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मंगलवार, 10 मार्च 2009

व्यंग्य - होली का महिलाकरण

होली का महिलाकरण

मेरी एक पत्नी है। एक मेरी पत्नी है। मेरी पत्नी भी एक ही है। मित्रों मैं अपनी पत्नी की कैसे भी व्याख्या करूं, उसमें ‘एक’ शब्द आएगा ही। दूसरा या दूसरी शब्द लाने का मुझमें साहस नहीं है। मेरे एक लेक्चरर मित्र इन दिनों अपने बड़े हुए वेतन से बहुत प्रसन्न हैं। उनका कहना है कि वेतन आयोग ने हम मास्टरों के वेतन इतने बड़ा दिए हैं कि इस मंदी में भी अब हम दूसरी रखने की सोच सकते हैं। मेरा भी वेतन बड़ा है पर साहस नहीं बड़ा है। मेरा साहस सदा मंदी की गिरफत में रहा है। इस मामले में आप मुझे कायर, डरपोक आदि कुछ भी कह सकते हैं। मेरे घर में प्रजातंत्र है और इस प्रजातंत्र में मेरी पत्नी सदैव सत्ता -पक्ष ही रही है। मैं विरोधी दल का तो हूं पर जैसे पार्टी हाई कमांड के सामने, वि’ोषकर कांग्रेस हाई कमान के सामने, आप कोई विरोध दर्ज नहीं कर सकते हैं और करें तो नतीजे भुगतने पड़ते हंै, वैसा ही मेरा विरोध का स्वर है। हमारे बीच तूं -तूं मैं-मैं का रिश्ता नहीं है, हां और न का रिश्ता है। मेरी हर हां पर उसकी नंा होती है और नां पर हां होती है। मेरी हर बात का जवाब उसकी ‘नहीं..ई’से शुरु होता है।वो एकला चलो के नहीं उल्टा चलो के सिद्धांत पर वि’वास करती है। मेरी सदा को’िा’ा रहती है कि मैं कुछ ऐसा करूं कि जिसका उलटा वो न सोच सके पर बलिहारी प्रभु अपने, उसे ऐसी बुद्धि दी है कि तत्काल उलट वार करती है। उसकी इस उलटवार प्रतिभा से प्रभावित हो कर अनेक विरोधी दल के नेता मेरी पत्नी से प्र’िाक्षण लेने के लिए पिछले दरवाजे से आते हैं।
इस बार होली पर मैंनें उसकी उलटचाल प्रवृत्ति को चुनौती देने के लिए पासा फेंका- इस बार हमारे बेटे- बहू कि पहली होली है, इस बार होली का दिन बड़ा मस्त मनाएंगें।’
मुझे उम्मीद थी कि मेरे इस प्रस्ताव के विरुद्ध मेरी पत्नी के पास कोई उलट -वार न होगा पर मेरी पत्नी ने शतरंजी घोड़े की ढाई चाल चलते हुए कहा- नहीं...इ...इ इस बार हम मस्ती से अंतर्राष्टीय महिला दिवस मनाएंगें। तुम बाप-बेटे ने घर में मुझे अकेली के होने का लाभ उठाकर बहुत मनमानी कर ली है अब बहू के आने से हम दो-देा की बराबरी पर आ गए हैं, अब हम महिलाओं की चलेगी।’
आप तो जानते ही हैं कि क्योंकि वो महिला है इसलिए मेरी पत्नी है या फिर कह सकते हैं कि क्योंकि मेरी पत्नी है इसलिए महिला है। आपकी मुस्कान सही फरमा रही हैं कि आजकल आव’यक नहीं कि जो आपकी पत्नी हो वो महिला ही हो। पर मैंनें कहा न कि मैं साहसी नहीं हूं इस लिए जैसे लोग गैर सरकारी संस्थाओं का साहसपूर्ण सदुपयोग कर लेते हैं मैं गैरमहिला का पत्नी के रूप में साहसपूर्ण सदुपयोग नहीं कर पाता हूं।
मैंनें साहस कर के पूछा- अंतर्राष्टीय महिला दिवस ! वो कब है? और उसमें मनाने को क्या है?
- मैं जानती थी कि आप जैसे महिला-विरोधी पुरुषों को ध्यान भी न होगा कि अंतर्राष्ट्रीय महिला नाम का कोई दिवस भी होता है। श्रीमान पुरुषदेव, इस बार ये आपकी होली से दो दिन पहले है और आपकी होली तो केवल उत्तर भारत में ही मनाई जाती है, ये पूरे संसार में मनाया जाता है।’
- होली के दिन तो हम रंग खेलते हैं इस दिन आप लोग क्या खेलते हैं?
- इस दिन पूरे संसार में महिला स’ाक्तिकरण के नारे लगाए जाते हैं, सेमिनार होते हैं...
-- यानि इस दिन सेमिनार- सेमिनार खेला जाता है। संस्थाओं को अपना पुराना बजट खत्म करने और नया बनाने का सुअवसर दिया जाता है, महिलाओं को कुछ लाॅलीपाॅप थमाए जाते हैं जिसे वे चूसती रहें तथा अपनी प्रगति का भ्रम पाले रहें और...
- और पुरुषों के पेट में दर्द होता है... आप लोग तो औरत की तरक्की बर्दा’त नहीं कर सकते हो... आप तो चाहते ही नहीं हो कि पूरे साल में कम से कम एक दिन ऐसा जिस दिन औरतों पर कोई बात हो सके...’’ मैंनें देखा धीरे-धीरे वो दुर्गा की मुद्रा में आ रही है। होली से पहले ही रंग में भंग न पड़ जाए इसलिए मैंनें अपने समस्त हथियार डालते हुए कहा- ठीक है देवी इस बार हम अतर्राष्टी्रय महिला दिवस मनाएंगें, होली की मस्ती नहीं मनाएंगें।’
मेरी बात से सहमत हो जाए वो मेरी पत्नी नहीं, उसका तो स्वर्णिम वाक्य है- विरोधमय जयते, इसलिए उसने तत्काल असहमती जताते हुए कहा-होली की मस्ती क्यों नहीं होगी? हमारे बच्चों की पहली होली है, हम क्यों नहीं मनाएंगें?’’
मैंनें हाई कमान के सामने समस्त हथियार डालते हुए कहा- पर कैसे, देवी?
उसने जालिम मुस्कान बिखेरी और बोली- हम हेाली का महिलाकरण करेंगें... समझे?’
इससे पहले कि मैं अपनी नासमझी की व्याख्या करता वो चल दी।
अब ये होली का महिलाकरण क्या होता है, आप भी सोचिए। आप तो जानते ही हैं कि महिलाओं से जुड़े सवाल कितने पेचीदगी से भरे होते हैं, इतने पेचीदगी से भरे कि उन्हें देवता भी नहीं समझ पाए मनुष्य की क्या औकात है। अगर पेचीदगी से भरे न होते तो इतने अंतर्राष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय महिला दिवस आए और चले गए पर महिलाओं को संसद में आरक्षण देने का बिल अभी तक बिल में ही पड़ा हुआ है। मैं तो इस बार भुगत कर अगले वर्ष ही उत्तर दे सकूंगा कि होली का महिलाकरण कैसे हुआ पर यदि आप भुक्तभोगी हैं तो आप मुझे इस बार ही समझा दें जिससे मैं होली पर सुरक्षा- कवच धारण का सकूं।
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सोमवार, 9 मार्च 2009

व्यंग्य--मेरे स्लमडाॅग जीजाजी

मेरे स्लमडाॅग जीजाजी
0प्रेम जनमेजय
पहले मैं अपने जीजाजी को जोरू का गुलाम कहती थी क्योंकि उन दिनों जोरू का गुलाम फिल्म हिट हुई थी और मेरे जीजाजी में उस हिट फिल्म के सभी गुण थे। अब स्लमडाॅग हिट हुई है और मुझे लगता है कि इस नाम के जितने हकदार मेरे जीजाजी हैं उतना इस स्लम में रहने वाले, कुत्तामाफक जिंदगी जीने वाले ‘इंसान’ नहीं हैं। स्लम मे रहने वालों की तो मजबूरी है कि वे बदबूदार जिंदगी जीएं क्योंकि वे पैदा ही बदबू में हुए हैं । जैसे हमारे प्रजातंत्र की व्याख्या है- जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा वैसे ही मेरे देश के अमीरजन, प्रजातंत्र के इन गंदी नाली के कुत्तों की व्याख्या इस तरह करते है- गंदी नाली के, गंदी नाली के लिए और गंदी नाली के द्वारा।
मेरे जीजाजी में स्लमडाॅग के सभी गुण विद्यमान् हैं। कुछ स्लमडाॅग होकर करोड़पति होते हैं और कुछ करोड़पति पत्नी के सहर्ष स्लमडाॅग होने के लिए विवाह का गेम खेलते हैं और ‘जय हो, जय हो’ के गीत गाते हैं। पत्नी क्या, ऐसे सम्माननीय जीव किसी भी पैसे वाले के लिए सहर्ष स्लमडाॅग बन जाने को जीभ लपलपाते पाए जाते हैं।
वैसे अगर सिर्फ स्लमडाॅग शब्द होता तो मैं अपने जीजाजी को कभी स्लमडाॅग नहीं कहती, पर इस शब्द के साथ जो मिलेनियर यानी करोड़पति शब्द लगा हुआ है उससे स्लम शब्द भी अत्यधिक मूल्यवान हो गया है। कुछ भी कहिए जनाब अंग्रेजी भाषा में जो इज्जत है वो हिंदी में कहां? अंग्रेजी में कोई गाली भी दे तो ऐसी लगती है जैसे होली पर ‘गोरी’ की गाली। लगता है जैसे गोरे -गोरे हाथों से किसी ने बदबूदार गालों पर गुलाल मल दिया हो। गाली तो ‘गोरी’ ही की आनंद देती है, काली गाली ने कभी किसी को आनंद दिया है? आपने कभी सुना कि श्याम ने गोरी राधा को गाली दी हो? गाली तो श्याम को गोरी ही देती है। हम श्यामवर्णी भी तो बरसों बरस गोरी की गालियां खाते रहे है। अब आप किसी को केवल गंदी नाली का कुत्ता, कीड़ा आदि आदि कहकर देखिए, कैसे काटने को दौड़ेगा पर उसी कुत्ते को हड्डी दे दीजिए वो आप को कुछ नही कहेगा, मजे से हड्डी के बहाने अपना खून चूसेगा और आपको आदरणीय दृष्टि से देखेगा। आप उसका कितना अपमान कर लें, उसका मजाक उड़ा लें पर वो इसे भी अपना सम्मान समझेगा और आपके मजाक का आनंद लेते हुए हंस देगा। अब इस देश के वासियों को भी तो आॅस्कर की हड्डी मिल गई है और वो खुश हैं। ऐसे ही मेरे जीजाजी को भी मेरी दीदी के नाम का दो करोड़ का मकान मिल गया तो उन्हें किसी भी नाम से पुकार लो वो बस हंस देते हैं। वे संतोषी जीव हो गए हैं और उनका सारा जीवन दर्शन एक हड्डी में सिमट गया है। हड्डी केवल कुत्तों की नहीं इंसानों की भी सहनशीलता बड़ाती है।
मेरे जीजाजी सच्चे स्लमडाॅग हैं, कोई फिल्मी डाॅग नहीं हैं। स्लमडाॅग करोड़पति फिल्म का डाॅग तो कटखना है पर मेरे जीजाजी गाय के माफिक गउ- डाॅग हैं। स्लमडाॅगीय हीरो आत्मस्वाभीमान के लिए तो खून भी करता है पर मेरे जीजाजी खून देखकर बेहोश हो जाते हैं। उनके मुंह से केवल कउं कउं की आवाज ही सुनी है, कभी भौं भौं की नहीं सुनी है। उस दिन अपने नेताजी भी यही कह रहे थे कि राजनीति में आजकल तो ऐसी वफादार ब्रीड देखने तक को नहीं मिलती है। वो भी क्या दिन थे कि एक आध हड्डी डाल दो तो पूंछ हिलाते वफादार कोने में पड़े रहते थे पर अब तो ऐसे कटखने हो गए हैं कि भेडि़यों की तरह फाड़ डालने की फिराक में रहते हैं। ऐसे प्यारे-प्यारे जीजाजी के साथ किस साली को होली खेलने में आनंद नहीं आएगा। मेरे जीजाजी तो होली खेलते समय भी इस बात का पूरा ध््यान रखते हैं कि निगाह चोली पर नहीं चप्पल पर रहे। बड़ी इज्जत वाली होली खेलते हैं मेरे जीजाजी। वो और सालियां होंगी जिनके जीजा होली के बहाने उनसे मजे ले लेते हैं, मैं तो वो सालीजी हूं जो अपनी शर्तोंं पर होली के मजे लेती है। आजकल मेरे जैसे मजे विश्व के धनी देश स्लमडाॅग देखकर ले रहे हैं और ये सोचकर प्रसन्न हो रहे हैं कि उनके देश में कितनी ही मंदी क्यों न हो और भारत ने चाहे कितनी ही तरक्की की हो पर स्लमडाॅग तो भारत की ही शोभा बढ़ा रहे हैं। उनके देश में स्लम तो है पर उसमें कुत्ते नहीं पलते हैं, क्योंकि वो पलने ही नहीं देते । अपना स्लम ये अमीर देश गरीब देशों को दान - दक्षिणा के रूप में देते रहते हैं । वैसे आपने देखा ही होगा कि पिछले कुछ वर्षों में हमने कितनी तरक्की कर ली है, हमारी जी डी पी कितनी बड़ गई है- हमारी तो गरीबी भी करोड़ों के भाव बिकती है और हमें अंतराष्ट्रीय ईनाम दिलाती है।
इस बार हमारे परिवार की महिलाओं ने सोचा कि इस होली पर पुरुषों की स्लमडाॅगीय ‘होली’ प्रतियोगिता हो जाए। आप को बताने की आवश्यक्ता नहीं है कि हमारे परिवार में सोचने का काम पत्नी करती है, और अधिकांश पति फल की चिंता में कर्म करते हैं। वैसे, इस बार होली से पहले अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है अतः होली पर वो ही होना चाहिए जो महिलाएं चाहें।
पुरुषों की स्लमडाॅगीय प्रतियोगिता एकदम लीक से हटकर और मनोरंजक होने वाली है। इसके लिए बाकायदा जानकार लोगों की सलाह ली जा रही है। भांति-भांति के बदबूदार कीचड़ एकत्र किए जा रहे हैं । कीचड़ क्यों ? मित्रों, प्रतियोगिता के लिए। और प्रतियोगिता यह होगी कि जो भी पुरुष भांति- भांति के बदबूदार कीचड़ों को सफलतापूर्वक पार कर के जितना लथपथ और बदबूदार आएगा वो ही विजयी होगा। हमारी तैयारियों के दौरान एक समस्या आई कि इन कीचड़ों में बदबू पैदा करने के लिए बदबूदार इत्र कहां से लाया जाए? हमने पूरी मार्केट छान ली पर बाजारवाद के इस युग में हमें ऐसा इत्र नहीं मिला जो मल-मूत्र आदि की गंध दे। हमने सूअरों की काॅलोनी में चुनाव की तैयारी में मस्त कुछ संतों से भी पता किया पर पता यह चला कि वो गंदगी के प्राकृतिक रूप में विश्वास करते हैं। अब हमने बदबूदार इत्र के निर्माण की व्यवस्था कर ली है और हमें विश्वास है कि स्लमडाॅग फिल्म की सफलता के कारण इनका भी बाजार बनेगा। इस समय हमारा शोध चल रहा है कि बाजार को किस तरह की बदबूदार सुगंधित इत्र की आवश्यक्ता होगी। आप भी कभी अपने घर की खुशबू से उक्ता जाएं और आपको स्लम जैसी ‘सुगंध’ की तड़प पैदा हो या पिफर ईलीट क्लास की देखा देखी आपमें भी गंदी नाली के कीड़ों के प्रति प्रेम भाव पैदा हो तो आप हमसे सीधे ‘सूअर ब्रांड’ इत्र मंगा सकते हैं। ये इत्र आपको मल-मूत्र की प्राकृतिक सुगंध देगा। इस इत्र को लगाने से आप स्लम में रहने के आदी हो जाएंगें और सूअर की तरह संतई स्वभाव को प्राप्त करेंगें।
इस प्रतियोगिता में कौन विजयी हुआ इसकी रिपोर्ट तो मैं आपको अगली होली पर ही दे सकती हूं। अगली होली तक तो ये भी पता चल जाएगा कि भारतीय राजनीति के चुनावी -स्लम से निकलकर कौन-कौन ... आपकी सेवा में प्रस्तुत होते हैं। आम चुनाव में कोई भी जीते पर मुझे पूरा विश्वास है कि इस होली की आगामी प्रतियोगिता में मेरे जीजाजी ही जीतेंगें। आप भी मेरे साथ गाएं - जय हो, जय हो।

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‘नई दुनिया’ के 8 मार्च,2009 अंक में प्रकाशित