पिछले माह पेज देखे जाने की संख्या

रविवार, 15 अगस्त 2010

आजादी के मायने

आजादी के मायने

बहुत गहरे मायने हैं हमारे देश की आजादी के। इतने गहरे की आप जितना डूबेंगें उतना ही लगेगा कि आप स्वयं को अज्ञानी समझेंगें। इन मायनों को समझने के लिए किसी शब्दकोश की आवश्यक्त नहीं है। वैसे जैसे प्रेम, प्यार, घृणा, अत्याचार, भ्रष्टाचार आदि के मायने नहीं बदलते हैं वैसे ही आजादी के मायने भी कभी नहीं बदलते हैं। हां आजादी का प्रयोग करने वाले बदलते रहते हैं।
आजादी से पहले अंग्रेज शासकों इस देश का धन विदेश ले जाने की आजादी थी अब स्वदेशी शासकों को वो आजादी है। पहले गोरे अफसर अपने ‘सदाचारण’ से दफतरों में जनता की सेवा करते थे और उनसे सेवा शुल्क लेने की उन्हें आजादी थे, अब काले अफसरों को यह आजादी है। थाने वही हैं और उनमें वही आजादी बरकरार है, बस थानेदार बदले हैं। पहले राजा प्रजा के विकास के नाम पर कर लगाकर अपना विकास करने को स्वतंत्र था आजकल मंत्रीपदों की शोभा बढ़ा रहे जनसेवक अपना विकास करने के लिए स्वतंत्र हैं। पहले कोई जर्नल डायर कितना भी अत्याचार कर ले, बस उसपर आयोग बैठता था और वो अपनी मौत मर जाता था, आजकल भी हमारा कानून वैसा ही है। पहले भी गरीब पिटता था आज भी उसे पिटने की पूरी आजादी है।
ऐसा नहीं है कि हमने आजादी के वही मायने समझे है जो हमारे पूर्वजों ने समझे थे। हमने अपनी समझ में पर्याप्त विकास किया है। हमने भ्रष्टाचार के कूंए के स्थान पर विशाल सागर का निर्माण किया है। हमने मंहगाई के क्षेत्र में अद्भुत विकास किया है। पहले बाजार को महंगाई बड़ाने का अधिकार था अब सरकार को भी है। हमने अमीरों को और अमीर तथा गरीबों केा और गरीब बनाया है। किसानों को आत्महत्या करने की हमने पूरी आजादी दे दी है। आज आजादी का मायना उसी के लिए है जिसकी जेब में पैसा है, जो ठनठन गोपाल है वह मंदिरों में भजन करता है और उपवास रखता है।

रविवार, 1 अगस्त 2010

हंगामा है क्यूं बरपा...सन्दर्भ विभूति नारायण

हंगामा है क्यूं बरपा...

साहित्य मे हंगामे न हो तो साहित्य किसी विधवा की मांग या फिर किसी राजनेता का सक्रिय राजनीति से दूर जैसा लगता है। अब किसी ने नशे में कुछ की दिया है तो इतना हंगामा मचाने की क्या आवश्यक्ता है। पी कर हंगामा करना कोई बुरी बात है। अब पीकर हंगामा न हो तो पीने पर लानत है, हुजूर!
एक अकेले विभूति ने थोड़ी पी है, इसे पीने वाले तो अनेक बुजुर्ग मठाधीश रचनाकार साहित्य जगत में हैं। न न न उस शराब को बदनाम न करें जो गालिब पीते थे। ये शराब तो स्वयं को निरंतर विवादित कर समाचार में रहने की है। ये शराब तो डब्ल्यू डब्लयू एफ की कुश्तियों से पैदा की जाती है। अब हमारे लिखे को कोई रेखांकित नहीं कर रहा है तो दूसरे के लिखे को ही चुनौती दे डालो। ‘साला’ साहित्य जगत आपके मन मुनाफिक आपके लिखे को चर्चा के केंद्र में नहीं रख रहा है तो, चुप्पी साधे बैठा है तो, उसकी मां -बहन कर दो, चुप्पी अपने आप टूटेगी और आप हर साहित्यिक पान की दूकानों या चंडूखाने में चर्चा का विषय बन जाएंगे।
अब एक पुलसिया साहित्यकार ने इस नशे की झोंक में कुछ कह दिया है तो इतना हंगामा मचाने की क्या आवश्यक्ता है ।अब यदि एक विश्वविद्यालय के गंभीर चिंतक एवं जिम्मेदार व्यक्ति ये कहते हैं कि -लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने के लिए कि उनसे बडऋी छिनाल कोई नहीं ।’ तो हुजूर इस विषय पर शोध करवाए जाएं , सेमिनार हों। इस योगदान पर बड़ी-बड़ी विभूतियों से चर्चा करवाई जाए। हिंदी साहित्य कुछ पिछड़े माहौल से बाहर निकले।
अब यदि संपादक जिसने इस साक्षात्कार को प्रकाशित किया है, बावजूद इसके कि उसकी पत्नी स्वयं एक लेखिका है तो आपको क्या एतराज ? सुना है कि संपादक और साक्षात्कार में अपने अनमोल स्वर्णिम विचारों को व्यक्त करने वाले अच्छे मित्र हैं और अनन्य मित्र तो बहुत कुछ जानते हैं। क्या दोस्ती है हुजूर, कोई आपकी पत्नी को सरे आम छिनाल कह रहा है और आप उसे सरे आम प्रकाशित कर रहे हैं।
ऐसे हंगामे रजनीति और फिल्मनीति में होते ही रहते हैं। और राजनीति में तो ऐसे हंगामों की प्रतिदिन चर्चा रहती है।
प्रिय भाई को उम्मीद नहीं थी कि बात इतनी दूर तलक पहुंचेगी की नौकरी पर बन आएगी। वैसे चिंता की कोई बात नहीं, नौकरी बचानी हो तो वैसा ही करें जैसे हमारे राजनेता करते हैं। मैंनें ऐसा नहीं कथा था... मेरे बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है... मैं तो नारी की पूजा करता हूं ... जहां नारी की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं... आदि आदि। और बहुत हुआ तो क्षमा मांग ली। नौकरी या मंत्री पद पर आंच नहीं आनी चाहिए। आखिर ये भी तो साहित्य के नेता हैं, ये सब टोटके तो जानते ही होंगे।
मूर्ख थे दुष्यंत जो कहते थे कि हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नही... यहां तो मकसद यही है जिससे अपनी तसवीर बदलती रहे चाहे दूसरे की धुंधला जाए।

प्रेम जनमेजय