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रविवार, 9 नवंबर 2008

व्यंग्य -- कैसे हो जजमान ...

कैसे हो जजमान ...


आजकल मेरा अपार्टमेंट मोहल्ला रिटायर वाला हो रहा है । जिसे देखो रिटायर हो रहा है । ये सब रिटायर हैं पर टायर नहीं और ये दीगर बात है कि इनमें से कोई भी भूतपूर्व प्रधनमंत्राी नहीं है । टायर हो जाने से आदमी खुद तो घिसता ही है अपने आसपास के लोगों को भी घिसता है । हां साहब , हमारे यहां सब नौकरीपेशा लोग हैं , राजनीतिपेशा नहीं हैं जो कभी रिटायर ही नहीं होते इसलिए टायर नहीं होते । इन रिटायर हुए सज्जनों के कारण अल्पमत में आए मेरे जैसे नौकरीपेशा लोगों के सामने अभूतपूर्व संकट आ गया है -- अल्पमत मेें सरकारें तो चल सकती हैं पर जिंदगी नहीं । हम जब चाहे इन सज्जनों के द्वारा घेर लिए जाते हैं । जैसे अपनी शालीनता में हम घर आए मेहमान का स्वागत करने को विवश होते हैं, वोट मांगने आए हर दल के नेता को --- वोट आपको ही देंगें -- कहने को विवश होते हैं, वैसे ही रिटायर हुए इन बुजुर्गों की हर बात सुनने को विवश होते हैं । आप दफ्तर में देर होने के कारण पत्नी को लताड़ते हुए बस पकड़ने को भाग रहें हैं कि अपार्टमेंट के गेट पर कोई न कोई आपको पकड़ लेता है और लगता है अपने कार्यालयी अनुभव के किस्से सुनाने । बोस बाबू मौसम विभाग से रिटायर हुए हैं तो विश्वमोहन जी रक्षा मंत्राालय से । इसी प्रकार जगदीश बाबू वित्त मंत्रालय से और वासल बाबू शिक्षा - विभाग से , आदि, आदि अनादि।
उस दिन मैं बोस बाबू के घेरे में आ गया । वे मुझे अपार्टमेंट के गेट पर अतिआवश्यक मुद्रा में समझा रहे थे -- इस भारत देश के विशाल होने का अच्छा तो लगता है पर मौसम -विभाग संकट में आ जाता है । कोई एक-सा मौसम हो तो कोई निश्चिंतता हो । अब देखिए, गोआ, मुम्बई या चैन्नई जैसा राज्य के स्थान पर देश हो तो क्या संकट है ! यहां तो हर राज्य का अलग ही मौसम है । जिस मौसम में उत्तरी राज्यों में ठंड पड़ती है, इन राज्यों में धूप से शरीर जलता है .... ’’
अभी शायद वे अपने मौसम-ज्ञान से मुझे और अधिक आतांकित करते, जैसे आजकल अमेरिका आतंकित कर रहा है , ;वैसे कुछ ज्ञानियों को समझ नही आएगा कि अमेरिका भी आतंकित कर सकता है , पर ...द्ध उसी समय राजनीतिशास्त्र एवं हत्थकंडों के विशेषज्ञ कुलदीप अहूजा ने मुझे बचाने की मुद्रा में थाम लिया , बोले- चाहे कहीं का कैसा भी मौसम हो , ये अच्छा है कि हमारे यहां प्रजातंत्र है और प्रजातंत्र का एक ही मौसम होता है -- चुनाव । किसी भी प्रदेश का कैसा भी भौेगोलिक मौसम हो आजकल प्रजातंत्र की बदौलत पूरे देश का एक ही मौसम बचा है -- चुनाव । जैसे एक समय में अंग्रेजों के राज्य का सूर्य नहीं डूबता था, वैसे ही इस महान भारत में आजकल चुनाव का सूर्य नहीं डूबता है । या तो चुनाव आने वाले होते हैं या फिर आ गए होते हैं । ’’
इस बीच पुरुषों के ब्यूटि पार्लर विशेषज्ञ ; पुराने जमाने की नाई की दूकाने आजकल ब्यूटि पार्लर की संज्ञा से सम्मानित होते हैं द्ध से पद-मुक्त हुए स्वराज बहादुर ने कहा-- इस समय भारतीय राजनीति देश की जनता का सामूहिक मुंडन कर रही है । जिसे देखो , वह अपने उल्टे- सीधे उस्तरे से मूंडने में लगा हुआ है । जिसे मूंडने का अवसर नहीं मिल रहा है , वह किसी मूंडने वाले का दामन थामे चुनाव -सागर पार करने का जुगाड बिछा रहा है । चुनाव का यह सागर अत्यध्कि बहुमूल्य है , अनेक रत्न जो इसमें छिपे हुए है । इन रत्नों को पाने के लिए ज्ञानीजन चुल्लु भर सागर में भी गोते लगाने को तत्पर हैं । कुछ तो थूक जैसे पवित्र पदार्थ को चाटने और उसमें ,सुअवसर मिले तो, तैरने को दिलो जान से तैयार हैं । अनेक नेता नारायण मनमोहिनी रूप धारण किए सत्ता -अमृत हड़पने की शतरंज बिछाए ऐसे सुशोभित हो रहे हैं जैसे न्यायालीय असत्य में लिपटा बदसूरत सत्य।
पूरी भारतीय राजनीति की व्याख्या दो शब्दों में की जा सकती है -- नाई और जजमान । नाई उसें कहते हैं जो मूंडने में जन्मजात सिद्धहस्त होता है और जजमान उसे कहते हैं जो यह जानते हुए भी कि वह मुंडा जा रहा है , मुंडता है । वैसे नाई की हैसियत जजमान से कम आंकी जाती है , पर वह इतनी चतुराई से मूंडता है कि दिनों दिन उसकी हैसियत बढती जा रही है । नाई का दावा होता है कि वह अपने जजमान की खूबसूरती को बढाने वाला सेवक है । वो उस्तरा लिए पीछा कर रहा है और जजमान पीछा दुड़ाने को दौड़ रहा है । हमारे ऐसे सेवक हर पांच साल बाद , और आजकल सुना है , इनके मन में इतना सेवा भाव भर गया है कि कुछ महीने बाद ही सेवार्थ उपस्थित हो जाते हैं । आप को जरूरत हो न हो , यह आपकी सेवा में हाजि+र होकर , करबद्ध प्रार्थना -गीत गाते हैं ।
लोग सावन के अंधे होते हैं , मैं इन दिनो चुनाव का अंधा हूं , मुझे चारों ओर चुनाव ही चुनाव नजर आ रहा है । कहीं चुनाव हो रहे हैं और कहीं होने वाले हैं । वो जमाना गया, जब देशसेवक पांच साल में एक बार चुनाव लड़ लेते थे और लंबी तान कर सो जाते थे । आजकल तो राजनीति चैबीस घंटे की नौकरी हो गई है साहब ! दम मारने की फुरसत नहीं है । किसी पर कोई भरोसा नहीं रह गया है । न जाने कोई कब अपने प्रधनमंत्री होने की घोषणा करवा दे और आपकी बरसों की प्रतीक्षा पर पानी फेर दे ।
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1 टिप्पणी:

P.N. Subramanian ने कहा…

एक काम कीजिए. उन सेवानिवृत्त लोगों को इकट्‍ठा कर कंप्यूटर्स में आसक्ति पैदा करवाईए. फिर ब्लॉग्गिंग में भिड़ा दीजिए. अब वे दूसरों को परेशान नहीं कर पाएँगे. क्यों. आपने उस दिन दफ़्तर से छुट्टी ले ली थी क्या?