जय हो!
मैंने कहा - मौसम और धोखेबाज! क्या प्रकृति में भी चुनाव का बिगुल बज गया है कि मौसम धोखेबाज होने लगा। उसे कौन-सा चुनाव लड़ना है कि वह धोखेबाज हो। मौसम तो प्रकृति के नियामानुसार चलता है। 
- किस धोखेबाज मौसम की बात कर रहे हैं आप!
-यही जो आजकल हमारे देश की में चारों ओर भ्रष्टाचार -सा छाया हुआ है। बरसात का मौसम।
मैंने कहा -भीष्ण गर्मी के बाद बरसात का जो मौसम आता है उसकी जय होनी ही चाहिए। कितना सकून मिलता है। संसद में हरियाली छाती हैं । सब्सीडाईज कैंटीन में बहार आती है। देशसेवा के चातको की प्यास बुझती है। आश्वसनों की सूख चुकी चुनावी नदी में विकास की कुछ बूंदे टपकने लगती हैं। क्या बढ़िया मौसम होता है बरसात का।
राधेलाल बोला -बढ़िया! सबसे घटिया होता है बरसात का मौसम।
तभी कहीं से गाना बजने लगा- 
हम तो समझे थे कि बरसात में बरसेगी शराब
आयी बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया।
राधेलाल चहका - देख लिया। इस घटिया बरसात ने किसी का दिल तोड़ ही दिया न। और जरूर किसी गरीब का दिल तोड़ा होगा।
- गरीब का दिल क्यों, अमीर का क्यों नहीं? अमीर के पास क्या दिल नहीं होता?
- अमीर के पास दिल होता है पर वो उसका प्रयोग नहीं करता। वो तो दो दूनी चार के लिए दिमाग का प्रयोग करता हैं। उसे न तो चुनाव के समय शराब चाहिए और न ही बाद में। उसे तो शराब का व्यापार करना है-चुनाव से पहले,चुनाव में और उसके बाद भी। गरीब के लिए  चुनाव में शराब बरसती है और उसके आगे भी बरसने के आश्वासन मिलते है, पर नहीं बरसती। शराब की जगह बाढ़ बरसती है जिसमें झोपड़ियां मरती हैं।ये बरसात अमीर को उसके पेंट हाउस में मंहगी स्कॉच के साथ फुहार का आंनद देती है तो गरीब की झोपड़ी बहाकर उसे बेघर करती हैं।
- तो इसका मतलब ये हुआ कि बरसात सबके साथ धोखा नहीं करती, केवल गरीब के साथ करती है।
- और क्या ? धोखेबाजी चाहे मौसम करे या सरकार गरीब के साथ ही होती है। सरकारें मौसम विभाग जैसी ही तो होती हैं- अविश्वसनीय। बेचारे को आश्वासन मिलता है कि आज बरसात नहीं होगी और वह बिना छतरी के चल देता है पर बरसात के साथ कीचड़ भी बरस जाता है। और जिस दिन चुनावी घोषणा होती है कि आज खूब बरसेगा पर उस दिन सूखा पड़ जाता है और छतरी ताने गरीब का मजाक बनता है।  
- प्यारे राधेलाल ! ऐसा तो नहीं है कि बरसात का मौसम हर बार धोखेबाजी करता है। कभी-कभी तो सच भी बोलता है।
- कभी-कभी सच बोलने वाला झूठा ही माना जाता है। बरसात लाख कहे कि मैंने इस्तीफा दे दिया है, कोई मानता ही नहीं हैं । कुछ लोग इस्तीफे के लिए नहीं बने होते हैं। इस्तीफा देने वाले हाथ अलग होते हैं और लेने वाले अलग होते हैं। 
- कुछ भी कहो बरसात का मौसम बढिया होता है। क्या बादल घुमडते हैं, मोर नाचते हैं
- और  क्या श्रीमान ढेंगू जी कटियाते हैं और क्या मच्छर रिमिक्स गाते हैं!
- क्या मिट्टी की सोंधी खुशबू मिलती है!
- क्या सीवर का पानी गलियों में सुगध बांटता हैं शहर की रफतार थमती है!
- राधेलाल यदि मौसम धोखेबाज है तो उसकी जय क्यों बोल रहे हो?
- जब सभी धोखेबाजों की जय हो रही है तो बेचारे मौसम की जय क्यों न हो? चल तूं नारा बोल न...
- कौन-सा नारा?
-यही, तूं बोल धोखेबाज मौसम की... मैं बोलूंगा-जय!
- नारे लगाने से क्या होगा ?
- तेरे दोस्त की, नारे लगाने की, खुजली मिटेगी।
मित्रो, खुजली मिटनी बहुत आवश्यक हैं। खुजली न मिटे तो आदमी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे देता है, खुजा खुजा कर अपने चेहरे को जख्मी कर लेता है, इधर-उधर फोन पर खुजियाता है और अंततः खुजली वाला कुत्ता हो जाता है। ऐसे कुत्ते भौंक नहीं पाते हैं। भौंके तो तब, जब खुजली मिटे। वे बस इस खंभे से उस खंभे पर अपने को रगड़ने में, चौरसी लाख योनियों के बाद मिला कुत्ता जीवन व्यर्थ करते हैं। राधेलाल मेरा मित्र है, मैं उसे खुजियाया कैसे बनने दे सकता था अतः मैंने बोला-लगा नारा। राधेलाल ने नारा लगाया- धोखेबाज मौसम की... । हे भक्तों, आप भी यदि खुजियाये जीव नहीं बनना चाहते तो मेरे साथ जोर से बोलें-जय! 

गुरुवार, 11 जुलाई 2019

व्यंग्य रचना ,'यह भी ठीक, वह भी ठीक'

यह भी ठीक, वह भी ठीक
बात उन दिनों की है जब मध्यम वर्ग के लिए कार एक सपना हुआ करती थी। कुछ के सपने साकार हो जाते हैं, कुछ के निराकार रहते हैं। निराकार सपने आत्महत्या कराते हैं। कुछ को कार मिल जाती है और कुछ की बेकारी बरकारार रहती है।
उन दिनों स्कूटर की अपनी शान थी। लड़की पटाने से लेकर बढ़िया दहेज जुटाने तक काम में आता था। स्कूटर पर बैठे आदमी की इज्जत का सैंसेक्स बढ़ जाता था जैसे पंाच सितारा होटल में जाने वाले या इंट्रव्यूह में झर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले का बढ़ता है। पूरी फैमली स्कूटर के हर हिस्से पर ठुस जाती और महसूसती जैसे पुष्पक विमान में विराजमान है। घर के हर सदस्य का सहारा इकलौता स्कूटर होता। आजकल... घर के हर सदस्य की अपनी-अपनी कार परिवार को बेसहारा किए है।
तो उन दिनों, हमारे काॅलेज के प्रिंसिपल स्कूटर की शाही सवारी में आते थे। एक दिन देखा अपने स्कूटर के सामने बैठे स्टैंड पर ताला लगा रहे हैं जैसे कुछ संसद में बैठ ईमानदारी को ताला लगाते हैं।
- आपने भी ताला लगवा लिया?’
- हां जी, बहुत जरूरी है। देखो जी बिना ताले के स्कूटर खड़ा हो तो कोई भी चाबी लगाकर स्कूटर स्टार्ट करे और ले जाए।
- पर चोर तो स्टैंड वाले ताले की भी चाबी बनाकर उसे खोल सकता है?
- बिल्कुल जी चोरों के सामने ताले क्या ! उनके पास तो 'मास्टर की' होती है। वो गाना हे न जी, बड़ा ही सी आई डी है नीली छतरी वाला, हर ताले की चाबी रखता हर चाबी का ताला।
- ऊपर  वाला सी आई डी होता है ? मुझे तो लगता है कि जो सत्ता में सबसे ऊपर  पहुंचता है, वो सी आई डी रखता है। उसके पास हर ताले की चाबी होती है। जिसकी चाहे फाईल खोल ले।
- मेरा तो फिल्मी गाना था और आप कर रहे हो ऊँची  राजनीतिक बात । दोनो अपनी -अपनी जगह ठीक हैं।
- पर ताले के चाबी कैसी भी हो, ताला खोलने में टाईम तो लगेगा। पहले चोर नीचे झुकेगा, फिर ताला खोलेगा। उसके बाद स्टार्ट करने की चाबी लगाएगा। टाईम डबल लगेगा।
- यह मारा, डबल टाईम में तो चोर पकड़ा जाएगा। ताला लगाना ठीक ही है।
- पर टाईम से पता न चला तो , ताला लगाना बेकार गया न।
- बिल्कुल ठीक, ताला लगाना बेकार गया।
- फिर आपने क्यों लगा लिया ?
- बच्चो ने कहा तो मैंने टाल दिया पर जब पत्नी ने कहा तो टाल नहीं सका। पत्नी तो हाईकमांड  होती है नं। पर जब भी ताला खोलने या बंद करने बैठता हूं तो डर लगा रहता है कि कोई नस न खिंच जाए। डाक्टर बेड रेस्ट बोले और बिस्तर पर ही सब कुछ न करना पड़ जाए।
- तो मैं ताला न लगवाऊं  ?
- रहने दो जी!
- ताले से मन को तसल्ली रहती है ।
- तो लगवा लो जी।
कर्णधार देश को चौराहे पर छोड़ते हैं उन्होंने मुझे  छोड़ दिया। 
इन दिनों एक साहित्यकार 'मित्र' मिल गए। वे सच्चे साहित्यकार हैं क्योंकि उनके पास एकठो कार है। वे सक्रिय साहित्यकार हैं। वे फेसबुक, व्हाट्स एप्प, ट्यूटर के रात- दिनी साहित्यकार हैं। जब चाहें गर्दन झुकाकार आप इन यार की उपस्थिति देख सकते हैं। इससे पहले उनको साहित्यिक कब्ज रहती थी। कोई उनकी रचना पर बात नहीं करता, अपनी पसंद जाहिर नहीं करता... इस कारण कब्जियाते रहते। डाॅक्टर ने जबसे उन्हें फेसबुक, व्हाट्स एप्प, ट्यूटर का त्रिफला चूर्ण दिया है उनकी अभिव्यक्ति के द्वार खुल गए हैं। बार-बार लगातार वाले इस्टाईल में वे अपनी चमकार बिखेरते रहते हैं। प्रतिदिन दिन में कम से कम चार -पांच बार वे सोशल मीडिया पर ज्ञान -मुद्रा में अवतरित होते हैं। उनकी पुस्तकें लेटकर, बैठकर, खड़े होकर आदि अनेक सार्वजनिक मुद्राओं में पढने वाले पाठकों के चित्र साझा होते हैं।
मैंने पूछा - क्या हो रहा है?
वे बोले- हैं ... हैं ..अब  और क्या होना है, लेखन के मजदूर हैं,साहित्य हो रहा है।
- पर हर समय तो साहित्य नहीं हो सकता। पापी पेट को भरने और खाली करने का भी तो समय चाहिए।
- ये आपने बिल्कुल सही कहा।’’  उनकी आंखें मेंढक- सी फैल गईं।
- पर साहित्य में पूरा समय नहीं देंगे तो मान सम्मान कैसे मिलेगा ? साहित्यकार के लिए तो साहित्य ही प्राथमिकता है।
- बिल्कुल सही। मान-सम्मान और पुरस्कार साहित्य को समय देने से ही तो मिलेंगे।
- पर आजकल तो सब जुगाड़ से मिलता हैं। 
- बिल्कुल ठीक , सब जगह जुगाड़ चलने लगा है।
- पर कुछ तो  जेनविन होते हैं। आपको भी तो पिछले दिनों मिला, जेनविन।
- पर ‘उसे’ जो मिला जुगाड़ से मिला। बहुत ही खराब लिखता है।
- खराब तो लिखता है... अच्छे साहित्य की समझ नहीं है।
-  उसकी कुछ रचनाएं तो बढ़िया हैं, शायद उनपर मिला हो।
-  उन्हीं पर मिला होगा। उसकी दो तीन किताबों की मैंने तो समीक्षा की है।
- आपकी साहित्यिक दृष्टि एकदम साफ है।
- हैं ... हैं ... आपकी भी तो ... 
ऐेसे सज्जन सांप की तरह बल खाते  हैं।इनकी कुटिया सत्ता के गलियारों में छवी रहती है। इनका नख -शिख सत्ता की कड़ाही में होता है।इन सगुणवादियों का मस्तक प्रभु समक्ष सदा नवा रहता है। ये बुरा देखने जाते ही नहीं इसलिए इन्हें ‘बुरा न मिलया कोय।’ इनकी नाक दुर्गंध नहीं सूंघती है इसलिए कूड़े और इत्र की गंध, सुगंध समान होती है। ये भैंस के आगे बीन बजाकर उसे प्रसन्न करने की कला जानते हैं। इनका अधिक सेवन अच्छा तो लगता है पर मधुमेह होने का खतरा रहता है।  
कुछ सदाबहार सहमतिए हैं तो कुछ सदाबहार असहमतिए। ये केवल स्वयं से सहमत होते हैं। हर समय दुर्वासा की मुद्रा में रहते हैं। यह हर संबंध तराजू में तोलते हैं।  किसी को मिल जाए तो रुष्ट,स्वयं को मिले और कम मिले तो रुष्ट। कोई ग्रहण करे न करे ये श्राप बांटते रहते हैं।
मैं आज तक कन्फयूजाया हुआ  हूं, ग़ालिब से पूछता हूँ - तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़े - ए - गुफ़्तगू क्या है।' पर ग़ालिब क्या बोले, उसकी तो जुबान काट दे गयी  है। 
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रविवार, 13 मार्च 2016

‘व्यंग्य यात्रा’ अंक 45

‘व्यंग्य यात्रा’ के अंक 45 का प्रकाशन  हो गया है।इस अंक का मुख्य पृष्ठ कुंवर रविंदर की कलाकृतिपर आधारित है। 



इस अंक में आप पढ़ सकते हैं-
पाथेय में- श्रीलाल शुक्ल, रवींद्रनाथ त्यागी, महीप सिंह की रचनाएं। प्रताप सहगल का महीप सिंह पर संस्मरण
चिंतन में- ‘समकालीन यथार्थ और व्यंग्य’ पर गौतम सान्याल, सूरज प्रकाश, सूर्यबाला, प्रेम जनमेजय, लालित्य ललित एवं सुमित प्रताप सिंह तथा निर्मिश ठाकर का व्यंग्यचित्रों एवं रतिलाल बोरीसागर अर्वाचीन गुजराती हास्य व्यंग्य साहित्य पर आलेख। मनोज मोक्षेंद्र का ‘सार्थक व्यंग्य’ पर चिंतन।
मुंबई में हिंदी व्यंग्य का परिदृश्य- के अंतर्गत - करुणाशंकर उपाध्याय, अनंत श्रीमाली एवं सुमितप्रताप सिंह की रपट। यज्ञ शर्मा, सूर्यबाला, अक्षय जैन,घनश्याम अग्रवाल, संजीव निगम, हस्तीमल ‘हस्ती’, कैलाश सेंगर, राजेश विक्रांत, सुभाष काबरा, महेश दुबे, मधुकर गौड़, रोहित शर्मा, सूरज प्रकाश, वागीश सारस्वत, अलका अग्रवाल सिगतिया की व्यंग्य रचनाएं। यज्ञ शर्मा पर विशेष सामग्री कें अंतर्गत - राजेन्द्र सहगल, मधु अरोड़ा, राजेश विक्रांत, दिनेश बावरा, अनंत श्रीमाली एवं सुभाष काबरा। सूर्यबाला के व्यंग्य लेखन पर अरुणेन्द्र नाथ वर्मा का आलेख।
गुजराती व्यंग्य साहित्य के अंतर्गत विनोद भट्ट, निर्मिश ठाकर एवं बोरीलाल सागर की रचनाएं।
त्रिकोणीय में- व्यंग्य उपन्यास ‘अक्कड़-बक्कड़’ पर सुभाष चंदर का आत्मकथ्य। प्रेम जनमेजय, हरीश नवल, सुशील सिद्धार्थ एवं अकबर महफूज के आलेख। ‘अक्कड़-बक्कड़’ का एक अंश।
गद्य व्यंग्य रचनाओं में-शंकर पुणतांबेकर , दिलीप तेतरवे, हरीश नवल, श्रवण कुमार उर्मलिया, किशन लाल शर्मा, निर्मल गुप्त, हरीशकुमार सिंह, सुधा ओम ढींगरा, शम्भु पी. सिंह, नवल जायसवाल , विनोद साव, विश्णु स्वरूप श्रीवास्तव, अशोक मिश्र की रचनाएं।
पद्य व्यंग्य रचनाओं में- दिविक रमेश , ओम वर्मा, संदीप राशिनकर ,श्रीति राशिनकर, मनोकामना सिंह अजय, विज्ञानव्रत, अनिरुद्ध सिन्हा ,दलजीत कौर, कृष्ण कुमार यादव, कुंवर प्रेमिल, सूर्यनारायण गुप्त, मीना अरोड़ा एवं अमृतलाल मदान की रचनाएं।
‘इधर जो मैने पढ़ा’- में ‘मालिश महापुराण’ पर प्रेम जनमेजय, ‘सपनों के सहारे देश’ पर शरद उपाध्याय तथा ‘भूतपूर्व का भूत’ पर अरविंद तिवारी।

शुक्रवार, 26 जून 2015

' व्यंग्य यात्रा ' का 43 वां अंक - 'राग व्यंग्य विमर्श '

मित्रों ,
' व्यंग्य यात्रा ' का 43 वां अंक - 'राग व्यंग्य विमर्श ' प्रेस में चला गया है। इसका मुख्य कवर प्रसिद्द चित्रकार एवं कवि ,केनेडा निवासी , मंजीत चात्रिक की कलाकृति पर आधारित है।
इस अंक में
पाथेय में: 
गोपालप्रसाद व्यास पर रामशरण जोशी, कैलाश वाजपेयी पर दिविक रमेश,
कृष्णदत्त पालीवाल पर हरीश नवल एवं अवधनारायण मुद्गल पर महेश दर्पण
चिंतन मेंः
व्यंग्य तज़मीन - निर्मिश ठाकर। ‘व्यंग्य का मेरा सच’ शिवशंकर मिश्र
जबलपुर में राग व्यंग्य विमर्श
कुंदनसिंह परिहार, रमेश सैनी,रमाकांत ताम्रकर, श्रीकांत चौधरी , संतोष खरे
गंगाचरण मिश्र, आचार्य भागवत दुबे,श्रीराम ठाकुर दादा, अनामिका तिवारी
रामानुज लाल श्रीवास्तव,उपेन्द्र शर्मा,अभिमन्यु जैन,मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’ प्रभात दुबे,
साध्ना उपाध्याय, सुधरानी श्रीवास्तव, कुंवर प्रेमिल, गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त, -विवेक रंजन श्रीवास्तव
त्रिकोणीय में ज्ञान चतुर्वेदी का
व्यंग्य उपन्यास ‘हम न मरब’
प्रभाकर श्रोत्रिय, प्रेम जनमेजय,दिलीप तेतरवे एवं विवेक मिश्र
गद्य व्यंग्य रचनाएं में
शंकर पुणतांबेकर, हरि जोशी, वेदप्रकाश अमिताभ,श्रवण कुमार उमर्लिया, उर्मि कृष्ण
प्रदीप चैबे, मधुसूदन पाटिल, असीम कुमार आंसू, अकबर रिजवी,अलका अग्रवाल सिगतिया,
सुधेश, सुरेश धींगड़ा रामदेव धुरंधर, सूर्यकुमार पांडेय, रामबहादुर चैधरी ‘चंदन’, अभिषेक अवस्थी,
कुलविन्दर सिंह कंग, इन्द्रजीत कौर, मंगल कुलजिन्द, शरद तैलंग, रमाकांत शर्मा, -प्रदीप शशांक
सुभाष काबरा, संजीव निगम, प्रहलाद श्रीमाली, ओमप्रकाश सारस्वत, नीलाभ कुमार, अम्बिका दत्त आदि
पद्य व्यंग्य रचनाएं में
राजरारायण बिसारिया, नरेश शांडिल्य, प्रेमशंकर रघुवंशी, मनोहर पुरी सुभाष रस्तोगी, जयगोपाल मदान
प्राण शर्मा, शिवानंद सहयोगी आरती स्मित, पं. गिरिमोहन गुरू, लोक सेतिया
इधर जो मैंने पढ़ा में
विभारानी, कुलदीप तलवार, सुनीता शानू की कृतियों पर प्रेम जनमेजय एवं सुशील सिद्धार्थ

रविवार, 14 सितंबर 2014

' हिंदी उत्सव ' के ' सुअवसर' पर

मित्रों , कल ' हिंदी उत्सव ' के ' सुअवसर' पर  एक टी वी चैनल में , अनेक भौंडे सौंदर्य प्रसाधनो से सजाकर बाजार में बैठायी गयी हिंदी  के 'शुभचिंतक ' उसके हर ठुमके पर  वाह ! वाह !  कर रहे  थे और करवा रहे थे।  गुलशन नंदा , प्यारेलाल आवारा , ओम प्रकाश शर्मा की  गदगदायी  एवं महावीर प्रसाद द्विवेदी , रघुवीर सरीखी सर पीटती, आत्माएं  विचरण कर रही थी। देख मूर्ख बालक ,बाज़ारू हिंदी ने मुझे कितना दिया , तूं भी हठ छोड़ और मेरे साथ हिंदी के ठुमको की प्रशंसा कर. और देख हिंदी का असली नृत्य यह है , तूं कहाँ शास्त्रीयता के मोह में  फंसा है।  रामू  चल उठ मेरे  साथ चल , और हिंदी को सुन्दर 'रेपर' में  लिपटी  आकर्षक वस्तु  बना और उसे बेच।  तूं  तो चेनई एक्सप्रेस बना  और करोडो कमा , कहाँ दो बीघा ज़मीन, कागज़ के फूल , जागते रहो आदि के  चक्कर में फंसा है। देख तो सही हिंदी का वितरक क्या  कह रहा है -- जो बाजार का इस्तेमाल  कर रहे हैं वही बाजार को गाली  दे रहे हैं  हैं। बाजार ने हमारी झोली भर दी है और मूर्ख उसे गाली  दे रहे हैं। ' हे मूर्ख तूं क्यों समर्थ को गाली दे  रहा है, तेरा जन्म   तो गाली खाने के लिए हुआ है।  समरथ को  कहाँ दोष गोसाईं !   एक कायर -सा क्यों  किसी झोपड़ी में डरा बैठा है और अपने साथ अपनी बूढ़ी  हो चुकी माता को चिपकाये है।  तूं  तो अति सुन्दर , आकर्षक सौतेली माता के पांच सितारा 'सहवास' का आनंद उठा। तूं हिंदी में बेस्ट सेलर रच। तूं तो हमको हिंड्डी नहीं आता , हमारा हिंड्डी अच्छा नई , कहकर गौरवान्वित हो , काहे  यह कहकर शर्मिंदा  होता है कि  तुझे अंग्रेजी भाषा नहीं आती , कि तुझे सरल अंग्रेजी चाहिए, कि  तूं मातृ  भाषा का मास्टर है।      
मित्रों सच ही मुझ जैसे अनेक कायर लादी गयी इस बाजार व्यवस्था का इस्तेमाल करने को विवश हैं , और  इससे 'डर ' कर न केवल सावधान हो रहे हैं अपितु अपनी संतान को भी सावधान कर रहे हैं।    हम बाज़ारू हिंदी की प्रगति के बाधकों के अपराध निश्चित  अक्षम्य हैं। हम अभी भी भाषा को अपनी संस्कृति और साहित्य का वाहक माने  पुरातन मूल्यों से चिपके हैं। 

मंगलवार, 2 सितंबर 2014

 ' व्यंग्य यात्रा ' एक दशक की यात्रा के अंतिम पड़ाव पर है।'शरद जोशी एकाग्र का दूसरा पड़ाव' अंक 39 '

व्यंग्य -बरसात ने दिल तोड़ दिया ...

बरसात ने दिल तोड़ दिया ...

व्यंग्यकार को संपादक जी का फोन आया - हमारे लिए बरसात पर कुछ लिख दीजिए।’
वैसे तो व्यंग्यकार कलम हाथ में गहे , कागद समक्ष रखे तैयार रहता है कि कब संपादक उससे अनुरोध करे और वह तत्काल कुछ भी लिख भेजे। पर व्यंग्यकार तो सन्न था। उसके लिए, बरसात पर कुछ लिख दीजिए जैसा अनुरोध ऐसा ही था जैसे किसी भ्रष्टाचारी से बिना सेवा शुल्क लिए काम करवाने का अनुरोध अथवा हमाम के नंगों से कपड़े पहनकर नहाने का अनुरोध। माना कि व्यंग्यकार तत्काल लिखने में माहिर होता है, रोजाना लिख सकता है पर बरसात जैसे ऐरे- गैरे विषय पर...? व्यंग्यकार तो देश की राजनीति पर ‘गहरी’ व्यंग्यात्मक टिप्पणियां कर सकता है, देश के सेवकों के कैरिकेचर खींच सकता है, टी वी चैनलों की तरह ब्रेकिंग न्यूज को पकड़ कर उसकी चीर फाड़ कर सकता है- बरसात जैसा विषय कोई आधुनिक है ? बरसात पर या तो कवि कलम घिसते हैं या फिर फिल्मी गीतकार... व्यंग्यकार तो नए-नए ताजा विषयों पर अपनी कलम चलाता है, समाज को मार्ग दिखाता है। इतिहास गवाह है कि संपादकों ने भी होली, दिवाली जैसे विशेषांको में व्यंग्यकार को लिखने के लिए कहा है, बरसात, प्रेम विशेषंाक, सैक्स विशेषांक आदि पर नहीं।
इस कारण व्यंग्यकार ने संपादक को एक खुला पत्र लिखा। आप भी पढ़ें।
‘‘प्रिय संपादक
क्या आपको लगता नहीं है कि आप एक व्यंग्यकार के साथ नाइंसाफी कर रहे हैं। एक व्यंग्यकार से उम्मीद कर  रहे हैं कि वह बरसात पर कुछ लिखे। बरसात पर तो कुछ नहीं, बहुत कुछ कहना अधिकांश कवियो / कवयित्रियों / फिल्मी गीतकारों का कॉपीराईट है। बरसात होते ही उनका मन मयूर नाचने लगता है। व्यंग्यकार के मन मे तो चीता होता है जो शिकार देखते ही झपटता है। व्यंग्यकार तो बरसात को देखकर सोचता है कि गड्डों जैसी सड़कों पर पानी भर गया तो वह दफतर कैसे जाएगा। जो सड़क टूटी है उसके ठेके में किसने कितना खाया है। और फिर आपको उम्मीद ही करनी है तो मुंबई के यज्ञ शर्मा जैसे व्यंग्यकारों से करे। दिल्ली में बरसात तो समाज में बची नैतिकता-सी होती है। मैं मुंबईकर नहीं दिल्लीकर हूं, दिल्ली जो भ्रष्टाचार, बलात्कार आदि का केंद्र है। मैं तो नैतिकता, ईमानदारी जैसे सूखे के बारे में ही कुछ कह सकता है। मैं तो  छह बरस की बच्ची हो या साठ बरस की बुढिया, उसके साथ हुए बलात्कार के बारे में कुछ कह सकता हूं, जो बरसात की तरह बरसते हैं। बरसात का तो मौसम होता है, दिल्ली में भ्रष्टाचार, बलात्कार आदि का कोई मौसम नहीं होता, ये तो आम दिन की बात है।  मैं तो आम आदमी का लेखक हूं , आम दिन की बात कही कहूंगा इसलिए हे संपादक, मुझसे कोई उम्मीद न करें तो अच्छा। उम्मीद पर दुनिया जीती है तो उम्मीद के कारण मरती भी है। आपने उत्तराखंड की आपदा से लगता है कुछ नहीं सीखा। सीख जाते तो अनाप-शनाप उम्मीद नहीं करते।
अभी उस दिन झोपड़पट्टी के पास से गुजरा तो यह सुनने को मिला-
हम तो समझे थे कि बरसात में  बरसेगी शराब
आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया।
अब भईए, झोपड़पट्टी में बरसात को बुलाओगे तो दिल टूटेगा ही। शराब बरसानी है तो उसे किसी किंग.. के यहां बुलाओं, किसी आई पी एल शाई पी एल में बुलाओ जहां शराब तो क्या शबाब भी खूब बरसता है। वहां बरसात दिल तोड़ती नहीं जोड़ती है। व्यंग्यकार से उम्मीद मत करो, वो तो लोगों के दिल तोड़ता है। टूटे दिल पर आंसू बहाना, विरहिणी के दुख का लोमहर्षक चित्रण करना व्यंग्यकार का काम नहीं। उसके पास तो स्तंभ लिखने जैसे अनेक महत्वपूर्ण काम है।
    इसलिए गलत उम्मीद न करें ं। अब आप उम्मीद करें कि हमाम में कपड़े पहनकर जाएगे और शर्म नंगों को आएगी तो गलत है। हमाम में तो कपड़े पहनने वाले को ही शर्म आती है।  नंगे से खुदा भी डरता है और इसलिए खुदा हमाम में नहीं मिलता है। सरकार भी एक तरह का हमाम है जिसमें जाते ही अच्छे से अच्छा कपड़े पहनने वाला नंगपन दिखाने लगता है। यही कारण है कि जो भी सरकार बनती है, वह कपड़े उतार देती है। आप उम्मीद करते हैं है कि इस पार्टी की सरकार ने घोटाले कर कर के कपड़े उतार दिए हैं और दूसरी आएगी और वो ये नंगपन नहीं करेगी, तो आप गलत उम्मीद करते हैं।
हे संपादक मैं तो मैं तो भवानीप्रसाद मिश्र से क्षमा याचना सहित कह सकता हूं--
जी हां हुजूर मैं व्यंग्य लिखता हूं /मैं तरह- तरह के व्ंयग्य लिखता हूं /पर बरसात पर व्यंग्य नहीं लिखता हूं।
बरसात पर तो वे लिखते हैं/जो टर्र-टर्र करते हैं? कूंए मेें रहते हैं /मैं तो न कूंए का हूं ,न ही चुनाव का हूं जो मौके पर ही टर्राउं/ फिर अपनी टर्राहट भूल जाउं।
इसलिए हुजूर मैं बस व्यंग्य लिखता हूं /मैं तरह -तरह के व्यंग्य लिखता हूं।
बरसात प्रेमिका की तरह बरसे तो फुहार लाती है। पत्नी की तरह बार-बार बरसे तो बाढ़ लाती है/
मैं न तो प्रेमिका हूं और न ही पत्नी ।
हुजूर मैं तो बस व्यंग्य लिखता हूं तरह तरह के व्यंग्य लिखता हूं।’
 संपादक ने लौटती डाक से लिखा-
हे प्रिय व्यंग्यकार, चुनाव पास आने को हैं, लगता है तुम भी ‘आम आदमी’ की बात करते-करते आम आदमी की तरह चुनाव लड़ने वाले हो। चुनाव के लिए पहला पाठ तुमने पढ़ ही लिया है। दोगली बातें करने लगे हो। कहते हो बरसात पर व्यंग्य नहीं लिखता और हमें ही बरसात पर व्यंग्य पेल  गए।’ 
व्यंग्यकार ने लिखा --अब मैं क्या कहूं?  मैं तो इतना ही कह सकता हूं मेरे संपादक -
आपको प्यार है कि मुझसे नहीं है मुझसे
जाने क्यों ऐसे सवालात ने दिल तोड़ दिया ।
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