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सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

चौराहे पर गांधी

चौराहे पर गांधी

मंसूरी में, लायब्रेरी चौक पर
राजधानी की हर गर्मी से दूर
आती -जाती भड़भडाती
सैलानियों की भीड़ में अकेला खड़ा
सफेदपोश, संगमरमरी, मूर्तिवत , गांधी
क्या सोच रहा होगा --
अपने से निस्पृह
भीड़ के उफनते समुद्र में
स्थिर,निस्पंद,जड़
नहीं होता इतना तो कोई हिमखंड भी
खड़ा ।
क्या सोच रहा है, गॉंधी ?
सोचता हूॅं मैं ।

कोटि- कोटि पग
इक इशारे पर जिसके, बस
नाप लेते थे साथ- साथ हज़ारों कदम
अनथक
वो ही थका -सा
प्रदर्शन की वस्तु बन साक्षात
अकेला
संगमरमरी कंकाल में, किताबी
मूर्तिवत खड़ा-सा
क्या सोच रहा है, गॉंधी ?

स्वयं में सिमटी सैलानियों की भीड़
नियंत्रित करतीं वर्दियां
कारों की चिल पौं को
पुलसिया स्वर से दबातीं सीटियां
एक शोर के बीच
दूसरे शोर की भीड़ को
जन्म देती
मछली बाजार -सी कर्कश दुनिया
किसी के पास समय नहीं
एक पल भी देख ले गांधी को
अकेले अनजान खड़े, गांधी को ।

क्या सोचता होगा गांधी ?
भीड़ में भी विरान खड़ा
क्या, सोचता होगा गांधी !

सोचता हूं,
सोचता होगा
भीड़ के बीच क्या है प्रासंगिकता... मेरी ?
मैं तो बन न सका
भीड़ का भी हिस्सा
बस, खड़ा हूं शव-सा औपचारिक
इक माला के सम्मान का बोझ उठाए
किसी एक तारीख की प्रतीक्षा में
अपनेपन की सच्चाई को तरसता
अनुपयोगी, अनप्रेरित अनजान बिसुरता ।

हमारे पराएपन को झेलता
हमारा अपना ही
बंजर बेजान खड़ा है गांधी ।
मेरा गांधी, तेरा गांधी
अनेक हिस्सों में बंटा गांधी
सड़कों और चौराहों को
नाम देता गांधी
हमारी बनाई भीड़ में
वीरान- सा चुपचाप,
खड़ा है, अकेला गांधी ।
क्या सोचता है गांधी ?
क्या, सोचता है गांधी !

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