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मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

कल शाम सूरज मेरे घर में था

आप सब लोग उगते सूरज को भलि भांति जानते होंगें जो रोज सुबह आपके दरवाजे पर दस्तक देता है आपको अहसास दिलाता है कि सुबह हो गई और आप कर्मशील हो जाएं। मैं उस सूरज को भी जानता हूं जो अपनी कर्मशीलता के चलते आपकोे संवेदनशील अहसास दिलाता है और किसी भी शाम को उदय हो कर आपकी शाम को सक्रिय कर सकता है। यदि आप साहित्य की दुनिया के विद्यार्थीं हैं तो कथाकार सूरज को भी जानते होंगें जो अपनी रचनाशीलता के माध्यम से आपकी दुनिया में दस्तक दे कर इस बात का अहसास दिलाता रहता है कि इस सूरज के कितने टुकड़े आपके जीवन को कर्मशील दुनिया से परिचित करवाते हैं। मुझे अच्छा लगा जब वो सूरज सात अप्रैल की शाम मेरे घर आया और जिसके वशीकरण में फंसे मेरे अनेक मित्र मेरे घर एक रचनात्मक शाम सक्रिय कर गए। यदि आप सूरज प्रकाश और उसकी पत्नी मधु से नहीं मिले हैं तो मिल लें और इस अपरिचित दुनियां में कुछ पल आत्मीयता के महसूस कर लें।
सूरज प्रकाश जिसने अपनी कहानियों और व्यंग्य के माध्यम से ने केवल बेहतरीन कृतियां हिंदी जगत को दी हैं अपितु श्रेष्ठ अनुवादों के माध्यम से अंग्रेजी, गुजराती आदि भाषाओं की बेहतरीन कृतियों से हिंदी जगत का परिचय करवाया है। ये वही सूरज है जिसने श्रेष्ठ व्यंग्यकार चार्ली चैप्लन की आत्मकथा से हिंदी पाठकों को परिचित करवाया है। सूरज प्रकाश नामक इस साहित्यकार का अपना ब्लाॅग है।
साहित्य के ऐसे समय में जब प्रायोजित गोष्ठियां महत्वपूर्ण हो रही हैं, सूरज के कारण मेरे घर में एक अनौपचारिक गोष्ठी महत्वपूर्ण हो गई।मेरे एक बुलावे पर प्रताप सहगल और उसकी पत्नी शशि सहगल, हरीश नवल, अविनाश वाचस्पति आए और एक अनौपचारिक गोष्ठी को सार्थक कर गए।हरीश ने स्नेह सुधा नवल के नव प्रकाशित काव्य संग्रह ‘वसंत तुम कहांे हो’ से खूबसूरत कविताएं पढ़ीं, शशि सहगल ने अपनी कविताएं सुनाईं तथा सूरज ने, ऐसे समय में जब राजनीति में जूता महत्वपूर्ण हो गया है, अपना व्यंग्य ‘बात जूतों की’ पढ़ा।साहित्य में व्यापक होती ‘एकरसता’ पर अपनी चिंताएं व्यक्त कीं तथा एक अनौपचारिक वातावरण में अपनी औपचारिक चिंताएं बांटी। बहुत आवश्यक्ता है जीवन में इस अनौपचारिकता की। और यह अनौपचारिकता बिना किसी धृतराष्ट्री मुद्रा के ग्रहण की जा सकती है।
जैसे-जैसे परिवहन साधनों का विकेास हुआ है, हम में से अधिकांश निराकार से सकार हो गए हैं, वैसे-वैसे हमारे एक-दूसरे से मिलने के अवसर कम हो गए है। किसी चाय की दूकान पर, किसी काॅफी हाउस में अथवा किसी ढाबे पर बैठ कर दूसरे से संवाद करना हमें अच्छा नहीं लगता है। साहित्यिक जगत में तो हम एक दूसरे से मिलने की अपेक्षा एक-एक से मिलने में यकीन करते है। हम ‘एकमात्र’ सज्जनों से मिलते हैं क्योंकि हमारा यकीन है कि दूसरी बात कहने वाला ‘दूसरा’, दुर्जन है। हम एकालाप में विश्वास करने लगे हैं न कि संवाद में। मुझे लगता है कि संवादहीन तथा एकपक्षीय होते साहित्यिक वातावरण में ऐसी बैठकें एक महत्वपूर्ण संदेश देती हैं और गुटीय पक्षधरता के कारण बहरे होते साहित्यिक जगत में अपनी बात कहती हैं।
इस शाम मैं परेशान हुआ, अपने लेखन के प्रति उदासीन होते सूरज का पा कर। उसे लगता है कि जैसे वो चुक गया है और उसके लेखन का कोई अर्थ नहींे रह गया है। प्रायोजित एवं एकपक्षीय जमावड़ों के अंधेरों से को लगातार बढ़ता देख सूरज जैसे उब गया है और इस अंधेर से लड़ने की अपेक्षा अपनी सक्रियता से पलायन कर रहा है। उसे समझ नहीं आ रहा है कि वो क्यों लिखे। उसे समझ नहीं आ रहा है कि यदि उसके पास स्वयं को प्रायोजित करवाने के ललचाते हथियार नहीं हैं तो उसके लेखन के प्रति उपेक्ष दष्टि क्यों है? वो जयशंकर ‘प्रसाद’ की पंक्तियां गुनगुना रहा है- ले चल मुझे भुलावा दे कर मेरे नाविक धीरे-धीरे। इससे पहले की यह गुनगुनाहट समूहगान में बदल जाए, आवश्यक्ता है उस दिशा की जहां से उदित होने के बाद सूरज को किसी अंधेरे की गोद में उतरने के लिए विवश न होना पड़े। मुझे विश्वास है कि अनौपचारिक पलों में सूरज उर्जा ग्रहण कर सकता है और निष्क्रियता के ग्रहण से मुक्त हो सकता है।