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रविवार, 14 दिसंबर 2008

व्यंग्य- शतरंज के नए खिलाड़ी

शतरंज के नए खिलाड़ी
0प्रेम जनमेजय

प्रेमचंंद की कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के नवाबों को तो आप जानते ही हैं पर क्या स्वतंत्र भारत के बाद पैदा हुए उन नवाबों को भी आप जानते हैंं जिनके दिमाग में हर समय शतरंज बिछी रहती है। सामंतशाही का युग चला गया, उनके साथ उनकी वेश -भूषा चली गई और प्रजातंत्र देश में जवान होने लगा पर सामंतशाह नहीं गए, हां उन्होंने खद्दर धारण किया और और प्रजातंत्र को ओढ़ने बिछाने लगे। ऐसे खद्दरधारी दो नवाबों की कथा यह प्रेम जनमेजय आपसे कहता है, सुनें।
एक बिसात बाहर बिछी हुई है और एक बिसात अंदर बिछी हुई । दोनों नवाब शतरंज खेलने की तैयारी कर रहे हैं जैसे कोई वेश्या बाजार के बीच सजी हुई महफिल देखकर अपने को तैयार करती है। बाजार अच्छे-अच्छों को वेश्या जैसी तैयारी करने के लिए विवश कर देता है। ये दीगर बात है कि कितनी भी तैयारी के बावजूद आप बाजार की चाल को समझ नहीं पाते हैं।हमारे दोनों नवाब केवल शतरंज की चाले चलने में शातिर नहीं हैं अपितु राजनीति की शतरंज को भी खूब समझते हैं। बाजारवाद ने उन्हें अनेक चालें सिखा दी हैं । इसी चाल के चलते ये दोनों, अपनी नवाबी शान को बरकरार रखते हुए, बाहर तीतर बटेरो के लडने के खेल का इंतजाम कर और उसमें अपनी प्यारी जनता को उलझा, अंदर स्वयं शतरंज की चालें सुलझा रहे हैं।इनका मानना है कि जैेसे संतों को सीकरी से काम नहीं होता है वैसे ही जनता को इससे कोई मतलब नहीं होना चाहिए कि अंदर क्या हो रहा है। नवाब साहब जनता की कद्र करते हैं, उनके विचारों को सुनते हैं अतः जनता का भी फर्ज है कि वह नवाब साहब की कद्र करे और उनके सियासी कामों में दख्ल न दे।
तो जैसे कोर्ट चालू होता है और न्याय की आशा रखने वाले को शांति रखनी होती है, वैसे ही अंदर दोनों नवाब साहब सियासी चालें चल रहे हैं और आप शांति रखें। अंदर का माहौल कैसा है हम ये तो नहीं बता सकेंगें क्योंकि आप ठहरे जड़ मूर्ख जनता जिसे सियासी चालों की क्या समझ और आप अपनी नासमझी में बात का बतंगड़ बना डालेंगें। आप तो बस बाहर का गरमागरम माहौल देखिए और अपने खून को उबलने दीजिए। आप तो देखिए कितने तीतर बटेर लहू लुहान हुए हैं, उनका मजहब क्या है। आप तो अस्पतालों में कुछ लहूलुहानों को भरती करवाइए जिससे बाद में दौरा करते समय नवाब साहब उनके हाल चाल पूछ सकेंं, उन्हें कुछ मुआवजा दे सकें।

- अरी ओ लिपिस्टिक और पाउडर वाली,... तुम किस खेत की मूली हो जो यहां डोल रही हो और हमारे खिलाफ जनता को भड़का रही हो। जाओ, अपने-अपने घर जाओ। हमारी भी मां बहने लिपिस्टिक पाउडर लगाती हैं पर तुम्हारी तरह सड़कों पर छिनालगिरी नहीं करती है। कोई मरे जिए, वो सजी- धजी घर की शोभा बड़ाती हैं। ग्लैमर के साथ राजनीति नहीं होती है, राजनीति ही करनी है तो खद्दर पहनों, हमारी पार्टी में आओ, बिना कोई पार्टी ज्वाइन किए कहीं राजनीति होती है। ये सियासत की बातें हैं , तुम्हारा रसोई घर नहीं है। अभी तो हमने तुम्हें 33 प्रतिशत आरक्षण नहीं दिया है, तब ये हाल है? चलो, चलो नही ंतो हम तुम्हारी भी इंक्वारी करवा देंगें।
तो मित्रों, अंदर शतरंज चालू आहे! चालें चालू आहे! नवाबगिरी चालू आहे!
नवाब एक साहब ने पियादे को आगे बढ़ाया- जब हम सत्ता में थे तो हमने सख्त कानून लगाए।
नवाब दो साहब ने भी पैदल बढ़ाया और बोले- उसके बावजूद भी आतंकवादी हमले होते रहे।
नवाब एक साहब ने रुख को आगे बढ़ाया - जब भी कोई आतंकी हमला हुआ, हमने उसकी घनघोर निंदा की।
नवाब दो साहब ने पैदल ही बढ़ाया और बोले - हमने उससे कड़े शब्दों में तुमसे अधिक निंदा की। वैसे तो हमारी पार्टी में किसी को बिना हाई कमांड की इजाजत के कुछ भी कहने की अनुमति नहीं है परंत हमने निंदा करने के मामले में छूट दी हुई है। जो चाहे कितनी भी निंदा कितने ही कड़े स्वर में कर सकता है।
नवाब एक साहब ने घोड़ा बढ़ाया और बोले- हमने अपने गृह- मंत्री और मुख्यमंत्री को हटा दिया।तुमने...

नवाब दो साहब ने भी घोड़ बढ़ाया और बोले- हमें जनता समझकर बरगलाने की कोशिश मत करिए,।ये कहिए ,हटा कर कहीं रख दिया। जब इस्तेमाल करना होगा स्टोर से निकाल लेंगें। तुमने इसलिए हटाया क्योंकि तुम आम चुनाव निकट आया देख डर रहे हो। तुम्हारे समय में इतने आतंकवादी हमले हुए तब तो नहीं हटाया किसी मंत्री या मुख्य मंत्री को? हमें ये बताओ कि ये हो क्या रहा है?
- वही जो तुम्हारे समय में हो रहा था।
- हमारे समय में तो जो भी कुछ हो रहा था,ठीक ही हो रहा था।
- हमारे समय में भी सब कुछ ठीक ही हो रहा है।
-खाक ठीक हो रहा है। अगर सब कुछ ठीक हो रहा है तो बाहर खड़े लोग तुमसे सवाल क्यों कर रहे हैं?
- जरा ध्यान से सुनो, वे हम दोनों से सवाल कर रहे हैं।
- सवाल करने का हक उन्हें किसने दिया?
- तुमने।
- नहीं तुमने
-संसद पर हमला...
-मां...तुमने
- कारगिल...
-बहन... तुमने
-अफजल को फांसी
-तुमने...तुमने
- सरोजिनी नगर, बैंग्लौर,
-- तुमने...तुमने
- गोधरा
-तूने
- मुम्बई
-तूने
-तूं
-तूं
तूं ही तूं।प्यार में जब गुफतगू होने लगी, आप से तुम, तुम से तूं होने लगी। इस प्यार में एक दूसरे को नंगा करने वाले दोनों नवाब नंगे हो गए।
दोनों एक दूसरे की नंगई को देखकर ईष्या करने लगे कि ये साला मुझसे इतना अच्छा नंगा कैसे ?
उन्होनें देखा कि जनता उनकी नंगई का आनंद नहीं उठा रही है अपितु गुस्से से लाल है। ये जनता को क्या हो गया, पहले तो वह नंगई का खूब आनंद उठाती थी।
नवाब एक साहब ने शतरंज समेटी और बोले - लगता है अब ये लोग हमें यहां शतरंज नहीं खेलने देंगे, चलिए कहीं और चलें।
फिर उठकर, दोनों कहीं और चल दिए।
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शुक्रवार, 28 नवंबर 2008

व्यंग्य--हम निंदा करते है

व्यंग्य
हम निंदा करते हैं
0 प्रेम जनमेजय
हमने निदंा की है, हम निंदा कर रहे हैं और हम निंदा करते रहेंगें । जैसे-जैसे जब-जब धर्म की हानि होती है और प्रभु जन्म लेते हैं वैसे ही जब- जब इस देश में बम-विस्पफोट होता है, हममें निंदा जन्म लेती है और उसे हम करते हैं । हम कड़े स्वर में निंदा करते हैं, हम अति कड़े स्वर में निंदा करते हैं और हम अति अति कड़े स्वर में निंदा करते हैं । जितना बड़ा ब्लाॅस्ट होता है हमारी निंदा उतनी ही कड़ी होती है । हम चाहे कोई और कदम उठाने में कितनी ही देर कर लें पर निंदा करने में देरी नहीं करते हैं । आपने देखा ही होगा कि उधर ब्लाॅस्ट हुआ और हमारी निंदा ब्रेकिंग न्यूज में चमकने लगती है । इधर लोगों के घायल होने के समाचार, उनके मरने के समाचार फ्लैश कर रहे होते हैं और उधर हमारी सरकार के अति विशिष्ट लोगों द्वारा की गई निंदा चमक रही होती है । आप जानते नहीं हैं कि यह निंदा बड़ा ही महरम का काम करती है । जनता को लगता है कि सरकार खाली नहीं बैठी है, तत्काल कुछ तो कर रही है । हम केवल निंदा नहीं करते हैं अपितु निंदा के साथ मुआवजा भी बांटते हैं । हम हर मरने वाले के परिवार को कम से कम एक लाख की रक्म भी देते हैं । हमारी निंदा में कोरे शब्द नहीं हैं ।अगली बार वोट हमें ही देना मेरे आका !
निंदा करने में हम उंंच-नीच का ध््यान नहीं करते हैं, जिसे भी अवसर मिलता है वो निंदा करने को स्वतंत्र है। कुछ भी और करने से पहले हाई कमांड की इज+ाजत की आवश्यक्ता होती है पर निंदा करने के लिए हमें किसी की इज+ाजत की आवश्यक्ता नहीं पड़ती है । निंदा करने के लिए हम स्वतंत्र हैं । हम व्यक्तिगत रूप से निंदा करते हैं और कैबिनेट की मीटिंग बुलाकर सामूहिक रूप से भी निंदा करते हैं । जब भी ब्लाॅस्ट होता है हम निंदा करते ही हैं । इस निंदा में यू टर्न लेने की आवश्यक्ता नहीं है । आप तो जानते ही हैं कि राजनीति में कितनी बार थूक कर चाटना होता है और गलती से हाई कमांड की निंदा हो जाए तो... राम राम ।
हम निंदा करते हैं क्योंकि इतनी जल्दी हम कुछ और नहीं कर सकते । वैसे इस मामले में कोई कर भी क्या सकता है । अब तो हमारे पड़ोसी राज्य में प्रजातंत्र आ गया है और वो भी आतंकवाद से पीडि़त है । ऐसे में कोई क्या कर सकता है ? अब अमेरिका की बात और है । उसे हमारी तरह पड़ोस- धर्म थोड़े ही निभाना है । हम तो भारतीय हैं, शांति और अहिंसा के पुजारी, हम कोई अमेरिका की तरह गुंडे थोड़े ही हैं जो वहां बैठा हमारे पड़ोस के आतंकवादियों पर आक्रमण करता @ करवाता रहता है । चीन को जरा हाथ लगाकर दिखाए। वैसे आप यह तो जानते ही हैं कि चीन भी निंदा करने में कम ही विश्वास करता है ।
आप का जनरल नाॅलेज इतना तो होगा ही कि हम विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र हैं और हमे प्रजातांत्रिक मूल्यों का ख्याल रखना होता है । हम पर बहुत जिम्मेदारी है । अब अमेरिका को देखिए , कहने को तो स्वयं को प्रजातांत्रिक मूल्यों का रक्षक कहता है पर आतंकवादियों को समाप्त करने के नाम पर विश्व में कहीं भी आक्रमण कर देता है । वो तो डरपोक है । आपने देखा ही होगा कि 11 सितम्बर के धमाकों से वो कितना डर गया था । आज तक डरा हुआ है । उसके बाद से उसके यहां कुछ हुआ ? नहीं हुआ न? फिर भी डरा हुआ है । बिना कुछ हुए डरता है । जो डर गया समझो मर गया । हम तो बिल्कुल नहीं डरते । उसके बाद से हमारे यहां कितने धमाके हो गए । हर बार हमने धमाकों की कड़े शब्दों में निंदा की है। ऐसे समय में हमारी देखा-देखी अमेरिका भी निंदा कर देता है । धमाके हमारे यहां होते हैं, निंदा वो करता है । इस मामले में वो हमारा पिछ्छलग्गू है ... खी... खी...खी
अमेरिका डर जाता है और कार्रवाई करता है, हम डरते नहीं हैं इसलिए निंदा करते हैं । निंदा करना अत्यध्कि ही साहस का काम है जनाब । अच्छे- अच्छों को टैं बोल जाती है । अपनी आत्मा को कितना मारना पड़ता है ! अपने नपुंसक होने का अहसास...
हम स्वार्थी नहीं हैं, हम समानता के सिद्धांत में विश्वास करते हैं इसलिए खुद तो निंदा करते ही हैं, दूसरों को भी निंदा करने का भरपूर अवसर देते हैं । जिन राज्यों में हमारी सरकार नहीं होती हैं वहां हम उस राज्य सरकार की भी लगे हाथ निंदा कर लेते हैं और उसे भी अवसर देते हैं कि वह केंद्र की निंदा करे । ऐसा करने से मतदाता भ्रम में रहता है । प्रजातंत्र के स्वास्थ्य के लिए परम् आवश्यक है कि मतदाता भ्रम में रहे । न्यूकलर डील होने का भ्रम, सरकार को बाहर से समर्थन देने का भ्रम, महंगाई पर काबू पाने का भ्रम, जी डी पी का भ्रम आदि आदि भ्रम बने रहने चाहिएं ।
हम निंदा के लिए समुचित अवसर और पूरा समय प्रदान करते हैं । हमारी पकड़ में जो अपराधी आ जाते हैं, चाहें उन्हें फांसी की सजा घोषित हो चुकी हो, पर हम उसे समय पर समय देते जाते हैं कि जिसका जितना भी मन चाहे, जितना भी समय चाहिए, उसकी निंदा कर ले । आप तो जानते ही है जितनी अधिक निंदा होती है, पाप भी उतने ही धुलते हैं ।
कबीर के आंगन में तो एक निंदक रहा होगा, हमारे आंगन में तो कई निंदक अपनी कुटिया छवाए मुटियाते रहते हैं । हमें कभी राष्ट्रीय स्तर पर, कभी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निंदा जो करनी होती है । वैसे हे मतदाता तूं घबरा मत, तूं चाहेगा तो इस निंदा के अतिरिक्त हम कुछ और भी कर देंगें । चुनाव आने दे, तू जो चाहेगा वो करने का आश्वासन तो हम दे ही देंगें । तू कहेगा तो हम ढेर-सारी इंक्वारी करवा देंगें। प्रजातंत्र है, तेरा जितना मन चाहे, हमारी निंदा करता रह, बस वोट हमें देना मत भूलना।
चाहे शासक दल हो चाहे विरोधी, निंदा करने का अधिकार सबका है। कोई घटना की निंदा करता है तो कोई सरकार की। सबकी अपनी-अपनी रोटियां हैं जो जनता के जलते तवे पर सेंकी जाती हैं।

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रविवार, 9 नवंबर 2008

व्यंग्य -- कैसे हो जजमान ...

कैसे हो जजमान ...


आजकल मेरा अपार्टमेंट मोहल्ला रिटायर वाला हो रहा है । जिसे देखो रिटायर हो रहा है । ये सब रिटायर हैं पर टायर नहीं और ये दीगर बात है कि इनमें से कोई भी भूतपूर्व प्रधनमंत्राी नहीं है । टायर हो जाने से आदमी खुद तो घिसता ही है अपने आसपास के लोगों को भी घिसता है । हां साहब , हमारे यहां सब नौकरीपेशा लोग हैं , राजनीतिपेशा नहीं हैं जो कभी रिटायर ही नहीं होते इसलिए टायर नहीं होते । इन रिटायर हुए सज्जनों के कारण अल्पमत में आए मेरे जैसे नौकरीपेशा लोगों के सामने अभूतपूर्व संकट आ गया है -- अल्पमत मेें सरकारें तो चल सकती हैं पर जिंदगी नहीं । हम जब चाहे इन सज्जनों के द्वारा घेर लिए जाते हैं । जैसे अपनी शालीनता में हम घर आए मेहमान का स्वागत करने को विवश होते हैं, वोट मांगने आए हर दल के नेता को --- वोट आपको ही देंगें -- कहने को विवश होते हैं, वैसे ही रिटायर हुए इन बुजुर्गों की हर बात सुनने को विवश होते हैं । आप दफ्तर में देर होने के कारण पत्नी को लताड़ते हुए बस पकड़ने को भाग रहें हैं कि अपार्टमेंट के गेट पर कोई न कोई आपको पकड़ लेता है और लगता है अपने कार्यालयी अनुभव के किस्से सुनाने । बोस बाबू मौसम विभाग से रिटायर हुए हैं तो विश्वमोहन जी रक्षा मंत्राालय से । इसी प्रकार जगदीश बाबू वित्त मंत्रालय से और वासल बाबू शिक्षा - विभाग से , आदि, आदि अनादि।
उस दिन मैं बोस बाबू के घेरे में आ गया । वे मुझे अपार्टमेंट के गेट पर अतिआवश्यक मुद्रा में समझा रहे थे -- इस भारत देश के विशाल होने का अच्छा तो लगता है पर मौसम -विभाग संकट में आ जाता है । कोई एक-सा मौसम हो तो कोई निश्चिंतता हो । अब देखिए, गोआ, मुम्बई या चैन्नई जैसा राज्य के स्थान पर देश हो तो क्या संकट है ! यहां तो हर राज्य का अलग ही मौसम है । जिस मौसम में उत्तरी राज्यों में ठंड पड़ती है, इन राज्यों में धूप से शरीर जलता है .... ’’
अभी शायद वे अपने मौसम-ज्ञान से मुझे और अधिक आतांकित करते, जैसे आजकल अमेरिका आतंकित कर रहा है , ;वैसे कुछ ज्ञानियों को समझ नही आएगा कि अमेरिका भी आतंकित कर सकता है , पर ...द्ध उसी समय राजनीतिशास्त्र एवं हत्थकंडों के विशेषज्ञ कुलदीप अहूजा ने मुझे बचाने की मुद्रा में थाम लिया , बोले- चाहे कहीं का कैसा भी मौसम हो , ये अच्छा है कि हमारे यहां प्रजातंत्र है और प्रजातंत्र का एक ही मौसम होता है -- चुनाव । किसी भी प्रदेश का कैसा भी भौेगोलिक मौसम हो आजकल प्रजातंत्र की बदौलत पूरे देश का एक ही मौसम बचा है -- चुनाव । जैसे एक समय में अंग्रेजों के राज्य का सूर्य नहीं डूबता था, वैसे ही इस महान भारत में आजकल चुनाव का सूर्य नहीं डूबता है । या तो चुनाव आने वाले होते हैं या फिर आ गए होते हैं । ’’
इस बीच पुरुषों के ब्यूटि पार्लर विशेषज्ञ ; पुराने जमाने की नाई की दूकाने आजकल ब्यूटि पार्लर की संज्ञा से सम्मानित होते हैं द्ध से पद-मुक्त हुए स्वराज बहादुर ने कहा-- इस समय भारतीय राजनीति देश की जनता का सामूहिक मुंडन कर रही है । जिसे देखो , वह अपने उल्टे- सीधे उस्तरे से मूंडने में लगा हुआ है । जिसे मूंडने का अवसर नहीं मिल रहा है , वह किसी मूंडने वाले का दामन थामे चुनाव -सागर पार करने का जुगाड बिछा रहा है । चुनाव का यह सागर अत्यध्कि बहुमूल्य है , अनेक रत्न जो इसमें छिपे हुए है । इन रत्नों को पाने के लिए ज्ञानीजन चुल्लु भर सागर में भी गोते लगाने को तत्पर हैं । कुछ तो थूक जैसे पवित्र पदार्थ को चाटने और उसमें ,सुअवसर मिले तो, तैरने को दिलो जान से तैयार हैं । अनेक नेता नारायण मनमोहिनी रूप धारण किए सत्ता -अमृत हड़पने की शतरंज बिछाए ऐसे सुशोभित हो रहे हैं जैसे न्यायालीय असत्य में लिपटा बदसूरत सत्य।
पूरी भारतीय राजनीति की व्याख्या दो शब्दों में की जा सकती है -- नाई और जजमान । नाई उसें कहते हैं जो मूंडने में जन्मजात सिद्धहस्त होता है और जजमान उसे कहते हैं जो यह जानते हुए भी कि वह मुंडा जा रहा है , मुंडता है । वैसे नाई की हैसियत जजमान से कम आंकी जाती है , पर वह इतनी चतुराई से मूंडता है कि दिनों दिन उसकी हैसियत बढती जा रही है । नाई का दावा होता है कि वह अपने जजमान की खूबसूरती को बढाने वाला सेवक है । वो उस्तरा लिए पीछा कर रहा है और जजमान पीछा दुड़ाने को दौड़ रहा है । हमारे ऐसे सेवक हर पांच साल बाद , और आजकल सुना है , इनके मन में इतना सेवा भाव भर गया है कि कुछ महीने बाद ही सेवार्थ उपस्थित हो जाते हैं । आप को जरूरत हो न हो , यह आपकी सेवा में हाजि+र होकर , करबद्ध प्रार्थना -गीत गाते हैं ।
लोग सावन के अंधे होते हैं , मैं इन दिनो चुनाव का अंधा हूं , मुझे चारों ओर चुनाव ही चुनाव नजर आ रहा है । कहीं चुनाव हो रहे हैं और कहीं होने वाले हैं । वो जमाना गया, जब देशसेवक पांच साल में एक बार चुनाव लड़ लेते थे और लंबी तान कर सो जाते थे । आजकल तो राजनीति चैबीस घंटे की नौकरी हो गई है साहब ! दम मारने की फुरसत नहीं है । किसी पर कोई भरोसा नहीं रह गया है । न जाने कोई कब अपने प्रधनमंत्री होने की घोषणा करवा दे और आपकी बरसों की प्रतीक्षा पर पानी फेर दे ।
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गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008

व्यन्ग्य --था इश्क नहीं आसां

था इश्क नहीं आसां
0प्रेम जनमेजय

मेरे नाम में प्रेम शब्द अवश्य है पर मैंनें प्रेम-विवाह नहीं किया है । मैं नाम का ही प्रेम हूं । जैसे जनसेवकों से जनता, न्यायालय से न्याय, सुरक्षा कर्मियों से सुरक्षा, थाने से शिष्टाचार और पढ़ाने वालों से पढ़ाना दूर रहता है वैसी ही भूमिका मेरे जीवन में प्रेम की रही है ।
दोष मेरा नहीं है, मेरे समय का है। मेरा समय ही ऐसा था कि उसमें इश्क करना आसान नहीं था। चचा गालिब ने तो इश्क को आग का दरिया कह डाला था । ये इसी आग के दरिया का कमाल है कि उस समय हीर- रांझा, लैला-मजनूं, शीरी-फरहाद पैदा हुए और मेरी तरह नाम के ही प्रेम रहे ।
मेरे एक मित्र जीवन भर एक छोटा-सा भ्रष्टाचार नहीें कर पाये क्योंकि उन्हें भ्रष्टाचार करने का अवसर ही नहीं मिला । अब साहब जनगणना विभाग में कोई क्या भ्रष्टाचार करेगा। ज्यादा से ज्यादा छोटी -मोटी चोरी कर सकता है, बिना छुट्टी लिये घर बैठ सकता है और जनगणना के बहाने कुछ सुंदरियों को ताक सकता हैॅ । मेरी मांग है कि जब विदेशी निवेशकों को हमें लूटने के अवसर प्रदान किये जा रहे हैं तो देशी सेवकों को भी भ्रष्टाचार के समान अवसर मिलने ही चाहियें। देश में अमेरिकी प्रभाव से सच्चा पूंजीवाद तभी आएगा हर विभाग में भ्रष्टाचार के समान अवसर उपलब्ध होंगेे । जिस विभाग में भ्रष्टाचार के अवसर न हों उस विभाग के लोगों को आरक्षण की वैसी ही सुविध प्रदान की जाये जैसी अति महत्वपूर्ण लोगों को जेड स्क्योरिटी प्रदान की जाती है ।
मेरे एक और मित्रा हैं, राधेलाल जो भ्रष्टाचार-निरोधक कार्यालय में देश की सेवा कर रहे है । उनके विभाग में भ्रष्टाचार का वसंत बारह महीने अपनी छटा बिखेरता रहता है पर वे बबूल के पेड़ की छाया में उंघते रहते हैं । वे कीचड़ में कमल होने का गर्व पाल रहे हैं । उनका परिवार जीवन भर भ्रष्टाचार की एक बूंद को तरसते रहा। पत्नी जीवन भर कोसती रही कि किस घोंचू से पाला पड़ गया जिसे दुनियादारी की समझ नहीं और बच्चे कहते पाए गए कि कैसा नालायक बाप है, हमारे स्टेटस के लिए कुछ करता ही नहीं है ।
ऐसे ही दोस्तों का मैं भी एक दोस्त हूं यारों ! मैं इश्क में भ्रष्ट नहीं हो पाया, वरना अपने फिल्मी हीरो हिरोईनों की तरह दो-तीन सेफ-प्रेम,सैफ नहीं, विवाह करीने , करीना नहीं, से तो कर ही डालता । हिम्मत ही नहीं जुटा पाया दोस्तों । हिम्मत जुटाता भी कैसे ? हिम्मत जुटाने के सामान ही कहाॅं थे अपने जमाने में । अपनी तशरीफ के नीचे एक अदद खचड़ा साईकिल भी तो नहीं था। आजकल तो बाप को दहेज में साईकिल भी न मिली हो बेटे को काॅलेज जाने के लिए मोटर साईकिल चाहिए ही चाहिए । आजकल फंड की भी कमी नहीं है । उधार देने वाले उधर खाए बैठे हैं । हर चीज, यहाॅं तक पढ़ाई भी किश्तों में चल सकती है जनाब ! वैसे आज के जमाने का सच तो ये है कि जो आनन्द मोटर साईकिल पर इश्क करने का आता है उसके लिए तो देवता भी तरसते हैं । बैठते ही जिंदगी जैसे दौड़ने लगती है, छाती फूल कर डबल हो जाती है । पीछे जब वो बैठी हो तो लगता है जनाब कि हवा से बातें करते हुए इश्क कर रहे हैं । सारा डर निकल जाता है। इश्क की परसनैल्टी तो मोटर साईकिल पर ही बनती है ।
अपने जमाने में तो हम डर-डर के इश्क किया करते थे । ‘प्यार किया तो डरना क्या’ वाला गाना है नं, उसे डर-डर के अकेले में ‘चुप चाप’ गाते थे । मोहल्ला, मास्साब,माॅं-बाप, चाचा-ताउ, सभी से तो डरते थे । किसी कोने में दुबक कर इश्क करना पड़ता था -- झाडि़यों के पीछे, लाईब्रेरी की अलमारियों के कोने में और वो...नन्नू नाई के झोपड़े में । और पिटना कितना पड़ता था ! आजकल मास्साब दुबके फिरते हैं । यही डर लगा रहता है कि काॅलेज के किसी कोने में किसी कामसूत्रीय जोड़े के दर्शन न हो जाएं । कबूतर की तरह आॅंखने मूंदनी पड़ती हैं जनाब ! आत्मा पर फालतू का बोझ पड़ता है ।
जो मास्साब नहीं दुबकते हैं, उन का मेरे जैसा हाल होता है ।
उन दिनों मैं ताजा-ताजा काॅलेज में लेक्चरार लगा था । छात्रों को जबरदस्ती सुधारने का भूत हर समय अंगड़ाई लेता रहता था। अपनी जवानी में स्वयं बाकायदा इश्क नहीं कर पाया तों बाकायदा इश्क कर रहे जोड़े को मैंने पकड़ लिया और लड़के से पूछा -- ये क्या हो रहा है ?
लड़का चैड़ी छाती करते हुए लड़की की गोद से, अदब से उठा और बड़े अदब से बोला -- अबे साले दिखाई नहीं दे रहा है, फालतू में डिस्टर्ब कर रहा है । चश्मा पहन कर भी नहीं दिखाई देता है क्या साले मास्टर जी ! मित्रों इसे विद्वान् अमेरिकी अदब कहते है।
डाॅयलाग मारकर लड़के ने लड़की की ओर वीर-भाव से देखा । लड़की के चेहरे पर तालियां थीं ।
मैंनें हथेलियों को मलते तथा खिसियाते हुए कहा -- ये...ये सब यहां नहीं चलेगा । ’’ं
लड़का मेरे पास आया,आॅंख मटका कर बोला -- जहाॅं चलेगा, वो जगह बता दे नं । तेरे पास जगह है क्या सर जी ! ’’
ये कहने के बाद लड़के ने मेरी इज्जत रख ली । लड़का लड़की को लेकर किसी जगह के तलाश मे चल दिया । लड़के की गर्दन और छाती उठी हुई थीं । और मेरी, स्वाभाविक है झुकी हुई थी ।
मैंनें प्रिंसिपल से शिकायत की तो उसने मुझे ही डाॅंट दिया-- आप अहमक हैं क्या ? ये यंग जैनरेशन है, इनसे कभी पंगा मत लेना । इसे टैकल करना होता है,प्यार से । इधर-उधर ध््यान मत दो... जो क्लाॅस में पढने आए उसे पढा दो, बाकी को को भाड़ में जोने दों । आपको तो पूरी तन्खाह मिल रही है नं । लेट देम एन्जवाॅय काॅलेज एंड यू एन्जवाॅय टीचिंग ।’ ये कहकर वह अश्लील हंसी हंसा ।
मुझे ज्ञान मिल गया कि आजकल पढ़ना-पढ़ाना मजे मारने का धंधा है ।
आजकल इश्क इाई टेक हो गया है । ई-मेल, एस एम एस, आदि आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं । अब तस्वीरे यार देखने के लिए गर्दन नहीं झुकानी पड़ती है, शान से गर्दन उठाएं और कम्प्यूटर के मोनीटर पर तसवीरे यार देख लें । भाषा का भी लफड़ा नहीं हैं । इस इश्क में दोनों को भाषा नहीं आती है । मिलने के लिए बड़े- बड़े माॅल हैं और दिल्ली में तो मेट्रो है ।
आजकल इश्क के मामले में मां-बाप, मास्साब, मोहल्ला आदि की भूमिका शून्य हो गई है । दुष्यंत के शब्दों में कहूं तो-- इश्क किसी की व्यक्तिगत आलोचना हो गया है ।
इश्क आसां हो गया है पर अब वो इश्क नहीं रहा।
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सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

दीपावली पर विशेष -अंधेरे का स्थानांतरण नहीं चाहिए

अंधेरे का स्थानांतरण नहीं चाहिए
0प्रेम जनमेजय

दीपावली समीप आती है तो मन दीपकों की संघर्षशील चेतना को लक्षित कर प्रसन्न एवं प्रेरित होता है परंतु यह सोचकर कि आधी रात को इन दीपकों के बुझते-बुझते हम तो सो जाएंगें और हमारे सोते ही अंध्ेारा सुबह के उजाले के आने तक पैर पसारे अपने होेने का अहसास दिलाता रहेगा, मन अवसाद में घिर जाता है ।
इस बार भी दीपावली की प्रतीक्षा समान्य भारतीय, केवल हिंदू नहीं, की तरह कर रहा हूं और आशा कर रहा हूं कि कुछ देर के लिए ही सही अपनेे सामाजिक जीवन में अकेलेपन के अंधेरे के न होने के अहसास का आनंद उठा पाउंगा ।
मुझे त्रिनिदाद की दीपावली याद आ रही है जहां इस दिन उपवास रखा जाता है। अमेरिकी संस्कृति के समुद्र से घिरे उस देश में एक सौ साठ वर्षों से भारतीय संस्कृति को अपने सीने से चिपकाए ये लोग किस उजाले की आशा में उपवास रखते हैं जबकि भारत में हम इस दिन खाओ ‘पिओ’ मस्त रहो की मुद्रा में रहते हैं । वहां लक्ष्मी पूजन के साथ गणेश पूजन की परंपरा नहीं है। परंपरा कैसी भी हो लक्ष्य तो जीवन के अंधेरे से लड़ना है-- अब वो चाहे अस्मिता का अंधेरा हो या फिर उजला- अंधेरा जो हमारे संबंधों को लील रहा है ।
मैं अपने चारों ओर स्वयं को एक अजब तरह के अंधेरे से घिरा पा रहा हूं। एक ऐसा अंधेरा जो उजाले की शक्ल लेकर आया है और वो उजाला हमें छल रहा है । ऐसे में कवि कन्हैयालाल नंदन की पंक्तियां याद आ रही है जिसमें वे कहते है -- उजालों ने कुछ इस तरह छला कि अंधेरों से प्यार हो गया ।’ यह प्यार घोर निराशा से उत्पन विवशता का अहसास है जो रिश्तों की खटास तथा बेरुखी से पैदा होता है । हम जैसे-जैसे भौतिक प्रगति के उजाले से घिरते जा रहे हैं वैसे अजनबी पन के सुरमई अंधेरे के मोह पाश में बंधते जा रहे हैं । किसी भी समाज के जीवन में वे क्षण बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण होते हैं जब उसके उजले हिस्से अंधेरे को अपना सत्य मान उसका आकार ग्रहण करने को लालायित दिखने लगते हैं ।
उजाले की तरह आज हमने अंधेरे भी बांट लिए हैं और यही कारण है कि हम अपने-अपने अंधेरों से अकेले ही लड़ रहे हैं । ये हमारे ‘सद्प्रयत्नों’ का फल है कि हम अपने अंध्ेारे को मिटता देख उतना प्रसन्न नहीं होते हैं जितना दूसरे के अंधेरे को और गहराता देखकर प्रसन्न होते हैं । पिछले लगभग एक दशक से महानगरीय जीवन में ; कस्बों और गांवों में भी इसका वायरस पहुंच गया है, पहले मोहल्ला गायब हुआ फिर संयुक्त परिवार और अब इसकी छाया पति-पत्नी के रिश्तों पर पड़ने लगी है । हम अपने में मस्त होकर अकेलेपन के आदी होते जा रहे हैं । अकेलेपन के इस अंधेरे में बच्चों का बचपन गायब हुआ है, युवाओं का युवामन और बुजुर्गों की सुरक्षा गायब हुई है । युवाओं के पास बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए ‘पूरा’ समय है पर अपनी संतान के लिए नहीं ,,माता-पिता तो किसी खेत की मूली हैं अतः.... क्योंकि संतान नहीं जानती कि समय धन है और उसको धन ही खरीद सकता है । हम स्वयं अकेलेपन की यांत्रिक जिंदगी जी रहे हैं और साथ ही भविष्य की पीढ़ी के लिए भी वही माहौल तैयार कर रहे हैं । अकेलेपन का अंधेरा धीरे-धीरे गहराता जा रहा है और हम उसे उजाला मान उसका अपने जीवन में स्वागत कर रहे हैं । अंधेरा बहुत चालाक हो गया है और वह उजाले का बुरका पहन कर सामने आता है । वह लोहे को लोहा काटता है के सिद्धांत पर अपने हथियारों का सदुपयोग करता है और विश्व को विवश कर देता है कि वह अंधेरे को ही उजाला माने ।हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े लिखे को इराक और अफगानिस्तान क्या?
अंधेरा मिटता नहीं बस उसका स्थानांतरण हो जाता है । चाहे पुलिस थाना हो, चाहे नौकरशाही, चाहे संसद हो और चाहे न्याय का मैदान, आप अंधेरा होने की शिकायत करके देखिए कि कैसे अंधेरे का स्थानंातरण होता है । अंधेरा बहुत चतुर होता है, जब वो देखता है कि उजाले से लड़ना संभव नहीं, मिटने का डर है तो वह ‘सादर’ सिंहासन खाली कर देता है और उजाले के कमजोर होने की प्रतीक्षा करने लगता है । वरना क्या कारण है कि बार-बार धर्म की हानि होती है और बार-बार प्रभु को अवतार लेना पड़ता है ? प्रभु का एक बार अवतार लेने से काम नहीं चलता है ।
मैं महान नहीं हूं अतः महान वायावी दावे नहीं कर पाता हूं । मेरी सोच बहुत ही संकुचित है जो बस अपने आस- पास के वातावरण तक सीमित रहती है । मैं तो गिलहरी की तरह एक बूंद अंध्ेारा हटाकर विशाल प्रकाश-पुंज का लघुत्तम कण बनना चाहता हूं । मैं अपनी टी आर पी बढ़ाने के लिए अंध्ेरा मिटाने की नौटंकी नहीं कर सकता, मैं तो अपनी क्षमता अनुसार ,कुछ अधिक भी, प्रयत्न कर सकता हूं कि मानवीय मूल्यों और सम्बन्धों की टी आर पी न गिरे । हम अपने छोटे-छोटे दीपक ही चाहे जलायें पर उसके प्रकाश को छनकर बाहर जाने से न रोकें और एक प्रकाशपुंज का हिस्सा बनकर अंधेरे का स्थानांतरण करने के स्थान पर उसे समाप्त करने का सार्थक प्रयत्न करें ।
क्या कभी सेाचा है कि घनघोर अंधेरे से लड़ना आसान हो जाता है पर घनघोर उजाले का भ्रम देने वाले उजाले से लड़ना कठिनतर ?
उजाला अंधेरे से लड़ता है या अंधेरा उजाले से लड़ता है ? किस सत्ता की प्राप्ति के लिए लाखों वर्षों से यह लड़ाई जारी है? इस लड़ाई का कोई अंत है अथवा ये समाप्त होने का भ्रम पैदा कर ये पुनः आरंभ हो जाती है, बस मुखौटे बदल जाते हैं । राम-रावण युद्ध निंरतर है बस मुखैटा बदल जाता है ।
इतने सारे सवालों के बीच, उजाला एक विश्वास है जो अंधेरे के किसी भी रूप के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल बजाने को तत्पर रहता है । ये हममें साहस और निडरता भरता है ।

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73 साक्षर अपार्टमेंट्स, ए-3 पश्चिम विहार नई दिल्ली - 110063 पफेानः 09811154440,01125264227

शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2008



राम वनवास का सीधा प्रसारण


प्रेम जनमेजय




आम चुनाव आने को हैं, सबसे बड़ा मुद्दा है-चुनावी मुद्दे की खोज। इधर राम पर भी खोज जारी है। जैसे चुनाव आते ही जनसेवकों का आम आदमी की ओर ध्यान आकर्षित होता है, वैसे ही राम की ओर भी होता है। इस बार राम मुद्दा दे रहे हैं कि राम सेतु था कि नहीं। था और नहीं की बहस जारी है। मैं भी एक मुद्दा दे रहा हूं- राम के समय दूरदर्शन था कि नहीं । मैं कहता हूं, था। आप ये तो मानेंगें ही कि जब-तब कोई न कोई आकाशवाणी का प्रयोग करता रहता था। अब जहां आकाशवाणी होगी वहां दूरदर्शन न होगा? इस था और नही पर आप चाहें तो मुझे एस एम एस करके बता सकते हैं। कल्पना करने में क्या जाता है, जब आप बरसों से देश से गरीबी हटने की कल्पना को सच माने बैठे हैं तो मुझ शेखचिल्ली के साथ यह कल्पना भी कर डालिए और कुछ दृश्य
भी देख डालिए


दृश्य- 1कल राम का राजतिलक है। सभी चैनल सरकारी चैनल का प्रसारण रिले कर रहे है । सुबह से शहनाई बजा रहे है, राम के बचपन से आज तक की बार बार फुटेज दिखाई जा चुकी हैं। कार्यक्रमों में कोई सनसनी नहीं है,व्यूरशिप कम है इसलिए विज्ञापन भी नहीं है। अचानक रात बारह बजे सभी चैनल सोते से जाग जाते हैं। हर चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज है- राम को चैदह बरस का बनवास। समस्त अयोध्या भी सोते से जग गई है। पान और चाय की दुकाने खुल गई है। ढाबे सज गए है। कुछ चैनल सनसनी खेज खुलासा कर के सनसनी फैला रहे हैं-देखिए सनसनीखेज खुलासा कैसे एक सौतेली मां ने किया अत्याचार। जो बेटा उसे अपनी मां से बढ़कर मानता था उसी मां ने दिया उसे चैदह बरस का बनवास। अयोध्या के इतिहास में ऐसा न कभी घटा और न कभी घटेगा। अपने पुत्र भरत के लिए ऐशोआराम और वो राम जो कल राजा बनने जा रहे थे उनके लिए चैदह बरस का बनवास। हम आपको दिखाने जा रहे हैं सनसनी खेज खुलासा कि कैसे हुआ राम को यह बनवास। जाईएगा नहीं, ब्रेक के बाद हम आपको दिखाएंगे कैकेयी की वो चाल जिसने पलट कर रख दी दशरथ की बाजी।’ इसके बाद ब्रेक इतना लंबा होता है कि सनसनी का बल्ड प्रेशर लो होने लगता है।
दृश्य-2कुछ चैनल्स ने विशेषज्ञों को अपने चैनल में बुला लिया है। विशेषज्ञों का मुकाबला चल रहा है जो किसी डब्ल्यू डब्लयू एफ से कम नही है। आप भी इस मुकाबले का आनंद लें।-- हमारा दल मानता है कि ऐसा अयोध्या के इतिहास में पहले कभी घटा नहीं है।-- हमारा दल मानता है कि ऐसा अयोध्या में घटा है पर उसके प्रमाण नहीं मिलते हैं।-- कब घटा है? आपके पास क्या प्रमाण हैं? -- जब भी घटा ह,ै घटा है। प्रमाण समय आने पर देंगें।-मै कहता हूं नहीं घटा है++...मैं कहता हूं घटा है। और इसके बाद खूब मैं मैं चलती है तो संचालक तीसरे की ओर रुख कर के कहता है-- आपका दल इस बारे में क्या कहता है?-- हमारा दल इंतजार करेगा कि कौन सत्ता में आता है,
राम या भरत।
दृश्य 3इस बीच एक और ब्रेकिंग न्यूज आती है- अभी अभी हमें समाचार मिला है कि सीता के लिए भी वनवास के वस्त्र रात को एक दुकान खुलवा कर लिए गए हैं। चलिए हम उस दूकानदार से बात करते हैं जिसके यहां से यह वस्त्र लिए गए हैं।-आपका नाम?-मेरा नाम हरीशचंदर है जी।-आप क्या करते हैं- जी मैं रिषी मुनियों को कपड़े बेचता हूं। - आपकी दूकान पर केवल रिषी मुनि ही कपड़े लेने आते हैं?- हां जी-और कोई नहीं आता?-न जी।-और कोई क्यों नहीं आता ?- पता नहीं जी।-- आप झूठ बोल रहे हैं, आपको सब पता है।-- पता नहीं जी।- आपको पता है, आपके यहां से ही कपड़े गए है किसी महिला के लिए । हमारे पास इसकी वीडियो है हमें सब पता है, - जब आपको सब पता है तो मुझसे क्यों पूछ रहे हो। तो आपने देखा महलों का आतंक हम अभी कुछ देर में आपको वह वीडियो दिखाने जा रहे हैं जो ख्ुालासा कर देगी कि वो कपड़े सीता के लिए ही गए हैं। हमारी टीम उस डिजाईनर की खोज कर रही हैं और उस प्रसाधन केंद्र का भी पता कर रही है जहां सीता जी वनवास के लिए सजने गई थीं।आप हमें एस एम एस करें कि क्या राम अकेले बनवास जाएंगे ? यदि आपका जवाब हंा है तो हां लिखें, न है तो नं लिखें ओर कुछ भी जवाब न हो तो भी आप लिखें ‘कुछ नहीं’ । हमारे चैनल ने पहली बार ऐसे लोगेंा को भी सुअवसर दिया है जिनका जवाब ‘कुछ नहीं’ हो सकता है।
दृश्य 4कुछ धर्मिक चैनलों ने गुरु वसिष्ठ के चेलों और बाबाओं को पकड़ हुआ है जो ग्रहों की स्थिति जांचकर बता रहे हैं कि गुरु वसिष्ठ की मुहूर्त के बारे में गणना क्यों असफल हो गई।
दृश्य 5कुछ कैमरा मैन कैकेयी के कोपभवन के बाहर तक पहुंच गए हैं। बाहर सुरक्षाकर्मी खड़े हैं। दशरथ तक पहुंचना नामुमकिन है।चलिए हम सरकारी प्रवक्ता सुमंत जी से पूछते हैं - सुमंत जी आप तो राजा दशरथ के करीबी हैं, आप बताएं इस समय राजा दशरथ को क्या लग रहा है?सुमंत सोच की मुद्रा बनाते हुए ओर आवाज को गंभीर करते हुए- मेरे विचार से इस समय महाराज को यह लग रहा है कि वे दशरथ क्यों हैं।--और उनके पास बैठी रानी कैकेयी को क्या लग रहा है?-- रानी कैकेयी को लग रहा है, कि वे कैकेयी क्यों हैं?-- और आपको सुमंत जी?- मुझे, ,बहुत सेाचकर, मैं राजा दशरथ और रानी कैकेयी का नजदीकी हूं इसलिए मुझे भी लगना चाहिए कि मैं सुमंत क्यों हूं?देखा आपने यह सनसनी खेज खुलासा, सुमंत तक को पता नहीं है कि वे सुमंत क्यों हैं। मित्राों ऐसे ही दृश्य 5, 6 7 8 आदि आदि अनादि हैं। हरि अनंत हरि कथा अनंता की तरह। मैं उनका वर्णन अभी नहीं कर रहा हूं क्योंकि मुझे पूरा विश्वास है कि उन्हें देखने के बाद आप भी पगला कर कहेंगें कि मुझे लग रहा है कि मैं क्यों हूं।


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नई दुनिया के 19 अक्टूबर,2008 अंक में प्रकाशित

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

लघु कथा- साहित्य में डब्ल्यू डब्ल्यू एफ

साहित्य में डब्ल्यू डब्ल्यू एफ
0प्रेम जनमेजय


एक समय था जब मनोरंजन के साधन कम थे और लोग मुर्गे, तीतर, बटेर आदि लड़वाया करते थे तथा सामान्य जन उन्हें बड़े चाव से देखता। मुर्गे, तीतर, बटेर आदि विशिष्ट जनों के पास ही हुआ करते थे और उन्हें पालने का दम भी उन में था। वे पैसा फेंकते और तमाशबीनों को तमाशा देख प्रसन्न होते। गली- गली उनके मुर्गे, तीतर, बटेर आदि की चर्चा होती। यह चर्चा सामान्य जन करता। और सामान्य जन की चर्चा ? वो किस खेत की मूली होता है हुजूर, आपको पता चले तो बताइएगा, थोड़ी हम भी खरीद लेंगें।
धीरे-धीरे- सामान्य जन के मनोरंजन के साधन बढ़ने लगे। डब्ल्यू डब्ल्यू एफ जैसे अत्याधुनिक खेल बाजार में आ गए। बाजारवाद ने सामान्य जन की जेबों में कुछ पैसा डाला और अपने मनोरंजन के साधनों का नशेड़ी बना लिया। मुर्गे, तीतर, बटेर आदि बेरोजगार हो गए। उधर नवाबों की नवाबी भी चली गई। बिना लड़े मुर्गे, तीतर, बटेर आदि को अपना जीवन व्यर्थ बहा-बहा लगने लगा और ‘वे दो सरस पद भी न हुए, अहा!’ कह कर आंसू बहाने लगे। वे बुढ़ा भी गए थे और बूढ़ों को इस समाज में जिस दृष्टि से देखा जाता है उसे उपेक्षा की दृष्टि कहते है। अपने उपर विशिष्ट दृष्टि डलवाने के लिए लहू लुहान तक हो जाने वाले मुर्गे, तीतर, बटेर आदि कैसे इस उपेक्षा-दृष्टि को सह सकते हैं।
सुना है अब ये सारे बुढ़ा चुके मुर्गे, तीतर, बटेर आदि साहित्य में आ गए हैं और डब्ल्यू डब्ल्यू एफ की तर्ज पर बिना लहू-लुहान हुए लड़ने की नौटंकी कर रहे है। इस नौटंकी से वे विवादाग्रस्त होते हैं और समाचार में रहने का सुख पाते हंै।

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शनिवार, 13 सितंबर 2008

एटमी करार का फंडा

इस एटमी डील के चक्कर में कुछ डील हुई हैं, कुछ हो चुकी हैं और कुछ होंगी । भारतीय प्रजातंत्रा का दूसरा नाम हो ही गया है ले-दे का खेल। डील करे जाओं और सरकार चलाए जाओ । अब एटमी डील के चक्कर में --कुछ बिल्लियों को आशा थी सरकार गिरेगी और उनके भागों छींका पफूटेगा, कुछ सरकार से समर्थन लेने की नौटंकी करते रहे, कुछ अब सरकार गिराएंगे और कुछ अब गिरतों को संभालेंगें । ये सब होगा एक डील के तहत । अजब पफंडा है इस डील का, मुझे तो समझ नहीं आ रहा है । राजनीतिक डील मुझ जैसे अराजनीतिक को समझ भी कैसे आ सकती है, मैं तो ताश में होने वाली डील को जानता हूं जिसमें जो डील करता है वो पत्ते बांटने में बेईमानी भी कर लेता है ।
जब से भारतीय राजनीति जनसेवा के तुच्छ विचारों का त्याग कर स्व सेवा के महान विचारों से ओत प्रोत हुई है, मेरे मित्रा राध्ेलाल की राजनीतिक समझ बढ़ गई है । जिस प्रकार, जब-जब भाजपा को चुनाव-हानि की आशंका है तो विश्वेश्वर प्रभु ;केवल भारतवर्ष में द्धजन्म लेते हैं, जब-जब कांग्रेस संकट में होती है तो नेहरू गांध्ी परिवार अवतरित होता है, जब-जब चुनाव होते हैं तो तीसरा मोर्चा बनता है वैसे ही जब-जब भारतीय प्रजातंत्रा की मेरी समझ कम होती है राध्ेलाल जी अवतरित होते हैं ।
इन दिनों तो क्या पिछले कई महीनों से मैं एटमी करार के पफंडे को समझ नहीं पा रहा हूं । कई बार लगता है जैसे तुम रूठी रहो मैं मनाता रहूं जैसा कोई सीरियल चल रहा है जो कभी भी सास- बहू एपीसोड में परिवर्तित हो सकता है ।
मैंनें राध्ेलाल से पूछा- प्यारे यह मामला इतना क्यों खिंच गया ?
-- खिंचा नहीं खींचा गया प्यारे!’
-- पर क्यों ?
- जिससे सत्ता का अध्कि से अध्कि सुख पाया जा सके । जैसे आजकल लगभग हर विकसित विकासशील देश के पास बम है पर उसे पफोड़ने का समय बम वाले को ही तय करना है वैसे ही एटमी करार वाले को तय करना है कि इस करार का बम कब पफोड़ना है ।
-- क्या कांग्रेस को उम्मीद थी कि लेपफट करार के लिए मान जाएगा ?
-- शायद कुछ लोगों को लग रहा था कि करार और करात में वर्णाें के थोड़े हेर-पफेर हैं इसलिए शायद महासचिव करात करार के लिए मान जाएं , पर...
-- पर क्या ?
-- अब अंतरराष्ट्रीय मसले तय करने के लिए उनके आका भी तो हैं । आकाओं के सामने तो सभी को घुटने टेकने पड़ते हैं, और पिफर चुनाव का सावन आने को है ऐसे में किसी दूजे संग क्या पींग बढ़ानी ?
-- एटमी करार से पफायदा होगा या नुकसान ?
-- प्रजातंत्रा में पफायदा और नुकसान तो राजनीतिक दलों का सोचा जाता है, जनता को तो साला...समझा जाता है। अब अगर कांग्रेस चुनाव में जीत गई तो उसका पफायदा और अगर हार गई तो उसका नुकसान और प्रतीक्षरत् प्रधनमंत्राी का पफायदा ।
- ये तो कांग्रेस का पफायदा नुकसान हुआ, मैं तो देश के पफायदे नुकसान के बारे में पूछ रहा था !




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- इस समय कांगे्रस ही देश है, जैसे एक समय में इंदिरा इज इंडिया हुआ करता था।
- आपका मतलब तब इंदिरा जी प्रधनमंत्राी थी और आजकल मनमोहन सिंह प्रधनमंत्राी हैं तो आजकल मनमोहन सिंह इंडिया हैं ।’ मैंनें अपने राजनीतिक ज्ञान का सिक्का जमाते हुए कहा ।
ये सुनकर राध्ेलाल जोर से हंसा और बोला- पांचवी क्लास की क्या कहूं आप तो राजनीति की पहली क्लास के भी लायक नहीं हैं । आप तो... भोंपू की कभी अपनी आवाज होती है ?

-- अच्छा राध्ेलाल जी,यह बताईए इध्र परमाणु करार हो जाता है और उध्र प्रधनमंत्राी-प्रतीक्षा- सूची वालों को यदि प्रधनमंत्राी की सीट मिल जाती है तो क्या वो सत्ता में आने पर करार को रद्द कर देंगें ?
-- अरे प्यारे, जिस अह्म मुद्दे, अयोध््या में मंदिर बनवाने की मांग लेकर वो लोग सत्ता में आए थे, सत्ता में आते ही उसे भूल गए ये तो ...
-- और वो जो अब तक सरकार में थे और सरकार से समर्थन वापस ले रहे हैं, जब चुनाव के बाद सांप्रदायिक ताकतों को हराने के लिए, दोबारा सरकार बनाने में उनका ‘बाहर’ से समर्थन चाहिए होगा तो क्या वो देंगें?
इस बार राध्ेलाल पिफर वैसे ही जोर से हंसा जैसे अक्सर वो मेरी मूर्खता पर हंसता है और बोला-- राजनीति में हरेक के दिन बदलते हैं और हरेक बदलता है और बिना बदले दिन नहीं बदलते हैं ।
अब इन बेचारों को देखो, इतने दिनों से सत्ता से दूर है न राज्य में और न केंद्र में ही कोई पूछ रहा है । ऐसे में बहुत कष्ट होता है जब आपके विरोध्ी सत्ता में हो और आप सत्त से कोसो दूर । राजनीति ऐसी चीज है जिसमें बिल्ली के हाथ में कभी भी छींका पफूट सकता है और यही कारण है कि अनेक बिल्लियां उस छींके का इतजार करती रहती हैं ।
इस एटमी करार ने उन्हें भी दस जनपथ से निमंत्रिात करवा दिया , प्रधनमंत्राी कार्यालय के दर्शन करवा दिए । उनके सहयोगी ने उन्हें प्रधनमंत्राी - कार्यालय ध्यान से दिखाते हुए कहा - देख लीजिए, हो सकता है अगली बार इस कार्यालय में आप बैठे हों ।
वो कैसे ?
--अब देखिए ये तो भारतीय राजनीति में पक्का हो गया है कि कोई पार्टी अकेले बहुमत नहीं पा सकेगी । एटमी करार तो होगा ही । अब कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनी तो सरकार बनाने के लिए लेपफ्ट तो उसको समर्थन देगा नहीं । हमारी आपकी बात और है , सभी तो बार-बार थूक कर नहीं चाट सकते हैं न ! अब उफपर वाले की मेहरबानी से...
-- देखिए उफपर वाले की नहीं अल्लाह की मेहरबानी कहें
- वो ही कह देते हैं... सत्ता में बिना किसी की मेहरबानी के कहां आया जा सकता है ... तो मेहरबानी से पिछली बार वाली लोकसभा जैसा इस बार भी हाल हो गया तो आप प्रधनमंत्राी बने ही बने ।
हे एटमी डील तूं ध्न्य है कि तूने कितनी बिल्लियों के लिए छींके तैयार कर दिए हैं कि तूने अपने करार से कितनों का करार छीना है और कितनों को करार दिया है ।