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बुधवार, 9 सितंबर 2009

श्री राजेंद्र यादव के नाम एक खुला पत्र

आदरणीय श्री राजेंद्र यादव जी, परनाम, साहित्य के इस तथाकथित असार संसार में ‘हंस’ को पढ़ने/देखने के, ‘जाकि रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी’ के अंदाज में अनेक अंदाज हैं। कोई साहित्यिक संत इसकी कहानियों के प्रति आकार्षित हो संत भाव से भर जाता है, कोई ‘हमारा छपयो है का’ के अंदाज में इसका अवलोकन करता है, कोई ‘डाॅक्टर’ चीर-फाड़ के इरादे से अपने हथियार भांजता हुआ संलग्न होता है, कोई नवयोद्धा,रंगरूट शब्द साहित्यिक नहीं है, सेना में भरती होने के लिए इस धर्मग्रंथ का वाचन करता है , कोई पहलवान इसे अखाड़ा मान डब्ल्यू डब्ल्यू एफ मार्का कुश्तियों का हिस्सा बनने को लालायित दंड-बैठक लगाता है और कोई विवाद-शिशु के जन्म की जानकारी के लिए तालियां बाजाता हुआ बधाईयां गाता है, आदि आदि अनादि। मैं आदि आदि अनादि कारणों से ‘हंस’ को पढ़ता हूं। ‘हंस’ एक ऐसी पत्रिका बन गई है जिसका एडिक्शन आपको चैन नहीं लेने देता है। इसके पाठकों/ अवलोकनकर्ताओं में भंांति-भांति के जीव हैं जैसे हमारे देश की संसद में होते हैं। इसमें लिखने वालों की तो एक कैटेगरी हो सकती है पर पढ़ने/देखने / सूंघने वालों की कोई कैटेगरी नहीं है। इस दृष्टि से ‘हंस’ आज के समय का ‘धर्मयुग’ है। वैसे तो आपकी, ‘मेरी-तेरी उसकी बात’ अधिकांशतः तेरी तो... करने वाली होती है और इस अर्थ में ‘प्रेरणादायक’ भी होती है कि बालक मैदाने जंग में कूद ही जाए पर सिंतंबर का आपका संपादकीय कुछ अत्यधिक ही ‘प्रेरणादायक’ है। बहुत दिनों से मैं इस जिज्ञासा को शांत करने के लिए उपयुक्त गुरु की तलाश में हूं जो मुझे बता सके कि साहित्य का हाई-कमांड कौन है और साहित्य-सेवा को ‘धर्म’ मानकर चलने वालों के ‘खलीफा’ कौन हैं जो साहित्यिक फतवे जारी करने का एकमात्र अधिकार रखते है। साहित्य की उस अदालत के न्यायमूर्ति को मैं जानना चाहता हूं जो यह तय करने की ताकत रखता है कि गुनहगार बेकसूर है और बेकसूर गुनहगार है। साहित्य की मुख्यधारा में ले जाने और इस गंगा में पवित्र-स्नान करने का ठेका किस पंडे के पास है। मुझे आपकी बात पढ़कर लगा कि आप इस दिशा में मेरा मार्गदर्शन कर सकते हैं। आपने अशोक-चक्रधर प्रसंग में लिखा है- निश्चय ही अशोक के पक्ष में उन साहित्यकारों के बयान आए हैं जो या तो दक्षिणपंथी हैं या ऐसे ढुलमुल कि हर सरकार के लिए सुविधाजनक हैं।’ अशोक के पक्ष में मैंनें भी समर्थन दिया था और मेरे लिए अपने खिलाफ जारी किया गया यह फतवा कोई मायने नहीं रखता क्योंकि मैं आपसे अपने को बेहतर जानता हूं एवं मुझे खलीफाओं के प्रमाणपत्र प्राप्त कर उन्हें फे्रम में मंडवाकर दीवारों पर टांगने का शौक नहीं। पर हुजूर आपने क्या यह बयान अपने पूरे होशो हवास में दिया है? अशोक चक्रध्र का समर्थन करने वालों में नामवर सिंह और निर्मला जैन भी थें। इन्हें आप दक्षिणपंथी मानते हैं या फिर ‘ऐसे ढुलमुल कि हर सरकार के लिए सुविधजनक हैं।’ कृपया मुझ अबोध की एक और शंका का समाधन करें- ये जो ‘हंस’ के सिंतंबर अंक के अंतिम कवर पर मध्य प्रदेश जनसंपर्क द्वारा जारी विज्ञापन प्रकाशित हुआ है, वो किसी पंथ की सरकार का है ? प्रभु आपके इस अतिरिक्त स्नेह के कारण भक्तजन कहीं फुसफसा कर ये न फुसफसाएं कि राजेंद्र जी पर उम्र अपना असर दिखाने लगी है। आप तो चिर युवा हैं और आपकी जिंदादिली के मेरे समेत अनेक प्रशंसक हैं।आपको तो अनन्य ‘नारी विमर्शो’ की चर्चा करनी है। नागार्जुन कहा करते थे कि उम्र के इस दौर में अक्सर उनकी ‘ठेपी’ खुल जाती है, कहीं आपकी भी... हे गुरुवर, इस एकलव्य को ये ज्ञान भी दें कि नामवर लोगों को आप अपने कार्यक्रमों में बुलाकर अपनी किस सदाशयता का परिचय देते हैं। कार्यक्रम में यदि नामवर जी मीठा मीठा बोल गए तो वाह! वाह! अन्यथा ‘कौन है ये नामवर के भेस में’। मुझे लगता है इस ‘दुर्घटना’ के बाद ‘शुक्रवार’ में प्रकाशित डाॅ0 कैलाश नारद के ‘असली नामवर’ को पढ़कर आपकी बांछे खिल गई होंगी जो बकौल श्रीलाल शुक्ल चाहे वे शरीर के किस हिस्से में हैं, मालूम न हों। मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूं कि नामवर जी ने जिस तरह से लौंडे शब्द का प्रयोग किया वो उनकी अपनी गरिमा के अनुकूल नहीं है। अजय नावरिया ने जिस मेहनत और लगन से ‘हंस’ के दोनों अंकों का संपादन किया है और एक मील के पत्थर को स्थापित करने का श्रम किया है वो उसकी विलक्षण प्रतिभा को प्रमाणित करता है। अजय नावरिया की इस मेहनत के सामने नामवर सिंह के शब्द झूठे हो जाते हैं। मुझे नहीं लगता कि इस मुद्दे पर नामवर सिंह को आरंभ से खारिज करने जैसा आक्रोश पैदा किए जाने की आवश्यक्ता थी। कैलाश नारद या आपकी ‘मेरी बात’ जैसी सोच का ही परिणाम है कि हिंदी के साहित्य में रचना की अपेक्षा व्यक्ति अधिक केंद्र में रहा है। इसी का परिणाम है कि एक समय हरिशंकर परसाई को और बाद में श्रीलाल शुक्ल को नाली में गिरे-पड़े किसी शराबी के रूप में चित्रित कर, सशक्त रचनाएं न लिख पाने की अपनी कुंठा का विरेचन किया जाता रहा है। आपका विरोध जायज है, जायज ही नहीं स्वाभाविक है। ये मानवीय प्रकृति है- जहां किसी अपने को बैठना चाहिए वहां कोई दूसरा बैठा हो तो विरोध जागता ही है। आप तो जानते ही हैं कि ये सरकारें, ये राजनेता किसी के सगे नहीं होते हैं। अपने शासन के एक काल में यदि एक को लाभान्वित करते हैं तो दूसरे काल में किसी अन्य को कर देते हैं। ये तो सत्ता के गलियारों की गलियां हैं जिन्हें आप भलि-भांति जानते हैं। ये वो गलियां हैं जिनमें अपनी पहियां घिस जाने की चिंता में कुंभनदास ने जाने से मना कर दिया था। विरोध-प्रदर्शन या दबाव-प्रदर्शन के लिए इस्तीफे दिए जाते हैं और इस्तीफों के चक्कर में सौदे भी तय होते हैं। पर इस घसीटमघसीटी में फतवे जारी करना किस जायज-नाजायज संतान का पालन-पोषण है? अजय नावरिया ने अशोक-चक्रधर प्रसंग को बहुत समझदारी से देखा -परखा है। उन्होंने इस नियुक्ति में न तो व्यक्तिगत आक्षेप लगाए हैं और न ही व्यक्तिगत कारण संूघने का प्रयत्न किया है। मुझे लगता है हमारी युवा पीढ़ी बेबाक होते हुए अधिक संतुलित और ईमानदार है। सादर आपका प्रेम जनमेजय

9 टिप्‍पणियां:

रवि रतलामी ने कहा…

"...सशक्त रचनाएं न लिख पाने की अपनी कुंठा का विरेचन किया जाता रहा है। ..."

यह सही कहा आपने. सशक्त रचनाधर्मी को कौन किधर क्या कर रहा है ये देखने की फुर्सत वैसे भी नहीं होती है!

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

रवि रतलामी जी के विचारों से इत्‍तेफाक रखता हुआ मैं जोड़ रहा हूं यदि प्रेम जी इस पत्र को बंद पत्र (ब्‍लॉग पर प्रकाशित होने को बंद के अर्थ में लिया जाए) भी कहते तो अपने विस्‍फोट से ....... न जाने किन किनकी आंखों को चौंधियाकर चमकाकर बंद ही कर देता।

Unknown ने कहा…

प्रेम जनमेजय जी ने ऐसा तल्ख़ पत्र लिख कर
इस मामले को सही मंच पर सही दिशा में ले जाने का महती कार्य किया है । विडंबना ये है कि जब आदमी अपने ही नाम की लोकप्रियता के बोझ तले दबने लगता है तो उसकी स्थिति ठीक राजेन्द्र यादव जैसी हो जाती है ।

साहित्य में इन दिनों राजनीति के वायरस सक्रिय हैं जो कि सब के लिए घातक सिद्ध हो रहे हैं । इस मामले को बड़ी गंभीरता से देखे जाने की ज़रूरत है।

प्रेम जी को साधुवाद !

इष्ट देव सांकृत्यायन ने कहा…

राजेन्द्र जी और उनके हंस की बड़ी तारीफ़ कर दी आपने. मुझे तो ऐसा लगता है कि अगर हंस नाम का पक्षी राजेन्द्र जी के हंस को देखे और कहीं से उसे यह भ्रम हो जाए यह भी हंस ही है तो निश्चित रूप से आत्म्हत्या करनी पड़ेगी. असली हंस अभी इतना पतित नहीं हुआ होगा.
और नामवर जी के संबंध में तो अगर वह अपनी राय पर क़ायम ही रहें तो भी कुछ ग़लत नहीं होगा.

Atmaram Sharma ने कहा…

आपके पत्र ने तो जैसे हिन्दी साहित्य के गुजरे पचास सालों के इतिहास की बानगी दिखा दी है. लेकिन खेद है कि गुजरे जमाने के ये हीरो(?) समझते ही नहीं कि दुनिया अब बदल गई है और करगुजरने का मौका अब नयी पीढ़ी के हाथों में है.

राजीव तनेजा ने कहा…

बेबाक विचार

Unknown ने कहा…

Excellent ! What a courage ! The best use of Janmejay-style satire !
* NIRMISH THAKER

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

हंस के इस अंक के अतिथि सम्पादक अजय नवारिया के इस कथन से सहमत हूं जब वे कहते हैं--
"संवाद चलते रहने का एक ज़रिया या एक नज़रिया यह भी है..."

तो... चलने दीजिए संवाद, बढेगी कुछ खाद और इसमें दबेगा विवाद:)

विजय प्रकाश सिंह ने कहा…

हिन्दी साहित्य में साहित्य से ज्यादा इस बात का महत्व है कि आप किस गुट से हैं । खास कर जब तक आप वामपंथ, उसमे भी जे एन यू गुट से नही हैं तो पत्रकारिता और साहित्य दोनो क्षेत्रो में आप को इन ठेकेदारों से सिर्फ़ गाली ही मिलेगी । दक्षिण पंथी ऐसे कहा जाता है जैसे गाली दी जा रही हो और सुनने वाला भी उसी तत्परता से उसे उतारना चाहता है जैसे गाली मिली हो ।

ग्लोबलिजेसन के समय मे इससे बचने की जरूरत है क्योंकि नये संसाधनो से चीजें सीमित दायरों से निकलकर व्यापक और न्युट्रल ग्रुप तक पहुंच रही हैं ।