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शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

अज्ञेय स्मारक व्याख्यान-2010प्रेम जनमेजय द्वारा दिए गए व्याख्यान का आलेख

शाश्वती
235, रिहाड़ी मोहल्ला, जम्मू . 180005/ मो. 9419210100/ 14.03.2010

अज्ञेय स्मारक व्याख्यान-2010

अज्ञेय व्याख्यानमालाः बदलते सामाजिक परिवेश में व्यंग्य की भूमिका’ पर प्रेम जनमेजय का व्यख्यान



मित्रों, मैं उस पीढ़ी का हूं जिसने के स्वतंत्रता-शिशु की गोद में अपनी आंखें खोली और जो इस देश के साथ बड़ा होता हुआ आज बुजुर्ग हो गया है। ये दीगर बात है कि देश जवानी के दौर में है। मेरी पीढ़ी वो पीढ़ी हे जो लालटेन से कंप्यूटर तक की यात्रा की है। मेरी पीढ़ी ने युद्ध और शांति के अध््याय पढ़े हैं। मेरी पीढ़ी ने राशन की पंक्तियों में खड़ी गरीबी देखी है तो चमचमाते मॉलों में, विदेशी ब्रांड के लिए नौजवानों की पागल भीड़ देख रही है। मेरी पीढ़ी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण देखा है, हरित क्रांति की हरियाली देखी है तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चमचमाते सूदखोर बनिए जैसे गैरराष्ट्रीयकृत बैंक देखे हैं तथा समृद्ध, विदेशी निवेश से चढ़ते शेयर बाजार के सैंसक्स के बीच भारत में आत्महत्या करते हुए किसान भी देखे हैं। मैंनें विश्व में छायी मंदी के बावजूद देश की अर्थ-व्यवस्था की जी डी पी को बड़ते देखा है पर साथ ही ईमानदारी, नैतिकता, करुणा आदि जीवन मूल्यों की मंदी के कारण गरीब की जी डी पी को निरंतर गिरते ही देखा है।
देश स्वतंत्र हुआ तो उसके अनेक मायने लगाए गए । प्रभु की मूरत की तरह , प्रत्येक ने स्वतंत्रता-प्रभु को जाकि रही भावना जैसी अंदाज में देखा। कुछ के लिए आजादी, दो रोटी से आठ रोटी के जुगाड का यंत्र बन गयी तो कुछ के लिए , रही सही दो रोटियां बचाने का प्रयत्न बन गयी । बहुतों का आजादी से मोह भंग हुआ तो कुछ के लिए आजादी मोह का कारण बन गयी । अनेक ऐसे संत पैदा हुए जिन्होंनें दूसरों को तो इस मोह से दूर रहने के प्रवचन सुनाए और स्वयं इस ‘मोह’ की चरण- वंदना में डूब गए । ऐसे लोग जितना डूबे उतना ही तरे । ये दूसरों को डुबाने के लिए तरे ।
स्वतंत्रता के बाद राजनैतिक क्षेत्र में विसंगतियां अधिक बढीं । स्वतंत्रता से पहले लडाई का शत्रु स्पष्ट था । सभी जानते थे कि वो किसके खिलाफ लड रहे हैं, और इस लडाई में हथियार भी उठते थे । शत्रु की शत्रुता स्पष्ट थी । स्वतंत्रता से पहले विषय की दृष्टि से उसकी सीमाएं भी थीं वह आजादी के बाद दूर हो गयीं । विदेशी शासन के खिलाफ सीधे -सीधे लिखने के बहुत खतरे थे , यही कारण है कि भारतेंदु ने शासन की विसंगतियों को प्रकट करने के लिए ‘अंधेर नगरी’ का सृजन किया । भारतेंदु द्वारा तत्कालीन शासन की विसंगतियों की आलोचना का यह रूप अप्रत्यक्ष था । भारत में प्रजातंत्र की स्थापना ने विचार की जो स्वतंत्राता दी उससे शासन की विसंगतियों की प्रत्यक्ष आलोचना का अधिकार मिल गया । आजादी आई और उस आजादी से लोगों को आशाएं भी बहुत थी । अक्सर भविष्य स्वर्णिम लगता है परन्तु जब वह वर्तमान में बदल जाता है तो मोह भंग की स्थिति पैदा करता है, क्योंकि अपने स्वर्णिम भविष्य से हम अपनी बहुत आशाएं जगा चुके होते हैं । इसके साथ यह भी सत्य है कि अपनी आजादी के लिए लड़ने वाले जब आजादी पा लेते हैं , सता सम्भाल लेते हैं , तो लड़ने वालों का चरित्र बदल जाता है । अनेक विसंगतियां जन्म लेने लगती हैं ।धीरे - धीरे देश की राजनीति मूल्यों से खिसक कर, इतनी मूल्यवान होने लगी कि अनेक व्यावसायीयों के आकर्षण का केंद्र बन गयी । राजनीति के अपराधीकरण ने ‘महान’ देशभक्तों को सुअवसर प्रदान किया कि वे जेलों की चार दिवारी से बाहर निकलें और राष्ट् के निर्माण में अपना अभूतपूर्व योगदान दें । एक समय अपने राजनैतिक आकाओं की सता बहाली के लिए किसी को भी उनके रास्ते से हटाने वाले सेवको को अपना महत्व तथा सता के खून का स्वाद मिल ही गया । एक समय था राजनीति में कुत्तों का बहुत बडा महत्व था , धीरे -धीरे उनका स्थान भेड़ियों ने ले लिया । ऐसी अनेक राजनैतिक विसंगतियां थीं जिनके कारण सजग साहित्यकार के विचार तंतुओं पर दबाव पडा । एक पीड़ा ने उसके अंदर जन्म लिया । देश के प्रति उसकी निष्ठा ने उसको विवश किया कि वह इन विसंगतियों के विरुद्व अपने आक्रोश को अभिव्यक्त करे । जैसे - जैसे विसंगतियां बढीं वैसे - वैसे र्व्यंग्य लेखन में वृद्वि हुई ।
समाज में कोई व्यक्ति या समूह सामाजिक मर्यादाओं , मूल्यों अथवा आदर्शों के विरुद्ध जाता है तो उसे सही मार्ग पर लाने के अनेक तरीके हैं । एक तरीका तो यह है कि सजा का डर दिखाकर उसे सुधारा जाए पर अक्सर सजा व्यक्ति को अपराधी बनाए रखती है । दूसरा तरीका यह है कि उसे नैतिकता की कड़वी खुराक - सा भाषण पिलाया जाए पर जिसे प्यास ही न हो उसे कुछ भी पीना अच्छा नहीं लगता । तीसरा तरीका यह है कि उसका सरे आम मज़ाक उड़ाया जाए । सरे आम उड़ाया गया मज़ाक बहुत आहत करता है और आहत व्यक्ति महाभारत का युद्ध तक लड़ लेता है । सभी जब एकसाथ किसी एक व्यक्ति या प्रवृत्ति का मज़ाक उड़ाते हैं तो मुंह छुपाना कठिन हो जाता है । व्यंग्यकार की महत्वपूर्ण भूमिका यही है कि वह लक्ष्य की विसंगतियों की पहचान कर उसका मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और सामाजिक दबाव के आगे झुकना उसकी मजबूरी है । किसी सामाजिक विसंगति का मज़ाक बनाकर वह अपने साथ अपने पाठकों की एक फौज तैयार करता है । यह फौज ही उसका हथियार होती है । वह विसंगति को प्रचारित कर लक्ष्य को शर्मिंदा करता है । एक चोर या डकैत को चोर या डकैत कहलाने में कोई शर्म नहीं आती है । उसकी चोरी या डकैती चर्चे प्रकाशित होते हैं तो वह हीरो बन जाता है । पर खादी पहन सेवा के नाम पर देश की डकैती करने वाले का चेहरा जब प्रचारित होता है तो वह अपने तथाकथित साफ चेहरे की सफाई देने लगता है । यहॉं व्यंग्यकार के बारे में एक बात मैं साफ - साफ कहना चहता हॅंूं । व्यंग्यकार चाहे कितना आक्रोश प्रगट करे, कितनी ही आक्रामक मुद्रा ग्रहण करे और स्वयं को नायक समझने की भूल करे, उसका यथार्थ यह है कि वह अपने लक्ष्य के दुष्ट स्वभाव को बदल पाने में व्यक्तिगत धरातल पर नपुंसक विरोध के अतिरिक्त कोई ताकत नहीं रखता है । उसके विरोध को तो हंसकर उड़ाया जा सकता है । उसकी असली ताकत पाठकों की उसकी फौज है, जिस फौज सामने नंगा होने से विसंगतिपूर्ण चरित्र डरता है। आदमी यथार्थ के प्रकटीकरण सें उतना नहीं डरता है जितना विसंगति के नंगा होने से ।
समाज वही होता है पर उसे देखने के हमारे अपने- अपने यथार्थ होते हैं । आज का सामाजिक यथार्थ यह है कि हमसे हमारा यथार्थ बहुत पीछे छूटता जा रहा है । सबसे पहला सवाल तो यही है कि आज का हमारा सामाजिक यथार्थ क्या है? जब समाज को देखने के भिन्न -भिन्न नजरिए होंगें तो सामाजिक यथार्थ भी भिन्न ही होगा । आजकल तो समाजिक परिवेश को को विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के चश्में से देखने की अपनी- अपनी दृष्टियॉं हैं । समाज देखने का मेरा नजरिया तेरे नजरिए से बेहतर सिद्ध करने में हमारे कर्णधार वैसे ही व्यस्त हैं जैसे दशहरे के समय में अपने - अपने रावणों का बेहतर कद देखकर राम के ‘धार्मिक’ भक्त प्रसन्न होते हैं ।
जब हम अपने आस-पास के लोगों से मिलते हैं तो अक्सर बहुत ही औपचारिक सवालों के साथ मिलते हैं । ‘‘ और क्या चल रहा है ? जीवन कैसा चल रहा है ? ’’ जैसे सवालों का उत्तर देते समय कुछ आस्तिक - सा उत्तर देते हैं-- उपर वाले की कृपा है । कुछ उदासी को स्वर में घोलकर कहते हैं- ठीक है । कुछ जीवन को कट रहा बताते हैं, कुछ बस चल रही है कहकर सवाल से छुटकारा पाने की मुद्रा में होते हैं तो कुछ बस जी रहे हैं जैसी निर्लिप्त मुद्रा में और कुछ के लिए जीवन व्यर्थ बहा, बहा दो सरस पद भी न हुए अहा ! होती है । कुछ इतनी तेजी में होते हैं कि आप पूछते जीवन के बारे में हैं और वो आपके सवाल को अनसुना कर अपनी हांकते हैं तथा किसी को भी एक दो गालियॉं सुनाकर ये जा वो जा होते हैं । तुलसी बाबा के स्वर में स्वर मिलाकर कह सकते हैं कि जाकि रही भावना जैसी जीवन मूरति देखी तिन तैसी । ऐसे ही ज्ञानीजन समाज को अनेक रूपों में देख डालते हैं । कुछ के लिए धर्म की हानि हो रही है और समाज रसातल मे जा रहा है तथा अब प्रलय हुआ ही चाहती है । कुछ गांधी बाबा के बंदरों की तरह आंख कान मुंह, सब कुछ, मूंद लेना चाहते हैं । कुछ त्यागी समाज को गंदगी से बचाने के लिए स्वयं गंदगी के ढेर पर जा बैठते हैें । कुछ समाज में रहते हुए कमल से निर्लिप्त स्वयं में ही लिप्त रहते हैं । उनको न्याय - अन्याय, अच्छा- बुरा, ईमानदारी- बेईमानी में से कुछ भी नहीं व्याप्ता है । कुछ खाते हैं और सोते हैं और कुछ कबीर की तरह जागते और रोते हैें । कुछ के लिए उनका पुराना जमाना ही अच्छा था चाहे उस जमाने में चीर- हरण होते रहे हों , अपहरण होते रहे हों , शम्बूकों की हत्याएं होती रही हों । कुछ समाज में रहते हैं पर समाज के बारे में सोचने के लिए उनके पास समय नहीं है, बहुत बिजी़ लोग हैं । आप समाज का निरर्थक अर्थ निकालने की चिंता में अपने बाल नोच -नोच कर दुबले हुए जाते हैं और यह सार्थक अर्थालाभ कर अपने घर को भरने की जुगाड़ में मुटियाए जाते हैं । कुल मिलाकर कह सकते हैं कि विश्व परिवर्तनशील और उसी लय में समाज भी परिवर्तनशील है। समाज अपने को अनेक स्तरोें पर जीता है और उन स्तरों पर छोटे बड़े, अनेक परिवर्तन एक समूह को जन्म देते हैं। अज्ञेय ने ‘लेखक और परिवेश’ में परिवेशगत परिवर्तनों के बारे में कहा है- आज की बड़ी दुनिया में मेरा परिवेश स्थितिशील नहीं है, वह सतत चलनशील है! सभी संबंध गतिशील हैं। उनका जो रूप मेरी चेतना को छूता है वह छूने-छूने में बदलता जाता है। बल्कि वह छुअन ही मानों नाड़ी की छुअन है या कि एक घूमते हुए पहिए के नेमे की- जिसका स्पर्श भी नहीं कहता कि ‘‘मैं हूं’’ यही कहता है कि मैं हो रहा हूं... या कि इससे भी आगे ‘मैं होते- होते यह - यह नहीं वह होता जा रहा हूं’... जिस परिवर्तन के बीच में रहता हूं- यानि मेरा जो परिवेश है वह एक असुंतलन से दूसरे असंतुलन तक का है।’
अज्ञेय ने अपने समय की, बड़ी दुनिया की बात की है और अज्ञेय के बाद यह दुनिया कितनी और बड़ी हो गई है, हम सब देख ही रहे हैं। आज से लगभग तीन दशक पहले लिखे इस लेख में अज्ञेय ने उस विवशता की चर्चा की है जहां ‘मैं होते- होते यह - यह नहीं वह होता जा रहा हूं’... और इस परिवर्तन के बीच जो परिवेश है वह एक असुंतलन से दूसरे असंतुलन तक का है।’ पिछले एक दशक में यह असंतुलन अधिक विस्तृत हुआ है। वर्तमान व्यवस्था असंतुलन के संतुलन व्यवस्थित कर अपने स्वार्थों को सिद्ध करने में व्यस्त है। नव उदारवाद आर्थिक वैषम्य की खाई को निरंतर बढ़ाता जा रहा है और इसके लिए उसने मध्यम वर्ग को अपना टूल बनाया है। उसकीे संस्कारशील, मानवीय मूल्यों के प्रति चिंतित, अस्मिता एव संस्कृति के प्रति सजग तथा गलत के विरुद्ध, चेतना को, पूंजी की चकाचौंध से सुप्त करने का निरंतर षड़यंत्र चालू आहे। बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा, मध्यम वर्ग की नयी पीढ़ी को तीन चार गुना वेतन देकर उसकी सामाजिकता और परिवार छीन लिया है।
एक भयंकर षड़यंत्र चल रहा है और पूंजीवाद हमारा स्वामी बनने के लिए अनेक प्रकार ‘आयोजन’ कर रहा है। कभी अचानक हमारे देश की दो एक सुंदरियों को विश्व सुंदरी बनाकर यहां अपना बाजार फैला लिया जाता है और कभी आपकी भाषा को सर्वप्रिय बनाने के छद्म में आपकी भाषा छीनी जाती है। वैश्वीकरण और विश्वव्यापार की स्थितियां सभी को प्रभावित कर रही हैं। एक समय था बीस कोस पर भाषा अदल जाती थी और तीस कोस पर पानी बदल जाता था। आजकल सब जगह एक-सा ही पानी मिलता है- बोतल में बंद तथाकथित मिनरल वॉटर। दिल्ली को उसकी गलियां छोड़कर चली गई हैं और उनका स्थान मॉल-संस्कृति ने ले लिया है। पहले हर शहर की एक पहचान होती थी जो उसकी भाषा, संस्कृति, खान-पान तथा गलियों कूचों से जुड़ी होती थी, पर अब वो धीरे-धीरे गायब होती जा रही है। सभी शहर एक से लगने लगे हैं। निर्मला जैन की एक नयी संस्मरणात्मक कृति आई है, ‘दिल्ली शहर दर शहर’ जिसमें उन्होंनें दिल्ली के बदलते चेहरे का बहुत ही बारीकी से प्रस्तुतिकरण किया है। आज जब वो अपनी दिल्ली को पीछे मुड़कर देखती है तो लगता है कि ये दिल्ली तो वो रही नहीं, जिसकी गलियों में वे खेल खेलकर बड़ी हुईं। इस बदलाव के कारणों एवं षड़यंत्रा पर अपनी नजरिया प्रस्तुत करते हुए वे लिखती हैं- हर शहर का अपना एक चेहरा होता है, जो उसकी जीवन-शैली, बोली -बानी मेले-ठेलों, रीति - रिवाज़ों यानी कुल जमा सांस्कृतिक विन्यास से पहचाना जाता है। वर्तमान परिदृश्य में सभी शहरों की जीवन शैलियॉं एक महा-मंथन की गिरफ़्त में हैं। बहु राष्ट्रीय कंपनियां सबका ‘महानगरीय’ ब्रांडधर्मी संस्कृति में कायाकल्प करने में लगी हैं। मुनाफा इसी में है, जिसके लिए वे ग्रामीण क्षेत्रों में भी घुसपैठ करने की पि़फराक में हैं। सवाल जातीय विशिष्टताओं और अस्मिताओं को अंतरराष्ट्रीय ब्रांडो के आक्रमण से बचने का है। कौन कितना बचेगा, जैसे यह तय नहीं, वैसे ही यह भी निश्चिय करना संभव नहीं कि अंतिम परिणति किसके हित में होगी।’
मित्रों, केवल शहरों का चेहरा ही नहीं बदल रहा है, व्यक्ति के अंदर का चेहरा भी बदल रहा है। नव उदारवाद अधिक आर्थिक अर्जन की जठराग्नि में निरंतर घी डालकर उसे धधका रहा है। वर्तमान व्यवस्था में पैसे की ताकत ने सामाजिक को विवश कर दिया है कि उसका एकमात्र लक्ष्य, जैसे-तैसे अधिक धन का उपार्जन रह जाए। ये पैसे की ताकत ही है कि पचास रुपए की चोरी करने वाला पुलिस के डंडे खाता है, जेल जाता है और पचासों करोड़ की चोरी करने वाला टीवी चेनलों में हीरो बनता है। इतने आर्थिक घोटाले हुए हैं पर कितने को हमारी न्यायव्यवस्था ने सजा के योग्य समझा ये किसी से छुपा नहीं है। हमारी जनता की स्मृति बहुत क्षीण है। आज नंगई की मार्केटिंग का धंधा जोरों पर चल रहा है और साहित्य में भी ऐसे ध्ंाधेबाजों का समुचित विकास हो रहा है । कुटिल -खल -कामी बनने का बाज़ार गर्म है । एक महत्वपूर्ण प्रतियोगिता चल रही है -- तेरी कमीज मेरी कमीज से इतनी काली कैसे ? इस क्षेत्र में जो जितना काला है उसका जीवन उतना ही उजला है । कुटिल - खल-कामी होना जीवन में सफलता की महत्वपूर्ण कुंजी है । इस कुंजी को प्राप्त करते ही समृद्धि के समस्त ताले खुल जाते हैे । बहुत आवश्यक है सामाजिक एवं आर्थिक विसंगतियों को पहचानने तथा उनपर दिशायुक्त प्रहार करने की । पिछले दस वर्षों में पूंजी के बढ़ते प्रभाव, बाजारवाद,उपभोक्तावाद एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ‘संस्कृति’ के भारतीय परिवेश में चमकदार प्रवेश ने हमारी मौलिकता का हनन किया है। अचानक दूसरों का कबाड़ हमारी सुंदरता और हमारी सुंदरता दूसरों का कबाड़ बन रही है । सौंदर्यीकरण के नाम पर, चाहे वो भगवान का हो या शहर का, मूल समस्याओं को दरकिनार किया जा रहा है । धन के बल पर आप किसी भी राष्ट्र को श्मशान में बदलने और अपने श्मशान को मॉल की तरहा चमका कर बेचने की ताकत रखते
हैं ।
आजकल आत्मा की आवाज की जैसे सेल लगी हुई है । जिसे देखो वो ही आत्मा की आवाज सुनाने को उधर खाए बैठा है । आप न भी सुनना चाहें तो जैसे -क्रेडिट कार्ड, बैंकों के उधारकर्त्ता, मोबाईल कंपनियों के विक्रेता अपनी कोयल-से मधुर स्वर में आपको अपनी आवाज सुनाने को उधार खाए बैठे होते हैं, वैसे ही आत्मा की आवाज सुनने-सुनाने का धंधा चल रहा है । कोई भी धाार्मिक चैनल खोल लीजिए, स्वयं अपनी आत्मा को सुला चुके ज्ञानीजन आपकी आत्मा को जगाने में लगे रहते हैं । आपकी आत्मा को जगाने में उनका क्या लाभ? प्यारे जिसकी आत्मा मर गई हो वो धरम- करम कहां करता है, धरम-करम तो जगी आत्मा वाला करता है और धरम-करम होगा तभी तो धार्मिक-व्यवसाय फलेगा और फूलेगा। धर्म एक उद्योग हो गया है। इसलिए जैसे इस देश में भ्रष्टाचार के सरकारी दफतरों में विद्यमान् होने से वातावरण जीवंत और कर्मशील रहता है वैसे ही आत्मा के शरीर में जगे रहने से ‘धर्म’ जीवंत और कर्मशील रहता है । कबीर के समय में माया ठगिनी थी , आजकल आत्मा ठगिनी है । माया के मायाजाल को तो आप जान सकते हैं , आत्मा के आत्मजाल को देवता नहीं जान सके आप क्या चीज हैं । सुना गया है कि आजकल आत्मा की ठग विद्या को देखकर बनारस के ठगों ने अपनी दूकानों के शटर बंद कर लिए हैं । आत्मा की आवाज कितनी सुविधजनक हो गई है, जब चाहा जगा दिया जब चाहा सुला दिया जैसे घर की बूढ़ी अम्मा , जब चाहा मातृ- सेवा के नाम पर ,दोस्तों को दिखाने के लिए ड्ाईंग रूम में बिठा लिया और जब चाहा कोने में पटक दिया ।

आज किसी भी राष्ट्र को भौगोलिक दृष्टि से गुलाम बनाना अत्यधिक कठिन कर्म है परंतु आर्थिक दृष्टि से परतंत्र बनाना और उसकी संस्कृति तथा भाषा छीनकर उसकी अस्मिता की पहचान को मिटाना बहुत सरल उपाय है। यदि आप ध््यान से देखें तो हमारे चारों ओर नवआधुनिकवाद, सूचना क्रांति आदि के माध््यम से यही किया जा रहा है। यह सिद्ध किया जा रहा है कि हिंदी भाषा लंगड़ी है और वो बिना अंगेजी की बैसाखी के आगे नहीं बढ़ सकती है। इस अभियान में हिंदी के कुछ समाचार पत्र और तथाकथित मीडियाऋ विशेषज्ञ, सहायक की भूमिका निभा रहे हैं।आम आदमी के द्वारा पढ़े जाने वाले अखबार का दावा करने वाले, ऐसी भाषा का प्रयोग कर रहे हैं जो संकर संस्कृति के युवाओं द्वारा बोली जाती है। भाषा हमारा सामाजिक स्तर नापने का यंत्र बन गया है।
हिन्दी का भी भूमंडलीकरण हो गया है । हिन्दी मात्र अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में एक भाषा ही नहीं है अपितु वह बाजार को विवश कर रही है कि वह उसकी ताकत को स्वीकारे । परंतु हिंदी की इस ताकत का प्रयोग उसको भस्मासुर बनाकर नष्ट करने के लिए हो रहा है। हिंदी बाजार की भाषा बन गई है और इस रूप में ताकतवर लगती दिखाई देती है परंतु वस्तुस्थिति कुछ और है। हिंदी के इस ताकत के छद्म में उसके सर्वांगीण विकास के बहाने से उसे भ्रष्ट किया जा रहा है। प्रत्येक चैनल की हिन्दी अपना ही इस्टाईल मार रही है । विज्ञापनों की भाषा , समाचारों की भाषा , धारावहिकों की भाषा और हिन्दी फिल्मों से अपनी रोजी - रोटी ! चलाने वाले बेचारे हीरो हिरोईन की कब्जीयुक्त हिन्दी - भाषा ने आपके कानों में अनेक प्रकार के रस घोले ही होंगें । वैसे तो आपके पब्लिक स्कूली होनहार की अध्यापिका या अध्यापक आपसे हिन्दी में बात करके अपना स्तर नहीं गिरायेगी / गिरायेगा और अगर उसने गिरा भी लिया तो जो हिन्दी उनके श्रीमुख से निकलेगी उसे सुन आप ईश्वर से प्रार्थना करेंगे कि हिन्दी का जो होना है हो , भाषा के कारण इनका स्तर न गिरे । सरल / आसान / आम आदमी की भाषा आदि के नाम पर हिन्दी से जो बलात्कार हो रहा है उसे एक अच्छे नागरिक की तरह आप नज़र अंदाज कर ही रहे होंगें । ‘ चैलनी हिन्दी समाचारों ’ में भाषा की सरलता के नाम पर जो अंग्रेजी का कुमिश्रण होता है उसे देखकर तो यही लगता है बेचारी हिन्दी बहुत गरीब है जिसके पास शब्द नहीं हैं और समर्थ अंग्रेजी कितनी उदार है कि वह हिन्दी को शब्द दे रही है । मैंनें अनेक हिन्दी समाचारों में ‘ आसान हिन्दी ’ के नामपर अंग्रेजी शब्दों का जो मिश्रण देखा है उससे तो अनेक बार भ्रम होने लगता है कि यह समाचार हिन्दी के हैं या अंग्रेजी के । फिर मेरा देसी मन मुझे डांटता है कि रे जड़ तूने कभी अंग्रेजी के समाचारों में हिन्दी के वाक्यों को सुना है जो ऐसी शंका करता है । अंग्रेजों ने हमपर शासन किया था कि हमने उनपर ! आज जो वे अपने माल को बेचने के लिए तेरी तुच्छ हिन्दी का प्रयोग कर रहे हैं , तेरी हिन्दी को अपनी अंग्रेजी से समृद्ध कर रहे हैं तो तूं उनका अहसान मान और नत्मस्तक हो जा । अंग्रेजी बोलने में जो गौरव है वो हिन्दी बोलने में कहा । दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ते समय मैंनें अक्सर अनुभव किया कि विद्यार्थी हिन्दी और उसके पढ़ाने वाले को बहुत फालतू - सी वस्तु समझते हैं ।
भाषा की बात चली है तो मुझे अज्ञेय का एक व्यंग्य स्मरण हो आया। उसका शीर्षक है- साहब हैं। उसमें भाषा के प्रति गुलाम मानसिकता एवं तुच्छ भाव पर प्रहार करते हुए अज्ञेय लिखते हैं- दिल्ली में हिंदी का स्थान वही है जो कि ‘राजधानी’ में एक ‘वेर्नाक्युलर’ का होता है ,वेर्ना, घर में जन्मा हुआ दास, दास-पुत्र’ तो यही वह जल-वायु है जिसे पी कर और जिस से ंिसच कर दिल्ली की हिंदी पलेगी, बढ़ेगी और फल देगी- जैसा भी फल... और वह फल दिल्ली में ही खया जायेगा, ऐसा नहीं है। दिल्ली तो राजधानी है, जहां समूचे देश के मानक बनते हैं, जहां से कसोटियां बाहर भेजी जाती हैं। दिल्ली का यह फल ;दिल्ली का यह विषाक्त लड्डू!द्ध सारे देश में बंटता है, इसी का बीज आस-पास बोया जाता है कि वहां भी पौध तैयार हो और फले...

आज का समय विसंगतियों से भरा हुआ है और चकाचौंध में सामाजिक सरोकार तथा मानवीय मूल्य धुंधलाते जा रहे हैं । अस्मिता पर लुके छिपे हमले हो रहे हैं । ये सब ईमानदार मस्तिष्क पर निरंतर अपने प्रभाव छोड़ते रहते हैं । मुझे लगता है कि जिस तरह से पिछले डेढ़ दशक में पूंजी के प्रभाव से भारतीय समाज में विसंगतियां बढ़ी हैं तथा वर्तमान व्यवस्था आपको हताश-निराश एवं अवसाद में अकेला महसूसने को विवश कर रही है, ऐसे में इन सबसे लड़ने का एक मात्र हथियार व्यंग्य ही है। कुछ ऐसी ही परिस्थिति कमलेश्वर के सामने उपस्थिति हुई थी। इलाहबाद से दिल्ली जैसे महानगर में आने पर उनहें लगा कि जिस फार्म और ट्रीटमेंट को वे अपना रहे हैं वो कही मिसफिट है। यही कारण है कि उन्होंनें 1970 में प्रकाशित ‘जिंदा मुर्दे’ संकलन की भूमिका में लिखा था ---जब मैं इलाहबाद छोड़कर दिल्ली आया था और दिल्ली आते ही एक रचनात्मक शून्य में फंस गया था, कयोंकि तब तक लिखी कहानियो की भाषा, गति और फार्म आदि मेरे काम नहीं आ रहे थे। सच्चाइयां इतनी उलझी हुई लग रही थीं कि उनका छोर समझ नहीं आ रहा था, ऐसे में विडम्बनाओं पर ही दृष्टि टिकती है। अब मुझे लगता है कि अपने समय और परिवेश को समझने में प्राथमिक दृष्टि व्यंग्य की ही हो सकती है। इस संग्रह की कहानियां मेरे लिए अत्यंत महत्वपूंर्ण हैं,क्योंकि इनके सहारे ही मैंनें पहली बार महानगर की उलझी हुई जिंदगी के छोर सुलझाए थे। -जिंदा मुर्दे 1970
और संभवतः इसी कारण, बदलते हुए सामाजिक परिवेश में जब वरिष्ठ आलोचक नित्यांनद तिवारी ‘रागदराबरी’ की पुनः आलोचना करते हैं तो स्वीकार करते हैं - लगभग तीस वर्ष पहले मैंने ‘राग दरबारी’ का एक विश्लेषण किया था। मेरे विश्लेषण का तौर-तरीका यथार्थवादी ढांचे के भीतर था। उसमें भाषा और वास्तविकता के बीच संबंध होता है। व्यंग्य वास्तविकता के विद्रूप को उभारने वाली एक शैलीगत विशेषता है। तब मैंने पाया था कि ‘व्यंग्य’ का अतिरंजित उपयोग इस उपन्यास को वास्तविकता से अलग एक स्वाद-रुचि देता है। लेकिन अब मैं ‘राग दरबारी’ के साक्ष्य पर ही कह सकता हूं कि ये जो व्यंग्य है वह विद्रूप से अधिक ‘रियलिटी’ और ‘वर्चुअल रियलिटी’ का फर्क सामने ले आता है।’’
इसी कसौटी के आधार पर वे ‘राग दरबारी ’ की समीक्षा करते हुए उसे आज के समय की दृष्टि से देखते हैं। ‘राग दरबारी’ चाहे आज से तीस बरस पहले लिखा गया हो परंतु प्रो0 तिवारी की अधुनात्तम समीक्षा दृष्टि के कारण सामयिक सामाजिक परिस्थितियों का विदृूप उभारने वाला हो गया है। वे लिखते हैं- स्थानीयताओं का इस्तेमाल कॉरपोरेट दुनिया कर रही है और इसका दोहन करना चाहती है। विकास की राष्ट्रीय धारणा या सामाजिक विकास की धारणा से वह जुड़ी हुई नहीं है बल्कि जो स्थानीयता है उसका कॉरपोरेट दुनिया में किस तरह उपयोग हो सकता है, इसके लिए इस्तेमाल की जाती है। इसलिए जैसे सिंगूर है या और तमाम जगह हैं, पिछड़े इलाके में उनका उपयोग उसी तरह हो रहा है जैसी हैवी इंडस्ट्री नेहरू ने लगाई थी? या इनके कॉरपोरेट निहितार्थ राष्ट्रीयता से अधिक और अलग हैं। सामाजिक विकास होता है या नहीं होता है इसमें उनकी विशेष रुचि नहीं है, वो बाई प्रोडेक्ट हो सकता है लेकिन टारगेट ऐरिया नहीं है। ऐसी हालत में जो कॉरपोरेट हित है, उनमें स्थानीयता का उपयोग कैसे किया जा सकता है ये अधिक महत्वपूर्ण हो गया है।
ये किसका कथन है मुझे याद नहीं आ रहा है- पर्सनल इश पोलिटिकल। क्या राजनीति कभी समाज की चिंता के बगैर बनी है? नहीं बनी। पर अब बिना सामाजिक हुए आदमी पोलिटिकल हो सकता है। जो निजी है, ग्लोबल है वो पोलिटिकल हो जाएगा। निजी को मैं स्पष्ट कर दूं, निजी से मेरा अर्थ निहितार्थ है। निहितार्थ की रक्षा करना पोलिटिकल है और समाज की जिम्मेदारी लेना पोलिटिकल नहीं रह गया है। इस तरह के जो कांस्ट्रक्ट्स हमें दिखाई पड़ते हैं
मैं व्यंग्य या अतिरंजना को यथार्थ उभारने का एक ‘टूल’ नहीं मानता हूं बल्कि ये एक ऐसा मॉडल है जो पूरे के पूरे इस दौर को और आज तक के इस दौर को परिभाषित कर सकता है।’’

व्यंग्य, बदलते सामाजिक परिवेश में उत्पन्न विसंगतियों के विरुद्ध लड़ाई का एक सार्थक हथियार बन गया है। सामयिक परिवेश में अवसाद, मूल्यहीनता, एकाकीपन आदि की उत्पन्न स्थिति का सामना करने के लिए व्यंग्य एक उपयुक्त माध््यम है। यहां मेरे वक्तव्य से यह आशय नहीं लिया जाये कि लालटेन से आरंभ हुई अपनी जिंदगी के कारण मैं कंप्यूटर आदि जैसी नयी तकनीकों का विरोध करने वाला कोई पोंगा पंडित हूं और सामाजिक मानवीय मूल्यों को बचाने के लिए पिछड़ेपन से भरपूर समाज की वकालत कर रहा हूं। हम सब जानते हैं कि हमारा अतीत चाहे सोने की चिड़िया-सा कितना स्वर्णिम रहा हो, अनेक विसंगतियों से भरा था। हम जातिवाद, क्षेत्रतियतावाद, अस्पृश्यता जैसे कितने ही अंधेरों से घिरेे रहे हैं। कल महिला दिवस है और हम जानते हैं कि हमारे समाज में आज भी नारी की स्थिति कितनी विसंगतिपूर्ण है। आज भी भ्रूण हत्या जैसे कलंक से हम बच नहीं पाए हैं। हम दिखावे में आधुनिक हो गए हैं पर हमारी सोच आधुनिक नहीं हो पा रही है। और यही हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है। कुछ ऐसी ही विसंगतियां निरंतर आधुनिक, अतिआधुनिक होते हमारे सामाजिक परिवेश की है। विज्ञान ने हमारी दुनिया को हथेली में सरसों- सा जमा दिया है। संचार माध्यमों, सूचना प्राद्योगिकी आदि के कारण हम निरंतर प्रगतिपथ पर अग्रसर हैं। इस क्षेत्र में हो रहे निरंतर अनुसंधान प्रतिदिन कुछ न कुछ नये का हमारे जीवन का अंग बना रहे हैं। इस प्रक्रिया में नया बहुत जल्दी पुराना हो रहा है। प्रतियोगिता के इस परिवेश में , नया परोसकर जैसे - तैसे आगे बढ़ने की लालसा ने लक्ष्य को महत्वपूर्ण कर दिया है और माध्यम को गौण। यहीं साहित्यकार की भूमिका सामने आती है। अज्ञेय ने कहा था- विज्ञान का कहना है कि दुनिया दिन-ब-दिन छेाटी होती जाती है, वह एक अर्थ में सही है, लेकिन साहित्य में यह बात सच नहीं है , हर बड़ा लेखक दुनिया को थोड़ा और बड़ा करके अपने परवर्तियों को दे जाता है।’ अज्ञेय ने दुनिया को बड़ा करने की बात कही है, मैं इसमें जोड़ना चाहूंगा कि साहित्यकार मानव समाज के लिए बेहतर दुनिया के फलक को अपने योगदान से और बड़ा कर अपने परवर्तियों को दे जाता है।
मेरे विचार से न तो कोई विधा महत्वपूर्ण होती है और न ही कोई माध्यम, महत्वपूर्ण होती है विषयवस्तु। पहले आता है कि आप कहना क्या चाहते हैं और बाद में आता है कि आप उसे कहते कैसे हैं। चाहे वो कवि हो,कहानीकार हो, नाटककार या व्यंग्यकार-सभी हैं तो मूलतः साहित्यकार। व्यंग्य-लेखन साहित्य लेखन से अलग की वस्तु नहीं है। क्या व्यंग्यकार के सामाजिक सरोकार वही नहीं हैं जो एक कथाकार, कवि या नाटककार के हैं? हां , व्यंग्य लेखन अन्य विधाओं से भिन्न प्रक्रिया की मांग करता है । व्यंग्य आपको बेचैन अध्कि करता है । अधिकांशतः सामयिक घटनाएं प्रेरक बिंदु होने के कारण व्यंग्य रचना अन्य विधाओं की अपेक्षा अपने जन्म के लिए अधिक जल्दी में होती है । मैंनें अन्य विधाओं में भी लिखा है और मेरा यह अनुभव है । व्यंग्य लेखन की प्रक्रिया में मैंनें अन्य विधाओं की अपेक्षा अधिक बेचैनी का अनुभव किया है । वैसे तो रचना अपनी विधा स्वयं तलाश लेती है। मुझे व्यंग्य के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करना अधिक सहज लगता है। जब समाज अनैतिक होता है और नैतिकता के ठेकेदार नैतिकता के छद्म में अपने अनैतिक कर्म सफल बनाते हैं तभी तो व्यंग्यकार की रचनात्मक भूमिका जन्म लेती है । जब आंकडा़ छत्तीस का हो और उसे तरेसठ का सिद्ध करने में सिद्धहस्त व्यस्त हों, तभी तो व्यंग्यकार उस विसंगति को उद्घाटित करने के लिये अपना रचनात्मक विरोध रजिस्टर करता है । आज राजनीति, समाज, धर्म , साहित्य आदि में जो मूल्यहीनता की स्थिति है तथा जिस प्रकार हमारी वर्तमान व्यवस्था आक्रोश के स्थान पर पलायन के भाव को भरना चाहती हैं, आर्थिक प्रगति के नाम पर विरोध के प्रजातांत्रिक अधिकार को कुंद करना चाहती है उसके चलते व्यंग्य की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाती है ।
व्यंग्य मूलतः एक सुशिक्षित मस्तिष्कि के प्रयोजन की विधा है ।; महाज्ञानी मुझ अज्ञानी के इस वक्तव्य से यह अर्थ न लें कि व्यंग्य लिखने या समझने के लिए हिन्दी में एम0 ए0 , पीएच 0 डी0 करना आवश्यक है इस कारण विश्वविद्यालय के लिए कदम - कदम बढ़ा कर व्यंग्य के गीत गाने लगें । कबीर ने न तो मसि कागज छुआ और न कलम ही हाथ में गहि और ऐसे भी महानुभाव हैं जिन्होंनें मसि कागज छुआ और कलम गहि पर व्यंग्य की समझ उनसे कोसों दूर ही रही । ऐसे ज्ञानियों से गांव की गंवारन बेहतर जो बातों बातों में कब गहरा कटाक्ष कर जाती है पता ही नहीं चलता । व्यंग्य के प्रयोग में बहुत ही सावधानी की आवश्यकता है । इसका लक्ष्य मात्र विसंगतियों का उद्घाटन करना ही नहीं है , अपितु उसपर प्रहार करना है । यहां सवाल उठता है कि इस प्रहार की प्रकृति क्या हो । व्यंग्य अगर हथियार है तो इसके प्रयोग में सावधानी की आवश्यकता भी है । तलवार को लक्ष्यहीन हाथ में पकडकर घुमाने से किसी भी गला कटकर अराजक स्थिति पैदा कर सकता है तथा स्वयं की हत्या का कारण भी बन सकता है ।
आज हिंदी व्यंग्य में इस तरह का अराजक माहौल पनप रहा है । इससे व्यंग्य अपने लक्ष्य से भटक रहा है । जिस व्यंग्य को नैतिक तथा सामाजिक यथार्थ की गहराई से जुडकर, पाठक को सही सामाजिक परिवर्तन की ओर अग्रसर करना चाहिए , वही सस्ती लोकप्रियता के चक्कर में सतह पर ही घूम रहा है । अच्छा साहित्य लिखने की चुनौती और प्रतियोगिता तो साहित्य की हर विधा में है। कुछ आलोचक पूरे व्यंग्य साहित्य को देायम दर्जे का साहित्य मानते हैं।यदि लापफट्र शो या चुटकलेबाजीमय तथाकथित मंचीय कविता का रिश्ता व्यंग्य से जोड़ा जा सकता है तो क्या घटिया धारावाहिकों का रिश्ता कथा-साहित्य से नहीं जोड़ा जा सकता? यदि व्यंग्यकार से पूछा जा सकता है कि तुम अहसान कुरेशी टाइप क्यों नहीं लिखते, तो क्या किसी ‘श्रेष्ठ’ कथाकार से सवाल नहीं किया जा सकता कि वह प्यारेलाल आवरा या गुलशन नंदा टाइप क्यों नहीं लिखता? क्या सभी व्यंग्यकार गहरे में नहीं उतरते हैं और दोयम दर्जे का साहित्य लिखते हैं,ैं और समस्त कथाकार,नाटककार और कवि गहरे में ही उतरे पाए जाते हैं और उत्कृष्ट साहित्य रचते हैं?
व्यंग्य लेखन के अनेक उपमान मैले हो चुके हैं । सामाजिक सरोकारों से जुड़े नए विषयों की खोज का संस्कार मैंनें परसाई जी से ग्रहण किया है। परसाई जी जिन दिनों अपनी टूटी टांग का इलाज दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में करवा रहे थे, उन्ही दिनों मैंनें और हरिमोहन शर्मा ने उनका एक साक्षात्कार लिया था। मेरे एक प्रश्न के उत्तर में परसाई जी ने कहा- प्रेम हमारी पीढ़ी ने अपने पिता को नंगा नहीं देखा, तुम देख सकते है। इस प्रतीक को अगर आप समझे ंतो आप आज के समाज में व्यंग्यकार की भूमिका को अच्छी प्रकार से समझ सकते हैं। आजादी के बाद का व्यंग्य साहित्य अधिकांशतः राजनीतिक विसंगतियों पर आधारित है। राजनीतिक विसंगतियों के अधिकांश लक्ष्य मूर्ख थे और उनके अंदर विसंगतियां धीरे-धीरे पनप रही थीं। आज की व्यवस्था हमें मूर्ख बना रही है।
व्यंग्य विधा जैसा प्रश्न बहुत घिस चुका है और अपनी चमक ही नहीं पहचान भी खोने लगा है। अब यह सवाल ऐसा लगता है जेसे आपके पास व्यंग्य आलोचना में बहस के लिए और कोई मुद्दे नहीं हैं, सो आप इसे ही घिसे जा रहे हैं। इसे बंद कर दिया जाना चाहिए। व्यंग्य के औजारों की पहचान की आवश्यक्ता है। व्यंग्य लेखन अलग पहचान लिए कैसे है इसपर चर्चा की आवश्यक्ता है।
निरंकुश लेखन, विशेषकर व्यंग्य, बहुत ही खतरनाक है। किसपर व्यंग्य करना है के साथ-साथ यह जानना भी आवश्यक है कि किसपर व्यंग्य नहीं करना है। वंचितो पर व्यंग्य कतई नहीं करना चाहिए। मेरा प्रयत्न तो ये ही रहा है कि निडरता से अपनी बात कहूं, पर कहां मैं कायर रह गया और किन विषयों से बचकर निकल गया, ये तो मेरे आलोचक बताएं या बताएंगे तो मैं अपने को सही कर सकूंगा। लेखक के दिलो दिमाग खुले हैं और उसमें विषयों को पकड़ने की क्षमता है तो उसे कहीं से भी विषय मिल जाते हैं। मेरे विचार से कोई विषय प्रखर या कुंद नहीं होता है अपितु उसकी अभिव्यक्ति उसे प्रखर बनाती है। एक विषय को परसाई उठाते थे और उसी विषय को उनके कुछ समकालीन भी उठाते थे परंतु विषय का ट्रीटमेंट परसाई को परसाई बनाता है। परसाई की पारसाई विषय को प्रखर बना देती थी। मैं परंपरागत विषयों को दोहराने में अधिक विश्वास नहीं करता हूं।
मैं बेहतर रचना को ही बेहतर मानने का पक्षधर हूं। कोई विधा किसी रचना को श्रेष्ठ नहीं बनाती हैं अपितु श्रेष्ठ रचनाएं किसी विधा को श्रेष्ठ बनाती हैं। हमारी युवा पीढ़ी में जो ये भ्रम है कि वो व्यंग्य के नाम पर जो भी लिखेंगें वो श्रेष्ठ होगा, उचित नहीं है। माना हंसी बिक रही है, पर मैं साहित्य का उद्ेश्य बिकाउ होना नहीं मानता हूं। मेरा हास्य से कोई विरोध नहीं है और मेरा मानना है कि व्यंग्य की अपेक्षा श्रेष्ठ हास्य लिखना अधिक कठिन है। पर जिस तरह हमारे जीवन में निरंतर विसंगतियों का ‘विकास’ हो रहा है ऐसे में साहित्य के माध्यम से हास्य परोसना अपने साहित्यिक दायित्व से उदासीन होना होगा। व्यंग्य मेरे लिए वर्तमान विसंगतियों पर प्रहार करने का जनवादी हथियार है।
मेरा यह भी मानना तो यह है कि व्यंग्य के लिए हास्य की बैसाखी का प्रयोग करना अनावश्यक है। हास्य के नाम पर जिस तरह हास्यास्पद रचनाओं का उत्पादन हो रहा है, उस माहौल में व्यंग्य को हास्य से जितना दूर रखा जाए अच्छा है। हास्य और व्यंग्य दोनों का आधार विसंगति है, ऐसे में संभव है कि किसी रचना में विसंगति का चित्रण करते समय दोनों के दर्शन हो जाएं। संप्रेषणीयता के नामपर,व्यंग्य से साथ हास्य के अनावश्यक प्रयोग का मैं विरोधी हूं।
व्यंग्य एक अराजक स्थिति में है । व्यंग्य की बढती लोकप्रियता ने इसे बहुत हानि पहुंचाई , विशेषकर अखबारों में प्रकाशित होने वाले स्तम्भों नें नई पीढी को बहुत दिगभ्रमित किया है । आज सात आठ सौ शब्दों की सीमा में लिखी जानी वाली अखबारी टिप्पणियों को ही व्यंग्य रचना मानने का आग्रह किया जाता है । क्षेत्रीय अखबारों में स्तम्भ लिखने वाले नए रचनाकार अपनी कमीज का कालर उठाए, व्यंग्यकार का तमगा लगाए घूमते हैं तथा आग्रह करतें हैं कि उनकी अखबारी टिप्पणियों के कारण उन्हें व्यंग्यकारों की जमात में शामिल कर ही लिया जाए । स्वयं को व्यंग्यकारों की जमात में जल्द से जल्द शामिल करवाने की लालसा तथा एक आध अखबारी कॉलम हथियाने की जुगाड़ दिशाहीन व्यंग्य को जन्म दे रही है ।
आजकल व्यंग्य लेखन फैशन में है और जो वस्तु पफैशन में होती है उसको चलने दिया जाता है और संत लोग सार- सार गहि के थोथा उड़ाते रहते हैं । आजकल लोग बहुत चतुर और सयाने हो चुके हैं, वे उपभोक्तावादी समाज में पल- बढ़ रहे हैं, अतः लुभावने विज्ञापनों का आनंद तो उठाते हैं पर उनके बहकावे में कम आते हैं, ये दीगर बात है कि बच्चे आ जातें हैं, पर बच्चे तो बच्चे ही कहलातें हैं । जब किसी वस्तु की मात्रा में वृद्धि होती है तो उसकी गुणवत्ता में गिरावट आना स्वाभाविक है और उपभोक्तवादी समाज में वही टिकता है जो गुणवत्ता का ध्यान रखता है । इस दृष्टि किसी भी ‘ब्रै्रंड’ के प्रोमोशन में चाहे कितने ही विज्ञापननुमा दावे कर लिए जाएं, चाहे कितने ही शुभकामना संदेश प्रसारित कर दिए जाएं, अध्कि देर टिकेगा वही जिसमें गुणवत्ता होगी ।
साहित्य के मार्ग में शार्ट कट नहीं होते हैं और जो शार्ट कट तलाशते हैं वे मात्र आड़ी तिरछी पगडंडियों पर भटकते हुए राजमार्ग पर चलने का भ्रम पालते हैं । साहित्य का मार्ग पत्थरीला, कंटीला एवं लम्बे संघर्ष से युक्त है । इस मार्ग पर अनेक पड़ाव आते हैं और उन पड़ावों को पार करने के पश्चात् भी रचनाकार निश्चिंत तौर पर नहीं कह सकता कि उसने लक्ष्य को पा लिया है ।
व्यंग्य का अतीत बहुत ही सशक्त रहा है और वर्तमान प्रगतिशील है । हर युग का कूडा़ छनता है । परसाई,जोशी,त्यागी और शुक्ल के समय और भी व्यंग्यकार लिख रहे थे पर उनकी चर्चा अधिक नहीं होती है । कुछ लोगों को समय छांटता है और कुछ को साम्प्रदायिक आलोचक भी छांटते हैं । अब आप जानते ही हैं कि एक साहित्यिक सम्प्रदाय के लोग मुक्त कंठ से परसाई की प्रशंसा करते हैं,चलते-चलते श्रीलाल जी का नाम लेते हैं पर रवीन्द्रनाथ त्यागी या शरद जोशी चर्चा करते हुए उन्हें कब्ज हो जाती है । परसाई के अतिरिक्त और किसी का नाम लेने में उन्हें ‘संकोच’ ; एक पतिव्रता नारी जैसा संकोच,होता है। व्यंग्य का वर्तमान बताता है कि व्यंग्य का भविष्य अच्छा है ।मेरा लक्ष्य केवल वर्तमान को अपनी अल्पबुद्धि को प्रयोग कर सुंदर भविष्य की ओर भेजना है ।
अंतः में मैं निष्कर्ष के लिए अज्ञेय की कविता का आश्रय लेना चाहूंगा।
अज्ञेय कहते हैं-
आंगन के पार
द्वार खुले
द्वार के पार आंगन
भवन के ओर-छोर
सभी मिले--
उन्हीं में कहीं खो गया भवन।
मेरा कहना है कि आज पूंजीवाद ने सभी देशी विदेशी द्वार खोले हुए हैं। हमने भी अपने भवन के सभी द्वार खोल दिए है। पर इस प्रक्रिया में हमारा अपना भवन जो भाषा, संस्कृति और हमारी अस्मिता का है, कहीं खो न जाए। इन खुले द्वारों का कौन द्वारी है, कौन अगारी है कौन नहीं जानते कोई बात नहीं, पर आज जो हमारा देवता बना हुआ है, जो पा-लागन करता हुआ दिखाई देता है, उससे सावधान रहें। हम उस सांप से सवाल करें-
सांप!
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूंछूं,उत्तर दोगे,
तब कैसे सीखा डंसना
विष कहां से पाया?

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शनिवार, 27 मार्च 2010

प्रेम जनमेजय: वसंत, तुम कहां हो?

प्रेम जनमेजय: वसंत, तुम कहां हो?

वसंत, तुम कहां हो?


वसंत, तुम कहां हो?

मैं बहुत दिनों से वसंत को ढूंढ रहा था। पता चला कि इस बार वो 20जनवरी को दिखा था, पर उसके बाद पता नहीं कहां चला गया। वसंत ने तो मुझसे उधार भी नहीं लिया है कि वो मुझ से मुंह चुराए। मैं किसी क्रेडिट कार्ड बनवाने वाली, उधार देने वाली, बीमा करने वाली या फिर मकान बेचने वाली, कंपनी के काल सेंटर में भी काम भी नहीं करता हूं कि वो मुझसे बचकर चले। वसंत किसी मल्टी नेशनल कंपनी में तो काम करने नहीं लग गया है। मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाले युवक, कब घर आते हैं और कब जाते दफतर जाते हैं, मोहल्ले की क्या औकात, मां-बाप को पता ही नहीं चलता है। हो सकता है किसी कंपनी ने वसंत का अपने नाम पेटेंट करवा लिया हो और वो बेचारा हाथ बांधे अपने मालिक की सेवा में खड़ा हो।
पिछले वर्ष, एक दिन वसंत रास्ते में मिल गया, पर मैं पहचान नहीं सका। उसके चेहरे पर पतझड़ का वैसा ही सूखापन था जैसा सूखापन आजकल राजनीति में नैतिकता का है। उसका चेहरा किसी भूखे के पेट की तरह सख्त था और आंखों से किसी गरीब के जीवन का सूनापन झांक रहा था। होली के आसपास कौन ऐसे वसंत को पहचान सकता है? पर हो सकता है इसबार उसका चेहरा बदल गया हो। पिछले साल तो मंदी थी, इस बार तो तेजी आने वाली है।
मैंनें तय कर लिया कि इस बार तो वसंत को ढूंढ ही निकालूंगा। महात्मा बुद्ध ज्ञान की खोज में महलों का सुख त्यागकर रात को निकले थे, मैं दिन में ही, कॉलेज में पढ़ाने का सुख त्यागकर, निकल पड़ा। कालेज में पढ़ाने का सुख, महलों के सुख से कम नहीं है। आप पढ़ाते नहीं पर फिर भी माना जाता है कि आप पढ़ाते हैं।
वसंत की खोज में निकला ही था कि देखा नुक्कड़ के मकान के बाहर पत्नी अपनेे पति को तिलक करते हुए कह रही है- जाओ प्रिय, चार माह के लिए तुम देश सेवा के लिए जाओ। चाहे मेरे घर का जितना भी बजट बिगड़ जाए, तुम तो देश का बजट बनाकर आओ। राष्ट्रहित में मैं चार महीने के विरह का पतझड़ सह लूंगी।’
जहां दीये तले अंधेरा होता है, वहां दीये उपर उजाला होता है, जहां विरह का पतझड़ होता है, वहां मिलन का वसंत भी होता है। यह सोचकर मैंनें पूछा- हे देवी, आप विरह का पतझड़ क्यों सह रही हैं?’’
‘मेरे पति बजट- बाबू हैं। इन्हें देश का बजट बनाने वित्त मंत्रालय की कैद में जाना है। जब तक बजट नहीं बनेगा मेरे जीवन में विरह का पतझड़ छाया रहेगा।’
मैंनें बजट बाबू से कहा- आपकी पत्नी के जीवन में तो विरह का पतझड़ छाया होगा और आपके जीवन में बजट का वसंत छाएगा। इसका मतलब वसंत आपके साथ कमरे में बंद रहता है।’
- वसंत, हमारे साथ कमरे में! वो तो हमसे डरता है, हमारे पास पफटकता नहीं कि कहीं हम उसपर सर्विस टैक्स न लगा दें। वित्त मंत्री के तीरों से अच्छे-अच्छे घबराते हैं, वसंत किस खेत की मूली है। जाओ उसे किसी मॉल में ढंूढो।’
मैं वसंत को ढूंढने निकल पड़ा। मुझे लगा कि कहीं वो दाल और चीनी की तरह बाजार से तो गायब नहीं हो गया। पर दाल और चीनी की तो गरीब को आवश्यक्ता होती है, वसंत की नहीं, वसंत की तो अमीरों को आवश्यक्ता होती है। उनके जीवन में तो बारहमासी वसंत छाया रहता है, नहीं छाता है तो बाजार से खरीदकर छवा लेते हैं। वो सारी चीजें, जिनकी आवश्यक्ता अमीरों को होती है, वो कभी बजार से गायब नहीं होती हैं। फ्रिज, टीवी,ए सी, बड़ी-बड़ी कारें, साधन सम्पन्न कोठियां, बेईमानी, भ्रष्टाचार, अनैतिकता आदि आपने कभी गायब होते देखे हैं। ये तो बाई वन गेट वन फ्री यानी एक के साथ दूसरा मुफ्त पाओ की शैली में मिलते हैं।
आजकल बाजार से जो चीज गायब हो रही है, जिसके भाव बढ़ रहे हैं , उसका पता कृषि-मंत्री को होता है। आप तो जानते ही हैं कि हमारे मंत्री किसी जादूगर से कम नहीं होते हैं। जब मंत्री बनते हैं तो किसी सुदामा से कम नहीं होते हैं पर ऐसा जादू करते हैं कि झोपड़ी के स्थान पर महल बन जाते हैं। जादूगर चीजों को आपकी आंखों के सामने ऐसे गायब करता है कि आप देखते रह जाते हैं। और जो चीज गायब करता है, वो ही तो बता सकता है कि वो चीज गायब होकर कहां गई है। इसलिए मैं भी गायब वसंत के बारे में पता करने के लिए कृषि-मंत्री के पास चला गया।
मैंने कृषि-मंत्री से पूछा,‘‘ आपने वसंत को देखा है? कहीं मिल नहीं रहा है।’’
- कौन वसंत ?
- वसंत, अपना वसंत।’’
- अपना मराठी मानुस! उसके बारे में अप्पन खुलके बात नहीं करेगा। उसका खुल्लमखुल्ला ठेका तो बाबा साहेब के पास है, हमारा अंडरस्टैंडिंग तो बस छुपमछिपाई का...
- नहीं मराठी मानुस वाला वसंत गायब नहीं हुआ है, वो तो जैसे दाल और चीनी गायब हुए हैं...
- ओ अच्छा, वसंत नाम का कोई किसान गायब हो गया है। वो गायब नहीं हुआ होगा, उसने आत्महत्या कर ली होगी, उसे ढूंढना बंद ही कर दो।’ इस शोक में उन्होंनें बिना चीनी के चाय पी और बोले,‘देख लेना, कहीं वसंत का निर्यात तो नहीं हो गया।’’ यह कहकर उन्होंनें हाथ में क्रिकेट की बॉल पकड़ ली और उससे कैच -कैच खेलने लगे। मुझे लग गया कि यहां वसंत का पता नहीं मिलेगा, यहां तो कैच होने वाली वो बालें दिखेंगी जो स्विस बैंक में जमा करने लायक होती हैं।
मैंनें रिक्शेवाले से पूछा- ये वसंत कहां है, पता है?
- न, हम तो कल ही गांव से शहर आए हैं, कोई सवारी नहीं मिली है, आप ही बता दो कहां चलना है और जो चाहे दे दो।’
- वसंत किसी मोहल्ले का नाम नहीं है, वसंत तो मौसम का नाम है। तुमने देखा होगा, वसंत आता है तो कोयल कूकने लगती है और बागों में फूल खिल जाते हैं।’
- बाबू हम तो जब से आए हैं, कार-स्कूटरों की चिल्ल पों ही सुनी है। कोयल की कूक तो गांव में सुनी थी। बाबू जब पेट में भूख लगी हो तो फूल कहां दिखाई देते हैं। और पिफर हमें तो चारों ओर बिल्डिंग ही बिल्डिंग नजर आती हैं, इन पत्थरों में फूल कहां खिलेंगें? बाबू , आप कार-स्कूटर में बहुत बार वसंत को ढूंढते होंगे आज मेरे रिक्शे पर ही ढूंढ लें। आपका ढूंढना हो जाएगा और मेरे पेट को दो रोटी मिल जाएंगी।’
मुझे समझ आ गया कि मैंनें गलत दरवाजा खटखटा दिया है। भूखे पेट तो गोपाल का भजन नहीं हो सकता वसंत की कौन कहे। गंवई गंवार कहीं का... बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद... अनाड़ी भूखा क्या जाने शेयर बाजार का सैंसेक्स या देश की जी डी पी !
सुना है कि वसंत वी आई पी हो गया। वो आतंकवदियों की हिट लिस्ट में है। उसके चारों ओर सुरक्षा का घेरा है इसलिए वो आम जनता से नहीं मिलता है, किसी की पहुंच में नहीं है। कभी-कभी वो झोपड़ी में भी घुस जाता है तथा झोपड़ी पूरा जीवन इस आशा में बिता देती है कि वसंत फिर आएगा। जैसे दीये तले अंधेरा होता है वैसे ही वसंत के तले पतझड़ होता है और वो पतझड़ झोपड़े में छूट जाता है।
अब वसंत भी थोड़ी बहुत राजनीति जान गया है, उसने भी रूप बदल लिया है । वसंत बहरूपिया हो गया है । वसंत ऐय्यार हो गया है । वह रिमिक्स बनकर आने लगा है। वसंत जब वसंत में नहीं आ सकता तो वह दूसरे रूपों में आने लगा है । कभी वो राष्ट्रमंडल खेलों का बजट बनकर आता है, कभी हाथी की मूर्तियों के रूप में आता है, कभी हिंदी पखवाड़ा बनकर आता है और कभी...
किसी के जीवन में समस्त जीवन वसंत ही वसंत रहता है और किसी के जीवन में वसंत कभी नहीं आता है, ऐसे में वो चिल्लाता है- वसंत तुम कहां हो?


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शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2009

प्रेम जनमेजय का व्यंग्य-अंधेरे के पक्ष में उजाला

प्रिय/सम्माननीय
झिलमिलाते दीयों की जीवंत मंगल वेला में
आप सबको
दीपावली की मंगलकामनाएं

एवं हार्दिक बधाई

प्रेम जनमेजय एवं परिवार


अंधेरे के पक्ष में उजाला
प्रेम जनमेज
मेरे मोहल्ले में अनेक चलते किस्म के लोग रहते हैं। मेरे मोहल्ले में पुलिस, न्यायालय, संसद, साहित्य, नौकरशाही आदि क्षेत्रों से जुड़े लोग रहते हैं। आप तो ज्ञानी ही हैं और जानते ही होंगें मनुष्य भी एक मशीन है और इस मशीन के पुर्जों का सही इस्तेमाल करना चलते किस्म के लोगों का ही कमाल होता है और ऐसे महापुरुषों को चलाता पुर्जा भी कहा जाता है। मेरे मोहल्ले में इन्हीं ‘चलताउ’ किस्म के लोगों का साथ निभाने और नैतिक बल देने के लिए एक चलती सड़क भी है। जैसे नारे हमें निरंतर ये भ्रम देते रहते हैं कि देश चल रहा है वैसे ही इस सड़क से लगातार फेरीवालों की आवाजाही और उनकी भांति-भांति की आवाज़ें निरंतर भ्रम देती रहती हैं कि ये सड़क बहुत चलती है। कोई रद्दी पेपर की पुकार लगाकर आपके कबाड़ से आपको लाभान्वित करने का अह्वान देता है, कोई बासी सब्जी को ताजा का भ्रम पैदा करने वाली रसघोल पुकार को जन्म देता है। कोई चाट-पकोड़ी की चटकोरी जुबान से चटपटाता है तो कोई...। मौसम के अनुसार आवाज़ें भी बदलती रहती हैं। चुनाव के मौसम में अपनी रेहड़ी पर देशसेवा लादे, देशसेवा ले लो, देशसेवा ले लो की गुहार लगाने वाले भी आते हैं। ये सभी आवाज़ें मेरी परिचित आवाज़ें हैं और मुझे परेशान नहीं करती हैं। जैसे रेल की पटरियों के पास रहने वालों को रेलगाड़ी का आना-जाना, मछली बाज़ार में रहने वालों को मछली की गंध, सरकारी दफतरों में काम करने वालों को भ्रष्टाचार, पुलिस वालों को कत्ल, वकील को झूठ आदि परेशान नहीं करते। पर उस दिन एक नई पुकार सुनकर मैं परेशान हो गया, कोई पुकार रहा था --उजाला ले लो, उजाला ले लो, बहुत सस्ता और उजला उजाला ले लो। पचास परसेंट डिस्काउंट पर उजाला ले लो।’ डिस्काउंट सेल तो बड़े-बड़े माॅल पर लगती है या उनकी देखा-देखी किसी छोटी दुकान पर। किसी फेरीवाले को मैंनें डिस्काउंट सेल लगाते हुए नहीं देखा। हां मोल-भाव करते जरूर देखा है। मोल-भाव तो हम भारतीयों की पहचान और आवश्यक्ता है। बिना मोलभाव किए माल खरीद लो तो लगता है कि लुट गए और मोलभाव करके खरीद तो लगता है कि लूट लिया। मैंनें फेरी को बुलाया और कहा- तुम्हें मैंनें पहले कभी इस मोहल्ले में नहीं देखा, तुम कौन हो और कहां से आए हो? उसने कहा- मैं उजाला हूं और स्वर्ग से आया हूं। - तुम तो सोने के भाव बिका करते थे, तुम्हारी तो पूछ ही पूछ थी, ये क्या हाल बना लिया है तुमने? तुम स्वर्ग में थे तो फिर धरती पर क्या लेने आ गए? - मैं आया नहीं, प्रभु के द्वारा धकियाया गया हूं। - क्या स्वर्ग में भी प्रजातंत्र के कारण चुनाव होने लगे हैं जो उजाले को धकियाया जा रहा है। तुम तो प्रभु के बहुत ही करीबी हुआ करते थे। साधक तो अंधेरे से लड़ने के लिए प्रभु की तपस्या करते हैं और प्रभु अंधेरे से लड़ने के लिए तुम्हारा वरदान देते हैं। तुम तो इतने ताकतवर हो कि एक दीए को तूफान से लड़वा दो, जितवा दो ं पर इस समय तो तुम ऐसे लग रहे हो जैसे प्रेमचंद की कहानियों का किसी सूदखोर बनिए के सामने खड़ा निरीह किसान या फिर आज के भारत का आत्महत्या करने वाला सरकारी आंकड़ों में चित्रित ‘खुशहाल’ किसान। - मेरी हालत तो किसान से भी बदतर है, किसान तो आत्महत्या कर सकता है, मैं तो वो भी नहीं कर सकता।’ यह कहकर वह रोने लगा। मैंनें कहा- उजाला इस तरह रोता हुआ अच्छा नहीं लगता। तुम ही कमजोर हो जाओगे तो ईमानदार मनुष्य का क्या होगा। बताओ तो सही,क्या और कैसे हुआ, तुम राजा से रंक कैसे हुए? - तुम तो जानते ही सतयुग में मेरी क्या ताकत थी। हर समय प्रभु के निकट ही रहता था। कितना विश्वास था प्रभु को मुझपर! अच्छे -अच्छे राजा मुझसे भय खाते थे। चारों ओर मेरा ही साम्राज्य था। अंधेरा मुझे देखते ही दुम दबाकर भाग जाता था। उन दिनों अंध्ेारा दीए तले रहने से भी घबराता था। मेरी ताकत के कारण मुझे बस संकेत भर करना होता था और अंधेरा किसी कोने में अपना मुंह छिपा लेता था। मेरा काम बस प्रभु के चरणों में पड़ा रहना होता था। प्रभु मुझे देखकर प्रसन्नचितदानंद होते और अपनी सृष्टि में मेरा विस्तार देखकर संतुष्ट होते। प्रभु मुझे देखकर प्रसन्न होते और मैं प्रभु को देखकर प्रसन्न होता। जैसे प्रेम में फंसा हुआ नया जोड़ा एक दूसरे को एकटक निहारता रहता है, उसे समय और स्थान का ज्ञान नहीं रहता है, वो दुनिया से कट जाता है, वैसे ही प्रभु और मैं हो गए। हम दोनों अपने प्रति परवाहकामी और संसार के प्रति बेपरवाह हो गए। अंधेरा तो इसी की तलाश में था। उसने धीरे-धीरे अपने पैर पसारने आरंभ कर दिए। एक ही स्थान पर बैठे-बैठे मुझपर चर्बी भी बहुत चढ़ गई थी। हर समय नींद-सी आई रहती थी। इधर अचानक मेरा काम बढ़ गया। समझो सरकारी नौकरी से मैं किसी मल्टीनेशनल कंपनी के चंगुल में पफंस गया। आप जानों प्रभु तो प्रभु होते हैं। निरंतर व्यस्त रहना ही प्रभु का प्रभुत्व होता है और उनके इस प्रभुत्व को उनके भक्त भोगते हैं। व्यस्त प्रभु निर्देश देते हैं और भक्त सेवक बन उनका पालन करते हैं। ज़रा-सी चूक सेवक को उसके पद से स्खलित कर देती है। मेरे साथ भी ऐसा हुआ। काम की अधिकता के कारण एक दिन मुझे उंघ आ गई और किसी ने प्रभु की प्रभुता को चुनौती दे डाली। प्रभु का नजला मुझ पर गिरा और उन्होंने मुझे श्राप दे डाला। उस श्राप के कारण मेरे अनेक टुकड़े हुए और मैं धरती पर आ गिरा। मेरे अनेक टुकड़ों मे से कोई पुलिस की गोद में गिरा, कोई वकील की गोद में गिरा, कोई नेता की गोद में गिरा, और कोई... अब मैं अपने विघटन का क्या बयान करूं...’’ ये कहकर वो फूट-फूट कर रोने लगा। उजाले को रोता देख मेरे घर के हर कोने का अंधेरा अट्टहास करने लगा। मैंनें कहा- देखो उजाले, तुम्हें रोना है तो कहीं और जाकर रोओ, वरना मेरे घर में अंध्ेारा अपना साम्राज्य स्थापित कर लेगा। मेरे घर में तुम्हारे होने का ताकतवर भ्रम बना हुआ है, उसे बना रहने दो। मुझे तुमसे सहानुभूति है, पर क्योकि अब तुम दुर्बल हो चुके हो, इसलिए तुम्हें मैं अपने घर में टिका नहीं सकता हूं। तुम्हारे रहने से मेरे घर में थोड़ा बहुत जो उजाले के होने का भ्रम है वो दूर हो जाएगा और मोहल्ले में मेरी इज्जत का भ्रम टूट जाएगा।’ उजाले ने सुबकते हुए कहा- मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है, मैं सभी जगह से इसी तरह से ठुकराया गया हूं। मेरे किसी टुकड़े को किसी ने शरण नहीं दी है। पुलिसवाले, वकील, नेता आदि सबने यही चाहा कि मैं अपने होने का भ्रम तो पैदा करूं पर खड़ा अंधेरे के पक्ष में रहूं। मेरी भूमिका अंधेरे के गवाह के रूप में रह गई है। मैं क्या करूं? - करना क्या है, वही करो जो समय की मांग है। समय की मांग बहुत बड़ी मांग होती है। इस मांग के कारण ही बाप अपनी बेटी से बलात्कार करता है, इस मांग के चलते ही बेटा कंपनी के काम को मां-बाप की आवश्यकता से अधिक प्राथमिकता देता है, इस मांग के कारण ही जनसेवक अपनी सेवा को प्राथमिकता देता है। आज समय की मांग है कि उजाला अंध्ेारे के पक्ष में खड़ा हो। तो प्यारे तुम चाहे खड़े होओ या बैठो पर मेरे यहां से फूट लो वरना तुम्हें इस घर की युवा पीढ़ी ने तुम्हें मेरे साथ देख लिया तो वो मुझे श्राप दे देगी और मैं तुम्हारी तरह फेरी लगाता अपने आपको बेच रहा हूंगा।’ उजाले ने मेरी ओर जिस निगाह से देखा उसका बयान करते हुए मेरी गर्दन शर्म के कारण झुकी जा रही थी, पर जब अस्तित्व का प्रश्न आता है तो शर्म, लज्जा, नैतिकता,आत्मस्वाभिमान आदि को तेल लेने भेजना ही पड़ता है। उजाले ने ना जाने किस दृष्टि से मुझे देखा कि वो मेरी आत्मा को बेंध गई। उजाला अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए फिर पफेरीवाल बन आवाज़े लगाने लगा।

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मंगलवार, 15 सितंबर 2009

‘हिंदी दिवस’ या ‘पंडा दिवस’

हिंदी दिवस पर नई दुनिया के 14 सितंबर अंक में प्रकाशित श्री आलोक मेहता की विशेष टिप्पणी ‘हिंदी दिवस के विरुद्ध’ पर प्रेम जनमेजय की टिप्पणी आलोक मेहता जी, ‘हिंदी दिवस’ पर आज की नई दुनिया में प्रकाशित अपकी विशेष टिप्पणी, ‘हिंदी दिवस के विरुद्ध’ से मैं पूरी तरह आपसे सहमत हूं और हिंदी के सरकारीकृत हिंदी विकास के सही चेहरे को सामने लाने के लिए आपको बधाई देता हूं। आपने सही सवाल उठाया है ‘ ... हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह और महीने के तमाशे पर करोड़ों रुपए बहाने वालों के विरुद्ध मोर्चा क्यों नहीं बनता?’ आप तो जानते ही हैं कि हमारी सामयिक व्यवस्था में वही सबल है जिसके पास अर्थ का बल है। यही कारण है कि पांच रुपए की चोरी करने वाला पुलिस के डंडे खाता है और पंाच सौ करोड़ की चोरी करने वाला किसी नायक-सा प्रचार पाता है और जेल में वी आई पी होने का सुख भोगता है। जिनके पास करोड़ों रुपए बहाने के साधन हैं उनके विरुद्ध स्वर उठाने वालों के पास बस शब्द हैं। मैं हिंदी दिवस को पंडा दिवस कहता हूं। हिंदी दिवस आते ही हिंदी के घाट पर संतों की भीड़ लग जाती है, चंदन घिसे और लगाए जाते हैं और दक्षिणा देने और लेने का स्वर्गिक सुख उठाया जाता है। आप तो जानते ही हैं कि वो चाहे श्राद्ध का पखवाड़ा हो या नवरात्र के नौ दिन, चांदी तो पंडों की ही कटती है। जैसे हमारे प्रजातंत्र की व्याख्या मूंडे जाने और मुंडवाए जाने की है वैसी ही व्याख्या इस हिंदी दिवस की भी है। जजमान मुंडे जाने पर प्रसन्न है और ... जिस चैनल पर आयोजित कार्यक्रम में आपने अपनी सहभागिता की चर्चा की है, वो कार्यक्रम मैंने भी देखा और देखने के बाद, हिंदी के प्रति अधिकांशतः अति अशुद्धतावादी कारोबारी स्वर देख/ सुन कर सर पीटने के अतिरिक्त और कुछ करने लायक न रहा। वहां का माहौल महाभारत के उस प्रसंग की याद दिला रहा था जिसमें ‘अश्वत्थामा हतो’ कहने के बाद ही ढोल पीट दिए गए थे। यहां भी ‘हिंगलिश की जय हो’ का नारा लगाया गया और ढोल पीट दिए गए जिसमें आप जैसों का स्वर नक्कारखाने में तूती-सा रह गया। हिंदुस्तानी भाषा का जोरदार समर्थन करते हुए तथा उर्दू हिंदी के आपसी सहयोग की बात करते हुए एक सुमुखी ने उदाहरण के लिए अमीर खुसरो की यह पंक्तियां अदा के साथ सुनाई-
जे हाल मिसकी मकुन तगाफुल दुराय नैना, बनाय बतियां कि ताबे हिज्रां न दारम, ऐ जां ! न लेहुं काहें लगाय छतियां मुझे नहीं लगता कि अगर वो फारसी की उन पंक्तियों को अदा के साथ न समझातीं तो वहां बैठा युवा वर्ग उसका अर्थ समझ पाता और कोई आवश्यक नहीं कि इस अदा के बाद वो समझ भी गया हो। वो भूल गई कि एक समय ये मुहावरा अपना अर्थ रखता था- हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े लिखे को फारसी क्या। आज फारसी का स्थान अंगे्रजी ने ले लिया है। आज का कोई भी हिंदुस्तानी युवा कितना ही पढ़ा-लिखा हो फारसी नहीं समझता है। मेरा विश्वास है कि हिंदी के अधिकांश अध्यापक तक इप पंक्तियों का अर्थ बिना किसी कुंजी के शायद ही समझा पाएं। हिंदी के प्रति या तो अत्यधिक शुद्धतावदी सोच के लोग हैं या फिर ‘अतिअशुद्धतावदी’ सोच के लोग हैं, संतुलन नहीं है। यही कारण है कि कहीं अत्यधिक शुद्धतावादी दृष्टिकोण के कारण सूखा पड़ने की स्थिति आ जाती है या फिर भाषा के बाजारवादी विकास के अतिरेक के कारण बाढ़ की स्थिति पैदा हो जाती है। इस कारण हिंदी के ऐसे रूप का समर्थन किया जाता है और राजभाषा-उद्योग के द्वारा ऐसी हिंदी का उत्पादन किया जाता है जिससे हिंदी प्रेमी को वितृष्णा हो जाए। हिंदी एक रूप वो है जहां हिंदी को बाज़ार की मांग के अनुसार उसको उसको पेश किया जाता है। हिंगलिश के पक्षधर इन सेवियों के चलते वो दिन दूर नहीं कि जब हिंदी अकादिमयों का स्थान हिंगलिश अकादमियां ले लेंगी और वहां अध्यक्ष या उपाध्यक्ष नहीं प्रेजीडेंट, वाईस प्रेजीडेंट या सी ई ओ हुआ करेंगें। अपने को बिकाउ बनाने के लिए इस तरह का संवरना है और सौंदर्य के नाम पर कमाने के लिए अपनी अस्मिता को दांव पर देनी स्थिति में हिंदी न पहुंचे तो बेहतर। हिंगलिश की आवश्यक्ता का नारा मात्र महानगरो से ही उठाया जाता है,उत्तर प्रदेश,मध्य प्रदेश आदि हिंदी प्रदेशों का युवा ये मांग कभी नहीं उठाता है। आप तो जानते ही हैं कि स्वतंत्रता से पहले, अपना शासन चलाने के लिए और इस देश के आम आदमी से बात करने के लिए अंगे्रज कैसी कब्जीयुक्त हिंगलिश का प्रयोग किया करते थे। वैसी ही कब्जीयुक्त हिंदी का प्रयोग हिंगलिश के नाम पर हिंदी फिल्मों की रोटी खाने वाले और हिंदी के बाजार के प्रति ‘चिंतित’ काले अंग्रेज कर रहे हैं। हिंगलिश के सेवको से मेरा सवाल है कि यदि आम आदमी की भाषा हिंदी नहीं है तो ‘रामायण’ और महाभारत जैसे धरावाहिक बिना हिंगलिश के, कैसे आमजन द्वारा सराहे गए? हिंदी को बचाना है तो उसको अतिवाद से बचाना होगा। भारत में हिंदी अभी तक कागजों में ही राष्ट्र भाषा है, पर हिंदी का अपना राष्ट्र है। हिंदी का अपना विश्व है और उसका सूर्य कभी अस्त नहीं होता है। और यह सब सरकारी अनुदान से नहीं हुआ है अपितु उन असंख्य प्रवासी भारतियों के कारण हुआ है जिन्होंनें हिंदी को अपनी अस्मिता की पहचान बनाया और गंगाजल की तरह अपने जीवन में महत्व दिया। मुझे लगता है हम तब चेतेंगें जब भारत में हिंदी की अस्मिता को कोई चुनौती देगा। आपका प्रेम जनमेजय प्रेम जनमेजय की यह टिप्पणी ‘नई दुनिया’ के 16 सितंबर अंक में संपादन के साथ प्रकाशित हुई है

बुधवार, 9 सितंबर 2009

श्री राजेंद्र यादव के नाम एक खुला पत्र

आदरणीय श्री राजेंद्र यादव जी, परनाम, साहित्य के इस तथाकथित असार संसार में ‘हंस’ को पढ़ने/देखने के, ‘जाकि रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी’ के अंदाज में अनेक अंदाज हैं। कोई साहित्यिक संत इसकी कहानियों के प्रति आकार्षित हो संत भाव से भर जाता है, कोई ‘हमारा छपयो है का’ के अंदाज में इसका अवलोकन करता है, कोई ‘डाॅक्टर’ चीर-फाड़ के इरादे से अपने हथियार भांजता हुआ संलग्न होता है, कोई नवयोद्धा,रंगरूट शब्द साहित्यिक नहीं है, सेना में भरती होने के लिए इस धर्मग्रंथ का वाचन करता है , कोई पहलवान इसे अखाड़ा मान डब्ल्यू डब्ल्यू एफ मार्का कुश्तियों का हिस्सा बनने को लालायित दंड-बैठक लगाता है और कोई विवाद-शिशु के जन्म की जानकारी के लिए तालियां बाजाता हुआ बधाईयां गाता है, आदि आदि अनादि। मैं आदि आदि अनादि कारणों से ‘हंस’ को पढ़ता हूं। ‘हंस’ एक ऐसी पत्रिका बन गई है जिसका एडिक्शन आपको चैन नहीं लेने देता है। इसके पाठकों/ अवलोकनकर्ताओं में भंांति-भांति के जीव हैं जैसे हमारे देश की संसद में होते हैं। इसमें लिखने वालों की तो एक कैटेगरी हो सकती है पर पढ़ने/देखने / सूंघने वालों की कोई कैटेगरी नहीं है। इस दृष्टि से ‘हंस’ आज के समय का ‘धर्मयुग’ है। वैसे तो आपकी, ‘मेरी-तेरी उसकी बात’ अधिकांशतः तेरी तो... करने वाली होती है और इस अर्थ में ‘प्रेरणादायक’ भी होती है कि बालक मैदाने जंग में कूद ही जाए पर सिंतंबर का आपका संपादकीय कुछ अत्यधिक ही ‘प्रेरणादायक’ है। बहुत दिनों से मैं इस जिज्ञासा को शांत करने के लिए उपयुक्त गुरु की तलाश में हूं जो मुझे बता सके कि साहित्य का हाई-कमांड कौन है और साहित्य-सेवा को ‘धर्म’ मानकर चलने वालों के ‘खलीफा’ कौन हैं जो साहित्यिक फतवे जारी करने का एकमात्र अधिकार रखते है। साहित्य की उस अदालत के न्यायमूर्ति को मैं जानना चाहता हूं जो यह तय करने की ताकत रखता है कि गुनहगार बेकसूर है और बेकसूर गुनहगार है। साहित्य की मुख्यधारा में ले जाने और इस गंगा में पवित्र-स्नान करने का ठेका किस पंडे के पास है। मुझे आपकी बात पढ़कर लगा कि आप इस दिशा में मेरा मार्गदर्शन कर सकते हैं। आपने अशोक-चक्रधर प्रसंग में लिखा है- निश्चय ही अशोक के पक्ष में उन साहित्यकारों के बयान आए हैं जो या तो दक्षिणपंथी हैं या ऐसे ढुलमुल कि हर सरकार के लिए सुविधाजनक हैं।’ अशोक के पक्ष में मैंनें भी समर्थन दिया था और मेरे लिए अपने खिलाफ जारी किया गया यह फतवा कोई मायने नहीं रखता क्योंकि मैं आपसे अपने को बेहतर जानता हूं एवं मुझे खलीफाओं के प्रमाणपत्र प्राप्त कर उन्हें फे्रम में मंडवाकर दीवारों पर टांगने का शौक नहीं। पर हुजूर आपने क्या यह बयान अपने पूरे होशो हवास में दिया है? अशोक चक्रध्र का समर्थन करने वालों में नामवर सिंह और निर्मला जैन भी थें। इन्हें आप दक्षिणपंथी मानते हैं या फिर ‘ऐसे ढुलमुल कि हर सरकार के लिए सुविधजनक हैं।’ कृपया मुझ अबोध की एक और शंका का समाधन करें- ये जो ‘हंस’ के सिंतंबर अंक के अंतिम कवर पर मध्य प्रदेश जनसंपर्क द्वारा जारी विज्ञापन प्रकाशित हुआ है, वो किसी पंथ की सरकार का है ? प्रभु आपके इस अतिरिक्त स्नेह के कारण भक्तजन कहीं फुसफसा कर ये न फुसफसाएं कि राजेंद्र जी पर उम्र अपना असर दिखाने लगी है। आप तो चिर युवा हैं और आपकी जिंदादिली के मेरे समेत अनेक प्रशंसक हैं।आपको तो अनन्य ‘नारी विमर्शो’ की चर्चा करनी है। नागार्जुन कहा करते थे कि उम्र के इस दौर में अक्सर उनकी ‘ठेपी’ खुल जाती है, कहीं आपकी भी... हे गुरुवर, इस एकलव्य को ये ज्ञान भी दें कि नामवर लोगों को आप अपने कार्यक्रमों में बुलाकर अपनी किस सदाशयता का परिचय देते हैं। कार्यक्रम में यदि नामवर जी मीठा मीठा बोल गए तो वाह! वाह! अन्यथा ‘कौन है ये नामवर के भेस में’। मुझे लगता है इस ‘दुर्घटना’ के बाद ‘शुक्रवार’ में प्रकाशित डाॅ0 कैलाश नारद के ‘असली नामवर’ को पढ़कर आपकी बांछे खिल गई होंगी जो बकौल श्रीलाल शुक्ल चाहे वे शरीर के किस हिस्से में हैं, मालूम न हों। मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूं कि नामवर जी ने जिस तरह से लौंडे शब्द का प्रयोग किया वो उनकी अपनी गरिमा के अनुकूल नहीं है। अजय नावरिया ने जिस मेहनत और लगन से ‘हंस’ के दोनों अंकों का संपादन किया है और एक मील के पत्थर को स्थापित करने का श्रम किया है वो उसकी विलक्षण प्रतिभा को प्रमाणित करता है। अजय नावरिया की इस मेहनत के सामने नामवर सिंह के शब्द झूठे हो जाते हैं। मुझे नहीं लगता कि इस मुद्दे पर नामवर सिंह को आरंभ से खारिज करने जैसा आक्रोश पैदा किए जाने की आवश्यक्ता थी। कैलाश नारद या आपकी ‘मेरी बात’ जैसी सोच का ही परिणाम है कि हिंदी के साहित्य में रचना की अपेक्षा व्यक्ति अधिक केंद्र में रहा है। इसी का परिणाम है कि एक समय हरिशंकर परसाई को और बाद में श्रीलाल शुक्ल को नाली में गिरे-पड़े किसी शराबी के रूप में चित्रित कर, सशक्त रचनाएं न लिख पाने की अपनी कुंठा का विरेचन किया जाता रहा है। आपका विरोध जायज है, जायज ही नहीं स्वाभाविक है। ये मानवीय प्रकृति है- जहां किसी अपने को बैठना चाहिए वहां कोई दूसरा बैठा हो तो विरोध जागता ही है। आप तो जानते ही हैं कि ये सरकारें, ये राजनेता किसी के सगे नहीं होते हैं। अपने शासन के एक काल में यदि एक को लाभान्वित करते हैं तो दूसरे काल में किसी अन्य को कर देते हैं। ये तो सत्ता के गलियारों की गलियां हैं जिन्हें आप भलि-भांति जानते हैं। ये वो गलियां हैं जिनमें अपनी पहियां घिस जाने की चिंता में कुंभनदास ने जाने से मना कर दिया था। विरोध-प्रदर्शन या दबाव-प्रदर्शन के लिए इस्तीफे दिए जाते हैं और इस्तीफों के चक्कर में सौदे भी तय होते हैं। पर इस घसीटमघसीटी में फतवे जारी करना किस जायज-नाजायज संतान का पालन-पोषण है? अजय नावरिया ने अशोक-चक्रधर प्रसंग को बहुत समझदारी से देखा -परखा है। उन्होंने इस नियुक्ति में न तो व्यक्तिगत आक्षेप लगाए हैं और न ही व्यक्तिगत कारण संूघने का प्रयत्न किया है। मुझे लगता है हमारी युवा पीढ़ी बेबाक होते हुए अधिक संतुलित और ईमानदार है। सादर आपका प्रेम जनमेजय

शनिवार, 5 सितंबर 2009

प्रेम जनमेजय का व्यंग्य

ओम गंदगीआय नमः

आषाढ़ का प्रथम दिवस कवि कालिदास को अच्छा लगा था, मुझे भी अच्छा लगता है और मेरे साथ-साथ पूरी दिल्ली को अच्छा लगता है। पर मेरे अच्छे लगने और कालिदास के अच्छे लगने में उतना ही अंतर है जितना अंतर एक गरीब को अमीर की तुलना में न्याय मिलने का है। अब वो चाहे आषाढ़ के बादल हों या जून की तपती दोपहरी झोपड़े में इतना दम कहां कि वो इनका मुकाबला कर ले। वैसे भी कालिदास के समय में प्रकृति प्रकृति थी, उसका अपना एक चरित्र था। ग्लोबल वार्मिंग ने प्रकृति का चरित्र ही बिगाड़ दिया है, वो अप्राकृतिक हो गई है, उसपर भरोसा नहीं किया जा सकता। जैसे ग्लोबलाईजेशन यानि भूमंडलीकरण और बाजारवाद ने आदमी को अप्राकृतिक कर दिया है। फिर भी हम भरोसा करते हैं क्योंकि हमारे पास कोई और चारा नहीं है। हम भरोसा करते हैं कि तपती जून के बाद मानसून आएगा और हमारे हालात सुध्र जाएंगें। भरोसा करना हमारी नियति है- चाहे वो आम चुनाव हो या आम का चुनाव हो, दूध-फल-सब्जी की खरीद हो- हम भरोसा करते हैं कि हमें सब कुछ मिलावट रहित मिलेगा। कालिदास के समय में आषाढ़ के बादलों में कोई मिलावट नहीं थी, उन पर भरोसा किया जा सकता था। उस समय बादल मौसम विभाग की घोषणाओं की प्रतीक्षा नहीं करते थे, आ जाते थे। आजकल तो बिजली-पानी की तरह बादल भी प्रतीक्षा करवाते हैं। आषाढ़ का पहला दिवस आ जाता है और समाज में नैतिक मूल्यों-सा शून्य आकाश अपनी नंगई पर इतराता समस्त वंचितों को बादलों के आने का भुलावा देता रहता है।
जैसे महानगरों के र्टैफिक के कारण कहीं भी समय से पहुंचना अनिश्चित हो गया है--ट्रैफिक मिला तो आप समय से पहले पहुंचकर दरिया बिछाते हैं और अगर मिल गया तो देर से पहुंचने के कारण पार्टी में बचा -खुचा खाते हैं। वैसे ही मौसम विभाग भारतीय राजनीति-सा अनिश्चित हो गया है।
पता नहीं किसी ने ये सोचा है कि नहीं अथवा मेरा ही मौलिक चिंतन है कि कालिदास ने आषाढ़ के पहले दिवस की ही क्यों चर्चा की ? कालिदास महान् कवि हो कर कितने भी खास व्यक्ति हों परंतु आषाढ़ के पहले दिवस की चर्चा कर आम आदमी हो गए। हर आम आदमी अपने ‘पहले’ की ही चर्चा करता है। अब चाहे पहली रात हो जिसे सुहाग रात भी कहते हैं, पहला प्यार हो, पहला वेतन हो, पहला बच्चा हो, पहला भ्रष्टाचार हो यानि दूसरे को छोड़कर जो भी पहला होता है आम आदमी उसकी चर्चा अवश्य करता है। कालिदास ने भी आम आदमी की तरह आषाढ़ की चर्चा की। आप तो जानते ही हैं कि हर खास आदमी के अंदर आम आदमी और हर आम आदमी के अंदर खास आदमी होता है। हर पहली चीज खास होती है पर दूसरी -तीसरी होते ही आम हो जाती है और झुग्गी-झोपड़ी में रहती है। पहली रात दूसरी-तीसरी आदि के बाद क्या होती है इसे आजकल के शादी-शुदा तो क्या कुंवारे भी जानते ही हैं। आषाढ़ के पहले बादलों के बाद जो बरसता है उसके कारण नदी-नाले भर जाते हैं, नगर-निगम की कार्यकुशलता के कारण बदबू और गंदगी में सूअर खुलकर टवैंटी-टवैंटी खेलते हैं और मलेरिया ढेंगू आदि की भीड़ के सामने आम चुनाव की रैलियां भी शरमा जाती हैं। सड़कें गड्ढों में बदल जाती हैं और गड्ढे तलाबों में बदल जाते हैं। अब ऐसे पवित्र वातावरण में कोई आम आदमी नहीं रहना चाहेगा तो कालिदास जैसा खास आदमी कैसे रहता ? तो भक्तों, कालिदास ने इसलिए आषाढ़ के पहले दिवस का ही अह्वान किया और उनके लिए अपनी काव्य-प्रतिभा का सदुपयोग किया। परंतु हुई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया वाली बरसात में दिल्ली या मुम्बई की नगर निगम की कृपा देखते तो बादलों को कहते- जाओ बादल । हमें तो जो नहीं है वो चाहिए- अति सर्दी में गर्मी चाहिए, अति गर्मी में ठंडी चाहिए, अति सूखे में बरसात चाहिए और अति बरसात में सूखा चाहिए। हमने प्रकृति का संतुलन बिगाड़ा है पर हम प्रकृति से संतुलन की अपेक्षा करते हैं।
मेरे मोहल्ले में भी एक आध्ुनिक कालिदास रहते हैं। कालिदास आषाढ़ के पहले दिन की प्रतीक्षा करते थे , हमारे कालिदास कवि सम्मेलन की रात की प्रतीक्षा करते हैं। हमारे कालिदास में इतना कवि -तेज है कि यदि पा्रचीनकालीन कालिदास उन्हें देख भर लें तो कविता करना छोड़ दें। प्राचीनकालीन कालिदास हमारे कालिदास की तुलना में उन्नीस तो क्या शून्य भी नहीं ठहरते हैं। कहां हमारे कालिदास को एक ही कविता को बीसियों मंच पर सुनाकर एक-एक रात के हजारों मिलते हैं वहां प्राचीनकालीन ने इतना लिख कर ‘कितना’ भी नहीं पाया होगा। हमारे इन कवि का नाम है कवि घूमड़। तो हमारे कवि घूमड़ रात भर एक पार्टी में व्यस्त थे। पार्टी इन्होंनें अपने घर में कवि कर्मा को दी थी, अपनी आने वाली रातों को कवि सम्मेलनों से सुहागन बनाने के लिए। पार्टी वही अच्छी होती है जिसमें दारू भी अच्छी हो और अच्छी दारू पी ही तो नींद भी अच्छी आती है। ऐसी ही अच्छी नींद लेने के बाद कवि घूमड़ ने अपनी बाॅलकनी का दरवाज़ा खोला । अपने वातानुकूलित कमरे से बाहर बाॅलाकोनी में निकलकर जैसे ही सुबह की अंगड़ाई ली तो बिना किसी निमंत्रण के आषाढ़ की ;शायदद्ध पहली बूंद ने उनका चुंबन ले लिया। अब चाहे हास्य-व्यंग्य का कवि हो, या पिफर गीतकार अथवा गज़लकार , मन में सबके मयूर होता ही जो बिना लिफाफे के भी नाचता है। मन -मयूर ने नाचने के लिए आकाश की ओर देखा तो पाया कि नाचने के लिए पर्याप्त बादल हैं। कवि घूमड़ के मन -मयूर ने अभी अपने पंख खोलने की प्रक्रिया आरंभ ही की थी कि उनकी नज़र सामने पड़ गई। सामने का दृश्य मन- मयूर के नृत्य के साथ कूकने का भी था। मोर ने अपनी मेारनी को आवाज़ दी। मेारनी उस समय अभी तक काम वाली बाई के न आने के कारण, रात की पार्टी के बरतनों से भरे सिंक को देख रही थी और कोई भी गिलास सापफ न मिलने के कारण ओक से ही पानी पी रही थी। मोर की पुकार सुनकर मोरनी को लगा कि मोर को अवश्य ही कोई कविता सूझी होगी। मोरनी जानबूझकर देरी कर ही रही थी मोर ने पुनः पुकारा- अरे देखो तो सही बाहर कितना अच्छा मौसम है... और रात ही रात में जो चमत्कार हुआ है उसे तो देखो।’ मोरनी तो विवाह होने के बाद से अकेली रात के उसी चमत्कार को जानती है जब मोर के लिए केवल कवि सम्मेलन की रात ही महत्वपूर्ण होती है और दूसरी रातें...।
इससे पहले कि मोर जी झुंझला के तीसरी पुकार लगाएं मोरनी ने अपना गाउन संभाला और बाॅलकोनी की ओर प्रस्थान किया। ठंडी हवा के झोंके ने विश्वास दिला दिया कि आज कवि जी दूर की नहीं हांक रहे हैं, मौसम वास्तव में अच्छा है। बाॅलकनी में पहुंचकर मोरनी ने कहा - वाह, कितने घने बादल हैं आसमान में। पकोड़े बनाउं?’
- सामने तो देखो तुम पकोड़ों के साथ मालपुए भी बनाओगी।’
- सामने...!
-- जी हां सामने की सारी झुग्गियां रात ही रात में साफ कर दी गई हैं। हमारे सामने से गंदगी साफ हो गई है। अब हमारे फलैट की कीमत दोगुनी हो जाएगी। इन झुग्गी- झोपड़ी वालों के कारण कितनी गंदगी थी, कभी बाॅलकनी में बैठकर चाय तक नहीं पी सकते थे । ’
मेारनी ने देखा कि मोर दूसरी बार भी हांक नहीं रहा था यथार्थ का वर्णन कर रहा था। सामने की झुग्गियों पर बुलडोजर पिफर चुका था। झोपड़ियों में पड़ा सामान बरसात की रिमझिम पफुहारों का आनंद ले रहा था। कुछ अध्नंगे बच्चे इध्र -उध्र दौड़ रहे थे और कुछ मंा की गोद में बैठे मां का लटका मुंह निहार रहे थे। पुरुष अपना बचा खुचा समेट रहे थे। रात को हुई बरसात ने उनका भी दिल तोड़ दिया था और टूटे दिल की समस्या भी बड़ी हो ही जाती है।
- जानती हो कपूर साहब बता रहे थे कि पहले झुग्गियां टूटती थीं तो एक दो दिन बाद फिर से बन जाती थीं। पर अब तो जो भी टूट रही हैं, दोबारा नहीं बनेंगी। इनका नंबर भी बहुत दिनों बाद आया है।’ मोर ने अपने पंख फैलाकर मोरनी को उनमे समेटते हुए कहा।
मोरनी भी चहकी- ये तो बहुत ही अच्छा हुआ। सच बहुत ही गंद हो गया था समाने। अब ये लोग कहां जाएंगें?
- भाड़ में जाएं, हमारी बला से। यहां से तो गंदगी हटी।
- पर चंदा, हमारी काम वाली भी तो सामने रहती है। लगता है आज तो वो नहीं आएगी।
- अरे हां, इन हालातों में तो ये ही लग रहा है कि वो नहीं आएगी।
- लो सुबह- सुबह आ गई एक और मुसीबत, ढेर सारे बर्तन पड़े है पार्टी के, घर गंदा अलग पड़ा है, अब कौन करेगा सफाई?
-- किसी और को बुला लो, सौ पचास देकर करा लेना।
- किस और को बुलाउफं? सामने देख तो रहे हो, सभी की झुग्गियां टूटी हैं... मुझे तो पल भर के लिए आराम नहीं है। खुद तो रात को पार्टी के मजे लेते हैं, खूब शराबें पीते हैं और सुबह के लिए मुसीबत मेरे लिए छोड़ देते हैं।
-- घर का काम मुसीबत है क्या? सभी औरतें घर का काम करती हैं। तुम्हें तो थोड़ा-सा भी काम करना पड़े तो नानी याद आने लगती है।
-- नानी याद आती है तुम्हें। एक गिलास पानी का भी लेना हो तो कभी उठकर नहीं लेते हो। औरों के पति अपनी पत्नियों का घर के काम में हाथ बटांते हैं और तुम...। चलो आज मेरे साथ बर्तन साफ करने में मदद करो।
- हो सकता है चंदा आ ही जाए। उसे भी तो रोजी-रोटी चाहिए।’ एक कुटिल मुस्कान के साथ मेार जी ने कहा,‘ अभी तो उसने पगार भी नहीं ली है।’
पर मोरनी बहकावे में नही आई और उसने दबंग होकर कहा-- पर आज तो वो आने से रही। बर्तन थोड़ी देर और पड़े रहे तो बदबू मारने लगेंगे। बहाने मत मारो और बर्तन साफ करने में मदद करो।
-- तुम... तुम एक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कवि से जूठे बर्तन साफ करने को कह रही हो... होश में तो हो।
-- मैं होश में ही हूं और कवि जी ये जूठे बर्तन आपकी ही शराब पीकर बेहोशी का नतीजा हैं। मैं आज अकेले तो इन्हें हाथ लगाने से रही।
- तो पड़े रहने दो उन्हें ऐसे ही। ’
मेार मोरनी अब गली के कुत्तों की तरह एक दूसरे पर भौंक रहे थे। गंदगी घर में चारों ओर बिखरी हुई थी। और कवि घूमड़, मूड ठीक करने के लिए नब्बे नम्बर का पान खाने चल दिए।

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