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रविवार, 7 अक्तूबर 2007

व्यन्ग्य -तुम ऐसे क्यों आईं लक्ष्मी

तुम ऐसे क्यों आईं लक्ष्मी
-प्रेम जनमेजय


लोग दीपावली पर लक्ष्मी पूजन करते हैं, मेरा सारे वर्ष चलता है। फिर भी लक्ष्मी मुझपर कृपा नहीं करती। मैं लक्ष्मी-वंदना करता हूँ हे भ्रष्टाचार प्रेरणी, हे कालाधनवासिनी, हे वैमनस्यउत्पादिनी, हे विश्वबैंकमयी! मुझपर कृपा कर! बचपन में मुझे इकन्नी मिलती थी पर इच्छा चवन्नी की होती थी, परंतु तेरी चवन्नी भर कृपा कभी न हुई। यहाँ तक मुझमें चोरी, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी आदि की सदेच्छा भी पैदा न हुई वरना होनहार बिरवान के होत चिकने पात को सही सिद्ध करता हुआ मैं अपनी शैशवकालीन अच्छी आदतों के बल पर किसी प्रदेश का मंत्री/किसी थाने का थानेदार/किसी क्षेत्र का आयकर अधिकारी/आदि-आदि बन देश-सेवा का पुण्य कमाता और लक्ष्मी नाम की लूट ही लूटता। युवा में मैं सावन का अंधा ही रहा। जिस लक्ष्मी के पीछे दौड़ा, उसने बहुत जल्द आटे-दाल का भाव मुझे मालूम करवा दिया। हे कृपाकारिणी मुझपर इस प्रौढ़ावस्था में ही कृपा कर। मैं मानता हूँ कि मैंने मास्टर बनकर तेरी आराधना के समस्त द्वार बंद कर दिए हैं परंतु हे रिश्वकेशी तेरे प्रताप से जेलों के ताले खुल जाते हैं, एक दी-हीन मास्टर के द्वार क्या चीज़ है। एक दरवाज़ा मेरी ही खोल दे।

तभी दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी। पत्नी बोली, "सुनते हो, देखो शायद लक्ष्मी आई है।" मैं मुद्रस्फीति-सा एकदम उठकर लक्ष्मी के स्वागत को बढ़ा परंतु रुपए की अवमूल्यन-सा लुढ़क गया। क्योंकि मेरी पत्नी ने जिस लक्ष्मी के स्वागत के लिए दरवाज़ा खोलने का अलिखित आदेश दिया था, वह उस समय के अनुसार हमारी कामवाली हो सकती थी जिसके स्वागत की परंपरा हमारे परिवारों में कतई नहीं है।

"दरवाज़ा तुम ही खोल दो।" मेरे स्वर में आम भारतीय की हताशा थी।
पत्नी ने दरवाज़ा खोला, सामने लक्ष्मी नहीं, लक्ष्मीकांत वर्मा थे। उनका चेहरा सरकारी कर्मचारी को महंगाई-भत्ता मिलने के समाचार-सा खिला हुआ था। लक्ष्मीकांत बोले, "भाभी जी, आज तो फटाफट मिठाई मँगवाइए, बढ़िया चाय पिलवाइए और घर में बेसन हो तो पकौड़े भी बनवा दीजिए।"
उसकी इस मँगवाइए/बनवाइए आदि योजनाओं पर अपनी तीव्र प्रतिक्रिया देते हुए मैंने कहा, "क्यों शर्मा, क्या तू विश्व बैंक का प्रतिनिधि है जो तेरा अभूतपूर्व स्वागत करने को हम बाध्य हों?"
"यही समझ ले घोंचूलाल! देख, मैं भाभी जी से बात कर रहा हूँ, तू बीच में अपनी टाँग क्यों अड़ा रहा है? भाभी जी, मैं आपके लिए हज़ारों रुपए मिलने की ख़बर लाया हूँ और ये है कि," लक्ष्मीकांत ने अमेरिकी स्वर में कहा।
"तुम चुप रहो जी!" पत्नी ने ससम्मान मुझे डाँटा और लक्ष्मीकांत की तरफ़ मुस्कराकर देखा तथा कहा, "आप बैठिए न भाई साहब मैं अभी आपके लिए सबकुछ बनाकर लाती हूँ। आप हज़ारों मिलने वाली बात बताओ न।" पत्नी में ऐसा सेवाभाव मैंने कभी नहीं देखा था।
"भाभी जी, आपको याद होगा कि मैंने आपसे एक हज़ार रुपए लेकर एक कंपनी के शेयर भरवाए थे, उसका अलोटमेंट लैटर आ गया है।"
"यानी हमारे हज़ार रुपए डूब गए। तुझे तो खुशी ही होगी हमारे रुपए डूबने की, तू हमारा सच्चा दोस्त जो है।" मैंने इस मध्य आह भरी।
"अरे बौड़म, रुपए डूबे नहीं हैं, उस हज़ार रुपए के तीन महीने में दस हज़ार हो गए हैं। कंपनी का दस रुपए का शेयर आज सौ में बिक रहा है सौ में कुछ समझे संत मलूकदास जी।"

पत्नी विवाहित जीवन के पच्चीस वसंत देखने से पूर्व या तो चहकी थी या फिर उस दिन लक्ष्मीकांत उवाच के कारण चहकी और चहकते हुए उसने पूछा, "हमारे कितने शेयर हैं।"
"सौ शेयर।"
"सौ शेयर! और अगर हम उन्हें बेचें तो हमें दस हज़ार रुपए मिलेंगे दस हज़ार! अजी सुनते हो लक्ष्मी भैया की बदौलत हमें दस हज़ार मिलेंगे।" (सुधीजन नोट करें, धन लक्ष्मी मैया के अतिरिक्त लक्ष्मी भैया की बदौलत भी मिल सकता है। अत: हे संतों, सदैव लक्ष्मी का स्मरण करें।) ये दस हज़ार हमें कब मिलेंगे लक्ष्मी मैया!"
"भाभी जहाँ इतना इंतज़ार किया वहाँ थोड़ा इंतज़ार और कर लो। आप देख लेना कुछ दिनों में ये दो-सौ नहीं तो डेढ़ पौने दो पर तो जाएगा ही। सिर्फ़ दस-पंद्रह दिन की बात है दौड़ते घोड़े को चाबुक नहीं मारनी चाहिए। आप तो अब पार्टी की तैयारी कर लो और पंद्रह बीस हज़ार गिनने की भी तैयार कर लो।" लक्ष्मीकांत ने आशीर्वादात्मक मुद्रा में कहा।
"पार्टी तो आप जितनी ले लो। पंद्रह-बीस हज़ार! भाई साहब मुझे लगता है कि आप मेरा मन रखने के लिए ऐसा कह रहे हैं, मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा है। बेसन नहीं मैं आपके लिए ब्रजवासी की पिस्तेवाली बरफी मँगवाती हूँ कोला तो आपको पीकर ही जाना होगा। तुम आराम से सोफ़े पर क्या बैठे हो जल्दी से बाज़ार हो आओ हे भगवान!"

लक्ष्मीकांत तो अपना सत्कार कर के चले गए परंतु हम पति-पत्नी एक अंतहीन बहस में उलझ गए। पत्नी अंतर्राष्ट्रीय सहायता कोषरूपा हो गई और उसने बजट बनाने के दिश निर्देश मुझे जारी कर दिए। माता-पिता को भेजी जाने वाली राशि में कटौती करवाई, मुझसे अनेक वायदे लिए तथा चाय-पानी जैसी ज़रूरी चीज़ों को बेकार सिद्ध किया। पत्नी के सुप्रयत्नों से मेरा भुगतान-संतुलन बिगड़ गया और मित्रों की निगाह में दीन-हीन बन गया।

भविष्य के लिए वह जो भी बजट बनाती, वह पंद्रह हज़ार से कम बन ही नहीं रहा था। पंद्रह अभी आए नहीं थे पर उसकी आशा में उधारी के छह-सात हज़ार शहीद हो चुके थे। बड़ी चादर की अपेक्षा में पैर फैल रहे थे। पत्नी रोज़ सुबह मुझे उठाती, हाथ में अख़बार पकड़ाती और जैसे मैं कभी माँ को रामायण सुनाया करता था वैसी ही श्रद्धा से पत्नी को शेयरों के भाव पढ़कर सुनाया करता। हम घंटों उस पेज को घूरते रहते। देश में कहाँ हत्या हो रही है, किसका घर जल रहा है और कौन जला रहा है ऐसे समाचारों में हमें कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी। जिस दिन शेयर का भाव बढ़ जाता उस दिन पत्नी अच्छा नाश्ता और भोजन खिलाती और जिस दिन घट जाता उस दिन घर में जैसे मातम छा जाता। बच्चे पिट जाते और पति-पत्नी के बीच महाभारत का लघु संस्करण खेला जाता। पत्नी का रक्तचाप पहले केवल मेरे कारण बढ़ता-घटता रहता था, आजकल शेयर बाज़ार की उसमें महत्वपूर्ण भूमिका रहती।

महीना बीत गया। शेयर डेढ़ सौ पर जाने की बजाय साठ पर आ गया यानी नौ हज़ार का काग़ज़ी नुकसान हमें हो गया। पत्नी ने संतोषधन नामक मंत्र का जाप किया और आदेश दिया कि प्रिय तुम शेयर-संग्राम में जाओ और इसका कुछ कर आओ। मैंने लक्ष्मीकांत से अनुरोध किया तो उसने हमारी हड़बड़ी पर लेक्चर दे डाला तथा सहज पके सो मीठा होय नामक मंत्र का जाप करने को कहा। उसने आत्मविश्वासात्मक स्वर में कहा कि कंपनी के रिज़ल्ट अच्छे आने वाले हैं और तब यह निश्चित ही दो सौ पर जाएगा। हम अपना परिणाम भूल कंपनी के परिणाम पर ध्यान देने लगे। लक्ष्मीकांत ने हमारे मन में लालच का दीपक पुन: जगा दिया था। मेरा पढ़ना-लिखना बंद हो गया और मन विदेश-भ्रमण के लालच-सा सदैव शेयर बाज़ार के ईद-गिर्द ही मँडराता रहता।

जिस तरह से लक्ष्मी भैया ने लक्ष्मी मैया के आने का धमाका किया था वैसे ही उसके जाने का किया। कंपनी के परिणाम ठीक नहीं आए, उसे घाटा हुआ था अत: शेयर लुढ़कता-फुड़कता ग्यारह पर आ टिका। हमने भागते चोर की लंगोटी नामक मुहावरे की सार्थकता सिद्ध की तथ शुक्र मनाया की गाँठ से पैसा नहीं गया। पत्नी ने सवा पाँच रुपए का प्रसाद चढ़ाया और ऋण भुगतान में जुट गया।

अब मैं लक्ष्मी वंदना नहीं करता हूँ, बस लक्ष्मी मैया से एक प्रश्न करता हूँ तुमने आने का अभिनय क्यों किया लक्ष्मी! कहीं तुम भी तो चुनाव नहीं लड़ रही हो!"

व्यन्ग -कन्या रत्न का दर्द

हास्य व्यंग्य

कन्या रत्न का दर्द
-प्रेम जनमेजय


आप यह मत सोचिए कि मैं कोई साधु संत या फिर आधुनिक बाबा शाबा हो गया हूँ और आप को माया मोह से दूर रहने की सलाह देकर स्वयं माया बटोरने का जाल बिछा रहा हूँ तथा इस क्रम में आप को कन्या रत्न के दर्द को समझने का प्रवचन दे रहा हूँ। न ही मैं प्लूटो के ग्रहों के चक्कर से दूर हो जाने पर कन्या जैसे किसी रत्न को धारण करने की सलाह दे अपना व्यवसाय जमा रहा हूँ । मैं ऐसा क्यों और क्या कर रहा हूँ, आप भी जानिए।

उस दिन मैं जल्दी में था। मुझे अस्पताल पहुँचना था। अस्पताल की ओर जाने वाला हर व्यक्ति जल्दी में होता है, यह अलग बात है कि अस्पतालवाले कभी जल्दी में नहीं होते। आप का हाथ टूट गया है, आप दर्द से कराह रहे हैं और आप को लग रहा है कि आप से अधिक पीड़ित व्यक्ति इस दुनिया में कोई और नहीं है। आप उम्मीद करते हैं कि आप को पीड़ा में देखकर डॉक्टर आपकी माँ की तरह चीखता हुआ आप से लिपटकर कहेगा, हाय, मेरे बच्चे मरीज़ को क्या हो गया! तेरी यह हालत किसने कर दी, मरीजवा? यह कहते हुए डॉक्टर की आँखों में आँसू बहेंगे और वह सारा काम छोड़कर आपकी सेवा में लगा जाएगा। पर उसे जल्दी नहीं है। उसे डॉक्टर-सखी से बतरस का आनंद उठाना है और नर्सों के सौंदर्य पर रिसर्च करनी है। डॉक्टर ही क्या, आप पाएँगे कि अस्पताल का हर कर्मचारी अपने में व्यस्त है। आपको देखने की किसी को जल्दी नहीं है। आप अधिक जल्दी मचाएँगे तो वह आपके पेट में कैंची छोड़कर पेट सिल देगा। आपकी हाय-तोबा अस्पतालवालों के लिए दूरदर्शन के कार्यक्रमों की तरह है। यदि आप किसी के द्वारा प्रायोजित हैं तो सारा अस्पताल रुचि के साथ देखेगा, नहीं तो आप कृषिदर्शन हो जाएँगे। कुछ करने को नहीं होगा कि आपको देख लिया जाएगा।

मेरा हाथ नहीं टूटा और न ही मैं मरीज़ होने के कारण जल्दी में था। जल्दी का कारण मेरा मित्र था। वैसे हुआ उसे भी कुछ नहीं था, जो कुछ होना था वह उस की पत्नी को होना था।
वह मेरा मित्र है और सहकर्मी भी। दोपहर को मित्र के घर से फ़ोन आया कि उस की पत्नी की तबीयत ठीक नहीं है इसलिए उसे अस्पताल ले जा रहे हैं। उस की पत्नी माँ बनने वाली थी और वह बाप बनने वाला था। फ़ोन सुनते ही उस के चेहरे पर प्रसव-पीड़ा का दर्द छा गया। यह दर्द सुख के कारण भी बनता है और दुख का कारण भी। वह दो लड़कियों का पिता है।

वह मुझे अस्पताल की सीढ़ियों पर मिला था। उस का चेहरा अब भी प्रसव-पीड़ा लिए था। मैंने उत्सुकता दिखाते हुए पूछा, क्या हुआ?
कन्या-रत्न की प्राप्ति हुई है, कहते हुए उस का चेहरा कोयला हो रहा था। उस के चेहरे पर पराजित नेता की मुस्कान थी जो जनता को सामने पाकर विवशता में आती है या फिर विदेशी निवेशक का न चाहते हुए भी विरोध करने के बाद विजयी के रूप में खिसियाती है। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं नवजात-शिशु के आगमन की बधाई दूँ या सहानुभूति प्रकट करूँ।

दोनों ठीक हैं न?
हाँ, ठीक हैं। वीतरागी-योगी के स्वर में वह बोला, तू चल, माँ भी उपर है, 46 नंबर कमरा है. . .सेकंड फ्लोर पर. . .मैं अभी आ रहा हूँ। और वह भारत के दलित वर्ग-सा निर्जीव अपने को आगे धकेलने लगा।
मुझे देखकर मित्र की माँ के चेहरे पर ऐसी मुस्कान छाई जैसे फ़ोटोग्राफ़र ने किसी मुर्दे से कहा हो, स्माइल प्लीज़! और वह मुस्करा दिया हो।
उन्होंने कहा, लक्ष्मी आई है! पर लगा जैसे लक्ष्मी गई है।
मैं माँ के रूप में उस हौवा के सामने नतमस्तक हो गया जो एक और हौवा के कारण पीड़ित थी। धन्य है ऐसी व्यवस्था जिस में औरत-औरत की दुश्मन बनने को विवश है। हे महान पुरुष, तू धन्य है जिसने औरत की आँखों के पानी का गुणगान किया और औरत की महानता को रोने से सिद्ध किया।

आजकल वैज्ञानिकों ने ऐसी खोज तो कर ही ली है जिस से भ्रुणावस्था में ही पता चल जाता हैं कि लड़का होने वाला है या लड़की। धन्य हैं ऐसे वैज्ञानिक जिन्होंने हौवा की पीड़ा को समझा और उसका उद्धार किया। हमें उतनी ही औरतें चाहिए जो घर की चक्की में पिसती रहें। फालतू औरतों का दिमाग़ फालतू कामों में लगकर वे हौवा से हौआ बनेंगी, पुरुष को भयभीत करेंगी।

शब्दकोश के अनुसार हौवा शब्द स्त्रीलिंग है और वह सौंदर्य तथा कोमलता से पूर्ण है। परंतु हौवा जब पुल्लिंग होती है तब वह हौआ बन जाती है। हौआ डराने के काम आता है। जो बच्चे दूध नहीं पीते हैं, अच्छे बच्चे नहीं बनते हैं, हौआ उन्हें डराता है। हौवा जब तक स्त्रीलिंग रही है, सौंदर्य और कोमलता की प्रतिमा बनी रहती है, पुरुष के चरणों की दासी रहती है, घर की रानी बनी रहती है, पुरुष निश्चित होकर अपनी मर्दानगी का सुख भोगता है। परंतु अब हौवा जागती है, पुल्लिंग होती है, आदम से आगे बढ़ने का स्वप्न देखती है, तब वह हौआ बन जाती है।
जब भी हौवा आदम बनने को होती है, पुरुष का सिंहासन डोलने लगता है।

आजकल राधेलाल जी का सिंहासन डोल रहा है। पिछले रविवार उन के घर गया तो दरवाज़ा खोलते ही किसी आतंकवादी की तरह उन्होंने प्रश्न दाग दिया, तुम...तुम ही बताओ आजकल के ज़माने में पत्नी का क्या फ़र्ज़ है? मैं आम आदमी-सा चकित ही था कि उन्होंने स्वयं उत्तर दे डाला, उसका यही फ़र्ज़ है न कि अपनी गृहस्थी ठीक-ठाक सँभाले। घर के मोटे-मोटे काम. . .नाश्ता तैयार करना, खाना बनाना, बच्चों को स्कूल भेजना, झाडू-पोंछा करना, बर्तन साफ़ करना, थोड़ी-बहुत सिलाई करना और घर की देखभाल करना। अब यह काम गृहिणी नहीं करेगी तो क्या गृहणा करेगा? आदमी शादी क्यों करता है. . .उसे सुख मिले इसलिए न?

मैं समझ गया कि उन के घरेलू हालत ठीक नहीं हैं। परंतु एक अच्छे पड़ोसी की तरह उन के घरेलू मामलों में हस्तक्षेप न करते हुए अनजान होकर मैंने पूछा, पर हुआ क्या, राधेलाल जी?
होना क्या है. . .मैं दफ्तर से थककर आया और इन महारानी जी से बोला कि कुछ चाय-नाश्ता दे दो, तो जानते हैं महारानी जी ने क्या कहा? बोली, मैं भी थकी हुई हूँ, आज चाय तुम पिला दो। शिव! शिव! शिव! इतना घोर अनर्थ घर का स्वामी चूल्हा-चौका करे? बाहर जाकर थोड़ा-बहुत कमा क्या लाती है, हम पर हुक्म चलाने लगी... अपने पति पर! पहले की औरतें कितना काम करती थीं. . . और आजकल, थोड़ा बहुत पढ़-लिख गईं. . .कमाने लगीं. . .तो सारी गृहस्थी भूल गईं. . .चाय बनने को कहो तो सिर में दर्द होने लगता है।

राधेलाल जी रक्तचाप महँगाई की तरह बढ़ता जा रहा था और मैं वित्त मंत्री-सा विवश खड़ा था। राधेलाल जी की मूँछ को नारी जाति ने ललकारा था, आज उन्होंने अपने तरकस के सारे तीर खोल लिए थे। वह सत्संग माला उठा जाए और काँपते हाथों से उसे खोलते हुए जैसे किसी महामंत्र का जाप करने लगे। जानते हैं इस किताब में महापुरुषों ने क्या लिखा है. . .नारी नरक का द्वार है. . .पति की आज्ञानुसार चलने का व्रत रखने वाली स्त्री कभी दुखी नहीं होती। पति की आज्ञापालन करना स्त्री का परम धर्म है। वह इतना ही कर ले तो स्वर्ग जाती है. . .और यह स्त्री। यह तो नरक का कीड़ा बनेगी।''

मुझे उस दिन राधेलाल के रूप में महान पुरुष के दर्शन हुए। हे राधेलाल, तू महान् है। तू नारी को आज्ञा देता है जिस से तेरी आज्ञा का पालन करके वह पतिव्रत धर्म का पालन कर सके। तू अपने कोमल हाथों से कुलटा नारी की देह को पीटता है, जलाता है, जिस से उसे स्वर्ग मिले। तूने ही नारी को बलिदान का मार्ग दिखाया। तूने नारी को महान बनाने के लिए उसे वनवास दिया, सती बनाया, शिला बनाया, क्या-क्या नहीं बनाया। कितना निर्माण किया है तूने भारतीय नारी का! तू त्याग के इस पथ पर खुद नहीं चला, इसे नारी के लिए त्यागा, तेरा त्याग महान है। हे पुरुष जाति! तू भी राधेलाल की तरह जाग। देख, ज़माना कितना बदल गया है। एक वह ज़माना था कि पति नारी से कह दे कि तुझे अग्निपरीक्षा देनी है तो वह हँसते-हँसते चिता पर चढ़ जाती थी और आजकल चाय का पानी चढ़ाने को कहकर तो देखें।

हे आदम, तू जाग और हौवा को हौआ मत बनने दे। ऐसी व्यवस्था बना कि हौवा हौआ की दुश्मन बनी रहे। तू दहेज के सांप को पाल, नारी को ईश्वर-शक्ति की अफीम खिला और उस की आँखों पर पतिव्रत धर्म का चश्मा चढ़ा तथा खुद चैन की बाँसुरी बजा। तू नारी को रत्न बनाकर अपनी शोभा बढ़ा, उसे क्रय-विक्रय की वस्तु बना और यदि वह रत्न न बने तो उसे परीक्षा की अग्नि में जलाकर खरा सोना ही बना । क्योंकि तू पुरुष है, धन्य है !