पिछले माह पेज देखे जाने की संख्या

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

‘हिंदी दिवस’ या ‘पंडा दिवस’

हिंदी दिवस पर नई दुनिया के 14 सितंबर अंक में प्रकाशित श्री आलोक मेहता की विशेष टिप्पणी ‘हिंदी दिवस के विरुद्ध’ पर प्रेम जनमेजय की टिप्पणी आलोक मेहता जी, ‘हिंदी दिवस’ पर आज की नई दुनिया में प्रकाशित अपकी विशेष टिप्पणी, ‘हिंदी दिवस के विरुद्ध’ से मैं पूरी तरह आपसे सहमत हूं और हिंदी के सरकारीकृत हिंदी विकास के सही चेहरे को सामने लाने के लिए आपको बधाई देता हूं। आपने सही सवाल उठाया है ‘ ... हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह और महीने के तमाशे पर करोड़ों रुपए बहाने वालों के विरुद्ध मोर्चा क्यों नहीं बनता?’ आप तो जानते ही हैं कि हमारी सामयिक व्यवस्था में वही सबल है जिसके पास अर्थ का बल है। यही कारण है कि पांच रुपए की चोरी करने वाला पुलिस के डंडे खाता है और पंाच सौ करोड़ की चोरी करने वाला किसी नायक-सा प्रचार पाता है और जेल में वी आई पी होने का सुख भोगता है। जिनके पास करोड़ों रुपए बहाने के साधन हैं उनके विरुद्ध स्वर उठाने वालों के पास बस शब्द हैं। मैं हिंदी दिवस को पंडा दिवस कहता हूं। हिंदी दिवस आते ही हिंदी के घाट पर संतों की भीड़ लग जाती है, चंदन घिसे और लगाए जाते हैं और दक्षिणा देने और लेने का स्वर्गिक सुख उठाया जाता है। आप तो जानते ही हैं कि वो चाहे श्राद्ध का पखवाड़ा हो या नवरात्र के नौ दिन, चांदी तो पंडों की ही कटती है। जैसे हमारे प्रजातंत्र की व्याख्या मूंडे जाने और मुंडवाए जाने की है वैसी ही व्याख्या इस हिंदी दिवस की भी है। जजमान मुंडे जाने पर प्रसन्न है और ... जिस चैनल पर आयोजित कार्यक्रम में आपने अपनी सहभागिता की चर्चा की है, वो कार्यक्रम मैंने भी देखा और देखने के बाद, हिंदी के प्रति अधिकांशतः अति अशुद्धतावादी कारोबारी स्वर देख/ सुन कर सर पीटने के अतिरिक्त और कुछ करने लायक न रहा। वहां का माहौल महाभारत के उस प्रसंग की याद दिला रहा था जिसमें ‘अश्वत्थामा हतो’ कहने के बाद ही ढोल पीट दिए गए थे। यहां भी ‘हिंगलिश की जय हो’ का नारा लगाया गया और ढोल पीट दिए गए जिसमें आप जैसों का स्वर नक्कारखाने में तूती-सा रह गया। हिंदुस्तानी भाषा का जोरदार समर्थन करते हुए तथा उर्दू हिंदी के आपसी सहयोग की बात करते हुए एक सुमुखी ने उदाहरण के लिए अमीर खुसरो की यह पंक्तियां अदा के साथ सुनाई-
जे हाल मिसकी मकुन तगाफुल दुराय नैना, बनाय बतियां कि ताबे हिज्रां न दारम, ऐ जां ! न लेहुं काहें लगाय छतियां मुझे नहीं लगता कि अगर वो फारसी की उन पंक्तियों को अदा के साथ न समझातीं तो वहां बैठा युवा वर्ग उसका अर्थ समझ पाता और कोई आवश्यक नहीं कि इस अदा के बाद वो समझ भी गया हो। वो भूल गई कि एक समय ये मुहावरा अपना अर्थ रखता था- हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े लिखे को फारसी क्या। आज फारसी का स्थान अंगे्रजी ने ले लिया है। आज का कोई भी हिंदुस्तानी युवा कितना ही पढ़ा-लिखा हो फारसी नहीं समझता है। मेरा विश्वास है कि हिंदी के अधिकांश अध्यापक तक इप पंक्तियों का अर्थ बिना किसी कुंजी के शायद ही समझा पाएं। हिंदी के प्रति या तो अत्यधिक शुद्धतावदी सोच के लोग हैं या फिर ‘अतिअशुद्धतावदी’ सोच के लोग हैं, संतुलन नहीं है। यही कारण है कि कहीं अत्यधिक शुद्धतावादी दृष्टिकोण के कारण सूखा पड़ने की स्थिति आ जाती है या फिर भाषा के बाजारवादी विकास के अतिरेक के कारण बाढ़ की स्थिति पैदा हो जाती है। इस कारण हिंदी के ऐसे रूप का समर्थन किया जाता है और राजभाषा-उद्योग के द्वारा ऐसी हिंदी का उत्पादन किया जाता है जिससे हिंदी प्रेमी को वितृष्णा हो जाए। हिंदी एक रूप वो है जहां हिंदी को बाज़ार की मांग के अनुसार उसको उसको पेश किया जाता है। हिंगलिश के पक्षधर इन सेवियों के चलते वो दिन दूर नहीं कि जब हिंदी अकादिमयों का स्थान हिंगलिश अकादमियां ले लेंगी और वहां अध्यक्ष या उपाध्यक्ष नहीं प्रेजीडेंट, वाईस प्रेजीडेंट या सी ई ओ हुआ करेंगें। अपने को बिकाउ बनाने के लिए इस तरह का संवरना है और सौंदर्य के नाम पर कमाने के लिए अपनी अस्मिता को दांव पर देनी स्थिति में हिंदी न पहुंचे तो बेहतर। हिंगलिश की आवश्यक्ता का नारा मात्र महानगरो से ही उठाया जाता है,उत्तर प्रदेश,मध्य प्रदेश आदि हिंदी प्रदेशों का युवा ये मांग कभी नहीं उठाता है। आप तो जानते ही हैं कि स्वतंत्रता से पहले, अपना शासन चलाने के लिए और इस देश के आम आदमी से बात करने के लिए अंगे्रज कैसी कब्जीयुक्त हिंगलिश का प्रयोग किया करते थे। वैसी ही कब्जीयुक्त हिंदी का प्रयोग हिंगलिश के नाम पर हिंदी फिल्मों की रोटी खाने वाले और हिंदी के बाजार के प्रति ‘चिंतित’ काले अंग्रेज कर रहे हैं। हिंगलिश के सेवको से मेरा सवाल है कि यदि आम आदमी की भाषा हिंदी नहीं है तो ‘रामायण’ और महाभारत जैसे धरावाहिक बिना हिंगलिश के, कैसे आमजन द्वारा सराहे गए? हिंदी को बचाना है तो उसको अतिवाद से बचाना होगा। भारत में हिंदी अभी तक कागजों में ही राष्ट्र भाषा है, पर हिंदी का अपना राष्ट्र है। हिंदी का अपना विश्व है और उसका सूर्य कभी अस्त नहीं होता है। और यह सब सरकारी अनुदान से नहीं हुआ है अपितु उन असंख्य प्रवासी भारतियों के कारण हुआ है जिन्होंनें हिंदी को अपनी अस्मिता की पहचान बनाया और गंगाजल की तरह अपने जीवन में महत्व दिया। मुझे लगता है हम तब चेतेंगें जब भारत में हिंदी की अस्मिता को कोई चुनौती देगा। आपका प्रेम जनमेजय प्रेम जनमेजय की यह टिप्पणी ‘नई दुनिया’ के 16 सितंबर अंक में संपादन के साथ प्रकाशित हुई है

बुधवार, 9 सितंबर 2009

श्री राजेंद्र यादव के नाम एक खुला पत्र

आदरणीय श्री राजेंद्र यादव जी, परनाम, साहित्य के इस तथाकथित असार संसार में ‘हंस’ को पढ़ने/देखने के, ‘जाकि रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी’ के अंदाज में अनेक अंदाज हैं। कोई साहित्यिक संत इसकी कहानियों के प्रति आकार्षित हो संत भाव से भर जाता है, कोई ‘हमारा छपयो है का’ के अंदाज में इसका अवलोकन करता है, कोई ‘डाॅक्टर’ चीर-फाड़ के इरादे से अपने हथियार भांजता हुआ संलग्न होता है, कोई नवयोद्धा,रंगरूट शब्द साहित्यिक नहीं है, सेना में भरती होने के लिए इस धर्मग्रंथ का वाचन करता है , कोई पहलवान इसे अखाड़ा मान डब्ल्यू डब्ल्यू एफ मार्का कुश्तियों का हिस्सा बनने को लालायित दंड-बैठक लगाता है और कोई विवाद-शिशु के जन्म की जानकारी के लिए तालियां बाजाता हुआ बधाईयां गाता है, आदि आदि अनादि। मैं आदि आदि अनादि कारणों से ‘हंस’ को पढ़ता हूं। ‘हंस’ एक ऐसी पत्रिका बन गई है जिसका एडिक्शन आपको चैन नहीं लेने देता है। इसके पाठकों/ अवलोकनकर्ताओं में भंांति-भांति के जीव हैं जैसे हमारे देश की संसद में होते हैं। इसमें लिखने वालों की तो एक कैटेगरी हो सकती है पर पढ़ने/देखने / सूंघने वालों की कोई कैटेगरी नहीं है। इस दृष्टि से ‘हंस’ आज के समय का ‘धर्मयुग’ है। वैसे तो आपकी, ‘मेरी-तेरी उसकी बात’ अधिकांशतः तेरी तो... करने वाली होती है और इस अर्थ में ‘प्रेरणादायक’ भी होती है कि बालक मैदाने जंग में कूद ही जाए पर सिंतंबर का आपका संपादकीय कुछ अत्यधिक ही ‘प्रेरणादायक’ है। बहुत दिनों से मैं इस जिज्ञासा को शांत करने के लिए उपयुक्त गुरु की तलाश में हूं जो मुझे बता सके कि साहित्य का हाई-कमांड कौन है और साहित्य-सेवा को ‘धर्म’ मानकर चलने वालों के ‘खलीफा’ कौन हैं जो साहित्यिक फतवे जारी करने का एकमात्र अधिकार रखते है। साहित्य की उस अदालत के न्यायमूर्ति को मैं जानना चाहता हूं जो यह तय करने की ताकत रखता है कि गुनहगार बेकसूर है और बेकसूर गुनहगार है। साहित्य की मुख्यधारा में ले जाने और इस गंगा में पवित्र-स्नान करने का ठेका किस पंडे के पास है। मुझे आपकी बात पढ़कर लगा कि आप इस दिशा में मेरा मार्गदर्शन कर सकते हैं। आपने अशोक-चक्रधर प्रसंग में लिखा है- निश्चय ही अशोक के पक्ष में उन साहित्यकारों के बयान आए हैं जो या तो दक्षिणपंथी हैं या ऐसे ढुलमुल कि हर सरकार के लिए सुविधाजनक हैं।’ अशोक के पक्ष में मैंनें भी समर्थन दिया था और मेरे लिए अपने खिलाफ जारी किया गया यह फतवा कोई मायने नहीं रखता क्योंकि मैं आपसे अपने को बेहतर जानता हूं एवं मुझे खलीफाओं के प्रमाणपत्र प्राप्त कर उन्हें फे्रम में मंडवाकर दीवारों पर टांगने का शौक नहीं। पर हुजूर आपने क्या यह बयान अपने पूरे होशो हवास में दिया है? अशोक चक्रध्र का समर्थन करने वालों में नामवर सिंह और निर्मला जैन भी थें। इन्हें आप दक्षिणपंथी मानते हैं या फिर ‘ऐसे ढुलमुल कि हर सरकार के लिए सुविधजनक हैं।’ कृपया मुझ अबोध की एक और शंका का समाधन करें- ये जो ‘हंस’ के सिंतंबर अंक के अंतिम कवर पर मध्य प्रदेश जनसंपर्क द्वारा जारी विज्ञापन प्रकाशित हुआ है, वो किसी पंथ की सरकार का है ? प्रभु आपके इस अतिरिक्त स्नेह के कारण भक्तजन कहीं फुसफसा कर ये न फुसफसाएं कि राजेंद्र जी पर उम्र अपना असर दिखाने लगी है। आप तो चिर युवा हैं और आपकी जिंदादिली के मेरे समेत अनेक प्रशंसक हैं।आपको तो अनन्य ‘नारी विमर्शो’ की चर्चा करनी है। नागार्जुन कहा करते थे कि उम्र के इस दौर में अक्सर उनकी ‘ठेपी’ खुल जाती है, कहीं आपकी भी... हे गुरुवर, इस एकलव्य को ये ज्ञान भी दें कि नामवर लोगों को आप अपने कार्यक्रमों में बुलाकर अपनी किस सदाशयता का परिचय देते हैं। कार्यक्रम में यदि नामवर जी मीठा मीठा बोल गए तो वाह! वाह! अन्यथा ‘कौन है ये नामवर के भेस में’। मुझे लगता है इस ‘दुर्घटना’ के बाद ‘शुक्रवार’ में प्रकाशित डाॅ0 कैलाश नारद के ‘असली नामवर’ को पढ़कर आपकी बांछे खिल गई होंगी जो बकौल श्रीलाल शुक्ल चाहे वे शरीर के किस हिस्से में हैं, मालूम न हों। मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूं कि नामवर जी ने जिस तरह से लौंडे शब्द का प्रयोग किया वो उनकी अपनी गरिमा के अनुकूल नहीं है। अजय नावरिया ने जिस मेहनत और लगन से ‘हंस’ के दोनों अंकों का संपादन किया है और एक मील के पत्थर को स्थापित करने का श्रम किया है वो उसकी विलक्षण प्रतिभा को प्रमाणित करता है। अजय नावरिया की इस मेहनत के सामने नामवर सिंह के शब्द झूठे हो जाते हैं। मुझे नहीं लगता कि इस मुद्दे पर नामवर सिंह को आरंभ से खारिज करने जैसा आक्रोश पैदा किए जाने की आवश्यक्ता थी। कैलाश नारद या आपकी ‘मेरी बात’ जैसी सोच का ही परिणाम है कि हिंदी के साहित्य में रचना की अपेक्षा व्यक्ति अधिक केंद्र में रहा है। इसी का परिणाम है कि एक समय हरिशंकर परसाई को और बाद में श्रीलाल शुक्ल को नाली में गिरे-पड़े किसी शराबी के रूप में चित्रित कर, सशक्त रचनाएं न लिख पाने की अपनी कुंठा का विरेचन किया जाता रहा है। आपका विरोध जायज है, जायज ही नहीं स्वाभाविक है। ये मानवीय प्रकृति है- जहां किसी अपने को बैठना चाहिए वहां कोई दूसरा बैठा हो तो विरोध जागता ही है। आप तो जानते ही हैं कि ये सरकारें, ये राजनेता किसी के सगे नहीं होते हैं। अपने शासन के एक काल में यदि एक को लाभान्वित करते हैं तो दूसरे काल में किसी अन्य को कर देते हैं। ये तो सत्ता के गलियारों की गलियां हैं जिन्हें आप भलि-भांति जानते हैं। ये वो गलियां हैं जिनमें अपनी पहियां घिस जाने की चिंता में कुंभनदास ने जाने से मना कर दिया था। विरोध-प्रदर्शन या दबाव-प्रदर्शन के लिए इस्तीफे दिए जाते हैं और इस्तीफों के चक्कर में सौदे भी तय होते हैं। पर इस घसीटमघसीटी में फतवे जारी करना किस जायज-नाजायज संतान का पालन-पोषण है? अजय नावरिया ने अशोक-चक्रधर प्रसंग को बहुत समझदारी से देखा -परखा है। उन्होंने इस नियुक्ति में न तो व्यक्तिगत आक्षेप लगाए हैं और न ही व्यक्तिगत कारण संूघने का प्रयत्न किया है। मुझे लगता है हमारी युवा पीढ़ी बेबाक होते हुए अधिक संतुलित और ईमानदार है। सादर आपका प्रेम जनमेजय

शनिवार, 5 सितंबर 2009

प्रेम जनमेजय का व्यंग्य

ओम गंदगीआय नमः

आषाढ़ का प्रथम दिवस कवि कालिदास को अच्छा लगा था, मुझे भी अच्छा लगता है और मेरे साथ-साथ पूरी दिल्ली को अच्छा लगता है। पर मेरे अच्छे लगने और कालिदास के अच्छे लगने में उतना ही अंतर है जितना अंतर एक गरीब को अमीर की तुलना में न्याय मिलने का है। अब वो चाहे आषाढ़ के बादल हों या जून की तपती दोपहरी झोपड़े में इतना दम कहां कि वो इनका मुकाबला कर ले। वैसे भी कालिदास के समय में प्रकृति प्रकृति थी, उसका अपना एक चरित्र था। ग्लोबल वार्मिंग ने प्रकृति का चरित्र ही बिगाड़ दिया है, वो अप्राकृतिक हो गई है, उसपर भरोसा नहीं किया जा सकता। जैसे ग्लोबलाईजेशन यानि भूमंडलीकरण और बाजारवाद ने आदमी को अप्राकृतिक कर दिया है। फिर भी हम भरोसा करते हैं क्योंकि हमारे पास कोई और चारा नहीं है। हम भरोसा करते हैं कि तपती जून के बाद मानसून आएगा और हमारे हालात सुध्र जाएंगें। भरोसा करना हमारी नियति है- चाहे वो आम चुनाव हो या आम का चुनाव हो, दूध-फल-सब्जी की खरीद हो- हम भरोसा करते हैं कि हमें सब कुछ मिलावट रहित मिलेगा। कालिदास के समय में आषाढ़ के बादलों में कोई मिलावट नहीं थी, उन पर भरोसा किया जा सकता था। उस समय बादल मौसम विभाग की घोषणाओं की प्रतीक्षा नहीं करते थे, आ जाते थे। आजकल तो बिजली-पानी की तरह बादल भी प्रतीक्षा करवाते हैं। आषाढ़ का पहला दिवस आ जाता है और समाज में नैतिक मूल्यों-सा शून्य आकाश अपनी नंगई पर इतराता समस्त वंचितों को बादलों के आने का भुलावा देता रहता है।
जैसे महानगरों के र्टैफिक के कारण कहीं भी समय से पहुंचना अनिश्चित हो गया है--ट्रैफिक मिला तो आप समय से पहले पहुंचकर दरिया बिछाते हैं और अगर मिल गया तो देर से पहुंचने के कारण पार्टी में बचा -खुचा खाते हैं। वैसे ही मौसम विभाग भारतीय राजनीति-सा अनिश्चित हो गया है।
पता नहीं किसी ने ये सोचा है कि नहीं अथवा मेरा ही मौलिक चिंतन है कि कालिदास ने आषाढ़ के पहले दिवस की ही क्यों चर्चा की ? कालिदास महान् कवि हो कर कितने भी खास व्यक्ति हों परंतु आषाढ़ के पहले दिवस की चर्चा कर आम आदमी हो गए। हर आम आदमी अपने ‘पहले’ की ही चर्चा करता है। अब चाहे पहली रात हो जिसे सुहाग रात भी कहते हैं, पहला प्यार हो, पहला वेतन हो, पहला बच्चा हो, पहला भ्रष्टाचार हो यानि दूसरे को छोड़कर जो भी पहला होता है आम आदमी उसकी चर्चा अवश्य करता है। कालिदास ने भी आम आदमी की तरह आषाढ़ की चर्चा की। आप तो जानते ही हैं कि हर खास आदमी के अंदर आम आदमी और हर आम आदमी के अंदर खास आदमी होता है। हर पहली चीज खास होती है पर दूसरी -तीसरी होते ही आम हो जाती है और झुग्गी-झोपड़ी में रहती है। पहली रात दूसरी-तीसरी आदि के बाद क्या होती है इसे आजकल के शादी-शुदा तो क्या कुंवारे भी जानते ही हैं। आषाढ़ के पहले बादलों के बाद जो बरसता है उसके कारण नदी-नाले भर जाते हैं, नगर-निगम की कार्यकुशलता के कारण बदबू और गंदगी में सूअर खुलकर टवैंटी-टवैंटी खेलते हैं और मलेरिया ढेंगू आदि की भीड़ के सामने आम चुनाव की रैलियां भी शरमा जाती हैं। सड़कें गड्ढों में बदल जाती हैं और गड्ढे तलाबों में बदल जाते हैं। अब ऐसे पवित्र वातावरण में कोई आम आदमी नहीं रहना चाहेगा तो कालिदास जैसा खास आदमी कैसे रहता ? तो भक्तों, कालिदास ने इसलिए आषाढ़ के पहले दिवस का ही अह्वान किया और उनके लिए अपनी काव्य-प्रतिभा का सदुपयोग किया। परंतु हुई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया वाली बरसात में दिल्ली या मुम्बई की नगर निगम की कृपा देखते तो बादलों को कहते- जाओ बादल । हमें तो जो नहीं है वो चाहिए- अति सर्दी में गर्मी चाहिए, अति गर्मी में ठंडी चाहिए, अति सूखे में बरसात चाहिए और अति बरसात में सूखा चाहिए। हमने प्रकृति का संतुलन बिगाड़ा है पर हम प्रकृति से संतुलन की अपेक्षा करते हैं।
मेरे मोहल्ले में भी एक आध्ुनिक कालिदास रहते हैं। कालिदास आषाढ़ के पहले दिन की प्रतीक्षा करते थे , हमारे कालिदास कवि सम्मेलन की रात की प्रतीक्षा करते हैं। हमारे कालिदास में इतना कवि -तेज है कि यदि पा्रचीनकालीन कालिदास उन्हें देख भर लें तो कविता करना छोड़ दें। प्राचीनकालीन कालिदास हमारे कालिदास की तुलना में उन्नीस तो क्या शून्य भी नहीं ठहरते हैं। कहां हमारे कालिदास को एक ही कविता को बीसियों मंच पर सुनाकर एक-एक रात के हजारों मिलते हैं वहां प्राचीनकालीन ने इतना लिख कर ‘कितना’ भी नहीं पाया होगा। हमारे इन कवि का नाम है कवि घूमड़। तो हमारे कवि घूमड़ रात भर एक पार्टी में व्यस्त थे। पार्टी इन्होंनें अपने घर में कवि कर्मा को दी थी, अपनी आने वाली रातों को कवि सम्मेलनों से सुहागन बनाने के लिए। पार्टी वही अच्छी होती है जिसमें दारू भी अच्छी हो और अच्छी दारू पी ही तो नींद भी अच्छी आती है। ऐसी ही अच्छी नींद लेने के बाद कवि घूमड़ ने अपनी बाॅलकनी का दरवाज़ा खोला । अपने वातानुकूलित कमरे से बाहर बाॅलाकोनी में निकलकर जैसे ही सुबह की अंगड़ाई ली तो बिना किसी निमंत्रण के आषाढ़ की ;शायदद्ध पहली बूंद ने उनका चुंबन ले लिया। अब चाहे हास्य-व्यंग्य का कवि हो, या पिफर गीतकार अथवा गज़लकार , मन में सबके मयूर होता ही जो बिना लिफाफे के भी नाचता है। मन -मयूर ने नाचने के लिए आकाश की ओर देखा तो पाया कि नाचने के लिए पर्याप्त बादल हैं। कवि घूमड़ के मन -मयूर ने अभी अपने पंख खोलने की प्रक्रिया आरंभ ही की थी कि उनकी नज़र सामने पड़ गई। सामने का दृश्य मन- मयूर के नृत्य के साथ कूकने का भी था। मोर ने अपनी मेारनी को आवाज़ दी। मेारनी उस समय अभी तक काम वाली बाई के न आने के कारण, रात की पार्टी के बरतनों से भरे सिंक को देख रही थी और कोई भी गिलास सापफ न मिलने के कारण ओक से ही पानी पी रही थी। मोर की पुकार सुनकर मोरनी को लगा कि मोर को अवश्य ही कोई कविता सूझी होगी। मोरनी जानबूझकर देरी कर ही रही थी मोर ने पुनः पुकारा- अरे देखो तो सही बाहर कितना अच्छा मौसम है... और रात ही रात में जो चमत्कार हुआ है उसे तो देखो।’ मोरनी तो विवाह होने के बाद से अकेली रात के उसी चमत्कार को जानती है जब मोर के लिए केवल कवि सम्मेलन की रात ही महत्वपूर्ण होती है और दूसरी रातें...।
इससे पहले कि मोर जी झुंझला के तीसरी पुकार लगाएं मोरनी ने अपना गाउन संभाला और बाॅलकोनी की ओर प्रस्थान किया। ठंडी हवा के झोंके ने विश्वास दिला दिया कि आज कवि जी दूर की नहीं हांक रहे हैं, मौसम वास्तव में अच्छा है। बाॅलकनी में पहुंचकर मोरनी ने कहा - वाह, कितने घने बादल हैं आसमान में। पकोड़े बनाउं?’
- सामने तो देखो तुम पकोड़ों के साथ मालपुए भी बनाओगी।’
- सामने...!
-- जी हां सामने की सारी झुग्गियां रात ही रात में साफ कर दी गई हैं। हमारे सामने से गंदगी साफ हो गई है। अब हमारे फलैट की कीमत दोगुनी हो जाएगी। इन झुग्गी- झोपड़ी वालों के कारण कितनी गंदगी थी, कभी बाॅलकनी में बैठकर चाय तक नहीं पी सकते थे । ’
मेारनी ने देखा कि मोर दूसरी बार भी हांक नहीं रहा था यथार्थ का वर्णन कर रहा था। सामने की झुग्गियों पर बुलडोजर पिफर चुका था। झोपड़ियों में पड़ा सामान बरसात की रिमझिम पफुहारों का आनंद ले रहा था। कुछ अध्नंगे बच्चे इध्र -उध्र दौड़ रहे थे और कुछ मंा की गोद में बैठे मां का लटका मुंह निहार रहे थे। पुरुष अपना बचा खुचा समेट रहे थे। रात को हुई बरसात ने उनका भी दिल तोड़ दिया था और टूटे दिल की समस्या भी बड़ी हो ही जाती है।
- जानती हो कपूर साहब बता रहे थे कि पहले झुग्गियां टूटती थीं तो एक दो दिन बाद फिर से बन जाती थीं। पर अब तो जो भी टूट रही हैं, दोबारा नहीं बनेंगी। इनका नंबर भी बहुत दिनों बाद आया है।’ मोर ने अपने पंख फैलाकर मोरनी को उनमे समेटते हुए कहा।
मोरनी भी चहकी- ये तो बहुत ही अच्छा हुआ। सच बहुत ही गंद हो गया था समाने। अब ये लोग कहां जाएंगें?
- भाड़ में जाएं, हमारी बला से। यहां से तो गंदगी हटी।
- पर चंदा, हमारी काम वाली भी तो सामने रहती है। लगता है आज तो वो नहीं आएगी।
- अरे हां, इन हालातों में तो ये ही लग रहा है कि वो नहीं आएगी।
- लो सुबह- सुबह आ गई एक और मुसीबत, ढेर सारे बर्तन पड़े है पार्टी के, घर गंदा अलग पड़ा है, अब कौन करेगा सफाई?
-- किसी और को बुला लो, सौ पचास देकर करा लेना।
- किस और को बुलाउफं? सामने देख तो रहे हो, सभी की झुग्गियां टूटी हैं... मुझे तो पल भर के लिए आराम नहीं है। खुद तो रात को पार्टी के मजे लेते हैं, खूब शराबें पीते हैं और सुबह के लिए मुसीबत मेरे लिए छोड़ देते हैं।
-- घर का काम मुसीबत है क्या? सभी औरतें घर का काम करती हैं। तुम्हें तो थोड़ा-सा भी काम करना पड़े तो नानी याद आने लगती है।
-- नानी याद आती है तुम्हें। एक गिलास पानी का भी लेना हो तो कभी उठकर नहीं लेते हो। औरों के पति अपनी पत्नियों का घर के काम में हाथ बटांते हैं और तुम...। चलो आज मेरे साथ बर्तन साफ करने में मदद करो।
- हो सकता है चंदा आ ही जाए। उसे भी तो रोजी-रोटी चाहिए।’ एक कुटिल मुस्कान के साथ मेार जी ने कहा,‘ अभी तो उसने पगार भी नहीं ली है।’
पर मोरनी बहकावे में नही आई और उसने दबंग होकर कहा-- पर आज तो वो आने से रही। बर्तन थोड़ी देर और पड़े रहे तो बदबू मारने लगेंगे। बहाने मत मारो और बर्तन साफ करने में मदद करो।
-- तुम... तुम एक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कवि से जूठे बर्तन साफ करने को कह रही हो... होश में तो हो।
-- मैं होश में ही हूं और कवि जी ये जूठे बर्तन आपकी ही शराब पीकर बेहोशी का नतीजा हैं। मैं आज अकेले तो इन्हें हाथ लगाने से रही।
- तो पड़े रहने दो उन्हें ऐसे ही। ’
मेार मोरनी अब गली के कुत्तों की तरह एक दूसरे पर भौंक रहे थे। गंदगी घर में चारों ओर बिखरी हुई थी। और कवि घूमड़, मूड ठीक करने के लिए नब्बे नम्बर का पान खाने चल दिए।

0000