पिछले माह पेज देखे जाने की संख्या

रविवार, 14 सितंबर 2014

' हिंदी उत्सव ' के ' सुअवसर' पर

मित्रों , कल ' हिंदी उत्सव ' के ' सुअवसर' पर  एक टी वी चैनल में , अनेक भौंडे सौंदर्य प्रसाधनो से सजाकर बाजार में बैठायी गयी हिंदी  के 'शुभचिंतक ' उसके हर ठुमके पर  वाह ! वाह !  कर रहे  थे और करवा रहे थे।  गुलशन नंदा , प्यारेलाल आवारा , ओम प्रकाश शर्मा की  गदगदायी  एवं महावीर प्रसाद द्विवेदी , रघुवीर सरीखी सर पीटती, आत्माएं  विचरण कर रही थी। देख मूर्ख बालक ,बाज़ारू हिंदी ने मुझे कितना दिया , तूं भी हठ छोड़ और मेरे साथ हिंदी के ठुमको की प्रशंसा कर. और देख हिंदी का असली नृत्य यह है , तूं कहाँ शास्त्रीयता के मोह में  फंसा है।  रामू  चल उठ मेरे  साथ चल , और हिंदी को सुन्दर 'रेपर' में  लिपटी  आकर्षक वस्तु  बना और उसे बेच।  तूं  तो चेनई एक्सप्रेस बना  और करोडो कमा , कहाँ दो बीघा ज़मीन, कागज़ के फूल , जागते रहो आदि के  चक्कर में फंसा है। देख तो सही हिंदी का वितरक क्या  कह रहा है -- जो बाजार का इस्तेमाल  कर रहे हैं वही बाजार को गाली  दे रहे हैं  हैं। बाजार ने हमारी झोली भर दी है और मूर्ख उसे गाली  दे रहे हैं। ' हे मूर्ख तूं क्यों समर्थ को गाली दे  रहा है, तेरा जन्म   तो गाली खाने के लिए हुआ है।  समरथ को  कहाँ दोष गोसाईं !   एक कायर -सा क्यों  किसी झोपड़ी में डरा बैठा है और अपने साथ अपनी बूढ़ी  हो चुकी माता को चिपकाये है।  तूं  तो अति सुन्दर , आकर्षक सौतेली माता के पांच सितारा 'सहवास' का आनंद उठा। तूं हिंदी में बेस्ट सेलर रच। तूं तो हमको हिंड्डी नहीं आता , हमारा हिंड्डी अच्छा नई , कहकर गौरवान्वित हो , काहे  यह कहकर शर्मिंदा  होता है कि  तुझे अंग्रेजी भाषा नहीं आती , कि तुझे सरल अंग्रेजी चाहिए, कि  तूं मातृ  भाषा का मास्टर है।      
मित्रों सच ही मुझ जैसे अनेक कायर लादी गयी इस बाजार व्यवस्था का इस्तेमाल करने को विवश हैं , और  इससे 'डर ' कर न केवल सावधान हो रहे हैं अपितु अपनी संतान को भी सावधान कर रहे हैं।    हम बाज़ारू हिंदी की प्रगति के बाधकों के अपराध निश्चित  अक्षम्य हैं। हम अभी भी भाषा को अपनी संस्कृति और साहित्य का वाहक माने  पुरातन मूल्यों से चिपके हैं। 

मंगलवार, 2 सितंबर 2014

 ' व्यंग्य यात्रा ' एक दशक की यात्रा के अंतिम पड़ाव पर है।'शरद जोशी एकाग्र का दूसरा पड़ाव' अंक 39 '

व्यंग्य -बरसात ने दिल तोड़ दिया ...

बरसात ने दिल तोड़ दिया ...

व्यंग्यकार को संपादक जी का फोन आया - हमारे लिए बरसात पर कुछ लिख दीजिए।’
वैसे तो व्यंग्यकार कलम हाथ में गहे , कागद समक्ष रखे तैयार रहता है कि कब संपादक उससे अनुरोध करे और वह तत्काल कुछ भी लिख भेजे। पर व्यंग्यकार तो सन्न था। उसके लिए, बरसात पर कुछ लिख दीजिए जैसा अनुरोध ऐसा ही था जैसे किसी भ्रष्टाचारी से बिना सेवा शुल्क लिए काम करवाने का अनुरोध अथवा हमाम के नंगों से कपड़े पहनकर नहाने का अनुरोध। माना कि व्यंग्यकार तत्काल लिखने में माहिर होता है, रोजाना लिख सकता है पर बरसात जैसे ऐरे- गैरे विषय पर...? व्यंग्यकार तो देश की राजनीति पर ‘गहरी’ व्यंग्यात्मक टिप्पणियां कर सकता है, देश के सेवकों के कैरिकेचर खींच सकता है, टी वी चैनलों की तरह ब्रेकिंग न्यूज को पकड़ कर उसकी चीर फाड़ कर सकता है- बरसात जैसा विषय कोई आधुनिक है ? बरसात पर या तो कवि कलम घिसते हैं या फिर फिल्मी गीतकार... व्यंग्यकार तो नए-नए ताजा विषयों पर अपनी कलम चलाता है, समाज को मार्ग दिखाता है। इतिहास गवाह है कि संपादकों ने भी होली, दिवाली जैसे विशेषांको में व्यंग्यकार को लिखने के लिए कहा है, बरसात, प्रेम विशेषंाक, सैक्स विशेषांक आदि पर नहीं।
इस कारण व्यंग्यकार ने संपादक को एक खुला पत्र लिखा। आप भी पढ़ें।
‘‘प्रिय संपादक
क्या आपको लगता नहीं है कि आप एक व्यंग्यकार के साथ नाइंसाफी कर रहे हैं। एक व्यंग्यकार से उम्मीद कर  रहे हैं कि वह बरसात पर कुछ लिखे। बरसात पर तो कुछ नहीं, बहुत कुछ कहना अधिकांश कवियो / कवयित्रियों / फिल्मी गीतकारों का कॉपीराईट है। बरसात होते ही उनका मन मयूर नाचने लगता है। व्यंग्यकार के मन मे तो चीता होता है जो शिकार देखते ही झपटता है। व्यंग्यकार तो बरसात को देखकर सोचता है कि गड्डों जैसी सड़कों पर पानी भर गया तो वह दफतर कैसे जाएगा। जो सड़क टूटी है उसके ठेके में किसने कितना खाया है। और फिर आपको उम्मीद ही करनी है तो मुंबई के यज्ञ शर्मा जैसे व्यंग्यकारों से करे। दिल्ली में बरसात तो समाज में बची नैतिकता-सी होती है। मैं मुंबईकर नहीं दिल्लीकर हूं, दिल्ली जो भ्रष्टाचार, बलात्कार आदि का केंद्र है। मैं तो नैतिकता, ईमानदारी जैसे सूखे के बारे में ही कुछ कह सकता है। मैं तो  छह बरस की बच्ची हो या साठ बरस की बुढिया, उसके साथ हुए बलात्कार के बारे में कुछ कह सकता हूं, जो बरसात की तरह बरसते हैं। बरसात का तो मौसम होता है, दिल्ली में भ्रष्टाचार, बलात्कार आदि का कोई मौसम नहीं होता, ये तो आम दिन की बात है।  मैं तो आम आदमी का लेखक हूं , आम दिन की बात कही कहूंगा इसलिए हे संपादक, मुझसे कोई उम्मीद न करें तो अच्छा। उम्मीद पर दुनिया जीती है तो उम्मीद के कारण मरती भी है। आपने उत्तराखंड की आपदा से लगता है कुछ नहीं सीखा। सीख जाते तो अनाप-शनाप उम्मीद नहीं करते।
अभी उस दिन झोपड़पट्टी के पास से गुजरा तो यह सुनने को मिला-
हम तो समझे थे कि बरसात में  बरसेगी शराब
आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया।
अब भईए, झोपड़पट्टी में बरसात को बुलाओगे तो दिल टूटेगा ही। शराब बरसानी है तो उसे किसी किंग.. के यहां बुलाओं, किसी आई पी एल शाई पी एल में बुलाओ जहां शराब तो क्या शबाब भी खूब बरसता है। वहां बरसात दिल तोड़ती नहीं जोड़ती है। व्यंग्यकार से उम्मीद मत करो, वो तो लोगों के दिल तोड़ता है। टूटे दिल पर आंसू बहाना, विरहिणी के दुख का लोमहर्षक चित्रण करना व्यंग्यकार का काम नहीं। उसके पास तो स्तंभ लिखने जैसे अनेक महत्वपूर्ण काम है।
    इसलिए गलत उम्मीद न करें ं। अब आप उम्मीद करें कि हमाम में कपड़े पहनकर जाएगे और शर्म नंगों को आएगी तो गलत है। हमाम में तो कपड़े पहनने वाले को ही शर्म आती है।  नंगे से खुदा भी डरता है और इसलिए खुदा हमाम में नहीं मिलता है। सरकार भी एक तरह का हमाम है जिसमें जाते ही अच्छे से अच्छा कपड़े पहनने वाला नंगपन दिखाने लगता है। यही कारण है कि जो भी सरकार बनती है, वह कपड़े उतार देती है। आप उम्मीद करते हैं है कि इस पार्टी की सरकार ने घोटाले कर कर के कपड़े उतार दिए हैं और दूसरी आएगी और वो ये नंगपन नहीं करेगी, तो आप गलत उम्मीद करते हैं।
हे संपादक मैं तो मैं तो भवानीप्रसाद मिश्र से क्षमा याचना सहित कह सकता हूं--
जी हां हुजूर मैं व्यंग्य लिखता हूं /मैं तरह- तरह के व्ंयग्य लिखता हूं /पर बरसात पर व्यंग्य नहीं लिखता हूं।
बरसात पर तो वे लिखते हैं/जो टर्र-टर्र करते हैं? कूंए मेें रहते हैं /मैं तो न कूंए का हूं ,न ही चुनाव का हूं जो मौके पर ही टर्राउं/ फिर अपनी टर्राहट भूल जाउं।
इसलिए हुजूर मैं बस व्यंग्य लिखता हूं /मैं तरह -तरह के व्यंग्य लिखता हूं।
बरसात प्रेमिका की तरह बरसे तो फुहार लाती है। पत्नी की तरह बार-बार बरसे तो बाढ़ लाती है/
मैं न तो प्रेमिका हूं और न ही पत्नी ।
हुजूर मैं तो बस व्यंग्य लिखता हूं तरह तरह के व्यंग्य लिखता हूं।’
 संपादक ने लौटती डाक से लिखा-
हे प्रिय व्यंग्यकार, चुनाव पास आने को हैं, लगता है तुम भी ‘आम आदमी’ की बात करते-करते आम आदमी की तरह चुनाव लड़ने वाले हो। चुनाव के लिए पहला पाठ तुमने पढ़ ही लिया है। दोगली बातें करने लगे हो। कहते हो बरसात पर व्यंग्य नहीं लिखता और हमें ही बरसात पर व्यंग्य पेल  गए।’ 
व्यंग्यकार ने लिखा --अब मैं क्या कहूं?  मैं तो इतना ही कह सकता हूं मेरे संपादक -
आपको प्यार है कि मुझसे नहीं है मुझसे
जाने क्यों ऐसे सवालात ने दिल तोड़ दिया ।
0000000000000000000