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मंगलवार, 23 जुलाई 2019

प्रेम जन्मेजय की व्यंग्य रचना - धोखेबाज़ मौसम की जय हो


धोखेबाज मौसम की जय हो!


   ये नारा मेरा नहीं है, राधेलाल का है। कुछ प्रजातंत्र के मारे होते हैं और कुछ प्रजातंत्र को मारने वाले होते हैं। बेचारा राधेलाल प्रजा है अतः प्रजातंत्र का मारा है।  हर समय सड़क से संसद की ओर टकटकी लगाए देखता रहता है। उसे विश्वास है कि एक दिन पश्चिम से सूर्य अवश्य निकलेगा।
  प्रजातंत्र में जैसे सबकी भूमिका निर्धारित है । राधेलाल की भी निर्धारित है। कुछ सेवा करते हैं और मेवा पाते हैं। कुछ बिना सेवा किए मेवा पाते है। पर राधेलाल जैसे प्रजाजन सेवा करते हैं और सेवा ही पाते हैं।  सेवा का यह तंत्र केवल संसद के गलियारों में नहीं है, धर्म के गलियारों में भी है। अपने सेवकों को माया मोह से दूर रखने की शिक्षा का मंत्र देने वाले महंत बिन सेवा के मेवा पाते हैं। न केवल मेवा पाते हैं, मेवे का व्यापार भी करते हैं। धर्म का सिक्का राजनीति, समाज, देश-विदेश आदि, सब जगह चलता है। जो भी इसके अवमूल्यन की कोशिश करता है उसका ही अवमूल्यन हो जाता है।
      तो इन दिनों प्रजातंत्र का मारा राधेलाल बेरोजगार है। राधेलाल कबीर नही है फिर भी भया उदास है। देश में आम चुनाव हो चुके हैं। इधर आम चुनाव खत्म हुए और उधर अनेक हो गए।  देश में नारों की नदी सूख गयी है। नारों में जिंदाबाद किसान अब मुर्दा पड़ा है। दलित की झोपड़ी किसी बूढ़ी वेश्या के खुले द्वार -सी उपेक्षित है। गले में हार डालने का सम्मान पाई पिछड़ी जातियां पुनः जूते की नोक पर हैं। जैसे युद्ध में विजयी राजा के राजमहल में उत्सव होता है और ‘शहीद’ हुए ‘योद्धाओं’ के घर मातम पसरता है, वैसा ही कुछ प्रजातंत्र में भी पसर गया हैं। अब अगले चुनाव तक तो पसरेगा ही। इसी कारण राधेलाल फिलहाल बेरोजगार हैं। 
   राधेलाल की भूमिका नारेबाज की है। जैसे बिन भ्रष्टाचार नौकरशाह,पुलिस, नेता आदि बेचैन रहते हैं वैसा ही बेचैन नारा विहीन राधेलाल है। वह नारों का नशेड़ी हो गया है। बिन नारा सब सून। उसका मन करता है कि किसी फेरीवाले की तरह वह गली गली आवाज लगाए- नारे लगवा लो, नारे। सस्ते नारे लगवा लो! दो नारो के साथ चार फ्री नारे लगवा लो। उसे समझ नहीं आ रहा है कि वह करे तो क्या करे! पहला जमाना बढ़िया था, केवल चुनाव में ही नारों की आवश्यक्ता नहीं पड़ती थी। नारों का सैंसक्स हाई था। दिल्ली के जंतर -मंतर में हर समय आंदोलन का वंसत छाया रहता था। पैट्रोल या डीजल के दो रुपए बढ़ते थे तो हर गली में नारे शोभायमान होते थे हजारों रुपए की कारें फूक दी जाती थी। ग्राहक सुबह उठकर ब्रेड अंडा या मक्खन लेने जाता है तो पता चलता है कि बीस रुपए की ब्रेड पच्चीस की हो गई है, पांच रुपए का अंडा सात का हो गया है यानि लगभग बीस परसेंट महंगे हो गए हैं। गा्रहक बस आश्चर्य व्यक्त करता है,‘ इतना महंगा’ और उतना महंगा लेकर चल देता है। लगता है कि बेरोजगारी सुरसा,राफेली भ्रष्टाचार, किसानी आत्महत्या आदि परवाने चुनाव में पैदा होते है और चुनाव की शमा में जलकर मुक्त हो जाते हैं। 
     बेचारे राधेलाल ने  बहुत देर तक प्रतीक्षा की और गिडगिड़या भी - कोई नारा तो उछालो यारों! पर प्रतीक्षा न्यायालय की तारीख पर तारीख जैसी हो गई । ऐसे में राधेलाल ने मुझे देखा और  नारा उछाल दिया - धोखेबाज मौसम की जय हो!
मैंने कहा - मौसम और धोखेबाज! क्या प्रकृति में भी चुनाव का बिगुल बज गया है कि मौसम धोखेबाज होने लगा। उसे कौन-सा चुनाव लड़ना है कि वह धोखेबाज हो। मौसम तो प्रकृति के नियामानुसार चलता है। 
- किस धोखेबाज मौसम की बात कर रहे हैं आप!
-यही जो आजकल हमारे देश की में चारों ओर भ्रष्टाचार -सा छाया हुआ है। बरसात का मौसम।
मैंने कहा -भीष्ण गर्मी के बाद बरसात का जो मौसम आता है उसकी जय होनी ही चाहिए। कितना सकून मिलता है। संसद में हरियाली छाती हैं । सब्सीडाईज कैंटीन में बहार आती है। देशसेवा के चातको की प्यास बुझती है। आश्वसनों की सूख चुकी चुनावी नदी में विकास की कुछ बूंदे टपकने लगती हैं। क्या बढ़िया मौसम होता है बरसात का।
राधेलाल बोला -बढ़िया! सबसे घटिया होता है बरसात का मौसम।
तभी कहीं से गाना बजने लगा- 
हम तो समझे थे कि बरसात में बरसेगी शराब
आयी बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया।
राधेलाल चहका - देख लिया। इस घटिया बरसात ने किसी का दिल तोड़ ही दिया न। और जरूर किसी गरीब का दिल तोड़ा होगा।
- गरीब का दिल क्यों, अमीर का क्यों नहीं? अमीर के पास क्या दिल नहीं होता?
- अमीर के पास दिल होता है पर वो उसका प्रयोग नहीं करता। वो तो दो दूनी चार के लिए दिमाग का प्रयोग करता हैं। उसे न तो चुनाव के समय शराब चाहिए और न ही बाद में। उसे तो शराब का व्यापार करना है-चुनाव से पहले,चुनाव में और उसके बाद भी। गरीब के लिए  चुनाव में शराब बरसती है और उसके आगे भी बरसने के आश्वासन मिलते है, पर नहीं बरसती। शराब की जगह बाढ़ बरसती है जिसमें झोपड़ियां मरती हैं।ये बरसात अमीर को उसके पेंट हाउस में मंहगी स्कॉच के साथ फुहार का आंनद देती है तो गरीब की झोपड़ी बहाकर उसे बेघर करती हैं।
- तो इसका मतलब ये हुआ कि बरसात सबके साथ धोखा नहीं करती, केवल गरीब के साथ करती है।
- और क्या ? धोखेबाजी चाहे मौसम करे या सरकार गरीब के साथ ही होती है। सरकारें मौसम विभाग जैसी ही तो होती हैं- अविश्वसनीय। बेचारे को आश्वासन मिलता है कि आज बरसात नहीं होगी और वह बिना छतरी के चल देता है पर बरसात के साथ कीचड़ भी बरस जाता है। और जिस दिन चुनावी घोषणा होती है कि आज खूब बरसेगा पर उस दिन सूखा पड़ जाता है और छतरी ताने गरीब का मजाक बनता है।  
- प्यारे राधेलाल ! ऐसा तो नहीं है कि बरसात का मौसम हर बार धोखेबाजी करता है। कभी-कभी तो सच भी बोलता है।
- कभी-कभी सच बोलने वाला झूठा ही माना जाता है। बरसात लाख कहे कि मैंने इस्तीफा दे दिया है, कोई मानता ही नहीं हैं । कुछ लोग इस्तीफे के लिए नहीं बने होते हैं। इस्तीफा देने वाले हाथ अलग होते हैं और लेने वाले अलग होते हैं। 
- कुछ भी कहो बरसात का मौसम बढिया होता है। क्या बादल घुमडते हैं, मोर नाचते हैं
- और  क्या श्रीमान ढेंगू जी कटियाते हैं और क्या मच्छर रिमिक्स गाते हैं!
- क्या मिट्टी की सोंधी खुशबू मिलती है!
- क्या सीवर का पानी गलियों में सुगध बांटता हैं शहर की रफतार थमती है!
- राधेलाल यदि मौसम धोखेबाज है तो उसकी जय क्यों बोल रहे हो?
- जब सभी धोखेबाजों की जय हो रही है तो बेचारे मौसम की जय क्यों न हो? चल तूं नारा बोल न...
- कौन-सा नारा?
-यही, तूं बोल धोखेबाज मौसम की... मैं बोलूंगा-जय!
- नारे लगाने से क्या होगा ?
- तेरे दोस्त की, नारे लगाने की, खुजली मिटेगी।
मित्रो, खुजली मिटनी बहुत आवश्यक हैं। खुजली न मिटे तो आदमी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे देता है, खुजा खुजा कर अपने चेहरे को जख्मी कर लेता है, इधर-उधर फोन पर खुजियाता है और अंततः खुजली वाला कुत्ता हो जाता है। ऐसे कुत्ते भौंक नहीं पाते हैं। भौंके तो तब, जब खुजली मिटे। वे बस इस खंभे से उस खंभे पर अपने को रगड़ने में, चौरसी लाख योनियों के बाद मिला कुत्ता जीवन व्यर्थ करते हैं। राधेलाल मेरा मित्र है, मैं उसे खुजियाया कैसे बनने दे सकता था अतः मैंने बोला-लगा नारा। राधेलाल ने नारा लगाया- धोखेबाज मौसम की... । हे भक्तों, आप भी यदि खुजियाये जीव नहीं बनना चाहते तो मेरे साथ जोर से बोलें-जय! 

गुरुवार, 11 जुलाई 2019

व्यंग्य रचना ,'यह भी ठीक, वह भी ठीक'

यह भी ठीक, वह भी ठीक
बात उन दिनों की है जब मध्यम वर्ग के लिए कार एक सपना हुआ करती थी। कुछ के सपने साकार हो जाते हैं, कुछ के निराकार रहते हैं। निराकार सपने आत्महत्या कराते हैं। कुछ को कार मिल जाती है और कुछ की बेकारी बरकारार रहती है।
उन दिनों स्कूटर की अपनी शान थी। लड़की पटाने से लेकर बढ़िया दहेज जुटाने तक काम में आता था। स्कूटर पर बैठे आदमी की इज्जत का सैंसेक्स बढ़ जाता था जैसे पंाच सितारा होटल में जाने वाले या इंट्रव्यूह में झर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले का बढ़ता है। पूरी फैमली स्कूटर के हर हिस्से पर ठुस जाती और महसूसती जैसे पुष्पक विमान में विराजमान है। घर के हर सदस्य का सहारा इकलौता स्कूटर होता। आजकल... घर के हर सदस्य की अपनी-अपनी कार परिवार को बेसहारा किए है।
तो उन दिनों, हमारे काॅलेज के प्रिंसिपल स्कूटर की शाही सवारी में आते थे। एक दिन देखा अपने स्कूटर के सामने बैठे स्टैंड पर ताला लगा रहे हैं जैसे कुछ संसद में बैठ ईमानदारी को ताला लगाते हैं।
- आपने भी ताला लगवा लिया?’
- हां जी, बहुत जरूरी है। देखो जी बिना ताले के स्कूटर खड़ा हो तो कोई भी चाबी लगाकर स्कूटर स्टार्ट करे और ले जाए।
- पर चोर तो स्टैंड वाले ताले की भी चाबी बनाकर उसे खोल सकता है?
- बिल्कुल जी चोरों के सामने ताले क्या ! उनके पास तो 'मास्टर की' होती है। वो गाना हे न जी, बड़ा ही सी आई डी है नीली छतरी वाला, हर ताले की चाबी रखता हर चाबी का ताला।
- ऊपर  वाला सी आई डी होता है ? मुझे तो लगता है कि जो सत्ता में सबसे ऊपर  पहुंचता है, वो सी आई डी रखता है। उसके पास हर ताले की चाबी होती है। जिसकी चाहे फाईल खोल ले।
- मेरा तो फिल्मी गाना था और आप कर रहे हो ऊँची  राजनीतिक बात । दोनो अपनी -अपनी जगह ठीक हैं।
- पर ताले के चाबी कैसी भी हो, ताला खोलने में टाईम तो लगेगा। पहले चोर नीचे झुकेगा, फिर ताला खोलेगा। उसके बाद स्टार्ट करने की चाबी लगाएगा। टाईम डबल लगेगा।
- यह मारा, डबल टाईम में तो चोर पकड़ा जाएगा। ताला लगाना ठीक ही है।
- पर टाईम से पता न चला तो , ताला लगाना बेकार गया न।
- बिल्कुल ठीक, ताला लगाना बेकार गया।
- फिर आपने क्यों लगा लिया ?
- बच्चो ने कहा तो मैंने टाल दिया पर जब पत्नी ने कहा तो टाल नहीं सका। पत्नी तो हाईकमांड  होती है नं। पर जब भी ताला खोलने या बंद करने बैठता हूं तो डर लगा रहता है कि कोई नस न खिंच जाए। डाक्टर बेड रेस्ट बोले और बिस्तर पर ही सब कुछ न करना पड़ जाए।
- तो मैं ताला न लगवाऊं  ?
- रहने दो जी!
- ताले से मन को तसल्ली रहती है ।
- तो लगवा लो जी।
कर्णधार देश को चौराहे पर छोड़ते हैं उन्होंने मुझे  छोड़ दिया। 
इन दिनों एक साहित्यकार 'मित्र' मिल गए। वे सच्चे साहित्यकार हैं क्योंकि उनके पास एकठो कार है। वे सक्रिय साहित्यकार हैं। वे फेसबुक, व्हाट्स एप्प, ट्यूटर के रात- दिनी साहित्यकार हैं। जब चाहें गर्दन झुकाकार आप इन यार की उपस्थिति देख सकते हैं। इससे पहले उनको साहित्यिक कब्ज रहती थी। कोई उनकी रचना पर बात नहीं करता, अपनी पसंद जाहिर नहीं करता... इस कारण कब्जियाते रहते। डाॅक्टर ने जबसे उन्हें फेसबुक, व्हाट्स एप्प, ट्यूटर का त्रिफला चूर्ण दिया है उनकी अभिव्यक्ति के द्वार खुल गए हैं। बार-बार लगातार वाले इस्टाईल में वे अपनी चमकार बिखेरते रहते हैं। प्रतिदिन दिन में कम से कम चार -पांच बार वे सोशल मीडिया पर ज्ञान -मुद्रा में अवतरित होते हैं। उनकी पुस्तकें लेटकर, बैठकर, खड़े होकर आदि अनेक सार्वजनिक मुद्राओं में पढने वाले पाठकों के चित्र साझा होते हैं।
मैंने पूछा - क्या हो रहा है?
वे बोले- हैं ... हैं ..अब  और क्या होना है, लेखन के मजदूर हैं,साहित्य हो रहा है।
- पर हर समय तो साहित्य नहीं हो सकता। पापी पेट को भरने और खाली करने का भी तो समय चाहिए।
- ये आपने बिल्कुल सही कहा।’’  उनकी आंखें मेंढक- सी फैल गईं।
- पर साहित्य में पूरा समय नहीं देंगे तो मान सम्मान कैसे मिलेगा ? साहित्यकार के लिए तो साहित्य ही प्राथमिकता है।
- बिल्कुल सही। मान-सम्मान और पुरस्कार साहित्य को समय देने से ही तो मिलेंगे।
- पर आजकल तो सब जुगाड़ से मिलता हैं। 
- बिल्कुल ठीक , सब जगह जुगाड़ चलने लगा है।
- पर कुछ तो  जेनविन होते हैं। आपको भी तो पिछले दिनों मिला, जेनविन।
- पर ‘उसे’ जो मिला जुगाड़ से मिला। बहुत ही खराब लिखता है।
- खराब तो लिखता है... अच्छे साहित्य की समझ नहीं है।
-  उसकी कुछ रचनाएं तो बढ़िया हैं, शायद उनपर मिला हो।
-  उन्हीं पर मिला होगा। उसकी दो तीन किताबों की मैंने तो समीक्षा की है।
- आपकी साहित्यिक दृष्टि एकदम साफ है।
- हैं ... हैं ... आपकी भी तो ... 
ऐेसे सज्जन सांप की तरह बल खाते  हैं।इनकी कुटिया सत्ता के गलियारों में छवी रहती है। इनका नख -शिख सत्ता की कड़ाही में होता है।इन सगुणवादियों का मस्तक प्रभु समक्ष सदा नवा रहता है। ये बुरा देखने जाते ही नहीं इसलिए इन्हें ‘बुरा न मिलया कोय।’ इनकी नाक दुर्गंध नहीं सूंघती है इसलिए कूड़े और इत्र की गंध, सुगंध समान होती है। ये भैंस के आगे बीन बजाकर उसे प्रसन्न करने की कला जानते हैं। इनका अधिक सेवन अच्छा तो लगता है पर मधुमेह होने का खतरा रहता है।  
कुछ सदाबहार सहमतिए हैं तो कुछ सदाबहार असहमतिए। ये केवल स्वयं से सहमत होते हैं। हर समय दुर्वासा की मुद्रा में रहते हैं। यह हर संबंध तराजू में तोलते हैं।  किसी को मिल जाए तो रुष्ट,स्वयं को मिले और कम मिले तो रुष्ट। कोई ग्रहण करे न करे ये श्राप बांटते रहते हैं।
मैं आज तक कन्फयूजाया हुआ  हूं, ग़ालिब से पूछता हूँ - तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़े - ए - गुफ़्तगू क्या है।' पर ग़ालिब क्या बोले, उसकी तो जुबान काट दे गयी  है। 
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