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सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

दीपावली पर विशेष -अंधेरे का स्थानांतरण नहीं चाहिए

अंधेरे का स्थानांतरण नहीं चाहिए
0प्रेम जनमेजय

दीपावली समीप आती है तो मन दीपकों की संघर्षशील चेतना को लक्षित कर प्रसन्न एवं प्रेरित होता है परंतु यह सोचकर कि आधी रात को इन दीपकों के बुझते-बुझते हम तो सो जाएंगें और हमारे सोते ही अंध्ेारा सुबह के उजाले के आने तक पैर पसारे अपने होेने का अहसास दिलाता रहेगा, मन अवसाद में घिर जाता है ।
इस बार भी दीपावली की प्रतीक्षा समान्य भारतीय, केवल हिंदू नहीं, की तरह कर रहा हूं और आशा कर रहा हूं कि कुछ देर के लिए ही सही अपनेे सामाजिक जीवन में अकेलेपन के अंधेरे के न होने के अहसास का आनंद उठा पाउंगा ।
मुझे त्रिनिदाद की दीपावली याद आ रही है जहां इस दिन उपवास रखा जाता है। अमेरिकी संस्कृति के समुद्र से घिरे उस देश में एक सौ साठ वर्षों से भारतीय संस्कृति को अपने सीने से चिपकाए ये लोग किस उजाले की आशा में उपवास रखते हैं जबकि भारत में हम इस दिन खाओ ‘पिओ’ मस्त रहो की मुद्रा में रहते हैं । वहां लक्ष्मी पूजन के साथ गणेश पूजन की परंपरा नहीं है। परंपरा कैसी भी हो लक्ष्य तो जीवन के अंधेरे से लड़ना है-- अब वो चाहे अस्मिता का अंधेरा हो या फिर उजला- अंधेरा जो हमारे संबंधों को लील रहा है ।
मैं अपने चारों ओर स्वयं को एक अजब तरह के अंधेरे से घिरा पा रहा हूं। एक ऐसा अंधेरा जो उजाले की शक्ल लेकर आया है और वो उजाला हमें छल रहा है । ऐसे में कवि कन्हैयालाल नंदन की पंक्तियां याद आ रही है जिसमें वे कहते है -- उजालों ने कुछ इस तरह छला कि अंधेरों से प्यार हो गया ।’ यह प्यार घोर निराशा से उत्पन विवशता का अहसास है जो रिश्तों की खटास तथा बेरुखी से पैदा होता है । हम जैसे-जैसे भौतिक प्रगति के उजाले से घिरते जा रहे हैं वैसे अजनबी पन के सुरमई अंधेरे के मोह पाश में बंधते जा रहे हैं । किसी भी समाज के जीवन में वे क्षण बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण होते हैं जब उसके उजले हिस्से अंधेरे को अपना सत्य मान उसका आकार ग्रहण करने को लालायित दिखने लगते हैं ।
उजाले की तरह आज हमने अंधेरे भी बांट लिए हैं और यही कारण है कि हम अपने-अपने अंधेरों से अकेले ही लड़ रहे हैं । ये हमारे ‘सद्प्रयत्नों’ का फल है कि हम अपने अंध्ेारे को मिटता देख उतना प्रसन्न नहीं होते हैं जितना दूसरे के अंधेरे को और गहराता देखकर प्रसन्न होते हैं । पिछले लगभग एक दशक से महानगरीय जीवन में ; कस्बों और गांवों में भी इसका वायरस पहुंच गया है, पहले मोहल्ला गायब हुआ फिर संयुक्त परिवार और अब इसकी छाया पति-पत्नी के रिश्तों पर पड़ने लगी है । हम अपने में मस्त होकर अकेलेपन के आदी होते जा रहे हैं । अकेलेपन के इस अंधेरे में बच्चों का बचपन गायब हुआ है, युवाओं का युवामन और बुजुर्गों की सुरक्षा गायब हुई है । युवाओं के पास बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए ‘पूरा’ समय है पर अपनी संतान के लिए नहीं ,,माता-पिता तो किसी खेत की मूली हैं अतः.... क्योंकि संतान नहीं जानती कि समय धन है और उसको धन ही खरीद सकता है । हम स्वयं अकेलेपन की यांत्रिक जिंदगी जी रहे हैं और साथ ही भविष्य की पीढ़ी के लिए भी वही माहौल तैयार कर रहे हैं । अकेलेपन का अंधेरा धीरे-धीरे गहराता जा रहा है और हम उसे उजाला मान उसका अपने जीवन में स्वागत कर रहे हैं । अंधेरा बहुत चालाक हो गया है और वह उजाले का बुरका पहन कर सामने आता है । वह लोहे को लोहा काटता है के सिद्धांत पर अपने हथियारों का सदुपयोग करता है और विश्व को विवश कर देता है कि वह अंधेरे को ही उजाला माने ।हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े लिखे को इराक और अफगानिस्तान क्या?
अंधेरा मिटता नहीं बस उसका स्थानांतरण हो जाता है । चाहे पुलिस थाना हो, चाहे नौकरशाही, चाहे संसद हो और चाहे न्याय का मैदान, आप अंधेरा होने की शिकायत करके देखिए कि कैसे अंधेरे का स्थानंातरण होता है । अंधेरा बहुत चतुर होता है, जब वो देखता है कि उजाले से लड़ना संभव नहीं, मिटने का डर है तो वह ‘सादर’ सिंहासन खाली कर देता है और उजाले के कमजोर होने की प्रतीक्षा करने लगता है । वरना क्या कारण है कि बार-बार धर्म की हानि होती है और बार-बार प्रभु को अवतार लेना पड़ता है ? प्रभु का एक बार अवतार लेने से काम नहीं चलता है ।
मैं महान नहीं हूं अतः महान वायावी दावे नहीं कर पाता हूं । मेरी सोच बहुत ही संकुचित है जो बस अपने आस- पास के वातावरण तक सीमित रहती है । मैं तो गिलहरी की तरह एक बूंद अंध्ेारा हटाकर विशाल प्रकाश-पुंज का लघुत्तम कण बनना चाहता हूं । मैं अपनी टी आर पी बढ़ाने के लिए अंध्ेरा मिटाने की नौटंकी नहीं कर सकता, मैं तो अपनी क्षमता अनुसार ,कुछ अधिक भी, प्रयत्न कर सकता हूं कि मानवीय मूल्यों और सम्बन्धों की टी आर पी न गिरे । हम अपने छोटे-छोटे दीपक ही चाहे जलायें पर उसके प्रकाश को छनकर बाहर जाने से न रोकें और एक प्रकाशपुंज का हिस्सा बनकर अंधेरे का स्थानांतरण करने के स्थान पर उसे समाप्त करने का सार्थक प्रयत्न करें ।
क्या कभी सेाचा है कि घनघोर अंधेरे से लड़ना आसान हो जाता है पर घनघोर उजाले का भ्रम देने वाले उजाले से लड़ना कठिनतर ?
उजाला अंधेरे से लड़ता है या अंधेरा उजाले से लड़ता है ? किस सत्ता की प्राप्ति के लिए लाखों वर्षों से यह लड़ाई जारी है? इस लड़ाई का कोई अंत है अथवा ये समाप्त होने का भ्रम पैदा कर ये पुनः आरंभ हो जाती है, बस मुखौटे बदल जाते हैं । राम-रावण युद्ध निंरतर है बस मुखैटा बदल जाता है ।
इतने सारे सवालों के बीच, उजाला एक विश्वास है जो अंधेरे के किसी भी रूप के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल बजाने को तत्पर रहता है । ये हममें साहस और निडरता भरता है ।

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3 टिप्‍पणियां:

ghughutibasuti ने कहा…

सही कह रहे हैं ।
आपको व आपके परिवार को दीपावली की शुभकामनाएं ।
घुघूती बासूती

Udan Tashtari ने कहा…

सही है!

आपको एवं आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

आप से सहमत हैं।

दीपावली पर हार्दिक शुभकामनाएँ। दीपावली आप और आप के परिवार के लिए सर्वांग समृद्धि और खुशियाँ लाए।