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बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

अप्रकाशित उपन्यास अंश --प्रभु रचि राखा


सूर्यवंशी राजा राम के राज्य में सूर्य उल्लास की किरणो से पूरी अयोध््या को आलोकित कर रहा है। सूर्य अस्ताचल की ओर जाते समय यह दायित्व चंद्र को सौंप जाएगा जिससे कोई भी क्षण उल्लास विहीन न हो।
अयोध््या में राम -राज्य स्थापित हो चुका है। राम राज्य की यह स्थाप्ना वैसी नहीं है जैसी कि लंका में हुुई है। अयोध््या में तो सत्ता का हस्तांतरण हुआ है। लंका में तो विजय के उपरांत नृप विभीषण ने सत्ता ‘संभाली’ है जबकि अयोध््या तो थी ही राजा राम की । अयोध््या तो अनेक वर्षों से प्रतीक्षारत थी कि राजा राम आएं और जिस अयोध््या को वे रोता बिलखता छोड़ गए थे उसके मुख पर मुस्कान दें। व्यक्ति को जब उसका बहु प्रतीक्षित मिल जाता है तो उसका उल्लास चर्मसीमा पर पहुंच जाता है। उल्लास की चर्मसीमा... उल्लास का अतिरेक... समय जैसे ठहर जाता है... चारों ओर वसंत ही वसंत...वसंत भी ठहर जाता है क्या?
प्रभु कृपा से सब संभव है।
पूरी अयोध््या आलोक से उल्लसित है। बहुत कम अवसर होते हैं जब समान रूप से राजभवन और प्रजा के ‘भवन’ लगभग एक जैसे आलोकित होते हैं। राजभवनों में जब प्रसन्नता का अतिरेक होता है तो वह अपने उल्लास को अपनी प्रजा के साथ बांट लेता है।
ऐसा प्रभु की कृपा से होता है।
मन उल्लसित हो तो वो कोई प्रश्न नहीं करता है। इस समय पूरी अयोध््या उस भक्त के मन की तरह उल्लसित थी जिसे उसके प्रभु के दर्शन हो गए हैं। भक्त को प्रभु के दर्शन हो जाएं और प्रभु समक्ष हों तो प्रश्न कहां उठते हैं? उल्लसित मन अपने कटु वर्तमान को नेपथ्य में रखकर सुखद भविष्य के स्वप्न देख उल्लसित होता है। श्रीराम का अयोध््या आना एक इंद्रध्नुषी, आशावना स्वप्न की रचना रच गया है, जिसके प्रति विश्वास है कि यह स्वप्न शीघ्र ही यथार्थ में परिवर्तित होगा।
इसलिए संपूर्ण अयोध््या उल्लास में डूबी है।
ऐसा प्रभु की कृपा से होता है।
ऐसे ही उल्लसित दो सेवक, संध््या समय, अयोध््या के राजभवन के गलियारे में मिलते हैं। दोनों समव्यस्क हैं। दोनों के मुख उल्लास से ऐसे ही खिले हुए हैं जैसे कमल। नहीं नहीं ,कमल नहीं, क्योंकि कमल तो कीचड़ में खिलता है और न तो अयोध््या का राजभवन कोई कीचड़ है और न ही उनका शरीर कीचड़ है। उनके मुख तो चंद्र के समान खिल रहे हैं। अमावस्या की रात में पूर्ण चंद्र के समान। यह उपमा भी उचित नहीं है क्योंकि यह उपमा तो विभीषण जी को ही दी सकती है। वही लंका में छायी अमावस्या में किसी चंद्र की तरह खिले हुए हैं। अब पूर्ण चंद्र की तरह खिले हुए हैं, अर्द्ध्रचंद्र की तरह अथवा दूज के चंद्र की तरह, ये तो विभीषण जी ही जाने। पर इतना अवश्य है कि पूरी लंका में यदि किसी का मुखमंडल खिला होना चाहिए या पिफर खिला हुआ दृष्टिगत होना चाहिए, वो विभीषण जी का ही होना चाहिए। ;हे लेखक ! उल्लसित अयोध््या में अमावसी लंका की चर्चा उचित नहीं है अतः तूं उपमा का त्याग कर एवं सीध्े-सीध्े अयोध््या के उन दोनो उल्लसित सेवकों द्वारा की गई वार्ता का सीध्ी भाषा में वर्णन कर।द्ध
‘जय श्रीराम, मित्रा हितचिंतक !’
‘जय श्रीराम, मित्रा निष्कंटक !’
‘ बहुत दिनों बाद तुमने दर्शन दिए, मित्रा!’
‘ तुमने भी उतने ही दिनों बात दर्शन दिए, मित्रा!’
‘ बहुत दिनों बाद हम लोग सक्रिय जो हुए हैं। जब से ‘हमारे’ लक्ष्मण जी आए हैं ,उनके हम जैसे विश्वासपात्रा अध्कि सक्रिय हो गए हैं। कब प्रातः होती है और कब संध््या होती है, पता ही नहीं चलता।’
‘ मित्रा, मुझे तो इस सक्रियता में बहुत आनंद आ रहा है।’
‘मुझे तो यह देखकर भी आनंद आ रहा है कि जो चौदह वर्ष तक सक्रिय होने का दंभ पाल रहे थे वे किसी अजगर से चाकरी रहित, निष्क्रिय हो गए हैं।’
‘यह सब प्रभु इच्छा का परिणाम है मित्रा!’
 हितचिंतक कुछ रुक कर, इध्र-उध्र दृष्टि घुमाकर, सावधनीपूर्वक कहता है, ‘मित्रा, मैंने अपनी ही नहीं, तुम्हारे और अपने परिवार की सक्रियता के साध्न का भी प्रबंध् कर लिया है।’
‘कैसा प्रबंध्, मित्रा हितचिंतक ?’
‘ तुम्हें तो राजभवनों की गतिविध्यिों एवं व्यवस्था का विशाल अनुभव है। जानते ही हो कि अपने हित की चर्चा सार्वजनिक स्थलों पर नहीं की जातीं ?’
‘ पर इस समय तो सभी उल्लास में डूबे हैं मित्रा! इस उल्लास में किसे चिंता है कि कोई क्या कर रहा है। किसी को हमारी चर्चा से क्या?’
‘ यह पुराना शासनकाल नहीं है मित्रा! यह सक्रिय- काल है। मान्यवर लक्ष्मण की देखरेख में पूरी व्यवस्था सक्रिय हो गई है। प्रजा को उल्लास में डूबने का पूरा अवसर इसलिए ही दिया जा रहा है, जिससे वो प्रशासन में किए जा रहे परिवर्तनों को लक्षित न कर सके, कोई प्रश्नचिह्न न लगा सके। उल्लास में डूबा मन बड़े से बड़े प्रश्न को टाल जाता है। तुम तो जानते ही हो कि मैं मान्यवर लक्ष्मण का कितना विश्वासपात्रा हूं...इसलिए मुझपर संदेह कठिनाई से होगा। मेरा भेद लेने का प्रयत्न करना कठिन होगा। पर इतना भी जानते हो कि प्रशासन में कोई विश्वासपात्रा नहीं होता है। इसलिए सावधन मित्रा!’
‘ तुम्हारी बातें...मेरा मन उत्सुकता से भरा जा रहा है, कुछ संकेत तो करें मित्रा!’
‘ संकेत इतना भर है कि मैंने राजा विभीषण के एक विश्वासपात्रा से मित्राता कर ली है। उसे पता है कि मैं मान्यवर लक्ष्मण जी का विश्वासपात्रा हूं। अब हम लंका तक... समझ गए। नहीं समझे तो अभी न ही समझो तो अच्छा है, क्योंकि...’  सामने से किसी सेवक को आता देख खिलखिलाता है।
‘ क्योंकि मैं तुम्हारे बचपन का मित्रा हूं, मैं तो यह भी जानता हूं कि तुम किस दिन कौन से रंग का अधेवस्त्रा धरण...’ खिलखिलाता है।
‘ और हम दोनो की दृष्टि इतनी तीक्ष्ण है कि हम दोनो सामने वाले के अधेवस्त्रा...’
यह कहकर दोनो खिलिखिला उठे। निश्चिंत मन अपनी प्रसन्नता में छोटी-सी बात पर भी खिलखिला उठता है। सावधन पाठकों,यह दोनो भी ऐसे ही खिलखिलाएंगे। हो सकता है इनका खिलखिलाना आपको अस्वाभाविक भी लगे। अपना मन चिंताओं में घिरा हो तो दूसरे का खिलखिलाना खलता भी है। मन कहता है- ये क्या खें खें कर रहा है।
‘ मेरा तो मन- मयूर नृत्य कर रहा है, मित्रा हितचिंतक!’
‘मेरा तो मन किसी वानर की तरह इस डाल से उस डाल पर नृत्य कर रहा है, मित्रा निष्कंटक!’
दोनो खिलखिलाते हैं।
‘ तुम्हारा मन किसी वानर की तरह नृत्य कर रहा है...’ खिल... खिल... खिल।
‘ और तुम्हारा मन किसी मयूर की तरह...’ खिल... खिल... खिल।
‘ तुमने किसी मयूर को नृत्य करते देखा है कभी?’
‘ हां, पर तुमने क्या किसी वानर को नृत्य करते देखा है ?’ खिल... खिल... खिल।
‘ देखा तो नहीं पर सब जानते हैैं कि एक वानर ने पूरी लंका को नृत्य करवा दिया था।’ खिल... खिल... खिल।
‘प्रभु श्रीराम की कृपा से।’
‘ और उसके पश्चात् विजयोल्लास में सभी वानरों ने नृत्य किया था। ’ खिल... खिल... खिल।
‘ प्रभु श्रीराम की कृपा से।’
‘इस समय भी वानर लंका में नृत्य कर रहे हैं ।’ खिल... खिल... खिल।
‘ प्रभु श्रीराम की कृपा से।’
‘ इस समय भी वानर पूरी लंका को नृत्य भी करवा रहे हैं।’ खिल... खिल... खिल।
‘ प्रभु श्रीराम की कृपा से।’
‘अब यदि हमारा मन -मयूर अथवा मन- वानर नृत्य कर रहा है तो...’
दोनो सम्मिलित स्वर में,‘ प्रभु श्रीराम की कृपा से।’
खिल... खिल... खिल।
‘कितने वर्षों उपरांत हमारे मन उल्लसित होकर नृत्य कर रहे हैं।’
‘ इस उल्लास ने हमारी अतीत की पीड़ा को विस्मृत कर दिया है।’
‘उल्लसित वर्तमान दुखदायक अतीत को विस्मृत कर देता है।’
निष्कंटक ने इध्र-उध्र देखकर सावधनीपूर्वक मद्धम स्वर में कहा ‘ बहुत दिनों बाद मिले हो मित्रा, हमें इस उल्लास का इंद्र -शैली में आनंद मनाना चाहिए।’
हितचिंतक के चेहरे पर भय नृत्य करने लगा। उसने भी इध्र-उध्र देखकर, सावधनीपूर्वक, मद्धम स्वर में कहा, ‘हर राजमहल की दीवारें कानों द्वारा निर्मित होती हैं मित्रा। राम-राज्य में इंद्र- शैली की चर्चा...’
दोनो अब खिल खिल नहीं कर रहे हैं। दोनो अब राम राज्य में खिल खिल नहीं कर रहे हैं। दोनों ने आंखों के संकेत से पुनः कही मिलने की बात कही और बिना खिल खिल किए अपनी- अपनी राह चल दिए। हां एक दूसरे से विदा लेते समय जय श्रीराम कहना नहीं भूले।
दो खिलखिलाते हुए नवयुवक, सावधनीवश, बिना खिल खिल किए, जय श्रीराम कहकर एक दूसरे से विदा हुए तो दो समव्यस्क नवयुवतियां खिल खिल करती उस गलियारे में एक दूसरे से मिल गईं। उल्लास भरे वातावरण में खिल खिल ही शोभा देती है। पूरे चौदह वर्ष, यह राजमहल खिलखिलाहट की प्रतीक्षा में तो ही प्रतीक्षित रहा है। यह अलग बात है कि कुछ की खिलखिलाहट स्वाभाविक होती है और कुछ खिलखिलाहट को स्वाभाविक दिखाने का प्रयत्न करते हैं। इस समय इस राजभवन में भी ...
राजभवन। कैसा होता है
राजभवन। आमजन तो इसकी मात्रा कल्पना ही कर सकता है।
;वैसे पाठको यदि मैं कहूं कि मैंने भी राजभवन नहीं देखे हैं तो यह एक अर्द्धसत्य होगा। मेरा राजभवन का कोई अनुभव नहीं है। मैंने राजभवन, या तो ऐतिहासिक स्थलों की यात्रा करते समय, या ऐतिहासिक एवं पौराणिक नाटकों ,धरावाहिकों पिफल्मों में देखे हैं। या पिफर संग्राहलय के रूप में परिविर्तित हो गए राजभवन देखे हैं- मृत राजभवन। यदि आप मुझसे अपेक्षा करें कि मैं राजभवन का चित्राण भोगे हुए यथार्थ की तरह करूंगा तो आपको निराशा होगी। राजभवन मेरी लिए वास्तविकता से दूर एक कल्पना की वस्तु है, जो सर्वसाधरण को कलपाती ही है। जब भी राजभवन की गतिविध्यिों का वर्णन हुआ है तो वर्णन राजा, रानी, राजकुमार, राजकुमारी,मंत्राी आदि में ही सीमित रहा है। सर्वसाधरण से महल तो सदैव दूर ही रहे हैं। सर्वसाधरण इनके वैभव को दूर से देख सकता है, उसके स्वप्न ले सकता है, उनकी समृद्धि के लिए श्रमदान कर सकता है और आवश्यक्ता पड़ने पर उनकी सुरक्षा के लिए अपने प्राण न्योछावर कर सकता है।
सर्वसाधरण तो सेवक होता है और सेवक वैभव एवं आनंद का साध्न तो प्रस्तुत कर सकता है, उसका भोग नहीं कर सकता। यदि वो कुछ भोग करता है तो उच्छिष्ट का, प्रभु कृपा से जो शेष रह जाता है। राजभवनों की समृद्धि को निहारने और अपने भाग्य पर संतोष करने का ही उसे अध्किार है। अपने प्रभु की सेवा करते समय यदि महल की समृद्धि के कुछ अंश का वह भोग कर ले तो इसे उसे अपना सौभाग्य मानना चाहिए। पर इस भोग विलास में उसे डूबने का नहीं सोचना चाहिए। उसे निंरतर इस बात का ध््यान रखना चाहिए कि अपना कर्म समाप्त कर उसे अपने गृह वापस जाना है और उसका गृह राजभवन का एकांश भी नहीं है।
वैसे भी मुझे भी राजभवन में रहने वाले पात्रों की गतिविध्यिों का वर्णन करना है। मुझे भी ध््यान रखना है कि मैं राजभवन की समृद्धि की चकाचौंध् में विस्मृत, आने लक्ष्य से भटक न जाउफं।द्ध
तो दो समव्यस्क युवक, इध्र अपना महत्वपूर्ण कर्म करने की इच्छा से अपनी-अपनी राह गए और उध्र दो नवयुवतियां खिल खिल करती उस गलियारे में एक दूसरे से मिल गईं। एक तो यौवन का प्रभाव और दूसरे प्रकृति की देन के कारण दोनों सौंदर्य की प्रतिमूर्ति लग रही थीं।; राजभवनों में सुंदर नारियों को सेविका रखने की पंरपरा है, बहुत कम होता है कि मंथरा जैसी मुंहलगी दासियां इस परंपरा में न आएं। राजभवन में जब सुंदर कक्ष, सुंदर आसन, सुंदर यवनिका, सुंदर कालीन, सुंदर पात्रा, सुंदर वस्त्रा आदि हो सकते हैं तो सुंदर सेविकाएं क्यों न हों। राजभवन सुंदर होगा, तभी तो राजभवन कहलाएगा। राजभवन के कुछ ‘सेवकों’ का कक्ष अनेक श्रेष्ठियों से भी सुंदर होते हैं।द्ध
तो दो नवयुवतियां खिल... खिल... करती एक दूसरे से मिलीं।
‘ कैसी हैं सखि, मृगनयनी !’ खिल... खिल...
‘ तूं कैसी है सखि, कामायनी ? ’ खिल... खिल...
‘ मैं अच्छी हूं पर लगता है आप अपना भला नहीं चाहती हैं, सखि!’ खिल... खिल... गायब
‘तूं क्या कह रही है, मैं समझी नहीं, सखि!’ खिल... खिल... गायब
‘ समझ सखि,समय के परिवर्तन को समझ। माता सीता ने सबको क्या समझाया था। राजभवन में संभ्रांत भाषा का ही प्रयोग किया जाए। एक-दूसरे को तूं कहकर संबोध्ति न किया जाए।’
‘क्षमा करें, मैं भूल गई।ध्ीरे-ध्ीरे अभ्यास होगा। पर, सखि को तूं कहने में जो आत्मीयता है... ।’
‘अभ्यास करती रह, अन्यथा एक दिन हो सकता है... आजकल व्यस्तता कितनी बढ़ गई है ? प्रातः से कब संध््या हो जाती है, पता ही नहीं चलता। पर इस कर्म में कितना आंनद आता है जैसा स्वामि से आभूषण मिनले पर आता है। ’ खिल... खिल... का पुर्नारंभ ।
‘ हां... सखि, पहले रसोई -कक्ष में जैसे कोई कार्य ही नहीं होता था। लगभग एक ही तरह का सात्विक भोजन प्रतिदिन बनता था। लगता था जैसे भोजन खा नहीं रहे हैं, कर रहे हैं।’ खिल... खिल... का पुर्नारंभ ।
‘ भोजन बनाने और खाने की जैसे औपचारिकता ही पूर्ण की जाती थी।’ खिल... खिल... ।
‘ पर अब तो सीता माता की देखरेख में छप्पन भोगों का निर्माण होता है। एक से बढ़कर एक स्वादिष्ट भोजन का निर्माण। जिह्वा हर समय लपलपाती रहती है।’ खिल... खिल...।
‘ अतिथि भी तो कितने हैं, अयोध््या में..’
‘सीता माता सबके भोजन का पूरा ध््यान रखती हैं।’
‘हम सेविकाओं का भी तो कितना ध््यान रखती हैं। जो भोजन शेष रह जाता है, उसे हमें अपने- अपने घर ले जाने के लिए बंध्वा देती हैं। हमें भी उस स्वादिष्ट भोजन का आनंद उठाने का अवसर देती हैं।’ खिल... खिल.।
‘तभी तो हम, स्वादिष्ट भोजन के निर्माण में अपनी पूर्ण क्षमता लगा देती हैं।’ खिल... खिल...।
‘ और स्वादिष्ट भोजन प्राप्त होने की प्रतीक्षा में...।’ खिल... खिल... ।
‘ तो चल सेवक कक्ष में प्रतीक्षा करें।’
 खिल... खिल...खिल । खिलखिल भरी है अयोध््या।
;2द्ध
राम आगमन के पश्चात् अयोध््या की एक असामान्य रात। सामान्यतः रात काली होती है परंतु असामान्यतः रात उजली होती है। सामान्यतः अंध्ेरे को दूर करने के लिए अनेक व्यक्तिगत एवं सामूहिक प्रयत्न करने पड़ते हैं और तनिक-सा भी अवसर मिलते ही अंध्ेरा पुनः उपस्थित हो जाता है। असमान्य स्थिति में अंध्ेरा लगभग निष्कासित हो जाता है, वह जैसे खदेड़ दिया जाता है। उल्लसित मन ऐसा वातावरण उत्पन्न करता है कि प्रकाश का एक अजस्त्रा स्त्रोत जैसे बह निकलता है।
असामान्य स्थिति प्रभु कृपा से ही उत्पन्न होती है।    
समस्त अयोध््या उल्लास में डूबी हुई है। सूर्यवंशी राम के राज्य में अमावस्या भी सूर्य के प्रकाश से अध्कि प्रकाशवन् एवं उल्लसित है। लंकाध्पिति रावण को मृत्यु की गोद में सुलाकर जिस दिन राम अयोध््या आए उस दिन अमावस्या थी। अमावस्या की रात अंध्ेरे का पूर्ण आध्पित्य होता है। उस रात उजाले को अंध्कार से संघर्ष करने के लिए अपनी पूरी शक्ति झोंकनी पड़ती है। अंध्कार अट्टहास करता है और टिमटिमाता हुआ उजाला अपनी निडरता एवं साहस के साथ संर्घषशील होता है। यह प्रकृति का नियम है कि अततः उजाला ही जीतता है तथा पूर्ण चंद्र चंादनी बिखेर देता है। पर अयोध््या में तो चांदनी के साथ सूर्य भी अपनी उर्जा के साथ उपस्थित है। सूर्यवंशी राम का राज्य।
टिमटिमाते हुए दीये स्वर्णिम प्रकाश बिखेर रहे हैैं। सारी अयोध््या स्वर्ण में डूबी हुई दृष्टिगत हो रही है। स्वर्णिम अयोध््या। लंका भी तो स्वर्णिम थी। पर आज? स्वर्ण और स्वर्ण में अंतर होता है।
अयोध््या के महल के, अतिथि गृह के एक समृद्ध कक्ष में यही प्रश्न विभीषण के मन में किसी विद्रोही की तरह  बार-बार अपना सर उठा रहा था। लंका भी तो स्वर्णिम थी। पर आज? एक यही प्रश्न नहीं, विभीषण के मन में तो अनेक प्रश्न सर उठा रहे थे और विभीषण की दशा उस राजा के समान थी जो अपने विद्रोहियों से ही नहीें आक्रमणमुद्रा युक्त अपने समर्थकों से भी घिर गया है।
अपने प्रभु राम के राज्याभिषेक में सम्मिलित होने के लिए लंका के वर्तमान राजा, लंकाध्पिति विभीषण, लंका को जस की तस ध्र दीनी चदरिया समान छोड़ आए थे। अयोध््या के उल्लास भरे वातावरण ने उन्हें यह सेाचने का अवसर ही कहां दिया कि जिस चदरिया को वो छोड़ आए हैं उसकी दशा कैसी है? प्रभु की इच्छा समक्ष हो तो भक्त कहां कुछ सोच पाता है? प्रभु इच्छा तो सर्वोपरी होती है। प्रभु की इच्छा को ही भक्त की इच्छा होना होता है। और सच्चा भक्त तो वो होता है जो प्रभु इच्छा प्रकट न करें तब भी जान लेता है कि प्रभु की इच्छा क्या है। जो भक्त प्रभु की इच्छा को नही समझ पाता वो अज्ञानी होता है और ऐसे भक्त के अज्ञान का निराकरण प्रभु के अति निकटवर्ती अनन्य भक्त करते हैं।
राजा विभिषण चाहे आज लंकाध्पिति हैं पर हैं तो मूलतः प्रभु राम के भक्त ही। प्रभु के भक्त होने के कारण ही तो उन्हें यह पद प्राप्त हुआ है। क्या आज से कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने कल्पना भी की थी कि वे लंकाध्पिति होंगे। वे चाहे रावण के भ्राता थे परंतु अपनी गतिविध्यिों के कारण उसके विश्वासापात्रा नहीं थे। वे तो एक निरीह , सज्जन, हानिरहित, आत्मकेंद्रित जन थे जिससे रावण को कोई भय नहीं था। रावण के समक्ष उनका अस्तित्व एक चींटी के समान था जिसे वह कभी भी मसल सकता था। ऐसा व्यक्तित्व लंका का राजा बन जाएगा, किसने सोचा होगा? ऐसा तो प्रभु ही सोच और कर सकते हैं। तभी प्रभु की कृपा पाने को उनके इर्द-गिर्द भक्त जन किसी भ्रमर समान मंडराते रहते हैं।
प्रभु किसपर कृपा करेंगे, इसका प्रभु को ही पता होता है। अनेक बार उनके निकटवर्ती भक्तों को भी वो कृपा प्राप्त नहीं होती है जो सुदूर भक्तों को हो जाती है। प्रभु के निकटवर्ती अनेक भक्त होगें जिन्हें राजकाज का असीम अनुभव होगा परंतु प्रभु ने विभीषण जैसे भक्त को ही चुना। प्रभु जानते हैं कि किस भक्त का स्थान कहां है। प्रभु हर रिक्त स्थान की पूर्ति उपयुक्त पात्रा से करते हैं। इस प्रकार प्रभु की कृपा जिस भक्त को प्राप्त हो जाती है, वो प्रभु के वचनों को ही सत्य मान अंध्भक्तिभाव से कोल्हू के बैल सम परिक्रमा करता रहता है। उसे प्रभु की इतनी कृपा प्राप्त हो जाती है कि उसके मुख से प्रभु ही बोलते हैं। भक्त स्वयं कहां कुछ कह पाता है। वह तो एक ही वाक्य कहता है- प्रभु इच्छा।
विभीषण प्रभु की शक्ति को जानते हैं, उनकी कृपा से परिचित हैं तथा उनके प्रति पूर्ण विश्वास भी रखते हैं, परंतु पिफर भी न जाने क्यों उनके मन में इस समय अनेक प्रश्न उठ रहे हैं। भक्त के मन में प्रश्न उठना उचित नहीं है। जिस भक्त के मन में प्रश्न उठते हैं , उसे समझ लेना चाहिए कि वह प्रभु की शक्ति पर विश्वास नहीं कर रहा है और यह भ्रम पाल रहा है कि वह स्वयं सब कुछ करेगा। कहीं प्रभु को इस बात की भनक भी हो गई कि उनका भक्त कर्म को स्वयं करने का भ्रम पाल रहा है तो प्रभु की दृष्टि वक्र भी हो सकती है। प्रभु की वक्र दृष्टि राजा को रंक बना सकती है। भक्त को तो नियति के आधर पर कर्म करने का अध्किार है और नियति तो वही है न जिसे प्रभु ने नियत किया हुआ है।
जो प्रभु की इच्छानुसार नहीं चलता वो बालि या रावण की गति को प्राप्त होता है और जो प्रभु की इच्छानुसार चलता है वह सुग्रीव या विभिषण सम प्रभु कृपा पाता है। यह संसार का नियम है अतः कलयुग तक में लागू होता है। प्रभु के पर्यायवाची शब्द हैं--इंद्र,ईश्वर, ब्रह्मा, राजा, विष्णु, स्वामी, सत्ताधरी, महाविद्वान,पारा, प्रधन आदि।
तो इस समय विभीषण प्रकट में तो प्रभु इच्छा पर चलते दृष्टिगत हो रहे थे परंतु उनका अर्तमन ;संभवतः प्रभु की इच्छा से हीद्ध अनेक प्रश्नों से घिरा हुआ था। वे बार-बार उन प्रश्नों को झटकते पर जैसे कोई मच्छर बार- बार हाथ से हटाने के बाद भी कान में घूं-घूं करता है, कोई याचक दुतकारने के बाद भी याचना भरे स्वरों का मुक्त हृदय से दान करता है अथवा कोई दुष्ट बार-बार दंड देने पर भी अपराध् करता है वैसे ही लंका से जुड़े प्रश्न उन्हें चिंतित कर रहे थे।
विभीषण को यह निश्चित नहीं था कि उनके मन में प्रश्न उत्पन्न कर उन्हें भटकाने के पीछे प्रभु की इच्छा है कि नहीं, इसलिए वे प्रकट में अपने मुख पर निश्चिंत भक्त के भाव ही लाए हुए थे। यदि प्रभु समक्ष होते तो वे तत्काल विभीषण के अर्तमन को जान जाते। शुक्र है प्रभु अयोध््या में राम- राज्य स्थापित करने में व्यस्त हैं। लक्ष्मण ही विभीषण को प्रभु इच्छा से अवगत कराते रहते हैं।
प्रभु राम व्यस्त हैं परंतु पिफर न जाने विभीषण को ये क्यों लगता है कि प्रभु हर स्थान पर उपस्थित हैं। कल जब उनकी सेवा में निर्धरित अयोध््या के एक सेवक ने उनसे प्रश्न किया - क्या बात है लंकाध्पिति, कुछ चिंतित दृष्टिगत हो रहे हैं ?’ तो विभीषण को लगा कि जैसे श्रीराम उनसे प्रश्न कर रहे हैं। विभीषण के सेवकों ने, जो स्वयं लंका से हैं और विभीषण के समान ही लंका के प्रति चिंतित हैं, विभीषण से कभी ऐसा ‘आत्मीय’ प्रश्न नहंी किया ।
कोई शंका नहीं रहे इसलिए विभीषण ने तत्काल मुख पर अध्कि मुस्कान लाते हुए उत्तर दिया- चिंता ? अयोध््या में चिंता कैसी? ’
- जब आप आयोध््या आए थे तो आपका मुखमंडल प्रसन्नता के अतिरेक से छलक रहा था, परंतु अब...’’
विभीषण ने स्वर को कारुणिक बनाते हुए कहा- प्रभु से बिछड़ने का समय जो आ गया है। सब दिन होई न एक समाना। प्रभु से बिछुड़ने के दुख को आप अयोध््यवासियों से अध्कि और कौन जान सकता है। प्रभु से बिछुडने के विचार मात्रा से ही मन दुखी हो जाता है। पर प्रभु इच्छा।’
विभीषण ने अपनी वक्तृत्व से सेवक को तो विश्वास दिला दिया कि वे ंिचतित नहीं हैं और उन्हें पूर्ण विश्वास है कि वही होगा जो प्रभु चाहेगें। प्रभु अपने भक्तों का शुभ ही चाहेंगें। परंतु यदि लक्ष्मण ने यह प्रश्न कर दिया तो? विदा लेते समय प्रभु ने ही यह प्रश्न कर दिया तो ? विभीषण को भावों पर अंकुश लगाना होगा और प्रयत्न करना होगा कि प्रश्नाकुल भाव उनके मुखमंडल की शोभा न बढ़ाएं।
भक्त बने रहना कितना सरल है और राजा बनना कितना कठिन है। राजा बनते ही सरलता और सहजता का गला घोटना पड़ता है। एक अच्छा अभिनेता बनना होता है। भक्त को सब कुछ भूल मात्रा अपने प्रभु का ध््यान ध्रना होता है जबकि राजा को, कभी-कभी प्रभु को भी भूल, सर्वजन का ध््यान ध्रना होता है। राजा बनते ही व्यक्ति के अहं का विस्तार आरंभ हो जाता है जबकि भक्त बनते ही उसके अहं का विगलन आरंभ हो जाता है। एक राजा के मन में वैराग्य जाग जाए तो वह राजा जनक की भांति विदेह हो सकता है परंतु यदि एक भक्त के मन में यदि राजत्व जाग जाए तो उसकी स्थिति संाप और छछूंदर की हो जाती है। वह विभीषण हो जाता है।
सुग्रीव के समक्ष यह समस्या कम आई क्योंकि राम के प्रति उनकी आस्था तो थी पर वे राम भक्त होने के कारण बालि द्वारा पीड़ित नहीं किए गए थे। राम ने उनकी सहायता  की और सुग्रीव ने राम की सहायता की। सुग्रीव रामभक्ति के कारण निष्कासित नही किए गए थे। विभीषण तो राम भक्ति के कारण लतियाए गए थे। सुग्रीव ने जब शासन संभाला तो उन्हें पर्याप्त समय तक राम का साथ मिला। बालि के हितचिंतक विरोध् में स्वर नहीं उठा सके। अंगद के साथ ने भी सुग्रीव की राह भी सरल की। परंतु विभीषण ? अनेक अनिश्चितताओं में घिरे हुए हैं। नहीं जानते कि लंका पहुंचकर कैसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा। माना कि आते हुए लक्ष्मण ऐसी व्यवस्था कर आए हैं कि वहां की हर घटना की सूचना लक्ष्मण तक पहुंच रही है। लक्ष्मण उन्हें निरंतर आश्वस्त भी कर रहे हैं। परंतु एक सूचना के कारण लक्ष्मण भी तो चिंतित हैं। एक अध्कि गोपनीय सूचना।एक रहस्य जिससे बहुत कम लोग परिचित हैं। एक रहस्य जो बहुत ही विस्पफोटक है। वे सोचकर ही सिहर जाते हैं। इसी कारण वे लंका जाने का नाम सुनते ही अंदर से कांप उठते हैं। लंका उन्हें एक भयानक विषैले सर्प की तरह प्रतीत हो रही है।
इसी समय द्वारपाल ने प्रवेश कर सूचना दी- सुमंत जी आपसे मिलने के लिए आ रहे हैं।
आशंकित मन को हर घटना आशंकित करती है। सुमंत जी क्यों आ रहे हैं? उनके आने का क्या प्रयोजन है?
तभी विभीषण ने देखा कि एक छिपकली घातमुद्रा में तेजी से कहीं से आई और उसने दीपक के समीप की दीवार पर बैठे कीट को अपने मुंह में दबोच लिया। कीट उसके मुख में अपने प्राणों के लिए छटपटा रहा था। विभीषण सिहर गए। राजा विभीषण सिहर गए। राम-रावण के युद्ध के साक्षी विभीषण सिहर गए। लंकाध्पिति विभीषण सिहर गए। क्या यह भी प्रभु इच्छा का परिणाम था? मात्रा भक्त होते तो विभीषण इसे प्रभु इच्छा मानकर मुंह ढककर निश्चिंत हो सो जाते। या अध्कि से अध्कि कीट की दशा पर करुणा प्रकट करते हुए दो आंसू बहा देते। पर क्या राजा विभीषण ऐसा कर सकते हैं? क्या, यदि कीट की पत्नी उनके समक्ष छिपकली के अत्याचार के विरुद्ध न्याय की मांग करे, तो एक राजा के रूप में वे निश्चिंत होकर सो सकते हैं।

3 टिप्‍पणियां:

संतोष त्रिवेदी ने कहा…

...शुभकामनाएं ।

Hari Shanker Rarhi ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Hari Shanker Rarhi ने कहा…

aaj sanyogvash hi aapke blog par aa gaya aur aapko blog par dekhkar achchha laga.
Ramayan ki katha ko vyangya ke tane-bane mein bunane ka prayas achchha laga aur visnagtiyon par aaj ke paridrishya par ki gayi tippani bahut prasangik hai.
Hari Shanker Rarhi