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शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

व्यंग्य यात्रा का नया अंक जुलाई-सितंबर 2011


व्यंग्य यात्रा का नया अंक जुलाई-सितंबर 2011

इस अंक में आप पढ़ सकते हैं

पाथेय में -
सूरज प्रकाश द्वारा अनूदित जाॅर्ज आॅर्वेल
का संपूर्ण उपन्यास ‘एनिमल फार्म’
तंबी दुरई के मराठी व्यंग्य

तट की खोज में-
स्तंभ लेखनः दशा और दिशा पर
ज्ञान चतुर्वेदी, अशोक चक्रधर, आलोक
पुराणिक,शरद उपाध्याय, अविनाश वाचस्पति
अतुल चतुर्वेदी आदि के विचार

त्रिकोणीय में ः
विष्णु नागर पर केंद्रित
विष्णु नागर का आत्मकथ्य, रचनाएं
राधेश्याम तिवारी से बातचीत
विष्णु नागर पर रमेश उपाध्याय,
तरसेम गुजराल एवं अजय अनुरागी के आलेख
तथा असगर वजाहत, लीलाधर मंडलोई एवं
मदन कश्यप की टिप्पणियां

व्यंग्य रचनाएं में
जवाहर चैधरी, गिरीश पंकज के उपन्यास अंश
सुबोध कुमार श्रीवास्तव, हरिपाल त्यागी, शशि सहगल
गौतम सचदेव, राजेंद्र राजन, लालित्य ललित, प्रेम विज
संदीप सक्सेना,वीरेंद्र जैन, सुदर्शन कुमार सोनी आदि
सूर्यीानु गुप्त, राम मेश्राम, रमेश तैलंग की गजलें

आलोचना/समीक्षा में
सूर्यबाला पर करुणाशंकर उपाध्याय का आलेख
दिविक रमेश, प्रताप सहगल, नरेंद्र मोहन,
कैलाश मंडलेकर, शशांक अत्रे आदि की पुस्तकों की समीक्षा

गुरुवार, 2 जून 2011

व्यंग्य यात्रा का अंक २६-२७ (जनवरी- जून २०११ )


इस अंक में आप पढ़ सकते हैं
पाथेय में
मराठी भाषा की
यज्ञ शर्मा द्वारा अनुदित

श्रीपाद कृष्ण कोहल्टकर ,रामगणेश गडकरी,चिं.वि. जोशी,पु.ल. देशपांडे
की चुनी हुई रचनाएं
चिंतन में
भारतीय भाषाओं में व्यंग्य : मराठी भाषा पर
प्रो. विजय कलमधार,उषा दामोदर कुलकर्णी.,मीरा दाढे,आचार्य प्रल्हाद केशव अत्रे

प्रेम जनमेजय का आलेख -अज्ञेय की व्यंग्य चेतना
श्यामसुंदर घोष का आलेख -व्यंग्य : कथ्य और नेपथ्य


त्रिकोणीय में
हरीश नवल पर केन्द्रित
हरीश नवल का आत्मकथ्य तथा उनकी
तीन व्यंग्य रचनाएं।
हरीश नवल पर नरेंद्र मोहन, मधुसूदन पाटिल,प्रेम जनमेजय, सुभाष चंदर, सविता राणा के आलेख
हरीश नवल से उ”मा की बातचीत

व्यंग्य रचनाए में
प्रदीप पंत,सुशील सिद्धार्थ,समीर लाल ‘समीर,जगदीश पाठक,प्रह~लाद श्रीमाली,सुधीर ओखदे उमा बंसल अर्पिता,असीम कुमार आंसू, लालित्य ललित,,उपेंद्र कुमार,नरेंश शांडिल्य ,राजेंद्र निशेष मनोकामना सिंह ‘अजय,’विश्वनाथ,नवल जायसवाल, अश्विनी कुमार दुबे

बलराम, राधेश्याम तिवारी,तरसेम गुजराल, सुधा ओम ढींगरा, सुधा आचार्य, विजय अग्रवाल , लालित्य ललित के पुस्तकों की समीक्षा

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

व्यंग्य -अपनी शरण दिलाओ, भ्रष्टाचार जी !


अपनी शरण दिलाओ, भ्रष्टाचार जी !
पत्नी ने मुझसे कहा- सुनो अब और नहीं सहा जाता। या तो आप मुझे तलाक दे दो या फिर अपने को सुधार लो।’
सफेद-बाल प्राप्त अवस्था पति से कोई पत्नी ऐसा कहती है तो लगता है कि पति ने चाहे सफेद बालों को काला नहीं किया पर उसके श्याम मुख पर कालिख लगने वाली है। उसकी प्रतिष्ठा का सिंहासन डोलने लगता है। नारी-विमर्श, यौन-उत्पीड़न आदि के चारों ओर नारे लग रहे हों और कानून आंखों पर पट्टी बांध न्याय कर रहा हो तो पति के सामने स्वयं को सुधारने का ही विकल्प बचता है।
मैंनें भी इसी विकल्प को स्वीकार करते हुए कहा- हे देवी मैं स्वयं को ही सुधारूंगा , पर ये तो कहें कि आपने काली का उग्र रूप धारण कर मेरे मुख पर तलाक रूपी कालिमा लगाने का क्यों सोचा है ? मैंनें तो कुछ भी ऐसा करना छोड़ दिया है जो आप से सहा नहीं जाता। मैं तो निरीह, नपुंसक जीव-सा अपना समय काट रहा हूं...
- यही तो सहा नहीं जाता है। मोहल्ले के अन्य पुरुष जब निरंतर अपने पराक्रम से अपनी पत्नियों को प्रसन्न रख रहे हों, उनपर नित्य प्रति काले धन की वर्षा कर उसका मोहल्ले में सम्मान बढ़ा रहें हों, उसकी क्रय-शक्ति की जी डी पी में वृद्धि कर रहे हों तो आप ही कहें आप जैसे निरीह भ्रष्टाचारविहीन मास्टर के संग रहते -रहते कभी तो विद्रोह का स्वर उभरेगा। यह जीवन तो अकारथ गया , अगला जीवन तो सुधर जाए । इसके लिए मैं किसी सुयोग्य का दामन थाम कुछ भ्रष्टाचार का सुकर्म कर अपने अगले जन्म के लिए कुछ संचित करना चाहती हूं। ऐसे में या तो आप कुछ कर लें पतिदेव अन्यथा...
- मुझे तीन माह का समय दें देवी, मैं योग्य पति बनकर दिखता हूं।’

मुझ निष्काम को मेरी पत्नी कामी बनने को प्रेरित का भ्रष्टाचार की राह पर स्वयं धकेल रह थी। मुझे धिक्कार है कि मैं जीवनभर, चार क्या एक भी फल देने वाला भ्रष्टाचार न कर सका । मैंनें कॉलेज में मास्टर की नौकरी करते हुए फ्रेंच लीव मारने जैसा जो तनिक-सा भ्रष्टाचार किया है उसने पत्नी की श्रीवृद्धि में कोई वृद्धि नहीं की है। हिंदी जैसे विषय में कोई ट्यूशन नहीं रखता और न ही कोई कोचिंग सेंटर वाला घास डालता है अतः मैंने अपने काम से ही काम रखा है। मास्टर की नौकरी किसी गरीब के झोपड़े-सा ऐसा स्थल है जहां भ्रष्टाचार का वसंत कभी भी झांकता तक नहीं है।
पर मित्रों चुनौती एक बड़ी चीज होती है। और पुरुष के पौरुष को जब चुनैती मिलती है तो पत्थर में कमल खिल जाते हैं । ये दीगर बात है कि कमल दूसरे को मिलते हैं और पत्थर दीवाने के हिस्से में आते हैं। पर यहां तो चुनौती कम धमकी अधिक थी और जस की तस धरी हुई चदरिया में तलाक का दाग लगने का खतरा था।
मैंने भ्रष्टाचार की राह पर चलने की ठान ली। अगले दिन मैंने अपने एक विद्यार्थी को ब्लैकमेल करने इराद से कहा- देखो तुम्हारी एटेंडेंस कम हैं, इस बार परीक्षा में नहीं बैठ पाओगे, मुझसे अकेले में मिलना।’
- अरे सर जी मैं ं आपको तकलीफ न दूंगा, यूनियन का प्रेजीडेंट सब करवा देगा उसी से मिल लूंगा।
मैंने दूसरे को पकड़ा और कुछ बेशर्मी से कहा - तुम कुछ पढ़ लिख नहीं रहे हो। इस बार फेल हो जाओगे। पास होना चाहते हो तो मुझसे अकेले में मिल लो।’
स्टुडेंट जी अधिक बेशर्मी से बोले- सर जी आप तो केवल हिंदी में पास करवाओंगे, इक्जामिनेशन वाले शर्मा जी तो सबमे पास करवा देंगे। मैं उनसे ही मिल लूंगा।’
मित्रों जैसे-जैसे तीन माह की अवधि समाप्त हो रही है देश में बढ़ते भ्रष्टाचार के सं-संग मेरी आंखों का अंधेरा भी बढ़ रहा है।
अब मेरे सामने एक ही विकल्प बचा है कि भ्रष्टाचार का विरोध करने वालों के दल में शामिल हो जाउं, नारे लगाउं और हो सकता हे वहां मुझे भ्रष्ट करने वाले कोई सकटमोचक भ्रष्टाचार शिरोमणी मिल जाए जो अपनी शरण में ल ेले और बुढ़ापे में मुझे तलाक से बचा लें।

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

कविता की प्रासंगिकता: संदर्भ अज्ञेय, नागार्जुन, शमेशर बहादुर सिंह, एवं केदारनाथ अग्रवाल----दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी की रपट




पिछले दिनों कॉलेज ऑफ़ स्टडीज में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सहयोग से दो दिवयीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया, प्रस्तुत है उसकी विस्तृत रिपोर्ट

दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी

कविता की प्रासंगिकता: संदर्भ अज्ञेय, नागार्जुन, शमेशर बहादुर सिंह, एवं केदारनाथ अग्रवाल

गहरी प्रश्नवाचकता के कवि हैं अज्ञेय,शमशेर, नागार्जुन और केदार--अशोक वाजपेयी
कवियों को बंधी बंधाई दृष्टि से न देखा जाए - निर्मला जैन
स्वाधीनता काल के कवि हैं अज्ञेय,शमशेर, नागार्जुन और केदार-विश्वनाथ त्रिपाठी

कॉलेज ऑफ वोकेशनल स्टडीज में
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सहयोग से आयोजित

‘जो बीत जाता है उसके पुर्नावलोकन की बाते उठती है और जब हम इनपर चर्चा करते हैं तो नई बातें सामने आती हैं। आवश्यक्ता है इस निरंतर पुर्नावलोकन की। कविता की प्रासंगिकता को समय पाठक और अभिरुचि की दृष्टि से परखा जाना चाहिए। और जब हम अज्ञेय, नागार्जुन, शमेशर बहादुर सिंह, एवं केदारनाथ अग्रवाल की जन्मशताब्दी के अवसर पर उनके रचनाकर्म को देख रहें तो बहुत आवश्यक हो जाता है कि पहले से ही कठघरे में बांधकर देखने की छवि को तोड़कर पढ़ा जाए।’ यह उद्गार कॉलेज ऑफ वोकेशनल स्टडीज ,दिल्ली विश्वविद्यालय, द्वारा ‘कविता की प्रासंगिकता: संदर्भ अज्ञेय, नागार्जुन, शमेशर बहादुर सिंह, एवं केदारनाथ अग्रवाल’ विषय पर कॉलेज ऑफ वोकेशनल स्टडीज द्वारा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सहयोग से आयोजित, दो दिवयीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन करते समय प्रसिद्ध आलोचिका निर्मला जैन ने कहे । उन्होंने कहा कि अज्ञेय ने उपन्यास तथा कथा को नयी दिशा दी, छायावाद को उखाड़ा तथा नागार्जुन और केदार ने राजनीति को काव्य का विषय बनाया। शमशेर संवेदना,आत्मसंवाद और आवेग के कवि हैं तथा उनकी राजनीतिक कविताएं स्थूल और सपाट हैं। इन चारों कवियों में से अज्ञेय एकमात्र ऐसे कवि हैं जिन्होने शरणार्थी समस्या पर कविताएं लिखीं। नागार्जुन की राजनीतिक कविताएं गहरी तकलीफ की कविताएं हैं। आलोचकों ने केदार जी को मात्र राजनीतिक कवि कहकर सीमित किया है और उनका अवमूल्यन किया है।’ प्रो0 निर्मला जेन ने केदारनाथ अग्रवाल की अनेक प्रेम कविताओं को उद्धृत भी किया।
अपने अध्यक्षीय भाषण में अशोक वाजपेयी ने कहा-इन चारों कवियों ने यथार्थ और वैकल्पिक यथार्थ की कल्पना की। ये चारों कवि गहरी प्रश्नवाचकता के कवि हैं। इन्होने स्वयं की कविता पर संदेह किया है। जन्म-शताब्दी पर इन चारों को याद करना एक जैविक घटना है। इन चारों कवियों में सौंदर्यबोध, संघर्षबोध है । शब्द की विपुलता से ही जीवन की विपुलता का बोध होता है जो अज्ञेय में सर्वाधिक है। अज्ञेय हिंदी के अंतिम प्रकृतिपरक बौद्धिक कवि हैं। शब्द की विपुलता से ही जीवन की विपुलता का बोध होता है और यह अज्ञेय में सर्वाधिक है। नागार्जुन का शिल्प अभिधात्मक है। वे सामान्य जीवन के कवि हैं। नागार्जुन को पश्चिमी सभ्यता के क्रिटीक के रूप में पढ़ा जा सकता है। चारों कवि बंधे-बंधाए उत्तरों को अस्वीकार करते हैं। इन चारों कवियों में शिल्प की अपार विविधता है जबकि आज की अधिकांश कविता अखबारी है।
विशिष्ट अतिथि विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा - इन कवियों की राजनतिक समझ को स्वातंत्र्य प्रेम की नज़र से भी देखा जाए क्योंकि ये चारो कवि स्वाधीनता काल के कवि हैं। उन्होंने पाब्लो नेरूदा का उदाहरण देते हुए कहा कि जिन कवियों ने राजनीतिपरक रचनाएं की हैं उन्होंने प्रेम पर भी खूब लिखा है। केदार और नागार्जुन को इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। आज ग्लोबल बाजारवाद के चक्कर में ग्लोबल संवेदना को केंद्र में रखकर लिखा जा रहा है। अज्ञेय की निजता एक ऐतिहासिक जरूरत थी।’
प्राचार्य डॉ0 इंद्रजीत ने अतिथियों का स्वागत एवं धन्यवाद किया और संगोष्ठी को ऐतिहासिक बताते हुए कहा - आज जिस संगोष्ठी का उद्घाटन होने जा रहा है, वह आप सबकी उपस्थिति से एक ऐतिहासिक अवसर बन गया है। अज्ञेय, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और शमशेर बहादुर सिंह का यह शताब्दी वर्ष है। इस वर्ष पूरे भारत में अनेक महत्वपूर्ण कार्यक्रम आयोजित किए गए हैं । आज का कार्यक्रम उसी श्रृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी कहा जा सकता है। उद्घाटन सत्र के आरंभ में संगोष्ठी के संयोजक डॉ0 प्रेम जनमेजय ने प्रस्तावित विषय के संबंध में विस्तार से बताया एवं आज के समय में जब कविता अन्य विधाओं के संदर्भ में छूटती जा रही है, ऐसे में अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन और केदार की कविता हमारे आज के समय को क्या संबल देती है।
उद्घाटन सत्र में प्रेम जनमेजय द्वारा संपादित पुस्तक ‘श्रीलाल शुक्लः विचार विश्लेषण एवं जीवन’ का लोकार्पण भी किया गया।

संगोष्ठी का पहला सत्र केदारनाथ अग्रवाल पर केंद्रित था जिसकी अध्यक्षता डॉ0 नित्यानंद तिवारी ने की तथा मुख्य अतिथि थे डॉ0 खगेंद्र ठाकुर। इस सत्र में डॉ0 बली सिंह, डॉ0 द्वारिकाप्रसाद चारुमित्र एवं डॉ0 विनय विश्वास ने अपने आलेख पढ़ें। डॉ0 नित्यानंद तिवारी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा- हम इस पूंजीवादी सभ्यता में अनुकूलित हो जाना चाहते हैं या अपनी मानवीय भूमिका निभाना चाहते हैं, यह निर्णय हमें ही करना है। रामविलास शर्मा ने केदार को कामचेतना के आंचलिक कवि कहा है जिसमें उन्होंने स्थानीय तस्वीर पैदा कर दी है। चारों कवियों के पास मनुष्य के रूप हैं चाहे अलग-अलग रूप में हों। आज के युग में मनुष्य सूचनाओं का मात्रा यंत्र हो गया है।’ तिवारी जी ने केदार की दो कविताओं ‘न घटा जो यहां कभी पहले’ और ‘अब’ कविताओं के संदर्भ में कहा कि केदार जी के यहां सही मनुष्य की उपस्थिति है। मुख्य अतिथि खगेंद्र ठाकुर ने कहा - आज के युग में पूंजीवाद को मनुष्य की मनुष्य के रूप में जरूरत नहीं है, उसकी जरूरत है तो खरीददार के रूप में। राजनीति सिर्फ पार्टीबाजी में नहीं अन्य चीजों में भी देखी जा सकती है। केदार की फुटकल कविताओं में मनुष्य के संघर्षों का जो रूप है वह महामानव का रूप दिखाता है। केदार के यहों प्रकृति की अनेक ऐसी कविताएं हैं जो छायावाद से भी अच्छी हैं। आज का समाज यदि हमंे अच्छा नहीं लगता है तो केदार प्रासंगिक कवि हैं। डॉ0 बलीसिंह ने कहा- केदार व्यक्ति को महत्व देते हैं, उसकी आईडेंटीटी को महत्व देते हैं। केदार ने न केवल नदी में सौंदर्य देखा अपितु नाले में भी सौंदर्य देखा और उसे काव्य का विषय बनाया।’ डॉ0 द्वारिकाप्रसाद चारुमित्रा ने कहा - अज्ञेय को छोड़कर सभी कवि जनपद के कवि के परिचायक लेते हैं। नागार्जुन और केदार में विद्यापति की प्रेरणा बोलती है और उनकी कविताओं में सास्कृतिक आवाज बोलती है। केदार की कविता की कविता मानव की कविता है। उनकी कविता अमानवीय संसार में इंसानियत की खोज की कविता है।’ डॉ0 विनय विश्वास ने कहा - अशोक वाजपेयी ने जो कहा कि अज्ञेय प्रकृति के अंतिम कवि है, इससे मैं सहमत नहीं। केदार की कविताएं प्रकृति के हर रंग को उकेरती हैं। केदार की कविताओं में ‘ध्ूप’ पर लिखा बहुत कुछ मिलता है।’ विनय विश्वास ने केदार की अनेक प्रकृतिपरक कविताओं को प्रस्तुत किया। सत्र का संचालन डॉ0 रत्नावली कौशिक ने किया।
संगोष्ठी का दूसरा सत्र नागार्जुन पर केंद्रित था जिसकी अध्यक्षता प्रो0 गोपश्वर सिंह ने की तथा मुख्य अतिथि थे डॉ0 विजय बहादुर सिंह। अपने अध्यक्षीय भाषण में प्रो0 गोपेश्वर सिंह ने कहा- नागार्जुन मुक्तिकामी कवि हैं। वे बड़े रेंज के कवि हैं। इनकी काव्य विशाल भूमि है तथा इनमें छंदों और काव्य रूपों की बहुलता है। प्रश्नाकुलता यदि आध्ुनिकता का लक्षण है तो नागार्जुन आधुनिकता के कवि हैं। मनुष्य की मानवीयता में विश्वास ही आधुनिकता की सर्वोत्तम कसौटी है। नागार्जुन भावुकता के नहीं आवेग के कवि हैं। नागार्जुन काव्य की बारिकियों के लिए हलकान रहने वाले कवि नहीं हैं। अज्ञेय नागर रुचि के कवि है तो नगार्जुन बोली के कवि हैं। दिनकर और बच्चन के बाद नागार्जुन ऐसे कवि हैं जिनको आनंद से पढ़ा जा सकता है। ‘नई कविता’ के महल में सेंध लगाने वाली कविता नागार्जुन की है।’ मुख्य अतिथि डॉ0 विजय बहादुर सिंह ने कहा - कविता की प्रासंगिकता समाज में मनुष्य के बचे रहने की प्रासंगिकता है। मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने के लिए कविता लिखना और चर्चित होने के लिए कविता लिखना दो अलग- अलग बातें हैं। बहुत लोग लिखना जानते हैं पर नहीं जानते कि लिखना क्या है। साहित्य को कला समझने वाले नागार्जुन की कविता को समझ नहीं सकते हैं। प्रेमचंद, नागार्जुन खेतिहर समाज के रचनाकार हैं। नागार्जुन जनता के पक्ष में उसी की भाषा में लिखने वाले कवि हैं। नागार्जुन और निराला समान संवेदना के कवि है। डॉ0 अनामिका ने ‘नागार्जुन के काव्य में स्त्री-पक्ष’ पर बोलते हुए कहा -नागार्जुन ने अपने साक्षात्कारों में कम-से- कम पांच वर्ष के लिए अपने स्त्री बन जाने की इच्छा का जिक्र किया है। बाबा स्त्रियों के दोस्त बन गए थे और उनकी रसोईघर में उनका आना जाना था। नागार्जुन ने प्रतिबद्ध कविताएं लिखीं।राधेश्याम तिवारी ने कहा- नागार्जुन ने ज्ञानात्मक संवेदना वाली कविता का महत्व बताया, न कि ज्ञान से लिखी कविताओं का। नागार्जुन की कविताओं में बौद्धिकता का आतंक नहीं है। जो बौद्धिक कविताएं लिखते हैं वे अपने समय से तो कटते ही हैं, बाद के समय से भी कट जाते हैं। बचे रहेंगे शब्द और बची रहेगी संवेदनाए।’ डॉ0 बागेश्री चक्रधर ने नागार्जुन को बौद्ध धर्म से मिली प्रेरणा की चर्चा करते हुए कहा - नागार्जुन पर सिद्धों-नाथों जैसी जीवन-प्रणाली का प्रभाव था। उन्होंने विचारधाराओं से अनुभव तक की यात्रा की।’ बागेश्री चक्रध्र ने बाबा नागार्जुन से जुड़े अनेक रोचक संस्मरणों का उल्लेख करते हुए कहा कि बाबा मानते थे कि पेट से बड़ा कोई आंदोलनकारी नही होता और बाबा दूसरी विचारधारा के लोगों से भी संवाद करते थे। डॉ0 हरीश नवल ने नागार्जुन से जुड़े अनेक रोचक संस्मरण सुनाते हुए कहा- वे सही अर्थों में जनकवि थे। उनके साथ गुजरे हुए मेरे और मेरे दादा जी के क्षण मेरे लिए अविस्मरणीय हैं। इस सत्रा का संचालन डॉ0 वीनू भल्ला ने किया ।
संगोष्ठी का तीसरा सत्र अज्ञेय पर केंद्रित था जिसकी अध्यक्षता श्री ओम थानवी ने की तथा मुख्य अतिथि थे डॉ0 कृष्णदत्त पालीवाल । अपने अध्यक्षीय भाषण में ओम थानवी नेकहा- अज्ञेय एक बड़े कवि थे जिनका मूल्यांकन करते समय अक्सर उनके व्यक्तित्व से जुड़े हुए संदर्भों को आधर बना लिया जाता है। प्रेम जनमेजय ने सही सवाल उठाया है कि रचनाकार के व्यक्तित्व को क्या साहित्यकार के रचनाकर्म की कसौटी माना जाए। अब अज्ञेय पर सी आई ए का एजेंट होने से लेकर उनके दंभी व्यक्तित्व को लेकर अनेक आरोप लगाए जाते है। इस आधर पर क्या अज्ञेय के साहित्य को खारिज कर दिया जाए। आप जितनी देर शेक्सपीयर की रचना को पढ़ते हैं उतनी देर शेक्सपीयर के रचना संसार में खो जाते हैं, न कि उनके व्यक्तिगत जीवन में खोते हैं। साहित्य की आलोचना करने का अपना यी ‘व्यक्तिवादी ’ दृष्टिकोण हम न जाने कब बदलेंगं?’ मुख्य अतिथि डॉ0 कृष्णदत्त पालीवाल ने कहा - अज्ञेय की अब तक सही आलोचना नहीं हुई है। नददुलारे वाजपेयी ने जो आक्षेप लगाए वे तर्क की विकृति कहे जाएंगे। डॉ0 नगेंद्र ने रस सिद्धांत के आधर पर आलोचन की जो कि विडंबनापूर्ण था। रामविलास शर्मा ने अज्ञेय की कविता को जड़ाउफ, कड़ाउफ आदि बताया जो कि निराधर था। नामवर सिंह ने अज्ञेय को व्यक्तिवादी और कलावादी कहा, ‘कविता के प्रतिमान’ के द्वारा अज्ञेय की नाक पर घूसंा जड़ा। अज्ञेय को टी एस इ।लियट, डी एच लॉरेंस आदि से तुलना करने वाले झूठे हैं। अज्ञेय की तुलना यदि किसी से हो सकती है तो वे हैं प्रसाद। हिंदी आलोचना ने अज्ञेय के साथ न्याय नहीं किया है। अज्ञेय पर नए ढंग से सोचा जाना चाहिए।’ डॉ0 प्रेम जनमेजय ने अज्ञेय की व्यंग्य चेतना पर बोलते हुए कहा- नागार्जुन, केदार और अज्ञेय पर हुई बातचीत में हम देख रहे हैं कि व्यक्तित्व को कवियों के रचनाकर्म की कसौटी माना जा रहा है। क्या रचनाकार के व्यक्तित्व को उसकी कसौटी माना जा सकता है? अज्ञेय विसंगतियों पर प्रखर प्रहार करने वाले रचनाकार हैं। आधुनिक व्यंग्य का चेहरा अज्ञेय के व्यक्तित्व जैसा-- सौम्य,धीर -गंभीर और स्मित हास्य वाला होना चाहिए जिसमें हंसी आए तो अनावश्यक न लगे।’ रमेश मेहता ने अज्ञेय पर बनी डाक्यूमेंटरी का प्रदर्शन करते हुए कहा -अज्ञेय मौन के कवि थे। वे बहुत ही व्यवस्थित व्यक्तित्व के स्वामी थे। पर जिस दंभ की उनके संबंध् में चर्चा होती है, वह मुझे उनमें कभी नहीं मिला।1983 में जम्मू में युवा कवियों से बातचीत करते हुए उन्होंने कहा था कि जिसे छंद का ज्ञान होगा वही तो मुक्त छंद की कविता लिख पाएगा। डॉ0 अवनिजेश अवस्थी ने कहा- अज्ञेय के संबंध् में अध्ूरी आलोचनाएं की जा रही हैं। अज्ञेय को आजतक एक ही चश्मे से देखा गया है। अज्ञेय ने हिंदी साहित्य को ऐतिहासिक योगदान दिया है। डॉ0 अर्चना वर्मा ने ‘अज्ञेय के भाषिक रहस्यवाद’ पर अपना आलेख पढ़ा। डॉ0 वीनू भल्ला ने अज्ञेय से जुड़े संस्मरण के साथ-साथ अज्ञेय के साहित्यिक अवदान की भी चर्चा की। कार्यक्रम का संचालन विनय विश्वास ने किया।
संगोष्ठी का चौथ सत्र शमशेर बहादुर सिंह पर केंद्रित था जिसकी अध्यक्षता डॉ0 हरिमोहन शर्मा ने की । सत्र के अध्यक्ष डॉ0 हरिमोहन शर्मा ने कहा - शमशेर में एक जैनुअन आदमी बनने की चाहत थी। आलोचक किसी रचनाकार को एक कठघरे में बांधकर सरल मार्ग अपना लेते हैं। इससे कवि की विचारधरा जानकर उसी फ्रेम में कवि के काव्य-कर्म की व्याख्या कर ली जाती है। शमशेर ने न केवल कविता की भाषा सीखी अपितु अपने मामा से रंगों की भाषा भी सीखी। वे खूब पढ़ने वाले रचनाकार थे जो साहित्य के माध््यम से जीवन की लय को स्वयं में जब्त कर लिया करते थे।’ डॉ0 हरिमोहन ने शमशेर की ‘बैल’ कविता के माध्यम से उनके का्रपफट और विचार को व्याख्यायित किया। डॉ0 दिविक रमेश ने कहा- शमशेर प्रेम के पीछे पड़ने वाले नही, उसपर रीझने वाले कवि हैं। शमशेर जनता के हित में काम करने वाले कवि हैं। शमशेर का क्रापफट सबसे अलग है। डॉ0 अजय नावरिया ने कहा - शमशेर काल से होड़ की शक्ति रखते हैं, जबकि सुविधसंपन्न लोग कतरा कर निकल जाते है। शमशेर ने कहा था कि मुझे अमेरिका का स्टेच्यू ऑपफ लिबर्टी भी उतना ही प्यारा है जितना रूस का लालतारा। यानि शमशेर आजादी को स्पेस देते हैं। कला का संघर्ष समाज के संघर्ष से अलग की चीज नहीं हो सकता है। शमशेर और नागार्जुन, दोनो ने, बात को हथियाद माना है।’ भारत भारद्वाज ने कहा- शमशेर का साहित्यिक व्यक्तित्व एक कवि का है पर उन्होने ‘चांद का मुह टेढ़ा’ है की भूमिका के रूप में जो गद्य लिख है वह अद्भुत है। शमशेर की काव्य-पंक्तियां अपने समय में ही मुहावरा बन गई थंी। अज्ञेय ही नहीं शमशेर की कविता में भी सन्नाटा और मौन है। डॉ0 हेमंत कुकरेती ने कहा - आज प्रेम कामकाजी कुटीर उद्योग बन गया है जिसमें निजीपन नहीं रह गया है किंतु शमशेर में यह निजीपन मिलता है। उनके यहां प्रेम निरा शरीरिक नहीं है।’
अंत में प्रेम जनमेजय ने चारों सत्रों में चर्चित मुद्दों की संक्षिप्त रिपोर्ट प्रस्तुत की तथा प्रचार्य डॉ0 इंदजीत ने सभी का आभार व्यक्त किया।

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

श्रद्धेय कन्हैयालाल नंदन 25 सितंबर को स्वर्गवास

कन्हैयालाल नंदन-एक जीवंत नौकुचिया ताल

मैं पिछले 36 वर्षों से नंदन जी को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं और हमारे रिश्ते की शुरुआत 36 के आंकड़े से ही हुई पर यह 36 का आंकड़ा जल्दी ही 63 के आंकड़े में बदल गया । मैं पहली बार सन् 1974 में मिला था और वह मिलना एक घटना हो गया । इस घटना पर आधारित एक लेख मैंनें लिखा था -- सही आदमी गलत आदमी। पर जैसे समय बीता, उसने बताया कि रिश्तो को सहेजकर रखने वाला तथा उसे बुरी नजरों से बचाने वाला कन्हैयालाल नंदन नामक यह जीव संबंधों में गलत नहीं हो सकता है। जो व्यक्ति अपनी बीमारी को भी लोगों की निगाह से बचाकर रखता हो,उसका जिक्र आते ही उसके साथ जुड़े अपने संबंधों को व्याख्यायित न करता हो, वो मानवीय रिश्तों में कैसे 36 का रिश्ता बर्दाश्त कर सकता है।
नंदन जी बीमार हैं। बीमारी ने उन्हें शारिरिक रूप से दुर्बल कर दिया है परंतु बीमारी सबंधों की आंच को धीमा नहीं कर पाई है। आज भी अपने किसी का निमंत्रण हो तो कैसे भी वहां पहुंचना उनकी पहली प्राथमिकता होती है। अस्वस्थता बहाना भी तो नहीं बन पाती है।
पिछले दिनों परंपरा के कार्यक्रम में वे अपने दोस्तों की फौज के साथ उसी तरह से मिलने का यत्न कर रहे थे जैसे पहले मिला करते थे। अपनी बीमारी का जिक्र आते ही एक मुस्कान चेहरे पर खेलकर जैसे कहती कि, ये अपना काम कर रही है मैं अपना। उस दिन उन्होने बताया कि मैं अपनी आत्मकथा के अगले खं डमें व्यस्त हूं। मैं और उत्सुकता जाहिर की तो बोले कि आ जाओ। बुध का समय तकय हुआ और इससे पहले कि मैं उनके घर के लिए निकलता,उनका फोन आ गया-राजे, अभी रहने दो, तबीयत जरा ठीक नहीं है।’ मैं समझ गया कि जिस तबीयत को वह जरा बता रहे हैं वो कुछ अधिक ही है वरना मिलने से जो मना करे वो नंदन नहीं हो सकता ।
मेरा मन था कि इस स्तंभ के लिए उनसे एक बातचीत की जाए। इस आयोजन के लिए मैंने कृष्णदत्त पालीवाल से आग्रह किया तो वे ेबोले- प्रेम, उनका स्वास्थ इस योग्य नहीं है।वेे कुछ मना तो नहीं करेंगें पर उन्हें परेशान करना उचित न होगा।’ ऐसे में सोचा कि मैं ही उनके संदर्भ में,औरों का जोड़कर लिख दूं।
कन्हैयालाल नंदन के संबंध में लिखने को कुछ सोचता हूं कि एक विशाल चुनौती युक्त दुर्गम किंतु इंद्रधनुषी प्राकृतिक सौंदर्य से युक्त ,निमंत्राण देता पर्वत मेरे सामने खडा है। ऐसी चुनौतियों को स्वीकार करना मुझे अच्छा लगता है । और इतने बरस से नंदन जी को जानता हूं, इतनी यादे हैं कि उनपर लिखना बांए हाथ का खेल है । पर लिखने बैठा तो उंट पहाड के नीचे आ गया । पता चला कि दोनों हाथों , दिलो - दिमाग और अपनी सारी संवेंदनाओं को भी केंद्रित कर लूं तो इस लुभावने पर्वत के सभी पक्षों को शब्द बद्ध नहीं कर पाउंगा । नैनीताल के पास एक ताल है -- नौकुचिया ताल । कहते हैं इसके नौ कोणों को एक साथ देख पाना असंभव है । इस व्यक्तित्व में इतने डाईमेंशंस हैं कि ... । तुलसीदास ने कहा है कि जाकि रही भावना जैसी प्रभु मूरति देखी तिन तैसी । अब कन्हैयालाल नामक यह प्राणी प्रभु है कि नहीं अथवा नाम का ही कन्हैया ,यह खोज करना आधुनिक आलोचकों का काम है पर इस मूरति को लोग अनेक रूपों में देखते हैं , यह तय है। इस नौकुचिया ताल के कोणों में- कला,कविता,मंच, पत्रकारिता,मीडिया, संपादन,अध्यापन, मैत्री, परिवार आदि ऐसे कोण हैं जिन्हे किसी एक साथ देख पाना संभव नहीं है।
मेरी इस घोषणा पर कई महानुभाव त्योरी चढ़ाकर , आलोचकीय गंभीर मुद्रा ग्रहणकर , कह सकते हैं कि क्या इतना उलझाउ, गडमड, अबूझ और रहस्यात्मक व्यक्ति है कन्हैयालाल नंदन नामक जीव । और अगर ऐसा है तो हमारा दूर से लाल सलाम , काला सलाम या भगवा सलाम। हम तो सीधे साधे इंसान हैं और ऐसे ही इंसान को जानना चाहते हें । तो मिलिए न इस सीधेे साधे इंसान से । दर्शन कीजिए पर्वत पर उतरती आलोकित किरणों का , देवदार से समृद्ध इस पर्वत के सौंदर्य को निहारिए नं । नीचे से ही इसकी उंचाई को देखकर प्रसन्नचित्त होईए नं ।अब आप एक पर्यटक बनकर इस व्यक्तित्व को जानना चाहते हैं या एक पर्वतारोही बनकर , ये आपकी इच्छा है। विभिन्न कोणों से युक्त इस पूरे ताल की तरल,स्नेहिल एवं विपुल राशि का आत्मीयता अनुभव करना उसी के लिए सहज है जिसके लिए नंदन जी सहजता से उपलब्ध करवाना चाहते हैं।

सारिका,पराग,दिनमान,नवभारत टाईम्स, संडे मेल, इंडसइंड जैसी अनेक कुरसियां बदली और कभी ये कुरसियां नहीं भी रहीं पर यह इंसान नहीं बदला । इसका कष्ट बहुतों को रहा और नंदन जी ने बहुतों को यह कष्ट मुक्त भाव से बहुत बांटा भी । दोस्तों से मिलने पर हंसी के जो फव्वारे मैंनें सारिका में छूटते देखेे थे वही सफदरजंग एंक्लेव के इंडसईड के कार्यालय में, जनपथ की कॉफी शाप में और अनेक साहित्यिक गोष्ठीयों में छूटते देखे हैं । यह फुव्वारे अपनों के लिए एक्सक्लुसिव हैं । अपरिचितों के बीच यही धीर गंभीर मुद्रा में बदल जाते हैं । अपने निजत्व में हर किसी को झांकने की इज्जात नहीं देता है यह व्यक्ति । कन्हैयालाल नंदल के विभिन्न समयों पर आवश्यकतानुसार बदलते इस सटीक बदलाव को देखकर लगता है जैसे आप किसी महाकाव्यात्मक उपन्यास के पात्रों को जी रहे हैं । जहां देश काल और चरित्रा के बदलते ही भाषा और शैली बदल जाती है । जो नंदन सिंह बंधु, बीर राजा, महीप सिंह गोपाल चतुर्वेदी के सामने टांग खिंचाई का मुक्त दृश्य प्रस्तुत करते हैं और उस माहौल में बातें कम ठाहके ज्यादा होते हैं वही अपने किसी आदरणीय से बात करते समय शब्दों के प्रति अतिरिक्त सचेत होते हैं । जो पसंद है उसपर समस्त स्नेह उडेलने और जो नहीं है उसपर टरकोलॉजी के बाणों का प्रयोग करने में सिद्धहस्त यह व्यक्ति आभास तक नहीं होने देता है और आप घायल हो जाते हैें । अगर आप पसंद आ गए तो आप दोतरफा घायल होंगें । ( हां अपनों से भी घायल होते , सही शब्द होना चाहिए आहत होते भी मैंनें इस दिल को देखा है । हिंदी साहित्य में आपके अनेक ऐसे ज्ञानी ध्यानी आलोचक मिल जाएंगें जो जब आपसे अकेले में मिलेंगें तो आपकी रचनाशीलता के पुल बांध देंगें , जो रचनाएं आपने लिखी नहीं हैं उनकी भी प्रशंसा कर डालेंगें और खुदा न खास्ता आप अपनी कुरसी के कारण महत्वपूर्ण हैं तो ऐसे प्रशंसात्मक पुलों का कहना ही क्या । पर यही ज्ञानीजन जब आपके बारे में लिखने बैठते हैं तो इनकी अंगुलिया थरथराने लगती है और कलम बचकर चलती हुई चलनें लगती है ।)
नंदन जी के मित्रों,शुभंिचतको,आलोचकों,प्रशंसको, राजनैयिकों, राजनैतिज्ञों, नौकरशाहों, अनुजों, अग्रजों आदि की एक लंबी फौज है। इस फौज का प्रत्येक अंश उनके साथ न जाने किस गोंद से जुड़ा है। इस फौज ने सुअवसर तलाश कर नंदन जी के व्यक्तित्व कृतित्व के संबंध में अपने विचार व्यक्त करने में कोई कृजूसी नहीं की है।उन सबके उद्धरण ही दूं तो ‘गगनांचल’ के तीन-चार अंक तो निकालने ही पड़ेंगें। चावल के दानों से कुछ हाजिर हैं।
इंदरकुमार गुजराल ,पूर्व प्रधानमंत्री
एक ऐसे दोस्त का तआरुफ करना,जिसकी जहानत और दानिशमंदी के आप कायल हों, उतना ही मुश्किल काम है जितना खुद अपना तआरुफ खुद करना।दोनो में यकसा मुश्किलें हैं।और फिर कन्हैयालाल नंदन के बारे में कुछ लिखना हो तो और भी मुश्किल है क्योंकि मैं यह तय नहीं कर पा रहा हूं कि उनकी शख़्सियत के किस पहलूं को लूं और किसे छोड़ूं।उनका हास्य, उनका व्यंग्य, उनकी दार्शनिक सोच, उनकी राजनीतिक टिप्पणियां, उनकी शानदा कविता या फिर अपने नन्हे-किशोर दोस्तों से बातचीत करने का उनका पुरलुत्फ़ अंदाज!’’
डॉ0लक्ष्मीमल सिंघवी,
कसाले बहुत सहे हैं उन्होंने, किंतु कड़वाहट नहीं है उनके विचारों में। पद,प्रतिष्ठा अधिकार और संपन्नता उनको अपना जरखरीद बंदी नहीं बना पाए। वे एक समर्थ, स्वाभिमानी साहित्यकार है जो कभी टूटा नहीं, कभी झुका नहीं।झुका तो केवल स्नेह के आगे।
महीप सिंह, सुप्रसिद्ध साहित्यकार
नंदन ने सबकुछ सहा सबकुछ झेला किंतु अपनी मधुर मुस्कराहट में रत्ती भर भी कमी नहीं आने दी और अत्यंत पीड़ाजनक स्थितियों में भी कनपुरिया मस्ती नहीं छोड़ी। मुझे नंदन के संपूर्ण काव्य -सृजन में यह मस्ती, अक्खड़ता, भावुकता और सबसे उपर मानवीयता दिखाई देती है ।
कृष्णदत्त पालीवाल
नंदन जी की कविताओं की अंर्तयात्रा करते हुए मुझे टी0एस0 एलियट की यह बात कौंधती है कि कविता अपनी परंपरा से निरंतर संवाद है। स्वयं नंदन जी कभी अज्ञेय जी को ‘मैं वह धनु हूं’ कभी ठाकुर प्रसाद सिंह को ‘ हमें न सूर्य मिलेगा न सूर्य बिंब’ कभी दिनकर जी को ‘चाहिए देवत्व पर इस आग को धर दूं कहां पर’ कभी अशोक वाजपेयी को ‘हमारे साथ सूर्य हो ’ कभी कैलाश वाजपेयी को ‘जंग की तरह लगा भविष्य’ कभी दुष्यंत कुमार को ‘हर परंपरा को मरने का विष मुझे मिला’ कभी गियोमिलोव को ‘आओ छाती में बम लेकर आसमान पर हमला करें’ - याद करते हैं।

सुरिंदर सिंह
नंदन के हर प्रेम-गीत की धड़कन उसकी पत्नी है- मूर्ख है मेरा यार!उसकी ‘रातों का हर सलोना झोंका’ हर ‘भीनी सी खुशबू’ एक वजूद से है। आजतक वह इंतजार कर रहा है उस रात का ज बवह अपने ‘इंद्रधनुष’ से पूछने का साहस जुटा पाए कि वह उसके सपनों में क्यों आता है...

गोपीचंद नारंग, उर्दू अदब की शख़्सियत
कन्हैयालाल नंदन की शायरी शउरे जात व काइनात की शायरी है। उन्होंने आम हिंदी के शायरों की तरह अपनी शायरी में खातीबाना बहना गुफ्तारी का मुज़ाहरा नहीं किया है बल्कि तमकिनत और कोमलता के साथ अपनी तख़लीकी इस्तेआशत को इज़्हारी कालब में ढाला है।

यह चेहरा इतना संवेदनशील है , और चश्में के पीछे छिपी आंखें इतनी बातूनी हैं कि लाख छुपाने पर भी दिल की जुबान बोलने लगती हैं । पहनने का ही सलीका नहीं बातों का भी सलका सीखना हो तो हाजिर है । अपनों के लिए धड़कता यह दिल प्यार के नाम पर कुछ भी लुटाने को तत्पर रहता है , और कोई इस लूट को नहीं लूटता है तो उस बौड़म पर गुस्सा आता है । मुझे याद है, एक बार खीझकर नंदनजी ने कहा था-- राजे इस बदमाशी का क्या मतलब है कि पत्रिका में यह छाप दो वो छाप दो कि रट लगाए लोग मेरे पीछे डोलते हैें और तुम कुछ भी छपवाने के लिए नहीं कहते । ’’ मैंनें पाया कि आंखें साफ कह रही हैं कि यह दर्द जेनुइन है । मैंनें कुछ नहीं कहा बस उन आंखों को अपनी आत्मीय मुस्कान दे दी । दिल ने बात समझ ली । शायद यही कारण है कि सितम्बर 1995 में गगनांचल का संपादकीय भार संभालते हुए संपादन सहयोग के लिए पूछा नहीं गया था, सूचित भर किया गया था कि यह काम करना है । सच कहूं पत्रिका निकालने की शाश्वत खुजली के कारण मैं ऐसे प्रस्ताव की प्रतीक्षा में था । मत चूके चौहान की शैली में हां कह दी । इस हां के अनेक सुख थे । सबसे बडा तो यही कि संपादन के विशाल अनुभव सम्पन्न व्यक्ति का साथ , सरकारी पत्रिका होने के कारण साधन जुटाने की चिंता से मुक्ति तथा कुछ करो इस चांदनी में सब क्षमा है जैसा संपादकीय अभयदान । इस अवसर ने अजय गुप्ता जैसा मित्र भी दे दिया । मैनें इस व्यक्तित्व से बहुत कुछ सीखा है । इस सीखने की प्रक्रिया में डांट अधिक खाई है शाब्बासी कम पाई है और कहूं कि पाई ही नहीं तो बेहतर होगा । इस श्रीमुख से शाब्बासी नहीं मिली है पर वाया भंटिडा आई इस श्रीमुखीन शाब्बासियों ने मेरा उत्साह बढाया है । यह अच्छा ही रहा , एक सारहीन अहं नहीं पलने दिया गया ।‘गगनांचल’ को 2003 में छोड़ने के बाद मैंने नंदन जी से कहा कि मैंने आपसे बहुत कुछ सीखा है। वे बोले-क्या सीखा है, राजे!’ मैं- वो फिर कभी बताउंगा।’ इसके बाद नंदन जी ने जब ‘व्यंग्य यात्रा’ के संपादन और प्रस्तुति की प्रशंसा की तो मैंनें कहा- यही सीखा है जिसने आप जैसे अनुभवी एवं वरिष्ठ संपादक से मेरे संपादकीय कर्म की निष्पक्ष प्रशंसा करवा दी।
नंदन जी का एक काव्य संकलन है, ‘ समय की दहलीज पर ’ ।‘ समय की दहलीज ’ समय - समय पर लिखी कविताओं को एक किताब में संकलित कर प्रस्तुत मात्रा करने का प्रयत्न नहीं है अपितु कविता को एक वैचारिक सलीके से अपनी सम्पूर्ण गम्भीरता के साथ पाठकों से संवाद करने का आत्मीय आग्रह है । संकलन के हर पन्ने पर कवि नंदन उपस्थित हैं । यही कारण है कि संकलन की भूमिका नारे बाजी से अलग, एक कवि की विभिन्न समय- अन्तरालों में संचित सोच और काव्य अनुभवों का गद्य - गीत है । कवि नें जिन्हें अपने नोट्स कहा है वे वस्तुतः सारगर्भित सूत्रा हैं जो कन्हैयालाल नंदनीय दृष्टि से अपने परिवेश को समझने के प्रयत्न का परिणाम हैं और अपने अनुभवों को बिना कंजूसी के बांटते हुए दृष्टिगत होते हैं । इन नोट्स के आधार पर ही कविता पर एक सार्थक बहस की जा सकती है । इस सागर में से कुछ बूंदें आपके सामनें प्रस्तुत हैं ---‘ किसी कविता में जितना सम्पूर्णता का अंश डाला जा सकेगा , वह उतना ही समयातीत हो सकेगी ..... तात्कालिकता से हटना अच्छी कविता की अनिवार्यता है । .... आत्मालोचन करने का गुण अगर कवि में पनप जाये तो उसे किसी अन्य आलोचक की जरूरत नहीं होती । ....... कविता मन भी है , मस्तिष्क भी है , दिल भी है दिमाग भी है ।...... सकारात्मक कविता नकारात्मक कविता से हमेशा बडी होती है । ....... प्रेम की ज्योति अपने स्थान और समय से आगे तक की रौशनी देती है ।......... कविता का अच्छा पाठक अपने अंदर एक कवि होता है । ...... कवि के अंदर कुतूहल का जिंदा होना उसकी रचनाशीलता को आयाम प्रदान करता है । ....... आभ्यांतरिक संघर्ष रचनाशीलता में सबसे अधिक सहायक होता है । ........ सिकंदर पर सुकारात की अहमियत का युग लौट सके ।.......... ’’
समय की इस दहलीज को कवि नंदन नें पांच कोणों से देखा है और हर कोण को एक नाम दिया है । ‘ राग की अभ्यर्थना ’ के अंर्तगत संकलित कविताओं में कवि को ‘आत्मबोध’ होता है , वह अपने ‘विस्तार’ में आकाश को छोटा पाता है , और ‘संस्पर्श का कलरव ’ उसे अनुभव देता है --- राग की अभ्यर्थना में / धरती को जल नें / जल को हवा ने / हवा को आकाश ने छुआ / वृक्ष के अंग अंग / डाल - डाल / फुनगी - फुनगी / फूट पडा अंखुआ । / पृथ्वी / जल / हवा / आकाश / सबके संस्पर्श से वृक्ष की देह में / नया कलरव हुआ ।’’ इन कविताओं में एक उत्कट जीजीविषा है । ‘ समय ठहरा हुआ ’ कितना भी क्यों न हो पर कवि के सपनों में एक ‘इंद्रधनुष’ रोज आता है और सांसों के सरगम पर तान छेड जाता है । प्रकृति के विभिन्न रंगों में डूबता उतरता कवि अपनी संवेदनाओं का आत्मीय संस्पर्श छोडता चलता है । ब्रहाण्ड की विराटता को अपनी बाहों में बांध लेने को लालयित कवि इस विशाल शून्य को अपने अंदर भर लेना चाहता है --- कहना कठिन है / कि शून्य को खाली कर रहा हूं / या शून्य को भर रहा हूं /सच यह है कि / फूल/ रंग / कोमलता की तलाश कर रहा हूं । ’’
कविता को गुनगुनाने और कंठस्थ करने वाले पाठको को आज लगता है कि कविता कहीं उनसे बहुत दूर हो गई । मंच पर जो कविता विराजमान है उससे मानवीय मूल्यो के लिए चिंतित सजग पाठक वितृष्णा करता है । ऐसे में नंदन की कविता एक सहज मार्ग दिखाती है । यह कविता शुद्ध भारतीय मन और परिवेश की है । इस संकलन की कविताएं पाश्चात्य वादों या विवादों में उलझी भारतीय मानसिकता का अनुवाद नहीं हैं । यह कविताएं निराशा के दलदल में नहीं डूबोती हैं अपितु तमाम विरोधों के बावजूद एक सशक्त सम्बल हाथ में थमाती हैं । अपनी मिट्टी की गंध का स्नेहिल स्पर्श देती इन कविताओं को पढना एक साहित्यिक उपलब्धि है ।

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नंदन जी का संक्षिप्त परिचय

परिचय
जन्म-
१ जुलाई १९३३ को गाँव परस्तेपुर (जिला फतेहपुर) में

शिक्षा -
बी.ए. (डी.ए.वी कॉलेज, कानपुर), एम.ए. (प्रयाग विश्वविद्यालय), पीएच.डी. (भावनगर विश्वविद्यालय)

कार्यक्षेत्र-
४ वर्ष तक मुंबई विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कॉलेजों में अध्यापन। १९६१ से १९७२ तक टाइम्स ऑफ इंडिया प्रकाशन समूह के धर्मयुग में सहायक संपादक। १९७२ से दिल्ली में क्रमशरू पराग, सारिका और दिनमान के संपादक। तीन वर्ष तक दैनिक नवभारत टाइम्स में फीचर संपादक, ६ वर्ष तक हिन्दी संडे मेल में प्रधान संपादक तथा १९९५ से इंडसइंड मीडिया में निदेशक के पद पर।

प्रमुख कृतियाँ-
लुकुआ का शाहनामा, घाट-घाट का पानी, अंतरंग नाट्य परिवेश, आग के रंग, अमृता शेरगिल, समय की दहलीज, बंजर धरती पर इंद्रधनुष, गुजरा कहाँ कहाँ से।

सम्मान पुरस्कार-
भारतेंदु पुरस्कार, अज्ञेय पुरस्कार, मीडिया इंडिया, कालचक्र और रामकृष्ण जयदयाल सद्भावना पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
तस्वीर और दर्पन

रविवार, 15 अगस्त 2010

आजादी के मायने

आजादी के मायने

बहुत गहरे मायने हैं हमारे देश की आजादी के। इतने गहरे की आप जितना डूबेंगें उतना ही लगेगा कि आप स्वयं को अज्ञानी समझेंगें। इन मायनों को समझने के लिए किसी शब्दकोश की आवश्यक्त नहीं है। वैसे जैसे प्रेम, प्यार, घृणा, अत्याचार, भ्रष्टाचार आदि के मायने नहीं बदलते हैं वैसे ही आजादी के मायने भी कभी नहीं बदलते हैं। हां आजादी का प्रयोग करने वाले बदलते रहते हैं।
आजादी से पहले अंग्रेज शासकों इस देश का धन विदेश ले जाने की आजादी थी अब स्वदेशी शासकों को वो आजादी है। पहले गोरे अफसर अपने ‘सदाचारण’ से दफतरों में जनता की सेवा करते थे और उनसे सेवा शुल्क लेने की उन्हें आजादी थे, अब काले अफसरों को यह आजादी है। थाने वही हैं और उनमें वही आजादी बरकरार है, बस थानेदार बदले हैं। पहले राजा प्रजा के विकास के नाम पर कर लगाकर अपना विकास करने को स्वतंत्र था आजकल मंत्रीपदों की शोभा बढ़ा रहे जनसेवक अपना विकास करने के लिए स्वतंत्र हैं। पहले कोई जर्नल डायर कितना भी अत्याचार कर ले, बस उसपर आयोग बैठता था और वो अपनी मौत मर जाता था, आजकल भी हमारा कानून वैसा ही है। पहले भी गरीब पिटता था आज भी उसे पिटने की पूरी आजादी है।
ऐसा नहीं है कि हमने आजादी के वही मायने समझे है जो हमारे पूर्वजों ने समझे थे। हमने अपनी समझ में पर्याप्त विकास किया है। हमने भ्रष्टाचार के कूंए के स्थान पर विशाल सागर का निर्माण किया है। हमने मंहगाई के क्षेत्र में अद्भुत विकास किया है। पहले बाजार को महंगाई बड़ाने का अधिकार था अब सरकार को भी है। हमने अमीरों को और अमीर तथा गरीबों केा और गरीब बनाया है। किसानों को आत्महत्या करने की हमने पूरी आजादी दे दी है। आज आजादी का मायना उसी के लिए है जिसकी जेब में पैसा है, जो ठनठन गोपाल है वह मंदिरों में भजन करता है और उपवास रखता है।

रविवार, 1 अगस्त 2010

हंगामा है क्यूं बरपा...सन्दर्भ विभूति नारायण

हंगामा है क्यूं बरपा...

साहित्य मे हंगामे न हो तो साहित्य किसी विधवा की मांग या फिर किसी राजनेता का सक्रिय राजनीति से दूर जैसा लगता है। अब किसी ने नशे में कुछ की दिया है तो इतना हंगामा मचाने की क्या आवश्यक्ता है। पी कर हंगामा करना कोई बुरी बात है। अब पीकर हंगामा न हो तो पीने पर लानत है, हुजूर!
एक अकेले विभूति ने थोड़ी पी है, इसे पीने वाले तो अनेक बुजुर्ग मठाधीश रचनाकार साहित्य जगत में हैं। न न न उस शराब को बदनाम न करें जो गालिब पीते थे। ये शराब तो स्वयं को निरंतर विवादित कर समाचार में रहने की है। ये शराब तो डब्ल्यू डब्लयू एफ की कुश्तियों से पैदा की जाती है। अब हमारे लिखे को कोई रेखांकित नहीं कर रहा है तो दूसरे के लिखे को ही चुनौती दे डालो। ‘साला’ साहित्य जगत आपके मन मुनाफिक आपके लिखे को चर्चा के केंद्र में नहीं रख रहा है तो, चुप्पी साधे बैठा है तो, उसकी मां -बहन कर दो, चुप्पी अपने आप टूटेगी और आप हर साहित्यिक पान की दूकानों या चंडूखाने में चर्चा का विषय बन जाएंगे।
अब एक पुलसिया साहित्यकार ने इस नशे की झोंक में कुछ कह दिया है तो इतना हंगामा मचाने की क्या आवश्यक्ता है ।अब यदि एक विश्वविद्यालय के गंभीर चिंतक एवं जिम्मेदार व्यक्ति ये कहते हैं कि -लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने के लिए कि उनसे बडऋी छिनाल कोई नहीं ।’ तो हुजूर इस विषय पर शोध करवाए जाएं , सेमिनार हों। इस योगदान पर बड़ी-बड़ी विभूतियों से चर्चा करवाई जाए। हिंदी साहित्य कुछ पिछड़े माहौल से बाहर निकले।
अब यदि संपादक जिसने इस साक्षात्कार को प्रकाशित किया है, बावजूद इसके कि उसकी पत्नी स्वयं एक लेखिका है तो आपको क्या एतराज ? सुना है कि संपादक और साक्षात्कार में अपने अनमोल स्वर्णिम विचारों को व्यक्त करने वाले अच्छे मित्र हैं और अनन्य मित्र तो बहुत कुछ जानते हैं। क्या दोस्ती है हुजूर, कोई आपकी पत्नी को सरे आम छिनाल कह रहा है और आप उसे सरे आम प्रकाशित कर रहे हैं।
ऐसे हंगामे रजनीति और फिल्मनीति में होते ही रहते हैं। और राजनीति में तो ऐसे हंगामों की प्रतिदिन चर्चा रहती है।
प्रिय भाई को उम्मीद नहीं थी कि बात इतनी दूर तलक पहुंचेगी की नौकरी पर बन आएगी। वैसे चिंता की कोई बात नहीं, नौकरी बचानी हो तो वैसा ही करें जैसे हमारे राजनेता करते हैं। मैंनें ऐसा नहीं कथा था... मेरे बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है... मैं तो नारी की पूजा करता हूं ... जहां नारी की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं... आदि आदि। और बहुत हुआ तो क्षमा मांग ली। नौकरी या मंत्री पद पर आंच नहीं आनी चाहिए। आखिर ये भी तो साहित्य के नेता हैं, ये सब टोटके तो जानते ही होंगे।
मूर्ख थे दुष्यंत जो कहते थे कि हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नही... यहां तो मकसद यही है जिससे अपनी तसवीर बदलती रहे चाहे दूसरे की धुंधला जाए।

प्रेम जनमेजय