धोखेबाज मौसम की जय हो!
प्रजातंत्र में जैसे सबकी भूमिका निर्धारित है । राधेलाल की भी निर्धारित है। कुछ सेवा करते हैं और मेवा पाते हैं। कुछ बिना सेवा किए मेवा पाते है। पर राधेलाल जैसे प्रजाजन सेवा करते हैं और सेवा ही पाते हैं। सेवा का यह तंत्र केवल संसद के गलियारों में नहीं है, धर्म के गलियारों में भी है। अपने सेवकों को माया मोह से दूर रखने की शिक्षा का मंत्र देने वाले महंत बिन सेवा के मेवा पाते हैं। न केवल मेवा पाते हैं, मेवे का व्यापार भी करते हैं। धर्म का सिक्का राजनीति, समाज, देश-विदेश आदि, सब जगह चलता है। जो भी इसके अवमूल्यन की कोशिश करता है उसका ही अवमूल्यन हो जाता है।
तो इन दिनों प्रजातंत्र का मारा राधेलाल बेरोजगार है। राधेलाल कबीर नही है फिर भी भया उदास है। देश में आम चुनाव हो चुके हैं। इधर आम चुनाव खत्म हुए और उधर अनेक हो गए। देश में नारों की नदी सूख गयी है। नारों में जिंदाबाद किसान अब मुर्दा पड़ा है। दलित की झोपड़ी किसी बूढ़ी वेश्या के खुले द्वार -सी उपेक्षित है। गले में हार डालने का सम्मान पाई पिछड़ी जातियां पुनः जूते की नोक पर हैं। जैसे युद्ध में विजयी राजा के राजमहल में उत्सव होता है और ‘शहीद’ हुए ‘योद्धाओं’ के घर मातम पसरता है, वैसा ही कुछ प्रजातंत्र में भी पसर गया हैं। अब अगले चुनाव तक तो पसरेगा ही। इसी कारण राधेलाल फिलहाल बेरोजगार हैं।
राधेलाल की भूमिका नारेबाज की है। जैसे बिन भ्रष्टाचार नौकरशाह,पुलिस, नेता आदि बेचैन रहते हैं वैसा ही बेचैन नारा विहीन राधेलाल है। वह नारों का नशेड़ी हो गया है। बिन नारा सब सून। उसका मन करता है कि किसी फेरीवाले की तरह वह गली गली आवाज लगाए- नारे लगवा लो, नारे। सस्ते नारे लगवा लो! दो नारो के साथ चार फ्री नारे लगवा लो। उसे समझ नहीं आ रहा है कि वह करे तो क्या करे! पहला जमाना बढ़िया था, केवल चुनाव में ही नारों की आवश्यक्ता नहीं पड़ती थी। नारों का सैंसक्स हाई था। दिल्ली के जंतर -मंतर में हर समय आंदोलन का वंसत छाया रहता था। पैट्रोल या डीजल के दो रुपए बढ़ते थे तो हर गली में नारे शोभायमान होते थे हजारों रुपए की कारें फूक दी जाती थी। ग्राहक सुबह उठकर ब्रेड अंडा या मक्खन लेने जाता है तो पता चलता है कि बीस रुपए की ब्रेड पच्चीस की हो गई है, पांच रुपए का अंडा सात का हो गया है यानि लगभग बीस परसेंट महंगे हो गए हैं। गा्रहक बस आश्चर्य व्यक्त करता है,‘ इतना महंगा’ और उतना महंगा लेकर चल देता है। लगता है कि बेरोजगारी सुरसा,राफेली भ्रष्टाचार, किसानी आत्महत्या आदि परवाने चुनाव में पैदा होते है और चुनाव की शमा में जलकर मुक्त हो जाते हैं।
बेचारे राधेलाल ने बहुत देर तक प्रतीक्षा की और गिडगिड़या भी - कोई नारा तो उछालो यारों! पर प्रतीक्षा न्यायालय की तारीख पर तारीख जैसी हो गई । ऐसे में राधेलाल ने मुझे देखा और नारा उछाल दिया - धोखेबाज मौसम की जय हो!
मैंने कहा - मौसम और धोखेबाज! क्या प्रकृति में भी चुनाव का बिगुल बज गया है कि मौसम धोखेबाज होने लगा। उसे कौन-सा चुनाव लड़ना है कि वह धोखेबाज हो। मौसम तो प्रकृति के नियामानुसार चलता है।
- किस धोखेबाज मौसम की बात कर रहे हैं आप!
-यही जो आजकल हमारे देश की में चारों ओर भ्रष्टाचार -सा छाया हुआ है। बरसात का मौसम।
मैंने कहा -भीष्ण गर्मी के बाद बरसात का जो मौसम आता है उसकी जय होनी ही चाहिए। कितना सकून मिलता है। संसद में हरियाली छाती हैं । सब्सीडाईज कैंटीन में बहार आती है। देशसेवा के चातको की प्यास बुझती है। आश्वसनों की सूख चुकी चुनावी नदी में विकास की कुछ बूंदे टपकने लगती हैं। क्या बढ़िया मौसम होता है बरसात का।
राधेलाल बोला -बढ़िया! सबसे घटिया होता है बरसात का मौसम।
तभी कहीं से गाना बजने लगा-
हम तो समझे थे कि बरसात में बरसेगी शराब
आयी बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया।
राधेलाल चहका - देख लिया। इस घटिया बरसात ने किसी का दिल तोड़ ही दिया न। और जरूर किसी गरीब का दिल तोड़ा होगा।
- गरीब का दिल क्यों, अमीर का क्यों नहीं? अमीर के पास क्या दिल नहीं होता?
- अमीर के पास दिल होता है पर वो उसका प्रयोग नहीं करता। वो तो दो दूनी चार के लिए दिमाग का प्रयोग करता हैं। उसे न तो चुनाव के समय शराब चाहिए और न ही बाद में। उसे तो शराब का व्यापार करना है-चुनाव से पहले,चुनाव में और उसके बाद भी। गरीब के लिए चुनाव में शराब बरसती है और उसके आगे भी बरसने के आश्वासन मिलते है, पर नहीं बरसती। शराब की जगह बाढ़ बरसती है जिसमें झोपड़ियां मरती हैं।ये बरसात अमीर को उसके पेंट हाउस में मंहगी स्कॉच के साथ फुहार का आंनद देती है तो गरीब की झोपड़ी बहाकर उसे बेघर करती हैं।
- तो इसका मतलब ये हुआ कि बरसात सबके साथ धोखा नहीं करती, केवल गरीब के साथ करती है।
- और क्या ? धोखेबाजी चाहे मौसम करे या सरकार गरीब के साथ ही होती है। सरकारें मौसम विभाग जैसी ही तो होती हैं- अविश्वसनीय। बेचारे को आश्वासन मिलता है कि आज बरसात नहीं होगी और वह बिना छतरी के चल देता है पर बरसात के साथ कीचड़ भी बरस जाता है। और जिस दिन चुनावी घोषणा होती है कि आज खूब बरसेगा पर उस दिन सूखा पड़ जाता है और छतरी ताने गरीब का मजाक बनता है।
- प्यारे राधेलाल ! ऐसा तो नहीं है कि बरसात का मौसम हर बार धोखेबाजी करता है। कभी-कभी तो सच भी बोलता है।
- कभी-कभी सच बोलने वाला झूठा ही माना जाता है। बरसात लाख कहे कि मैंने इस्तीफा दे दिया है, कोई मानता ही नहीं हैं । कुछ लोग इस्तीफे के लिए नहीं बने होते हैं। इस्तीफा देने वाले हाथ अलग होते हैं और लेने वाले अलग होते हैं।
- कुछ भी कहो बरसात का मौसम बढिया होता है। क्या बादल घुमडते हैं, मोर नाचते हैं
- और क्या श्रीमान ढेंगू जी कटियाते हैं और क्या मच्छर रिमिक्स गाते हैं!
- क्या मिट्टी की सोंधी खुशबू मिलती है!
- क्या सीवर का पानी गलियों में सुगध बांटता हैं शहर की रफतार थमती है!
- राधेलाल यदि मौसम धोखेबाज है तो उसकी जय क्यों बोल रहे हो?
- जब सभी धोखेबाजों की जय हो रही है तो बेचारे मौसम की जय क्यों न हो? चल तूं नारा बोल न...
- कौन-सा नारा?
-यही, तूं बोल धोखेबाज मौसम की... मैं बोलूंगा-जय!
- नारे लगाने से क्या होगा ?
- तेरे दोस्त की, नारे लगाने की, खुजली मिटेगी।
मित्रो, खुजली मिटनी बहुत आवश्यक हैं। खुजली न मिटे तो आदमी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे देता है, खुजा खुजा कर अपने चेहरे को जख्मी कर लेता है, इधर-उधर फोन पर खुजियाता है और अंततः खुजली वाला कुत्ता हो जाता है। ऐसे कुत्ते भौंक नहीं पाते हैं। भौंके तो तब, जब खुजली मिटे। वे बस इस खंभे से उस खंभे पर अपने को रगड़ने में, चौरसी लाख योनियों के बाद मिला कुत्ता जीवन व्यर्थ करते हैं। राधेलाल मेरा मित्र है, मैं उसे खुजियाया कैसे बनने दे सकता था अतः मैंने बोला-लगा नारा। राधेलाल ने नारा लगाया- धोखेबाज मौसम की... । हे भक्तों, आप भी यदि खुजियाये जीव नहीं बनना चाहते तो मेरे साथ जोर से बोलें-जय!