तपन
जब जून का महीना आता है
अपने प्राकतिक रूप में
अपने पूर्ण अस्तित्व के साथ
सपरिपवार,
दिल्ली में लोग तपते
या जहां कहीं भी दिल्ली है
लोग तपते हैं
भीष्ण गर्मी की तपन से ।
लोग तपते हैं
मैं भी तपता हूं
पर, एक और अगन से।
ये अगन है अभाव की
ये अगन है खालीपन की
ये अगन है अपना बहुत कुछ बहुमूल्य खोने की।
मैंनें अपनी माॅ को
इसी मौसम में खोया है।
शायद इसलिए
आठ जून को जब आठ बजते हैं
मौसम कैसा भी हो
सुहावना या तपता हुआ
एक आग से मुझे भिगो जाता है
मेरे अंदर तपता अभाव जगा जाता है।
पर ना जाने क्यों
ये सब मुझे बेचैन तो करता हैं
पर असंतुलित नहीं।
सोमवार, 8 जून 2009
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5 टिप्पणियां:
आपकी कविता में
अपनापन लबालब है
अभाव कैसा भी हो
पर भावों का तनिक नहीं
यही सब आपको
रखता है संतुलित
बनाता है सबल
और देता है संबल।
Hi Prem
Jab ek vyangyakaar ka dil rota hai; sab ki aankheiN num ho jaati hain. MaaN ko khoney ka dard aur mausam ki tapish ko aap ne bahut khoobsoorat dhang se piro diya hai. Aag ka bhigo dena - ek naya bimb hai. Lekhak ke liye mehtavapoorna hai Bechaini - Asantulan waley log BaaeiN haath se likh kar khush ho letey hain.
Aapka apna
Tejendra
Katha UK, London
premji,
maa ka abhaav kisi bhi any bhav se bhara nahin ja sakta.........kyonki maa k na rahne par jo shoonya sthapit hota hai vah kisi black hole se kam nahin hota ________ iske uoraant bhi jo sudridh aatmik kshmta wale hote hain, ve asantulit nahin hote ...
aapki kavita ne bhavuk bhi kar diya aur maa k smarana se nihaal bhi
umda !
bahut umda kavita......badhai !
जून की गर्मी -
दुख-सुख पाकर काटा हमने आधा जून
अब तो हमसे सहा ना जाए SUN और MOON
जल्दी राहत लेकर आओ बरखा नीर
सांसें चल रही हैं जैसे चुभते तीर।
माता-पिता से प्राप्त शिक्षा -
नेक-नियति,त्याग-तपस्या
मिलकर साख बढाती है
श्रम कभी शर्मसार ना हो
ये संदेश सुनाती है।
राजीव वत्स
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