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मंगलवार, 15 सितंबर 2009

‘हिंदी दिवस’ या ‘पंडा दिवस’

हिंदी दिवस पर नई दुनिया के 14 सितंबर अंक में प्रकाशित श्री आलोक मेहता की विशेष टिप्पणी ‘हिंदी दिवस के विरुद्ध’ पर प्रेम जनमेजय की टिप्पणी आलोक मेहता जी, ‘हिंदी दिवस’ पर आज की नई दुनिया में प्रकाशित अपकी विशेष टिप्पणी, ‘हिंदी दिवस के विरुद्ध’ से मैं पूरी तरह आपसे सहमत हूं और हिंदी के सरकारीकृत हिंदी विकास के सही चेहरे को सामने लाने के लिए आपको बधाई देता हूं। आपने सही सवाल उठाया है ‘ ... हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह और महीने के तमाशे पर करोड़ों रुपए बहाने वालों के विरुद्ध मोर्चा क्यों नहीं बनता?’ आप तो जानते ही हैं कि हमारी सामयिक व्यवस्था में वही सबल है जिसके पास अर्थ का बल है। यही कारण है कि पांच रुपए की चोरी करने वाला पुलिस के डंडे खाता है और पंाच सौ करोड़ की चोरी करने वाला किसी नायक-सा प्रचार पाता है और जेल में वी आई पी होने का सुख भोगता है। जिनके पास करोड़ों रुपए बहाने के साधन हैं उनके विरुद्ध स्वर उठाने वालों के पास बस शब्द हैं। मैं हिंदी दिवस को पंडा दिवस कहता हूं। हिंदी दिवस आते ही हिंदी के घाट पर संतों की भीड़ लग जाती है, चंदन घिसे और लगाए जाते हैं और दक्षिणा देने और लेने का स्वर्गिक सुख उठाया जाता है। आप तो जानते ही हैं कि वो चाहे श्राद्ध का पखवाड़ा हो या नवरात्र के नौ दिन, चांदी तो पंडों की ही कटती है। जैसे हमारे प्रजातंत्र की व्याख्या मूंडे जाने और मुंडवाए जाने की है वैसी ही व्याख्या इस हिंदी दिवस की भी है। जजमान मुंडे जाने पर प्रसन्न है और ... जिस चैनल पर आयोजित कार्यक्रम में आपने अपनी सहभागिता की चर्चा की है, वो कार्यक्रम मैंने भी देखा और देखने के बाद, हिंदी के प्रति अधिकांशतः अति अशुद्धतावादी कारोबारी स्वर देख/ सुन कर सर पीटने के अतिरिक्त और कुछ करने लायक न रहा। वहां का माहौल महाभारत के उस प्रसंग की याद दिला रहा था जिसमें ‘अश्वत्थामा हतो’ कहने के बाद ही ढोल पीट दिए गए थे। यहां भी ‘हिंगलिश की जय हो’ का नारा लगाया गया और ढोल पीट दिए गए जिसमें आप जैसों का स्वर नक्कारखाने में तूती-सा रह गया। हिंदुस्तानी भाषा का जोरदार समर्थन करते हुए तथा उर्दू हिंदी के आपसी सहयोग की बात करते हुए एक सुमुखी ने उदाहरण के लिए अमीर खुसरो की यह पंक्तियां अदा के साथ सुनाई-
जे हाल मिसकी मकुन तगाफुल दुराय नैना, बनाय बतियां कि ताबे हिज्रां न दारम, ऐ जां ! न लेहुं काहें लगाय छतियां मुझे नहीं लगता कि अगर वो फारसी की उन पंक्तियों को अदा के साथ न समझातीं तो वहां बैठा युवा वर्ग उसका अर्थ समझ पाता और कोई आवश्यक नहीं कि इस अदा के बाद वो समझ भी गया हो। वो भूल गई कि एक समय ये मुहावरा अपना अर्थ रखता था- हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े लिखे को फारसी क्या। आज फारसी का स्थान अंगे्रजी ने ले लिया है। आज का कोई भी हिंदुस्तानी युवा कितना ही पढ़ा-लिखा हो फारसी नहीं समझता है। मेरा विश्वास है कि हिंदी के अधिकांश अध्यापक तक इप पंक्तियों का अर्थ बिना किसी कुंजी के शायद ही समझा पाएं। हिंदी के प्रति या तो अत्यधिक शुद्धतावदी सोच के लोग हैं या फिर ‘अतिअशुद्धतावदी’ सोच के लोग हैं, संतुलन नहीं है। यही कारण है कि कहीं अत्यधिक शुद्धतावादी दृष्टिकोण के कारण सूखा पड़ने की स्थिति आ जाती है या फिर भाषा के बाजारवादी विकास के अतिरेक के कारण बाढ़ की स्थिति पैदा हो जाती है। इस कारण हिंदी के ऐसे रूप का समर्थन किया जाता है और राजभाषा-उद्योग के द्वारा ऐसी हिंदी का उत्पादन किया जाता है जिससे हिंदी प्रेमी को वितृष्णा हो जाए। हिंदी एक रूप वो है जहां हिंदी को बाज़ार की मांग के अनुसार उसको उसको पेश किया जाता है। हिंगलिश के पक्षधर इन सेवियों के चलते वो दिन दूर नहीं कि जब हिंदी अकादिमयों का स्थान हिंगलिश अकादमियां ले लेंगी और वहां अध्यक्ष या उपाध्यक्ष नहीं प्रेजीडेंट, वाईस प्रेजीडेंट या सी ई ओ हुआ करेंगें। अपने को बिकाउ बनाने के लिए इस तरह का संवरना है और सौंदर्य के नाम पर कमाने के लिए अपनी अस्मिता को दांव पर देनी स्थिति में हिंदी न पहुंचे तो बेहतर। हिंगलिश की आवश्यक्ता का नारा मात्र महानगरो से ही उठाया जाता है,उत्तर प्रदेश,मध्य प्रदेश आदि हिंदी प्रदेशों का युवा ये मांग कभी नहीं उठाता है। आप तो जानते ही हैं कि स्वतंत्रता से पहले, अपना शासन चलाने के लिए और इस देश के आम आदमी से बात करने के लिए अंगे्रज कैसी कब्जीयुक्त हिंगलिश का प्रयोग किया करते थे। वैसी ही कब्जीयुक्त हिंदी का प्रयोग हिंगलिश के नाम पर हिंदी फिल्मों की रोटी खाने वाले और हिंदी के बाजार के प्रति ‘चिंतित’ काले अंग्रेज कर रहे हैं। हिंगलिश के सेवको से मेरा सवाल है कि यदि आम आदमी की भाषा हिंदी नहीं है तो ‘रामायण’ और महाभारत जैसे धरावाहिक बिना हिंगलिश के, कैसे आमजन द्वारा सराहे गए? हिंदी को बचाना है तो उसको अतिवाद से बचाना होगा। भारत में हिंदी अभी तक कागजों में ही राष्ट्र भाषा है, पर हिंदी का अपना राष्ट्र है। हिंदी का अपना विश्व है और उसका सूर्य कभी अस्त नहीं होता है। और यह सब सरकारी अनुदान से नहीं हुआ है अपितु उन असंख्य प्रवासी भारतियों के कारण हुआ है जिन्होंनें हिंदी को अपनी अस्मिता की पहचान बनाया और गंगाजल की तरह अपने जीवन में महत्व दिया। मुझे लगता है हम तब चेतेंगें जब भारत में हिंदी की अस्मिता को कोई चुनौती देगा। आपका प्रेम जनमेजय प्रेम जनमेजय की यह टिप्पणी ‘नई दुनिया’ के 16 सितंबर अंक में संपादन के साथ प्रकाशित हुई है

15 टिप्‍पणियां:

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

प्रेम जी ने
खालिस प्रेम के साथ
रखी है अपनी बात।

मैं बतलाऊं
पंडों के झंडे
रहेंगे सदा बुलंद।

जब तक
हिंदी पर लगते रहेंगे
हिंग्लिश रूपी पैबंद।

पैबंद लगना
नहीं करा सकते
न हम न आप कोई भी बंद।

पंडों की जगह
अब हो रहे हैं
हिंदी के झंडे बुलंद।

हौसले सामने हैं
ब्‍लॉग के सही मायने हैं
हिंदी में लग रही है ऐसी आग


जो किसी के भी बुझाये
अब बुझ न सकेगी
जल रही है ज्‍वाला प्रचंडता से दहकेगी।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

"मुझे लगता है हम तब चेतेंगें जब भारत में हिंदी की अस्मिता को कोई चुनौती देगा।"

चुनौतियाँ तो पिछले 60 वर्षों से मिल रही हैं,
मगर हम भी बहुत मोटी चमड़ी वाले हैं।
अभी तक चेते नही हैं।
जय हिन्दी!
जय नागरी!!

प्रमोद ताम्बट ने कहा…

आपका लेख नईदुनिया में सुबह 7 बजे ही पढ़ लिया था अब यह असंपादित लेख पढ़कर तेवर ज्यादा खुलकर आते प्रतीत हुए। हिंग्लिश तो है ही चिंता का विषय बाकी आम सामाजिक जीवन में हिन्दी की हो रही दुर्दशा भी गंभीर चिंता का विषय है। इस पर सारे पंडे क्यों खामोश रहते हैं।

राजीव तनेजा ने कहा…

व्यवसायिकता और उदासीनता के चलते हिन्दी की जो दुर्दशा हो रही है...उसके प्रति आपकी...हमारी सबकी सबकी चिंता जायज़ है

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

कभी कभी सोचता हूँ कि अगर भारत में अँगरेज़ न आये होते तो क्या होता.

शरद कोकास ने कहा…

प्रेम जी की इस चिंता से शत प्रतिशत सहमत होते हुए हम उनके साथ हैं -शरद कोकास

Mukesh Garg ने कहा…

alok mehta ji hum bhi aapki bato se sehmat hai, par kiya kar shkte hai aaj kal agar english na bole to kaam karna muskil hota ja raha hai
, mera bhi ek chota sa business hai jab koi custmer english me baat kar raha hota hai or hum hindi me to wo hume kaam dene se hickithcta hai. wajha aap kuhd smjh shkte hai. mujhe hindi bolna pasand hai par ........

halanki mera english me hath tight hai par jitna janta hu utni english bolni padti hai, sach kahu to wo sirf majburi me.

विनोद कुमार पांडेय ने कहा…

Badhiya lekh..hindi ke vikas me ham hindustani ko aage aana hoga..
jay hindustaan ..jay hindi

शेफाली पाण्डे ने कहा…

प्रेम जी की बात से सहमत ....हिन्दी को इन पंडों के जाल से मुक्त करना ही होगा ....

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सबसे बडे़ पंडे तो हिन्दी के उपर ही तो बैठे हैं
हिन्दी को बंधक बनाना बंद करना होगा
रास्ते खुलते चले जायेंगे
हिन्दी को आम आदमी की गंगा तो बना के देखो

जय हिन्दी

Unknown ने कहा…

प्रेम जनमेजय जी ,
आपकी चिन्ता ही हम सब की चिन्ता है.........
पूर्ण सहमति
आपका अभिनन्दन !

Atmaram Sharma ने कहा…

आपने दुखती रग पर हाथ रखा है. बहुत अच्छा लगा.

विजय प्रकाश सिंह ने कहा…

मैने यह टिप्पड़ी रवीश कुमार, एन डी टी वी, के क़स्बा पर दी थी, वही बात यहां भी दोहरा रहा हूं ।

मेरे विचार में भाषा को एक दायरे में बांधना ठीक नही है । यह बंधती भी नही गतिमान रहती है । भाषा मे जरूरत के हिसाब से नये शब्द जुडते जाते हैं जैसे सामाज में परम्परायें। कुछ लोग इसे कहेगें कि भाषा समृद्ध हुई कुछ लोग इसे कहेगें कि भाषा अशुद्ध हो रही है । परंतु यह रुकने वाला नहीं है ।

आयोजन करने वाले, धंधा करने वाले और पोस्टर वाले तो होगें ही । लेकिन जो आम जनता की भाषा है वही सही है, सुखदाई और मन को शांति देने वाली है ।

और अन्त में, आप की बात बिल्कुल सही है कि फ़ारसी की जगह आज अंग्रेजी है । मेरे विचार में अगर हिंदी को राजकीय कार्यों, बिजनेस और रोज़ी रोटी से जोड़ दिया जाये तो अंग्रेजी भी फ़ारसी वाली हालात मे पहुंच जायेगी ।

Pawan Kumar ने कहा…

प्रेम जी
हिंदी दिवस को पंडा दिवस कहकर और इसे मनाने वालों को बेनकाब करने का आपका प्रयास सराहनीय है....ह्हिंदुस्तान में हिंदी दिवस मनाया जाना एक मजाक से ज्यादा कुछ नहीं.....

Pradeep Jilwane ने कहा…

भाई प्रेम जनमेजयजी,
हिन्‍दी को लेकर आपकी और हमारी चिंताएं एक हैं. इस विष्‍ाय पर व्‍यापक विमर्श की जरूरत भी है. शासकीय उदासीनता के चलते और 'हिंग्‍ि‍लश' की बढ़ती प्रवृत्ति ने भाषा के मूल स्‍वरूप और आनंद को लगभग नष्‍ट ही कर दिया है. हिन्‍दी साहित्‍य पञकारिता में भी इस विषय पर किसी गंभीर आंदोलन की सुगबुगाहट दूर तक नहीं दिखाई दे रही है...खैर यह 'बेशर्ममेव जयते' का कठिन समय है...
- प्रदीप जिलवाने, खरगोन म.प्र.